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लेख
जो तुधु भावै || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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वक्ता: जो तुधु भावै साई भली कार ||

जो तुझे भाता है, वही भला है| जो तुझे भाता है, सो ही भला है|

क्या भाता है उसे? क्या भाता है उसे?

अचल, अपरिवर्तनीय उसका स्वभाव है| कुछ ऐसा नहीं जो उसे उसके आसान से डिगा सकता हो, भला, चाहे बुरा |

क्या भाता है उसे? क्या कुछ ऐसा भी है जो उसे न भाता हो?

केंद्र पर वो पूर्णतया अडिग है| कोई गति नहीं है उसकी, अचल, अटल| उसके केंद्र पर भाने न भाने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता| तो नानक कह रहें हैं, ‘वही मनुष्य भला है, जो वैसा ही हो’| उसका केंद्र सदा अनछुआ रहे| वो कैसा है? पूर्ण कैसा है? उससे एक होकर, उसको जान कर, जीव को नसीहत मिलती है जीवन के बारे में| तो कैसा है पूर्ण? मूलतः, मात्र साक्षी| वैसा ही हो सके यदि जीव, तो इसी में उसकी भलाई है|

कैसा है पूर्ण-परम, व्यक्त जगत में? खिलाड़ी, लीलाकार| ऐसा ही नहीं है क्या वो? साक्षी भी है, और खिलाड़ी भी| अनछुआ भी है, और रेशे-रेशे में मौजूद भी|

नानक कह रहें हैं कि जैसा है परमात्मा, वैसे ही यदि तुम हो सको तो इसी का नाम, ‘भलाई’ है| केंद्र पर अनछुए, और बाहर मौज में| जैसे चारों तरफ उसकी लीला व्याप्त है| जैसे कुछ भी उसके लिये वर्जित नहीं है, और न ही कुछ करणीय है| सतत गतिमान है, बिना हिले| वैसे ही तुम भी हो जाओ|

जो तुधु भावै साई भली कार ||

किसी को भी, उसका स्वभाव ही भाता है| वहीँ पर आनन्द मिलेगा तुम्हें जब तुम अपने स्वभाव जैसे ही रहोगे| तो कैसा है ब्रह्म का स्वभाव? क्या है पूर्ण का स्वभाव? वही हम देख रहें हैं| क्योंकि हम देख रहें हैं इसलिये हमें व्यक्त-अव्यक्त की भाषा में बात करनी पड़ेगी| क्योंकि कभी वो हमारे लिये अव्यक्त है, और कभी व्यक्त है|

जब वो अव्यक्त है, तब वो शांत, स्थिर, साक्षी भर है, निश्चल| जिसे देखा नहीं जा सकता, जिसे छुआ नहीं जा सकता, अव्यक्त है, अदृश्य है| तब वो, वो है जिसे देखा नहीं जा सकता, पर जो आँख को देखने की ताकत देता है| तब वो, वो है जिसे सुना नहीं जा सकता, पर जो कान को सुनने की शक्ति देता है| तब वो, वो है, जिसे कहा नहीं जा सकता, पर जो सारे शब्दों में मौजूद है| ये है उसका स्वभाव| कुछ ना होते हुए सब होना, ये है अव्यक्त का स्वभाव| अव्यक्त का स्वभाव है, कुछ ना होना| कुछ ना होना, किस सन्दर्भ में? किस अर्थ में? हमारे अर्थ में| क्योंकि हमारे लिये कुछ वही है जो इन्द्रियों की पकड़ में आ जाए| जब वो अव्यक्त है, तब वो कुछ नहीं है| उसको हम उसका केंद्र कहेंगे| वहां वो कुछ नहीं है, मूलतः कुछ नहीं है| वही कुछ नहीं, जब व्यक्त होता है, तब सब कुछ है| ऐसा है वो|

