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लेख
कर्म और कर्म में भेद || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: श्रीमद्भगवद्गीता, प्रथम अध्याय, अर्जुन विषाद योग। देखेंगे कि श्रीकृष्ण अर्जुन के सब भावुक, मार्मिक वक्तव्यों को किस प्रकाश में देख रहे हैं। तो अपनी ही मोहजनित पीड़ा को आगे अभिव्यक्त करते हुए अर्जुन कहते हैं:

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: |

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥३८॥

यद्यपि ये धृतराष्ट्र-पुत्र लोभ से अंधे होने के कारण कुलनाशकारी दोष से उत्पन्न पाप को नहीं समझ रहे, तो भी हे जनार्दन, कुलक्षय से होने वाले दोष को देख-सुनकर भी हम लोगों को इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए?

श्रीमद्भगवद्गीता, प्रथम अध्याय, अर्जुन विषाद योग, श्लोक ३८

तो अड़तीसवाँ श्लोक है कि ये धृतराष्ट्र पुत्र तो लोभ से अंधे हैं और कुल का नाश करने के ही घोर पाप, भीषण दोष को ये कुछ समझ नहीं पा रहे हैं क्योंकि लोभ ने दृष्टि पर पर्दा डाल दिया है। फिर आगे कहते हैं कि ‘वो ऐसे हैं तो हैं, हमें नहीं समझना चाहिए क्या?’

देखिए, बात जटिल है ठीक वैसे जैसे आदमी का अंतस जटिल होता है। एक ओर तो ये बात बिलकुल ठीक है कि कम-से-कम दुर्योधन जैसों से श्रेष्ठतर अवस्था में हैं इस वक़्त अर्जुन। व्यक्तिगत लाभ और लोभ से ऊपर उठकर कुछ और देख पा रहे हैं। लेकिन व्यक्तिगत लाभ से ऊपर, पारमार्थिक भर ही नहीं होता, सत्य भर ही नहीं होता। बीच में एक बड़ा लम्बा-चौड़ा क्षेत्र है, एक विकराल अंतराल है जिसमें तमाम तरह की ग्रंथियाँ काम करती हैं। और झूठ, असत्य वास्तव में बचा रहता है तो इसलिए क्योंकि विशुद्ध झूठ और विशुद्ध सत्य के बीच में आंशिक झूठों का एक बड़ा लम्बा फैलाव होता है जिसमें झूठ को छुपने की जगह मिल जाती है सिर्फ़ इस कारण से कि वहाँ आंशिकता है।

विशुद्ध झूठ नष्ट हो जाएगा, बच ही नहीं सकता; और विशुद्ध सत्य अनंत है, लगभग अप्राप्य है। उसकी बात क्या करें! उसे किसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं। झूठ बचा कैसे रह जाता है? झूठ बचा रह जाता है, सच की ताक़त पर; झूठ बचा रह जाता है अपने-आपको आंशिक रूप से क्षीण कर के। झूठ और सच के बीच में, हमने कहा, जो बड़ा भारी मैदान है वहाँ पर छुपा रहता है झूठ। खरा झूठ, पूरा झूठ अपनी ही सच्चाई तले ध्वस्त हो जाएगा। झूठ की सच्चाई क्या है? कि वो झूठ है। चूँकि वो झूठ है इसीलिए बच ही नहीं सकता। झूठ का अर्थ ही है, वो जो है नहीं; वो बचेगा कैसे? झूठ जिस क्षण पूर्णरूपेण अपने-आपको अभिव्यक्त कर देता है, अपना परिचय दे देता है, सच से अपना दामन पूरी तरह छुड़ाने का दुःसाहस कर लेता है, वो आख़िरी क्षण होता है उसका, फिर वो नहीं बच सकता।

हम दोहरा रहे हैं कि झूठ बचा रहता है सच की छाया में। झूठ के पाँव नहीं होते, उसे चलने के लिए सच के पाँव चाहिए; झूठ में प्राण नहीं होते, उसे चलने के लिए सच के प्राण चाहिए। वो चलता है, जीता है, खाता है, साँस लेता है, सच के प्रताप से, सच के सानिध्य में।

तो एक ओर तो दुर्योधन जैसे हैं, जिनका झूठ एकदम अनावृत है, पूरी तरह खुला, निर्वस्त्र। कोई संशय नहीं, कोई शंका नहीं कि दुर्योधन धर्म की रेखा के किस ओर खड़ा हुआ है। और दूसरे ध्रुव पर हैं कृष्ण, वहाँ भी कोई संशय नहीं कि वो किस ओर खड़े हुए हैं।

लेकिन महाभारत के ज़िम्मेदार वास्तव में वो लोग हैं जो पूरी तरह अधर्मी नहीं हैं, जो बीच में हैं; जिनका झूठ आंशिक है, जिनके झूठ ने सच से आशीर्वाद ले रखा है। धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण, कर्ण — ये हैं वास्तविक रूप से ज़िम्मेदार सारे अधर्म के क्योंकि इनके पास थोड़ा-सा सच भी है; इनके पास वो मुट्ठी भर सच है जो झूठ का प्राणदाता बन जाता है। ये मुट्ठी भर सच बहुत खतरनाक हो जाता है। ये मुट्ठी भर है न, तो ये झूठ की मुट्ठी में समा जाता है। हम दोहरा रहे हैं कि खुले झूठ से ज़्यादा घातक होता है आंशिक सच। क्योंकि आंशिक सच झूठ को दीर्घायु बना देता है, वो झूठ को छुपने की जगह दे देता है, वो झूठ को सम्मानजनक बना देता है।

