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लेख
जिसकी ओर बढ़ रहे हो, उसे दिल में बसाकर बढ़ना || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
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बुल्लिआ हिजरत विच्च इस्लाम दे मेरा नित्त है खास आराम। नित्त नित्त मराँ ते नित्त नित्त जीवाँ मेरा नित्त नित्त कूच मुकाम।

मैं भी हज़रत पैगम्बर की तरह हिज़रत करता हूँ, यात्रा करता हूँ, लेकिन मेरी यात्रा ऐसी है जो तब शुरु होती है, जब मैं बिलकुल शान्त, आराम, विश्राम की हालत में होता हूँ। मेरा मंज़िल की तरफ सफ़र ऐसा है कि मैं रोज़ मरता हूँ, रोज़ जी उठता हूँ क्योंकि भीतर की यात्रा ही कुछ ऐसी है जिसमें जीना-मरना साथ-साथ है।

~ बाबा बुल्लेशाह

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, बाबा बुल्लेशाह कहते हैं कि मेरी यात्रा ऐसी है कि वो तब शुरू होती है जब मैं बिलकुल शान्त, आराम की अवस्था में होता हूँ। परन्तु मेरी यात्रा जैसी है और जब से शुरू हुई है, वो शान्ति और आराम की हालत में तो नहीं चल रही है। तो क्या मेरे भीतर की यात्रा अभी शुरू भी नहीं हुई है?

भीतर की यात्रा ही कुछ ऐसी है जिसमें जीना-मरना साथ-साथ है। आचार्य जी, साथ-साथ जीने-मरने की मन की यात्रा कैसे की जा सकती है? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: इन पंक्तियों को थोड़ा समझेंगे। जो अर्थ आपने लिखकर के भेजा है, अर्थ उससे थोड़ा ज़्यादा गहरा है। चलिए, कोई बात नहीं।

बुल्लेशाह कह रहे हैं कि नित्य की ओर यात्रा — ये जो नित्त आया है न — यही नित्यता सब धर्म का ध्येय है। यही नित्यता सब धर्म का ध्येय है। किस यात्रा की अब बात कर रहे हैं बुल्लेशाह? बुल्लेशाह कह रहे हैं, “मेरी हिज़रत इसी में है कि मैं नित्य में जीता हूँ और नित्य में ही मरता हूँ। मेरा नित्त-नित्त कूच मुकाम। यात्रा भी उसी में है और मंज़िल भी वही है। कूच भी उसी में है और मुकाम भी वो ही है।“

तो समझाना क्या चाह रहे हैं? समझाना ये चाह रहे हैं कि दुनिया में यात्रा कैसे करनी है, दुनिया में जीना कैसे है। यात्री हम सभी हैं, जीवन एक यात्रा है। समय बीतता है, तुम अभी यहाँ हो, तुम कहीं और हो जाते हो। तुम अभी ऐसे हो, तुम अब वैसे हो जाते हो।

तो कैसे जिया जाए? ये प्रश्न ऐसा ही है, जैसे कोई पूछे, 'यात्रा कैसे करनी है?' जीवन यदि यात्रा है तो जीने की कला यात्रा करने की कला है। ठीक?

यात्रा कैसे करनी है?

प्रश्न गम्भीर है क्योंकि अभी तुम कुछ और हो, थोड़ी देर में कुछ और हो जाते हो। ये यात्रा ऐसी है जिसमें यात्री ही बदल रहा है। कैसे जियें? क्या करें? बुल्लेशाह अपना उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं। बोलते हैं, ‘देखो, मैं कैसे जी रहा हूँ। जैसे मैं जी रहा हूँ, वैसे ही जी लो। अपनी बात बताये देता हूँ, तुम्हें रुचे तो अपना लो।’

“मेरा नित्त है ख़ास आराम।“ जगत में जबतक हो तब तक तुम्हें तनाव और बेचैनी अनुभव होते ही रहेंगे। इन सबको बाहर-ही-बाहर रहने देना। कभी एक प्रकार का तनाव होगा, कभी दूसरे प्रकार का तनाव होगा, कभी सुख का तनाव होगा, कभी दुख का तनाव होगा। सब गुज़रते जाएँगे एक के बाद एक करके। बाहर-बाहर तनाव रहा आये, भीतर नित्यता रहे आराम की।