नानक कह रहें हैं, ‘उसके ही जैसे हो जाओ’| वो कुछ नहीं है और इसी कारण सब कुछ है| लाओ त्ज़ु के ताओ जैसे, जो कुछ है ही नहीं| नसीहत है कि कुछ ना होने में ही तुम्हारी भलाई है| जो कुछ नहीं है, वो सब कुछ हो सकेगा| जो जितना कुछ नहीं है, वो उतना ज़्यादा सब हो पाएगा|

ब्रह्म क्योंकि पूर्णतया शून्य है, इसलिये वो समस्त ब्रह्मांड बन जाता है|

हम भी जितने खाली होते जाएंगे, उतना व्यक्त होते जाएंगे| कटे नहीं रहेंगे| उतना पूर्ण होते जाएंगे|

श्रोता १: क्या खाली होने से मतलब, संस्कारों से मुक्त होना है?

वक्ता: बस, यही समझ लो| उसके बाद संसार में, कुछ भी, कहीं से भी कटने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी|

ये पूरा जगत, जुड़ा हुआ है, संपृक्त है, इसमें आपस में कहीं रेखाएं नहीं खिची हुई हैं| इसमें कोई अंदरूनी रेखाएं हैं ही नहीं, क्योंकि ये मूलतः शून्य है| इसकी एक गति है| सब जुड़े हुए हैं| पहाड़ों से नदी का सम्बन्ध है, नदी से बादलों का सम्बन्ध है, बादलों का समुद्र से सम्बन्ध है, समुद्र का तट से सम्बन्ध है| सब आपस में जुड़े हुए हैं| और कोई किसी को ऊँचा-नीचा, भला-बुरा, सही-गलत नहीं कह रहा है|

सब अपनी-अपनी जगह स्थापित हैं, और कह पाना मुश्किल है कि कौन क्या है| क्योंकि बिना पहाड़ के बादल नहीं, पहाड़ और बादल एक ही हैं| बिना बादलों के नदी नहीं, नदी और बादल एक हैं| हमारी आंख क्योंकि उस पूरे तंत्र को एक साथ नहीं देख पाती है, इसलिये हमें काट-काट कर नाम देने पड़ते हैं| हम देख ही नहीं पाते हैं कि ये एक ही हैं| समुद्र से भाप का उठना, भाप का बादल बनना, बादल का पहाड़ से टकराना, पहाड़ों पर वर्षा का होना, वर्षा से पेड़ों का उठना| ये हमें दिखाई ही नहीं पड़ता कि ये एक ही चीज़ हो रही है क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में समय है, और जहां समय है वहां बटवारा है| फिर हम कहते हैं कि ये अलग-अलग हैं| हम नहीं कह पाएंगे कि समुद्र और पेड़ एक ही चीज़ हैं| वो एक ही है|

तो ऐसा अभिव्यक्त होता है वो, जो शून्य होता है, अनछटा, अनकटा, वहां कुछ कटा नहीं रहता, वहां सब एक है| एक सहज व्यवस्था है| जहां कोई वर्जनाएं नहीं, और कोई मजबूरी भी नहीं| जहां कुछ ऐसा नहीं है जो विशेषतया करणीय है, और कुछ ऐसा नहीं है, जो अकरणीय है| वही जंगल होता है, उसमें नये फूल खिल रहे होते हैं, उसमें पुराने फूल झड़ भी रहे होते हैं| नये शावकों का जन्म हो रहा होता है, और पुराने पशु मर भी रहे होते हैं| ना कोई विशेष उत्सव है, ना कहीं कोई मातम है| एक सहज संगीत है बस| रेखा नहीं खींच दी गई है कि जन्म होगा तो ख़ुशी मनाएंगे, और मृत्यु होगी तो रो जाएंगे| जन्म हो या मृत्यु हो, अस्तित्व के केंद्र पर कोई अंतर नहीं पड़ता| और इसी को लीला कहते हैं| इस बात को ध्यान से समझ लीजिये|

जब बाहर जो कुछ चलता रहे, उसका आपके केंद्र पर कोई प्रभाव ही ना पड़े, उस स्थिति को लीला कहते हैं|