अर्जुन भी इस समय आंशिकता के उसी क्षेत्र में मौजूद है। बहुत कुछ है प्रथम अध्याय में, अर्जुन के वक्तव्यों में, जिसमें आपको एक उदात्तता दिखाई देगी, एक सूक्ष्मता, निजी स्वार्थ से आगे के कुछ सरोकार। कुछ ऐसी बातें जिन्हें निःसंदेह धार्मिक कहा जा सकता है। और उसी धार्मिकता का, बल्कि कहिए छद्म धार्मिकता का, सहारा लेकर अर्जुन का मोह अपने-आपको क्रियाशील रख पा रहा है। एक श्लोक नहीं है जिसमें अर्जुन कहते हों कि, ‘और कोई बात नहीं है, मोहग्रस्त हूँ’। और वीर जब मोहग्रस्त हो जाता है तो उसकी वीरता भी कुंद पड़ जाती है, कायरता उठने लग जाती है।

लेकिन इतनी बातें कह रहे हैं अर्जुन — अभी तक कहते आए हैं, आने वाले श्लोकों में भी कहेंगे — आप कहीं नहीं पाएँगे कि अर्जुन स्पष्ट स्वीकार कर रहे हों कि, ‘और कुछ नहीं, मोह है बस, केशव। और उसी मोह के कारण हाथ थरथरा रहे हैं।‘ ऐसे नहीं कह पाते। वो बहुत सारी बातें कहते हैं; कुछ तर्क वो पहले ही दे चुके हैं, कुछ तर्क वो आगामी श्लोकों में देंगे।

एक तर्क यहाँ पर भी सुन लीजिए, और ये तर्क पूरी तरह झूठा नहीं है, इसीलिए खतरनाक है। कह रहे हैं, ‘धृतराष्ट्र के ये पुत्र, ये सब तो लोभ में अंधे हैं। हम इनसे बेहतर हैं न, तो हम वही काम क्यों करें जो ये कर रहे हैं?’ अब सुनने में ये बात कितनी ठीक लगती है कि, ‘अगर हम लड़ाई करते हैं तो हम तो दुर्योधन के तल पर उतर आए न? हममें और दुर्योधन में अंतर क्या रहा? फिर तो लड़ाई ही व्यर्थ हो गयी। लड़ाई तो धर्म बनाम अधर्म की होती है, और अगर हम दुर्योधन जैसे ही हो गए तो उधर भी अधर्म, इधर भी अधर्म; फिर लड़ाई का औचित्य क्या बचा?’ बात सुनने में कितनी सार्थक है।

इसी बात को काटने के लिए कृष्ण बताएँगे कि लड़ाई तो एक कर्म है, कर्म भले ही दोनों ओर से एक-सा दिखता हो पर आवश्यक नहीं है कि उसके पीछे कर्ता भी एक समान हो। बाण कौरवों की ओर से भी चलेंगे, बाण पांडवों की ओर से भी चलेंगे, लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि कौरव और पाण्डव एक बराबर हो गए। हाँ, कर्म मात्र को देखोगे तो धोखा हो जाएगा, लगेगा वो जो कर रहे हैं वही तुम भी तो कर रहे हो, तो दोनों बराबर हो गए। और अर्जुन का पूरा तर्क इसी बात पर आधारित है। अर्जुन कह रहे हैं, ‘अगर लड़ाई कर ली तो हम उन्हीं के जैसे हो जाएँगे न? तो फिर तो लड़ाई करने का सारा औचित्य ही स्वाहा हो गया।‘ नहीं, नहीं, नहीं!

बाण रावण की ओर से भी चलते हैं और राम के भी, पर इस कारण दोनों बराबर नहीं हो गए। वो बड़ा स्थूल और अंधा न्याय होता है जो कर्म मात्र को देखता है। जिनकी भी थोड़ी सूक्ष्म दृष्टि रही है, उन्होंने कर्ता को देखा है। एक बाण चल रहा है अधर्म हेतु, एक चल रहा है धर्म की रक्षा के लिए; दोनों में बहुत अंतर है। हाँ, ऊपर-ऊपर से वो एक जैसे हैं। वीर दोनों ओर से हुंकार रहे हैं, और कोई अनाड़ी हो उसको लगेगा हुंकार एक बराबर हैं, दोनों ही रक्त पिपासु हैं; हुंकारों में बहुत अंतर है। बाण और बाण में अंतर है, हुंकार और हुंकार में अंतर है, एक शंख और दूसरे शंख की नाद में अंतर है।

जो लोग जीवन में पैनी दृष्टि नहीं रखते, ये उनका अभिशाप है कि उन्हें अपने-आपको सीमित रखना पड़ता है बस कर्मों के विश्लेषण तक। क्योंकि उनके पास वो चेतना ही नहीं जो प्रकट कर्म के पीछे अप्रकट कर्ता को देख पाए, पहचान पाए, चीन्ह पाए। उनकी हालत वैसी है कि दो व्यक्ति अस्पताल जाते हों, एक इसलिए कि बीमार है और दूसरा इसलिए कि चिकित्सक है; वो दोनों को एक बराबर मान लेंगे। समझ में आ रही है बात?

क्योंकि दोनों का कर्म तो एक जैसा है न। दोनों चल रहे हैं और दोनों की दिशा भी एक जैसी है, और दोनों ही एक समान हड़बड़ी में भी दिख रहे हैं। वो तत्काल घोषित कर देंगे, ‘ये दोनों तो एक जैसे हैं। आपमें और उसमें फ़र्क ही क्या है?‘ अर्जुन भी उसी कुतर्क से अभी आ रहे हैं, उसी बिंदु से संचालित हो रहे हैं। और यहाँ पर अर्जुन की बात को काटने के लिए कोई प्रज्ञावान मनुष्य चाहिए, जो कि कृष्ण निःसंदेह हैं। तो अर्जुन के सब तर्कों का उत्तर आगे आएगा।

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