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लेख
कर्म और कर्मफल || (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ताः आचार्य जी, कर्म माने क्या?

आचार्य प्रशान्त: कर्म होता है और कर्म दो जगहों से निकलता है — या तो साफ केंद्र से, हृदय से, या अहंकार से। बस इतना ही। अहंकार से जो कर्म निकलेगा वह हमेशा भविष्यवाची होता है, हमेशा किसी फल, किसी मंतव्य की अपेक्षा में होता है। तो वो फिर भविष्य का निर्माण करता है। तुम आज कुछ ऐसा कर रहे हो जो हो ही कल की ख़ातिर रहा है तो अब तुम्हें कल तक जाना पड़ेगा न उसका फल लेने के लिए। अब कल तक जा क्यों रहे हो, क्योंकि पीछे कर्म का बोझ है उसके ख़ातिर अब कल तक जा रहे हो। यह तुम्हारी पीठ पर लदा कर्मफल कहलाता है, कि जब करा ही कल के लिए था तो अब कल तक चलो।

और एक दूसरा मन होता है जो कल की ख़ातिर नहीं करता। जो बस करता है। वह इसलिए नहीं करता कि किसी उद्देश की पूर्ति हो जाए, वो मात्र करता है। आज सभी गा तो रहे थे — "सारे कर्म हमारे किए, हम कर्मन से न्यारे हो।" यह दूसरा मन है। जो सारे कर्म करता है लेकिन सारे कर्म करते हुए भी कर्मों से न्यारा रहता है, कर्मों से अछूता रहता है। इसे भविष्य की कोई लिप्सा नहीं। इसके लिए कोई कर्म नहीं।

प्र: कोई आदमी किसी पर चिल्ला रहा हो, गुस्सा है, तो इसका स्थूल परिणाम यह है कि इस चिल्लाने का उसको जवाब दे दो चाहे महीने बाद या तीन महीने बाद, और उसका जो सूक्ष्म परिणाम है वह है कि जो स्वयं की मानसिक स्थिति थी, जो शांत थी उसको डिस्टर्ब किया तो उसकी सज़ा उसको तुरंत मिल गई। इसमें जो हम सूक्ष्म चीज़ देखें तो उसमें तो कर्म के फल का कुछ लेना देना है ही नहीं। आप का कर्म था तो उसकी वजह से कुछ हुआ। आपको नहीं पता सही कर्म क्या है इसलिए मानसिक रूप से परेशान हुए।

आचार्य: जहांँ स्थूल होता है वहाँ समय होता है। स्थूल के साथ समय होगा-ही-होगा। अब उदाहरण के लिए, मन पर तात्कालिक प्रभाव पड़ गया। तुम चिल्ला लिए। जिस चीज़ का प्रभाव मन पर पड़ रहा है उसका प्रभाव शरीर पर पड़ेगा ही। शरीर पर दो दिन बाद पड़ेगा, तत्काल नहीं पता चलेगा। जो कुछ भी अपूर्णता के केंद्र से किया जाता है, वह फिर समय में पूर्णता खोजता है। जहांँ तक इस तरह की घटनाओं का सवाल है कि कहीं कुछ चोट लग गई, कुछ हो गया, कुछ दुर्घटना हो गई तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है, कोई ज़िम्मेदार नहीं है। उसके लिए तुम यह नहीं कह सकते कि यह तुम्हारा कोई कर्म था। यह बड़े अहंकार की बात है कहना कि, "मेरे किसी पुराने कर्म की वजह से मुझे आज चोट लगी है।"

हम सब अलग-अलग दिखते हुए भी एक जाल के हिस्से हैं। एक ताना-बाना हैं। उसमें हर चीज़ दूसरे को प्रभावित कर रही है। जैसे सागर में अनगिनत लहरें हों। हर लहर का उठना, हर दूसरे लहर को प्रभावित करता है बिलकुल छोटे से रूप में। तो तुम्हारे साथ क्या हो रहा है यह अनंत दूसरी लहरों पर निर्भर करता है। उसमें तुम ये कहो कि तुम्हारे साथ जो हो रहा है वह तुम्हारे कारण हो रहा है, तो तुमने अपने भीतर ये ताक़त मान ली। यह तो तुमने अपने-आपको सर्वे सर्वा मान लिया कि, "मैंने अच्छा किया तो मेरे साथ अच्छा होगा और मैंने बुरा किया तो मेरे साथ बुरा होगा।" नहीं, ऐसा ज़रूरी नहीं है। हो सकता है तुमने बहुत अच्छा करा हो और तुम्हारे साथ बहुत बुरा हो जाए क्योंकि तुम्हारे पड़ोसी ने बहुत बुरा कुछ कर दिया। हो सकता है तुम खड़े हो कर के आरती गा रहे हो और तुम्हारा पड़ोसी पियक्कड़ है वो आकर गिर पड़े तुम्हारे ऊपर। तुम थोड़े ही कोई गुनाह कर रहे थे लेकिन तुम और तुम्हारा पड़ोसी कहीं-न-कहीं जुड़े हुए हैं। वह अगर बेहोश है तो उस बेहोशी की सज़ा तुम्हें भी मिल जाएगी।