यात्रा कैसे करनी है, ये समझ रहे हैं हम। यात्रा में कभी दिन होगा, कभी रात होगी; कभी थकान होगी, कभी ऊर्जा होगी; कभी उदासी होगी, कभी उत्साह होगा। ये सब बाहर-ही-बाहर रहें, भीतर एक-भाव, समभाव बना रहे। उसी का नाम बुल्लेशाह दे रहे हैं ‘आराम’। भीतर वो आराम बना रहे। बाहर आराम मिलने नहीं वाला क्योंकि पथिक हो, यात्री हो तुम। पथिक को तन-मन का कैसा आराम!

कभी ये झमेला आएगा, कभी वो झंझट आएगा पैदा हुए हो तो ये सब तो लगा ही रहेगा। पर जीवन जीने की कला इसमें है, यात्रा की कला इसमें है कि झंझट बाहर-बाहर लगे रहें और भीतर एक चीज़ है जो नित्य रहे, कभी न डिगे, और उसका नाम है आराम।

ऐसे करनी है यात्रा।

इसी तरह कह रहे हैं, “नित्त नित्त मराँ ते नित्त नित्त जीवाँ।” प्रतिपल बदल रहे हो तुम इस यात्रा में। अभी ये हो, अभी वो हो; कोई एक पहचान नहीं है जो शाश्वत है। और जब कोई एक पहचान शाश्वत नहीं होती तो बड़ा हड़कम्प मचा रहता है। कभी तुम्हें कुछ बनना होता है, कभी तुम्हें कुछ बनना होता है।

जैसे कि रंगमंच पर हो जहाँ हर पाँच मिनट में तुम्हारा किरदार बदल जाता है, तुम टिक ही नहीं पाते। तुम चैन की साँस ही नहीं ले पाते, सेटल (स्थापित) ही नहीं हो पाते। जहाँ तुम सोचते भी हो कि अब कोई चीज़ ठहरी, थमी, टिकी, तहाँ वो बदल जाती है। जो भी चीज़ लगता है कि अब थोड़ी स्थायी हुई वही गुज़र जाती है।

तो बुल्लेशाह हमें समझा रहे हैं, कह रहे हैं — ये जो मंच पर जीने-मरने का खेल लगा हुआ है, ये जो मंच पर निरन्तर बदलती पहचानें हैं, इनके पीछे, इनके नीचे, इनके मूल में एक पहचान तुम्हारी शाश्वत रहे, और वो है नित्यता की। अन्यथा जी नहीं पाओगे, यात्रा नहीं कर पाओगे।

बाहर-बाहर पहचानें बदलती रहें। जीना-मरना माने पहचानों का बदलना। अभी तुम पति थे, अब तुम डॉक्टर हो गये। उतनी देर के लिए पति छूट गया, पीछे चला गया, मर गया; डॉक्टर ज़िन्दा हो गया। और अभी घर आओगे, डॉक्टर फिर मर जाएगा, पति पुनर्जीवित हो जाएगा।

अभी तुम ज्ञानी हो, थोड़ी देर में पता चला कि जो बोल रहे थे वो ग़लत था, अपनी नज़रों में अनाड़ी हो गये। ज्ञानी मर गया, अनाड़ी ज़िन्दा हो गया। थोड़ी देर में कहीं से फिर ज्ञान आ जाएगा, कहोगे, ‘मैं ज्ञानी हूँ', अनाड़ी फिर मर जाएगा।

“नित्त नित्त जीवाँ ते नित्त नित्त मराँ।” ये जीने-मरने का खेल बाहर-बाहर चलता रहे। भीतर तो तुम वो रहो जिसका न जन्म होता है न मृत्यु। बाहर पहचानें बदलती रहें, भीतर तुम अनन्त, अमर, शाश्वत, अविनाशी आत्मा रहो। बाहर तो विनाश का ही खेल है, बाहर तो कभी कोई पैदा होगा कभी कोई मरेगा, संसार में और है क्या! कोई आ रहा है, कोई...।