वो मात्र तब हो सकता है जब बाहर जो कुछ चल रहा है आप उसमें चुनाव ना करें क्योंकि यदि चुनाव हुआ तो अंतर पड़ेगा| और चुनाव का अर्थ ही होता है कि उसमें अच्छा-बुरा, सही-गलत निर्धारित कर दिया गया| तब आप कहेंगे कि मैं अच्छे के पक्ष में खड़ा हूं, कि मुझे सही करना है| ब्रह्म किसी के पक्ष में नहीं खड़ा है, वो तो खेल रहा है, उसे किसी धर्म की स्थापना नहीं करनी है| नहीं, वो बिल्कुल नहीं कह रहा है कि पृथ्वी पर न्यायोचित काम ही होने चाहिये| न्याय कुछ है ही नहीं वहां पर| न्याय, धर्म, ये सब शब्द मायने ही नहीं रखते हैं पूर्ण के लिये|

संत हमसे कह रहें हैं, ऐसे ही हो जाओ| भीतर- साफ़, खाली, और बाहर- भरे-पूरे, पूर्ण, खेलते हुए, जुड़े हुए| बाहर जो कुछ हो रहा है उसमें लगातार भागीदार बनो| वहां तुम खेल के खिलाड़ी रहो, पूरे तरीके से| और भीतर? कोई खेल ही नहीं, मात्र साक्षी| बाहर खिलाड़ी, भीतर साक्षी| बाहर-बाहर गति चलती रहे, और भीतर अगति बनी रहे| यही है परम का स्वभाव, यही भला है| जो तुधु भावै साई भली कार ||

हम कहते हैं कि मन का उसमें विलय हो जाना चाहिये| क्या अर्थ है इसका? इसका अर्थ यही है कि मन को उसके जैसा ही हो जाना चाहिये|

कहते हैं ना कबीर-

जो तू चाहे मुक्त को, छोड़ दे सब आस ||

मुक्त जैसा ही रहे, सब कुछ तेरे पास ||

वो जो परम मुक्त है, देखो कि वो कैसा है| वो जैसा है, वैसे ही हो जाओ| यही है मन का आत्मा में विलय, कि मन आत्मा जैसा ही हो जाए|

तो यदि पूछो कि आत्मा का स्वभाव क्या है| तो उत्तर होगा कि कोई स्वभाव नहीं है आत्मा का| आत्मा, शून्य स्वभाव है| कोई स्वभाव नहीं है उसका| हां, जब वो अभिव्यक्त करती है अपने आप को, तब उसके कुछ गुण देखने को मिलते हैं, जो होंगे| तुम्हें उन गुणों की परवाह करने की ज़रुरत नहीं है| तुम्हें तो ये देखना है कि आत्मा का, परम का, मूल स्वभाव क्या है| वो यदि होगा, तो अभिव्यक्ति अपने आप हो जाएगी| केंद्र ठीक होगा, तो परिधि पर जो होगा वो अपने आप ठीक हो जाएगा|

आत्मा का मूल गुण है, निर्लिप्तता| लिप्त हो जाना माने, चिपक जाना| आत्मा का मूल गुण है निर्लिप्तता, भागीदार नहीं| वही आत्मा जब अभिव्यक्त होती है, तो उसकी अभिव्यक्ति कैसी होती है? लीला| और लीला क्या है? खेलना, जम कर खेलना|

‘भीतर निर्लिप्तता, बाहर लीला’|

पर लीला, करने की चीज़ नहीं है कि हम लीला कर डालेंगे| लीला तो सहज फल है निर्लिप्तता का|