दुनिया में कहीं भी दुःख है तो वह दुःख कहीं-न-कहीं तुम भी अनुभव करोगे। देखा नहीं है संत रोते हैं। कबीर सौ बार बोलते हैं कि कबीरा उदास। कबीर क्यों उदास हैं? उन्हें कोई व्यक्तिगत उदासी है? ये कर्म है। तुम मनुष्य हो और मनुष्यता को जहांँ भी पीड़ा है, जहांँ भी दुःख है उस पीड़ा को तुम भी अनुभव करोगे। ये कर्म है हम सब जुड़े हुए हैं। उसमें कभी यह नहीं कहना चाहिए कि, "मेरे व्यक्तिगत काम के कारण मुझे यह फल मिला या नहीं मिला।" यह सब बेकार की बात है।

प्र: पर इतना तो तथ्य है न जैसे मैं सड़क पार कर रहा हूंँ, और अगर मेरा ध्यान नहीं है और मैं कुछ सोच रहा हूंँ तो मेरा ऐक्सिडेंट (दुर्घटना) हो जाएगा।

आचार्य: हांँ, संभावना बढ़ जानी है।

प्र: यह तो तथ्य है न।

आचार्य: इसीलिए कर्म को तीन हिस्सों में बाँटा गया है — प्रारब्ध, संचित और आगामी। शास्त्रीय तौर पर कर्म को इन तीन में बाँट दिया गया है। इसका अर्थ ही यही है कि कुछ तो ऐसा है जो तुम्हारे व्यक्तिगत सामर्थ्य से बाहर का है उसका तुम कुछ कर नहीं सकते। प्रारब्ध पीछे से आ रहा है। तुम्हारा उससे कोई लेना देना ही नहीं। मत पूछो वो कहांँ से आ रहा है। मत कहो कि तुमने कुछ करा था इसलिए आ रहा है। बस आ रहा है। वह समझ लो मानवता का एक इतिहास है जो तुम्हारे पीछे खड़ा है और पीछे से तुमको प्रभावित कर रहा है। तुम उसका कुछ कर नहीं सकते। समझ लो वो तुम्हारे जींस की कोई बात है। कहांँ से ढूँढोगे कि कहांँ से आ रही है वो बात? कहांँ से ढूँढोगे कि कहांँ से आ रहा है तुम्हारे बालों का रंग? तो उसका तो तुम कुछ कर नहीं सकते।

और फिर होते हैं आगामी कर्म। आगामी कर्म है — जहांँ पर एक व्यक्ति की तरह तुम्हारा कुछ सामर्थ्य है। वो मत पैदा करो। होश में जीयोगे तो और कर्मफल अपने लिए नहीं पैदा करोगे। जो पुराना है वह नहीं कटेगा, वह तुम्हें झेलना पड़ेगा। लेकिन होश में जीयोगे तो कम-से-कम और नहीं पैदा करोगे। इसी आधार पर जीवन का उद्देश्य भी निर्धारित कर दिया गया है। जीवन का उद्देश्य फिर यह कह दिया गया है कि ऐसा जीवन जिओ जिसमें और कर्मफल तो पैदा हो ही ना और जो पुराना है वह कटता जाए। जीवन ऐसा जिओ कि जिसमें नई कहानियांँ तो शुरू हो ही ना और जो पुरानी कहानियांँ हैं वह समाप्त होती जाएँ।

प्र: पुराने कर्मों का अंत कैसे होगा?