“मेरा नित्त नित्त कूच मुकाम।“ ऐसे जियो जैसे लक्ष्य मिला ही हुआ है। यात्रा का गुण, यात्रा का हुनर यही है। कूच यूँ करो जैसे मुकाम पर पहुँचे ही हुए हो। संसार में ये बात अजीब लगेगी क्योंकि संसार में तो कूच उत्साह और ललक के साथ तभी होता है जब मुकाम दूर हो। तुम कहते हो, 'आगे बढ़ो, हासिल करना है।'

पर अध्यात्म की यात्रा दूसरी होती है। अध्यात्म में परमात्मा की ओर बढ़ा जाता है परमात्मा को हृदय में बसा के। क्योंकि अगर वो हृदय में बसा नहीं हुआ है तो तुम उसकी ओर बढ़ ही नहीं सकते। यानी कि जिसके पास पहुँचना है, पहले उसको दिल में बसाया जाता है, उसे बिलकुल पास बैठाया जाता है, तब उसके पास पहुँचते हो। मुकाम के पास पहुँच जाओ, फिर कूच करो मुकाम की ओर। ये बात ही अजीब है सुनने में!

अब इतना समझा के बोलें तो अजीब ही हो जाएगी। बाबा बुल्लेशाह को कितनी आज़ादी है, कितनी बे-फ़िक्री है, दो पाँत में सब बोल गये।

“मेरा नित्त-नित्त कूच मुकाम।“

ये बात बहुत बाद में ज़ेन ने भी बोली। और बहुत दूर, बिलकुल अलग सन्दर्भ में — ”वन्स यू रीच द माउंटेन टॉप, कीप क्लाइम्बिंग।” (एक बार जब आप पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाते हैं, तो चढ़ाई जारी रखें।) बल्कि असली चढ़ाई शुरू ही तब होती है जब तुम पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाते हो। उससे पहले क्या चढ़ाई करी तुमने!

यात्रा की शुरुआत ही तब होती है जब तुम मंज़िल पर पहुँच गये।

तो यात्रा करनी है तो तुम्हें इसी धारणा, इसी धर्म के साथ करनी होगी कि मंज़िल अति निकट है। ‘मैं मंज़िल ही हूँ। मुझमें और मंज़िल में कोई अन्तर नहीं।’ और धर्म के लिए ये जितना आवश्यक है कि तुम परमात्मा को अपने अति निकट मानो, उतना ही ख़तरनाक भी है अगर तुमने परमात्मा को हृदय की जगह मन में बैठा लिया।

सावधान कर रहा हूँ।

जब ये मानोगे कि परमात्मा हृदय में तो है पर और कहीं नहीं, बहुत दूर है, तो यात्रा कर पाओगे। पर अगर तुमने परमात्मा को विचार बना लिया और कह दिया, “अहम् ब्रह्मास्मि — मैं परमात्मा ही हूँ।” तो तुम्हारी यात्रा शुरू ही नहीं होगी।

तो एक ओर तो तुममें विरह होनी चाहिए कि बहुत दूरी है, बहुत दूरी है, और दूसरी ओर, जिससे दूरी है उसे हृदय में बैठाना होगा ताकि दूरी को पाट सको। ये बात समझने में आसान नहीं है, समझो इसको। एक ओर तो लगातार विरह का दुखदायी अहसास होना चाहिए और दूसरी ओर ये विश्वास या श्रद्धा भी होनी चाहिए कि जिसको पाना है वो पराया नहीं, वो बैठा तो यहीं है। बैठा यहीं है, बस दिख नहीं रहा।

ये समझना ज़रूरी है। पास है पर दिख नहीं रहा। तो यात्रा पाने के लिए नहीं है, यात्रा उद्घाटित करने के लिए है। दर्शन के लिए यात्रा है, प्राप्ति के लिए नहीं। है तो यहीं पर, यात्रा इसलिए कर रहा हूँ कि दिख जाए, दूर नहीं है।

