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लेख
कार्य-कारण || आचार्य प्रशांत, ओशो और श्री रमण पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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भीतर की ओर मुड़ना ही , आत्मा है।

जब मन भीतर की ओर मुड़ता है , वह घुल जाता है।

~ रमण महर्षि

कार्य को सामने ला दो कारण प्रकट हो जायेगा।

~ ओशो

वक्ता: दो बातें हैं, दोनों को आमने-सामने रखा गया है। रमण कह रहे हैं मन ही जब अपनी खोज में जाता है तो खो जाता है; मन ही जब अपनी खोज में जाता है तो आत्मा में स्थित हो जाता है। इस बात को ओशो का एक कथन है उसके सामने रखा है जिसमें ओशो ने कार्य-कारण के तौर पर कहा है कि ‘क्रिएट दी इफ़ेक्ट, कॉज़ विल बी देयर’। जो फ़ल है, जो कारण है, उसका सृजन कर दो, पाओगे जो स्रोत है वो उपलब्ध ही था। कार्य का सृजन कर दो, कारण प्रकट हो जाएगा। कार्य को सामने ला दो, कारण प्रकट हो जाएगा — “क्रिएट दा कॉज़ इफ़ेक्ट विल बी देयर; क्रिएट दा इफ़ेक्ट कॉज़ विल बी देयर”।

दोनों बातें हैं, दिखने में अलग-अलग लगती हैं पर हैं एक सी। पहले ये बताइए कि बातें समझ में आ गई हैं? रमण कह रहे हैं कि पहले कुछ करना होगा, और क्या करना है? कि मन अपनी तलाश में निकले, अपने स्रोत की तलाश में निकले। मन पूछे कि ‘कोहम?’, मन पूछे! और जब मन पूछेगा ‘ कोहम?’ तो वो विलुप्त हो जायेगा। जितना पूछता जाएगा, और इमानदारी से — हमने बात करी थी ना तथ्यों को परखने की आज — मन अपने ही तथ्यों को जितना देखता जाएगा उतनी ही ज़्यादा घटना घटती जाएगी।

और वो घटना क्या है? मन का विलुप्त हो जाना।

ओशो कह रहें हैं कि “तुम मन को विलुप्त हो जाने दो, आत्मा स्वयं प्रकट हो जाएगी”। इसमें कुछ बात समझनी होगी, दिखियेगा इसको ध्यान से। आप अकारणीय कारण नहीं ढूंढ सकते। आप कारणों पर चल-चल के अकारण तक नहीं पहुँच सकते। आप मन पर चल-चल के, मन का अतिक्रमण नहीं कर पाएंगे; वो नहीं संभव है। हाँ, आप अगर अकारणीय में स्थित हैं, तब सारे कारण आपको अपनेआप स्पष्ट हो जायेंगे।

समझियेगा बात को। एक तरीका ये है चलने का कि मैं तर्क देता रहूँगा, तर्क देता रहूँगा, तर्क देता रहूँगा, मैं सोंचता रहूँगा, सोचता रहूंगा, और सोच-सोच कर अन्ततः जो अचिन्त्य है, उसको भी पा लूँगा, ये सुनने में ठीक लगता है और ये आपको दरवाज़े तक ले जा सकता है, पर ये आपको दरवाज़े के बाहर नहीं ले जा पायेगा। ठीक है न। आप तर्क करते रहें, तर्क करते रहें, तर्क करते रहें, कारण पर चलते रहें, तो ये बात आपको कराणों के दरवाज़े तक तो ले जा सकती है, पर अकारण में प्रवेश नहीं करा पायेगी। दूसरी ओर अगर एक झटके में ही आप सीधे अकारणीय में स्थित हो जाएँ। तो ये जितने कारण हैं – कारण माने मन — मन का पूरा काम-धाम, मन की पूरी चाल अपनेआप स्पष्ट हो जाएगी। कहने का आशय ये है कि मन के ही भीतर रहकर के तो मन को भी नहीं समझा जा सकता। मन को भी अगर वास्तव में समझना है तो कहीं ऐसी जगह आसन लगाना होगा जो मन से बाहर है। किसी ऐसे की अनुकम्पा चाहिए होगी जो मन के बाहर है।

कहा गया है लगतार, ठीक है, कि मन को मन से समझो, पर मन तो केवल भविष्य को जान सकता है और भूत को, समझने की ताकत तो वास्तव में मन के पास नहीं है। तो मन भी जब मन को समझ रहा है तो उसके ऊपर अनुकम्पा किसी ऐसे की है जो मन के बाहर है। तो जब मन भी मन को समझने के लिए उस बाहर वाले पर आश्रित है तो क्यों न आप सीधे ही उसी में स्थित हो जाओ। आप सीधे ही वहीं बैठ जाओ न।

आप कहते हो कि “मैं पहले मन की सारी प्रक्रियाओं को समझूंगा। मैं इसको देखूंगा, उसको देखूंगा, मैं ये करूँगा, मैं वो करूँगा”, सवाल ये उठता है की ये सब भी कर पाने की ताक़त मन को कौन दे रहा है?