आचार्य: नई कहानियांँ मत शुरू करो। नई कहानी शुरू करने का अर्थ होता है — और भविष्यों की तलाश। कुछ ऐसा करना जो भविष्य पर निर्भर हो, कामना-बद्ध जीवन जीना। कामना हमेशा भविष्य की होती है। इस तरह जीना कि जैसे कोई कल हो। और उस कल से तुम्हें उम्मीद हो। जो ऐसा जीवन नहीं जीते वह आगे के लिए कर्म नहीं पैदा करते। और पुराने कर्मों को काटने की क्या विधि है? वह विधि यह है कि पुराने कर्म उसे ही चोट पहुँचाते हैं जिसने वह कर्म किए हों, जब तक तुम उस पहचान, उस छवि से जुड़े हुए हो, तादात्म्य है तुम्हारा जिसने वो कर्म करे थे, तभी तक, मात्र तभी तक तुम्हें उन कर्मों का फल भी भोगना पड़ेगा। तुम वो इकाई रहो ही मत जिससे वो कर्म हुए थे। जैसे ही तुम कर्ता से मुक्त हुए तत्क्षण तुम कर्मफल से भी मुक्त हो गए। जब तक तुम वही कर्ता हो जो उन कर्मों के पीछे था, तब तक तुम्हें उन कर्मों का फिर भोक्ता भी बनना पड़ेगा। जो कर्ता है सो ही भोक्ता है। भोगना नहीं है तो कर्तृत्व से भी बाज़ आओ। तो यह दो बातें हैं — नया पैदा मत करो और पुराने की इतिश्री करते चलो।

प्र: आपने कहा कि कल के प्रति आशा नहीं होनी चाहिए तो क्या निराश हो जाना अच्छी बात है?

आचार्य: नहीं इसमें निराशा नहीं है, इसमें आशातीत जीवन है। निराशा तो आशा की हार है। निराशा तो ऐसा है कि आशा करी और आशा पूरी दिखती नहीं। निराशा तो ऐसा है कि आशा में अभी भी आस्था है पर उसकी पूर्ति मुश्किल दिखती है। आशातीत हो जाना दूसरी बात है। आशातीत होने का मतलब है कि हमें आशा से कोई मतलब ही नहीं रहा। सब कुछ इतना पूर्ण है अभी कि आशा क्या करनी। आशातीत होने का अर्थ है कि आशा को पीछे छोड़ आए। आशा अपूर्णता के लिए थी। हम मस्त हैं, हम पूरे हैं, हम आशा क्या करें? आशा तो तब है न जब अधूरापन हो। हमें उम्मीद कैसी? उम्मीद तो तब है न जब अभी गाड़ी आई ना हो, हमारी आ गई। वो उम्मीद क्या करनी है।

प्र२: क्या ऐसा हो सकता है कि यह कार्य मुझे अच्छा लग रहा है तो मैं कर रही हूँ, मुझे नहीं पता इसके आगे क्या होगा। क्या ऐसा हो सकता है?

आचार्य: हांँ उसमें आप यह भी नहीं कहते कि, "मुझे नहीं पता कि आगे क्या होगा", क्योंकि यह कहने में भी आप आगे का विचार कर रहे हैं।

प्र२: यह बात स्टूडेंट (छात्र) के लिए कैसा होगा?

आचार्य: आप अभी सुन रही थीं तो क्या आशा कर रही थीं कि इसका आपको कोई फल मिलेगा? यह सब सुनने में आप स्टूडेंट ही तो थीं अभी।

प्र२: एक और बात है। आपने कहा कि इतनी सारी चीज़ें होती हैं हमारे आसपास कि इन्सान यह नहीं कह सकता कि, "मेरे साथ ऐसा हुआ क्योंकि ऐसा है।" कोई सीधा समीकरण हो ही नहीं सकता क्योंकि इतना कुछ हो रहा होता है। लेकिन सर मेरा वहांँ होना ऐसा क्यों है कि मैं ऐसे पड़ोसी से सम्बंधित हूँ? यह होना भाग्य है या क्या है? मैं और कहीं पर भी तो हो सकती थी।

आचार्य: नहीं आप और कहीं नहीं हो सकती थीं।

प्र२: तो मुझे ऐसे ही माहौल में रहना था क्या?