अगर तुमने ये मान लिया कि यहीं पर है और मैं उसे जानता भी हूँ, तो तुमने फिर उसे हृदय में नहीं मन में बैठाया। क्योंकि तुम जिस ज्ञान की बात कर रहे हो, वो तो मानसिक है, वो मन का एक विचार है। जो लोग परमात्मा को मन का विषय, मन की एक वस्तु बना लेते हैं, वो कहीं के नहीं रहते।

भक्त में दोनों बातें होनी चाहिए — एक विकल वेदना कि मुझ सा गिरा हुआ कौन है कि इतनी दूरी बना ली मैंने और दूसरी ओर एक अडिग श्रद्धा कि हो तो तुम यहीं पर, छुपते कब तक फिरोगे?

"क्यों ओहले बै बै झाकी दा इह पर्दा किस तों राखी दा।"

~ बाबा बुल्लेशाह

किससे पर्दा कर रहे हो? और कब तक करोगे पर्दा, खोज ही निकलूँगा।

न तो ये कह देना है कि बहुत दूर है और न यही कह देना है कि मैंने पा ही लिया, मुट्ठी में है। पास होकर भी दूर है। और यही तो वेदना है कि इतना पास फिर भी इतने दूर। अगर सिर्फ़ दूर होता तो यात्रा ही नहीं कर पाते। अगर सिर्फ़ पास होता तो यात्रा करें क्यों?

अगर सिर्फ़ दूर होता तो यात्रा करते कैसे? क्योंकि सारी ऊर्जा, सारी शक्ति तो उसी से आनी है और अगर वो दूर है तो यात्रा करने की उर्जा ही नहीं आएगी। अगर सिर्फ़ दूर होता तो यात्रा कर नहीं पाते। अगर सिर्फ़ पास होता तो यात्रा की ज़रूरत क्या है?

जीवन की यात्रा हमें इसलिए करनी है क्योंकि वो पास है तो, पर हमारी नज़रों में दूर है। वास्तव में पास है, हमारी नज़रों से दूर है। तो ये है जीवन की यात्रा करने का हुनर।

और वही है जीवन की यात्रा का एकमात्र लक्ष्य। उसके अलावा जीने का कोई लक्ष्य नहीं है। आप कितना भी बोल लो कि मेरा ये विज़न (दृष्टि) है, मेरा वो सपना है, सब बेकार की, दो कौड़ी की, बचकानी, विक्षिप्त बातें हैं। आप बता दो कि मैं ये करना चाहता हूँ, वो करना चाहता हूँ, मेरे जीवन का लक्ष्य ये है कि एक दिन आदमी मंगल ग्रह पर कॉलोनी बनाये, आप बेवकूफ़ी की बातें कर रहे हो। आप जानते ही नहीं हो आप हो कौन।

मंगल ग्रह क्या है, गहराई में उतरकर देखोगे तो तुम्हारे सपने का एक कंकड़ है मंगल ग्रह। तुम्हारे सपने का एक कंकड़ जीवन का लक्ष्य कैसे हो सकता है!

तुम और बड़ी बातें कर लो कि मेरे जीवन का लक्ष्य ये है कि मैं पृथ्वी को क्लीन (साफ़) और ग्रीन एनर्जी (हरित ऊर्जा) देना चाहता हूँ। तुमने बहुत बड़ी बात कह दी, तालियाँ! लेकिन फिर भी तुम जो कह रहे हो, वो जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता।

जीवन का तो एक ही लक्ष्य है। और वो जानने के लिए तुम्हें पता करना पड़ेगा तुम कौन हो? जब तुम्हें यही नहीं पता तुम कौन हो, तो तुम इधर-उधर के विज़न और मिशन की क्या बात करते हो?