श्रोता १: जो मन से ऊपर है।

वक्ता: ठीक है न, यही तो हो रहा है न? तो फ़िर आप सीधे वहीँ बैठ जाओ। सीधे वहीँ बैठ जाओ, किसने रोका है? हाँ, जो अभी कुछ समय तक उतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहें हैं उनके लिए तरीका ये है कि वो मन में चलते रहें। एक कहावत है किसी ने कहा है कि ‘आगे बढ़ो’, किसी ने कुछ बात कही कि ऐसा है, दूसरे व्यक्ति ने विश्वास करने से मना कर दिया। पहले व्यक्ति ने एक बात कही, दूसरे व्यक्ति ने उसपर विश्वास करने से मन कर दिया। तो पहले का जवाब था, ‘आगे बढ़ो, या तो गणित लगाओ या श्रद्धा रखो’। तो जब तक श्रद्धा नहीं है तो तब तो जाओ, अपने गुणा-भाग करलो, अपने सारे तर्क लगा लो। अपने सरे कारणों में जी लो; तुम और करोगे भी क्या! करलो, ठीक है! पर वैसा करके यही है कि बस तुम्हारा समय बहुत सारा लग जाएगा।

अगर हिम्मत हो तो एक झटके में ही श्रद्धा में चले जाओ और बात ख़त्म। तो ‘या तो गणित लगाओ या श्रद्धा रखो’। अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम कितनी हिम्मत जुटा सकते हो। हिम्मत नहीं जुटा रही है तो ठीक है गणित ही करलो, उसमें भी कोई बुराई नहीं; बस समय लगता रहेगा। हानि-लाभ देख लो, परखते रहो, कहते रहो ‘मैं पानी जांच रहा हूँ’, या एक झटके में ही कूद जाओ।

कबीर का एक दोहा है:

जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस।मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास।।

वो जो मुक्त है वैसे ही हो जाओ एक झटके में, ये इसपर है कि तुम हिम्मत कितनी जुटा पाते हो।

रमण भी कोहम विधी का प्रयोग उनको ही कहने को कहते थे जो एक झटके में ही मौन या श्रद्धा में प्रविष्ट नहीं हो पाते। वो कहते थे कि अगर तुम्हारा मन बहुत ही वाचाल है, बिल्कुल ही अनियंत्रित है, हमेशा कुछ न कुछ करना ही चाहता है, तो मैं उसको करने का एक मार्ग दिखा देता हूँ। करना तो उसे है ही, बिना करे तो मानेगा ही नहीं। तो मैं उसे करने का एक मार्ग दिखा देता हूँ, मार्ग क्या है? ‘कोहम’, कि मन से पूछो की ‘तू कौन?’ भूख लगे तो पूछो कि ‘कौन है भूखा?’, मन में आकर्षण उठे तो पूछे ‘किसको उठा आकर्षण?’, कोई अनुभव हो तो पूछो कि ‘अनुभोगता कौन था?’ – ये है कोहम विधि। कि जो भी कुछ हो रहा हो, पूछो किसको हो रहा है, किसको हो रहा है?

पर ये विधि भी सिर्फ़ उन्हीं के लिए है जो एक बार में श्रद्धा में छलांग नहीं लगा सकते। जिसने श्रद्धा में छलांग लगा दी वो मौन हो गया, उसके मन में कोहम जैसा भी कोई प्रश्न नहीं उठेगा। श्रद्धा में जो चला गया, उसे अब गणित की ज़रुरत नहीं। हाँ, जबतक श्रद्धा में नहीं जा पा रहे, तो गणित करते रहो। तो या तो गणित करो या फ़िर श्रद्धा। निष्कर्ष एक ही निकलना है दोनों से। अन्ततः तो वो मौन ही है, जो प्रथम भी है। “पहला क़दम ही आखरी क़दम होता है”; “पहली आज़ादी ही आख़िरी आज़ादी है”, तो या तो अभी झटका मार दो और कूद जाओ, कि जैसे ठण्डा पानी हो और आपको उसमें कूद ही जाना है तो दो तरह के लोग हो सकते हैं: एक, जो कहें कि ये रहा पानी और ये रहा मैं, और मैं गया कूद, और दूसरे, जो वो पानी है, जो पूल है, उसके १०-१२ चक्कर मारे और कहे कि इससे हमें फ़ायदा मिलता है। इससे हम पानी के बारें में ज़्यादा जान पा रहें हैं। भाई वो थोड़े मानसिक तौर पर बुद्धमान लोग हैं, तो कह रहें हैं कि पूल के चारों तरफ़ चक्कर मरने से हमें इस पानी के बारें में ज़्यादा जानकारी मिल रही है, इससे हमें कूदने में मदद मिलेगी। देखो जब कूदोगे तो कूदोगे ही।

रमण महर्षि कह रहें हैं कि तुम अभी कूद तो पा नहीं रहे हो, तो जबतक तुम बाहर-बाहर घूम रहे हो तो पूछो ‘कोहम’। ये कौन है जो डर रहा है पानी में जाने से? क्या पता कोहम पूछते-पूछते समझ ही जाओ, बोर ही होकर कूद जाओ कि इससे अच्छा तो कूद ही जाता हूँ। ठीक है न, तो ये तरीका है, हर तरीका सिर्फ़ उसके काम का होता है जो अभी डर रहा है, तरीके बस उनके काम के होते हैं, पर क्योंकि हम डरे ही हुए हैं तो तरीके मददगार होते हैं, उससे इनकार नहीं किया जा रहा, तरीके काम के होते हैं।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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