आचार्य: नहीं, आप मेरी बात समझी नहीं। और कहीं जो होता है वह आप नहीं होती न। आप कौन हैं? आप उन्हीं स्थितियों की पैदाइश हैं। ऐसा थोड़े ही है कि आप बाहर से इस रूप में आकर डाल दी गई हैं। आप उसी मिट्टी से उठी हैं, अब आप कहीं और की कैसे हो सकती हैं? हम यह कहते हैं — अच्छा, मैं यहांँ क्यों हूंँ मैं कहीं और क्यों नहीं हो सकता था? आप कहीं और इसलिए नहीं हो सकते थे क्योंकि कहीं और होते तो वो कहीं और होता क्योंकि आप यहांँ इस कमरे के अविभाज्य अंग हैं। आप इसी कमरे की पैदाइश हैं। आप की खाल का रंग उस मिट्टी का रंग है। आपके शब्द वहांँ की हवाओं से आए हैं। तो आप कहीं और के कैसे हो सकते थे? यह जो बोल रहा है यह बोलने वाला ही कौन है? वह वहीं की परिस्थितियों का ही तो उत्पाद है। अभी कह रहा है, "मैं कहीं और होता।" कैसे होते भाई? ये ऐसी सी बात है कि गंगा तट की रेत कहे कि, "मैं समुद्र में भी तो हो सकती थी।" कैसे हो सकती थी? प्रश्न ही व्यर्थ है न। गंगा तट पर ही तो है तू, गंगा ही लेकर के आई है तुझे। तू समुद्र कैसे होती?

प्र२: मान लीजिए कि मैं हमेशा से यहाँ नहीं थी। कोई कारण होगा कि मेरी उपस्थिति इस जगह पर हो गई। और कुछ ऐसी घटना हुई जिसके बाद ये सारी चर्चा हुई।

आचार्य: नहीं, ये शुरुआत ही ग़लत है। ऐसा नहीं है कि आप हमेशा से कहीं नहीं थे। ये जो दृष्टि है संसार देखने की यह शुरुआत ही ग़लत जगह से करती है। आप ऐसा मानते हैं कि संसार है और आप उसमें कहीं से लाकर डाल दिए जाते हैं। आप जहांँ हो वहीं संसार है, और कहांँ है संसार? आप और संसार कोई अलग-अलग चीज़ हैं क्या? आप जिस दृष्टि की बात कर रही हैं न, वह दृष्टि डर की है। वह दृष्टि कहती है कि, "संसार मुझसे पहले था। और मैं कहीं से आई और वहांँ पर पड़ गई।" संसार यदि आप से पहले था तो फिर आप के बाद भी रहेगा। तो फिर आप लगातार डरे हुए रहते हैं कि, "कहीं मैं गायब ना हो जाऊँ!"

"संसार तो मुझसे पृथक है यह तो अपनी चाल चलता रहता है। मैं बीच में कहीं से आ गई एलियन * । और यदि मैं * एलियन हूंँ तो मेरा होना हमेशा संदेहास्पद रहेगा। कभी भी बुलावा आ सकता है। मेरा असली घर तो कोई और है मैं जहांँ से आई थी।" फिर आप कभी यहांँ के हो नहीं पाएँगे। अपने-आपको सम्बंधित नहीं कर पाएँगे। जो भी कोई इस दायरे में सोचता है, इस भाषा में बात करता है, वह हमेशा अपने-आपको एक विदेशी पाता है। वह हमेशा अपने-आपको ज़मीन से जुदा पाता है। उसको हमेशा यह लगता रहता है कि वह कहीं और से आया है। और कहीं और लौट जाएगा। और यह जो जगह है यह गड़बड़ जगह है क्योंकि यह घर तो है नहीं, घर तो कोई और है। तो फिर वह यहांँ पर डरा हुआ रहता है। और यहांँ जितने भी लोग हैं सब के प्रति हिंसा करता है। क्यों हिंसा करता है? क्योंकि ये उसके लोग नहीं है ना। उसके लोग तो वहांँ के हैं जहांँ से आया था। नहीं ऐसा नहीं है कि आप यहांँ है, आप वहांँ है। आप और संसार अलग अलग नहीं है। आप जहांँ है वहीं संसार है। आप जैसा देख रहें हैं आप का संसार बिल्कुल वही है। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। आप केंद्र हैं अपने संसार का। आप जिस दिन पैदा हुए थे संसार उसी दिन पैदा हुआ था। आप हो तो ये इतने सारे बाकी सारे लोग हैं।

प्र: पर संसार में तो कोई भी चीज़ अपने अनुसार नहीं होता।

आचार्य: क्योंकि तुम्हारे संसार की परिभाषा ही यही है कि वो उसमें चीज़ें तुम्हारे मुताबिक नहीं होती। तुम इतने घटिया केंद्र हो कि तुम्हारा जो संसार है उसका ये नियम है कि उसमें केंद्र के मुताबिक चीज़ें नहीं होंगी। एक घटिया गाड़ी है उसमें घटिया इंजन है तो उस‌ गाड़ी की परिभाषा ही क्या होगी? कि वो ड्राइवर के अनुसार नहीं चलेगी। तो तुम जिस संसार के केंद्र रहोगे वो संसार होगा ही अराजकता और अव्यवस्थता का। यह भूलो मत पर फिर भी तथ्य यही है कि उस संसार का केंद्र तुम ही हो। तभी तो संसार ऐसा है।