बाहर तुम खेल सको, उसके लिये आवश्यक है कि भीतर पहले निर्लिप्त रहो, साक्षी रहो, अनछुए रहो| जो भीतर से अनछुआ है, वही बाहर-बाहर, पूरे तरीके से खेल सकता है, सबका हो सकता है, पूरे से जुड़ सकता है, समष्टि का अंग बन सकता है| अन्यथा, बाहर भी, जीवन में भी, वो कटा-कटा रहेगा, हिस्सों में बटा रहेगा| जिसका केंद्र पूरी तरह साफ़ नहीं, जिसके केंद्र पर प्रभाव हैं, कब्जे हैं, वो जगत में भी प्रभावित ही रहेगा| मन की बात कर रहे हैं हम क्योंकि मन का ही आखिरी सिरा है वो केंद्र| स्वाभाविक-सी बात है कि हमें लगता है कि ‘हम’ जानें कि हम परम को कैसे भा सकते हैं| नानक कह रहें हैं, ‘जो तुझे भावे, सो भला’|

मन का आदिकालीन प्रेम है उससे| बड़ी पुरानी कहानी है| तो मन जानना चाहता है कि कैसे उसे भा जाऊं, कैसे उसे पसंद आ जाऊं| यही एक प्रश्न है जो मन के सामने हमेशा रहता है| ‘कैसे उसे भा जाऊं?’ भले ही मन को स्वयं भी ये पता हो, या चाहे ना पता हो पर जूझ मन हमेशा इसी एक प्रश्न से रहा है कि पिया को पसंद कैसे आ जाऊं| क्या करूं कि उसे पसंद आ जाऊं? ‘वो मुझे भा ले| वो मुझे स्वीकार कर ले’|

तो यही है समाधान| उसको वही पसंद हैं जो उसके जैसे हैं| क्योंकि जो है, सो वही है| इसलिये उसे वही पसंद हैं, जो उसके जैसे हैं| जितना उसके जैसे होते जाओगे, उतना उसके करीब आते जाओगे| जितना उसके करीब आते जाओगे, उतना उसके जैसे होते जाओगे| जितना करीब आते जाओगे, उतना उसे पसंद आते जाओगे| जितना उसे पसंद आओगे, उतना और करीब आओगे| उसे वही पसंद, जो उसके जैसा| तो जानो कि वो कैसा है, और यदि अपने मानस में पाते हो कि उसके विपरीत गुण भरे हुए हैं, उसके विपरीत धारणाएं बैठी हुई हैं, तो जान लो कि ये धारणाएं तुम्हें दुःख ही देंगी, उससे दूरी ही देंगी| उन धारणाओं को त्याग दो| समझ में आ रही है बात? चाहते तो हो कि उससे मिल जाओ, पर उससे मिलोगे कैसे जब तक उसके जैसे नहीं हो? वैसे ही हो जाओ|

वैसा होने के लिये जानो कि वो कैसा है|

“ब्रह्म विद् ब्रह्मैव भवति “||

जानो कि ब्रह्म कैसा है, फिर वही हो जाओगे, और यही परम भलाई है| यही परम शुभ है, यही परम कल्याण है| उसको जानना, उसके जैसे हो जाना, उससे मिल जाना| उपनिषद् बड़े सार्थक और बड़े बोधपूर्ण तरीके से कहते हैं,

“तद पश्यति, तद भवति, तदासीत “||

“उसको देखा, उसके जैसे हो गया| अरे! मैं तो सदा ही वो था”|

“तद पश्यति, तद भवति, तदासीत “||

“उसको देखा, देखते ही उसके जैसा हो गया”| और जैसे ही उसके जैसा हो गया, तो जाना कि फालतू ही भटक रहा था| मैं तो सदा ही यही था| कब ऐसा रहा है कि मैं ये ना रहा होऊं, बस भ्रम था| भ्रम हटा नहीं कि काम हो गया|

उधर को ही नानक का भी इशारा है| सागर की लहर, सागर के विरुद्ध तो नहीं जा सकती ना? जो सागर का स्वभाव, सो लहर का स्वभाव| काहे में है लहर का हित? लहर का हित उसी में है कि वो सागर जैसी ही रही आए|

तो उसके जैसे रहे आओ| ठीक है? यही है|

-‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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