पर हम बिलकुल बहक जाते हैं, हम बिलकुल प्रभाव में आ जाते हैं। कोई कहता है कि मेरे जीवन का ये लक्ष्य है कि अगले दस साल में अपनी कम्पनी की शाखाएँ दस और देशों में खोलनी हैं और इसका टर्नओवर मुझे बीस गुना कर देना है। हम कहते हैं, 'क्या बात है! क्या बात है!' कौनसी कम्पनी, कौनसे देश? कहाँ हैं देश? किस कम्पनी की बात कर रहे हो? कौन हो तुम? कुछ होश भी है?

प्र: प्रणाम आचार्य जी। अष्टावक्र गीता, प्रकरण दो, श्लोक क्रमांक तीन में ऋषि कहते हैं कि शरीर सहित इस विश्व को त्यागकर, किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है।

ये कौनसा कौशल है जो साधक को अपनाना चाहिए? एक सत्संग में आपने कहा था कि जब भी कोई वासना या विकार आये तो उससे कहना कि कल आना। क्या ये इसी तरह का कौशल है या कुछ और? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य: कोई एक विशिष्ट कौशल होता तो मुनि अष्टावक्र ही बता गये होते न। उन्होंने भी देखो, बात को खुला छोड़ दिया है, *ओपेन एंडेड*। कह रहे हैं, “शरीर सहित इस विश्व को त्यागकर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है।“

'किसी कौशल द्वारा', कोई विशिष्ट कौशल नहीं है। कोई कौशल है और वो कौशल फिर किस पर निर्भर करता है? वो आप पर निर्भर करता है। आत्मा में तो कोई कुशलता होती नहीं, सब कुशलताएँ और अकुशलताएँ अहंकार की ही होती हैं। माने किसके कौशल की बात हो रही है? उसी के कौशल की बात हो रही है जिसको मुक्ति चाहिए। आत्मा को मुक्ति चाहिए नहीं, अहम् को मुक्ति चाहिए स्वयं से। तो ये कौशल भी फिर किसको आना चाहिए? अहम् को आना चाहिए।

क्या कौशल है जिसकी बात हो रही है? अपने बन्धन को पहचानो और उसे तोड़ने की युक्ति खोज निकालो। कैसे खोज निकालोगे वो युक्ति? उसके लिए बुद्धि है, उसके लिए प्रेम है, उसके लिए तुम्हारे पास स्मृति है और ज्ञान है।

पशु अगर बन्धन में है, पाश में है, तो उसके लिए पाश से निकलना बड़ा मुश्किल है। क्यों? क्योंकि साधन नहीं दिये गए न उसको। मनुष्य को साधन दिये गए हैं। सबसे बड़ा साधन है मन, चेतना। और मन के ही हिस्से हैं बुद्धि, स्मृति; मन की ही सामग्री है ज्ञान, इन सबका प्रयोग करके अपने बन्धनों को पहचानते हुए काटते चलो।

अक्ल वैसे तो हमारी छोटे-छोटे मसलों पर ख़ूब चलती है, चलती है न? ज़रा-ज़रा सी बात पर बुद्धि ख़ूब लगा देते हो। जब मुक्ति का मुद्दा आता है तो अक्ल का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? तब भोंदू क्यों बन जाते हो? जहाँ खोपड़ी चलनी चाहिए वहाँ क्यों नहीं चलाते?

एक बार दिख गया कि हथकड़ी लगी हुई है, अब बुद्धि क्यों नहीं लगा रहे कि इसको काटें कैसे, खोलें कैसे, चाबी कैसे हासिल करें? या बुद्धि इसीलिए है कि उसे फ़िज़ूल के मसलों में व्यर्थ करो?

जो कुछ है आपके पास सब आपके कौशल का हिस्सा है, लेकिन उसके लिए पहले पहचानिए कि आपके बन्धन क्या हैं, और कुशलता से उन्हें काटिए। इस काटने के पश्चात् ही वो होता है जिसका उल्लेख है “मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन होता है।“ अहम् को परमात्मा का दर्शन होता है जब अहम् स्वयं को ही साधन बनाकर स्वयं के ही बन्धन काट देता है।

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