प्र: जैसा मैं हूँ संसार उसका प्रतिबिम्ब है।

आचार्य: कोई प्रतिबिम्ब नहीं है, वो तुम्हीं हो। तुम्हें जो दिख रहा है वह तुम्हीं हो।

प्र२: जैसा आप अभी कह रहे थे वैसा ही एक संस्था में कहा जाता है कि तुम कहीं और के हो, यहाँ के नहीं हो। यह संसार तुम्हारा घर नहीं है।

आचार्य: जब भी यह बोला जाएगा इससे हिंसा का जन्म होगा। जब भी यह बोला जाएगा इससे बड़ी गहरी हिंसा निकलेगी क्योंकि आपके मन में यह बैठा दिया गया है कि यह जगह आपकी नहीं है, इस जगह से आपकी कोई आत्मीयता नहीं है।

प्र२: और कहा जाता है कि मरने के बाद अपने घर जाना है।

आचार्य: बहुत झूठी और बड़ी खतरनाक बात है।

प्र२: तो मैंने जब उस संस्था की बहन को कहा कि ईश्वर जो आनन्द का स्वरूप है वो कैसे दुःख दे सकता है और यह संसार कैसे दुःखों का घर हो सकता है तो वो कह रहीं थी कि जो हमारे ग्रन्थों में लिखा है वही सही है और हमारे ग्रंथों में सारी चीज़ें लिखीं हैं और सभी भविष्य में सच्ची साबित होंगी।

आचार्य: आप वहांँ कर क्या रही थीं?

प्र२: जो मैं यहांँ कर रही हूंँ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: जैसे ऋषिकेश में भ्रम फैला हुआ है कि गुरु को हमेशा हँसते हुए रहना चाहिए पर मुझे लगता है गुरु को धीर-गम्भीर ही होना चाहिए।

आचार्य: अरे कभी-कभी स्माइल कर देता है। गुनाह हो गया क्या? तुमसे किसने कहा तुम स्माइल को पकड़ कर बैठ जाओ? अब नियम बना देना कि स्माइल नहीं करनी है। हस्ता है, खेलता है, रोता है, मुस्कुरा भी लेता है। अस्तित्व के सारे रंग फूटते हैं उससे, उसने कुछ भी वर्जित नहीं कर रखा होता है। हांँ तुम चुनाव कर लेते हो अपने पसंद और आदर्शों के आधार पर कि तुम्हें कौन सा रखना है। बाकी सारे तुम छुपा देते हो। बाकी कहते हो कि, "ना, यह होना ही नहीं चाहिए और रहेगा भी तो हम देखेंगे भी नहीं।"

प्र: ये बोला जाता है कि जो होना है वो होकर के ही रहेगा। क्या ये सही है?

आचार्य: जो होना है वो होकर रहेगा यह बिलकुल ठीक है। यह बात किसी छोटी-मोटी घटनाओं के लिए नहीं कही जाती। यह बात उस महा घटना के लिए कही जाती है जो आपकी नियति है। क्या होना है जो होकर के रहेगा? आपकी मुक्ति होनी है जो होकर के रहेगी। यह नहीं कहा जाता है कि दूध वाला दूध लाएगा, यह होकर के रहेगा। महा सत्यों को क्षुद्रताओं पर लागू नहीं कर देना चाहिए कि बिजली चली गई है तो कह दो कि "यह तो होना ही था।" एक ही चीज़ है जो होनी ही है और होकर रहेगी, वो क्या है? आपकी मुक्ति, आपका स्वयं से मिलन। वही होना है और वो होकर के रहेगा। और वो होकर के इसलिए रहेगा और उसके होने में कोई शंका नहीं है क्योंकि वास्तव में वो हुआ पड़ा है। इसलिए उसको कहा जाता है कि वह तो होकर के ही रहेगा। हो चुका है। अब शक़ क्या है? सबसे कम शक़ किस घटना में होता है? जो हो ही रही हो, जो हो ही चुकी हो। तो इसलिए उसको कहा जाता है कि होनी को टाल नहीं सकते, वह तो होकर के रहेगी। और यह बात किसी छोटी-मोटी चीज़ के लिए नहीं कही जाती।

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