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जिसके हुक्म से संसार है || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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हुकमी होवनि जिअ

~ जपुजी साहिब

वक्ता : हुकमी होवनि जिअ,

हुक्म से समस्त जीव हैं। जीव मात्र ‘उसकी’ इच्छा से है। जीव का क्या अर्थ होता है?

श्रोता : कॉनशसनेस (चेतना)।

वक्ता : जीव का अर्थ होता है – वो, जो संसार को संसार देखे; सो जीव। हम, तुम, पेड़, पशु।

श्रोता : सर, ‘जीव’ का मतलब कॉनशसनेस नहीं होगा?

वक्ता : हाँ, बिल्कुल, ‘जीव’ का मतलब चेतना। समस्त चैतन्य प्राणी जीव हैं।

‘चेतना’ क्या है? ‘चेतना’ का अर्थ है – वो जिसमें समस्त द्वैत उदित होते हैं। ‘चेतना’ का अर्थ है – जानना। बोध नहीं, जानना। ऐसे जानना कि जिसमें एक ज्ञाता, और एक ज्ञेय है। एक सब्जेक्ट(ज्ञाता) और एक ऑब्जेक्ट(ज्ञेय) है। जहाँ कहीं भी सब्जेक्टिविटी है, उसी का नाम, ‘जीव’ है। इसीलिए मैंने कहा, “जीव वो, जो संसार को संसार देखे”। संसार हमेशा जीव का क्या होता है?

श्रोतागण : ऑब्जेक्ट (ज्ञेय)।

वक्ता : ऑब्जेक्ट। जो ज्ञेय वस्तु है, वो संसार है। समझ में आ रही है बात? जो ज्ञेय वस्तु है, उसी का नाम ‘संसार’ है। इसी कारण, जिसका का भी ज्ञान हो सके, सो संसार – ये ही संसार की परिभाषा है। जो कुछ भी ज्ञान में समाँ सके, सो संसार। जो कुछ भी मन में समाँ सके, सो संसार। इसी कारण, जब तुम ‘परम’ का चित्र बनाते हो, तब उलझन खड़ी कर लेते हो, क्योंकि तुमने परम को अपनी चेतना बना रखा है। तुमने उसको भी ऑब्जेक्टीफाई कर दिया, तुमने उसको भी वस्तु बना दिया। तो क्या कहा जा रहा है हमसे?

“हुकमी होवनि जिअ”

समस्त द्वैतों के मूल में जो अद्वैत है, उसी की इच्छा से सारे द्वैत पैदा होते हैं, उदित होते हैं। और “द्वैत है,” ये भी कौन कहता है? द्वैत स्वयं कहता है, द्वैत के अलावा कोई नहीं कहता कि “द्वैत है”।

संसार है,” ये कौन कहेगा? सिर्फ़ जीव। जीव के अलावा और कौन है, जो कहेगा, “संसार है”? इसलिए हमने शुरू में ही ‘संसार’ को परिभाषित क्या किया? वो, जिसका संज्ञान जीव ले; सो संसार। कॉनशसनेस (चेतना) का अर्थ ही यही होता है – वो, जिसमें वस्तुएँ उठें और गिरें, जिसमें शुरुआत है और जिसमें अंत है। जिसमें कुछ उदय होता है, जिसमें कुछ अस्त होता है; वही चेतना है।

श्रोता : मोशन (गति) जिसमें हो?

वक्ता : हाँ, जहाँ सारी गति है, जहाँ सारे रूप हैं, सारे आकर हैं, जहाँ वो सब कुछ है, जिसको तुम ‘होना’ कहते हो, जिसको तुम एक्सिस्टेंट(विद्यमान) कहते हो। वो जहाँ है, उसको ‘चेतना’ कहते हैं। चेतना मानसिक है, मन ही चेतना है। ‘बोध’ बिल्कुल दूसरी बात है। इसीलिए, अक्सर कहता हूँ कि – आत्म-ज्ञान और आत्म-बोध – इनमें अंतर करना सीखो।

सेल्फ- कॉनशसनेस इज़ नॉट सेल्फ अवेयरनेस (आत्म-ज्ञान, आत्म-बोध नहीं है)। ‘बोध’ का अर्थ है – वहाँ पहुँच जाना, जहाँ द्वैत है ही नहीं। वो बिंदु, ‘समझ का’ कहलाता है, ‘बोध का’, ‘वास्तविक रूप से जानने का’, ‘अंडरस्टैंडिंग का’। यही अंतर है, ज्ञान में और बोध में, नॉलेज और अंडरस्टैंडिंग में। और वही अंतर है, जीव में और आत्मा में।

जीव, जब अपनी आत्मा में स्थित होता है, तो उसको हम कहते हैं कि वो ‘बोध-युक्त’ है। समझ में आ रही है बात? जीव अपने होने के हज़ार कारण खोजता है। बस एक बात है जो उसे स्वीकार नहीं होती कि – “मेरा होना किसी की अनुकम्पा से है”- इस बात से उसे बड़ी बेचैनी होती है। जीव हमेशा कारण खोजता है, समस्त कारणों के मध्य में वो स्वयं बैठा होता है, उसका अहंकार बैठा होता है। और जो बात नानक कह रहे हैं, ये बात जब भी जीव सुनता है, तो तिलमिला जाता है।

नानक कह रहे हैं, “*हुकमी होवनि जिअ*”। नानक कह रहे हैं, “तूने ये जो संसार रचा है, ये तेरी सामर्थ्य से नहीं है। तूने ये जो पूरा खेल, ये जो महल खड़े करे हैं, ये तेरी योग्यता, पात्रता से नहीं हैं”। नानक कह रहे हैं, “ये तो किसी का हुक्म है, कृपा है। इसमें ज़रा भी श्रेय लेने की कोशिश मत करना। कुछ भी नहीं है, बित्ता-भर भी नहीं, जो तुमने अपनी पात्रता से पाया है। मात्र एक पात्रता हो सकती है तुम्हारी कि – तुम ये जान लो कि तुम्हारी पात्रता नहीं है। और ये पात्रता भी तुम्हें उसकी अनुकम्पा से ही मिलेगी”।

“हुकमी होवनि जिअ,”

जहाँ जीव, तहाँ संसार। नानक कह रहे हैं, “तुम्हारा ये सारा संसार इसलिये है क्योंकि तुम जीव हो”। तो जियो। जब तक तुम जीव रूप देखते हो अपने आप को, तब तक संसार रहेगा, और तुम ये ही कहोगे कि, ‘मैं संसार में जी रहा हूँ’”। तो जियो, पर इतना तो करो, कि जीवन को समर्पित करके जियो। या वो भी बहुत ज़्यादा बड़ी माँग है? पूरी नहीं की जा सकती?

रोटी खाओ तो इस भाव के साथ खाओ कि – “तूने दी, तेरे हुक्म से आई है”। अपने आपको देखो आईने में, और पाओ कि स्वास्थ्य अच्छा है, शक्ल-सूरत ठीक है, तो कहो कि – “ये जो पूरा जीव रूप है, ये तूने दिया है। मेरी कमाई नहीं, तेरी बक्शीश है”। ऐसा कर सकते हो, कि नहीं कर सकते हो? और अगर ये बात साफ़ दिल से, गहराई से कही जाए, तो यही प्रार्थना है।

याद रखना, इसमें कुछ माँगा नहीं जा रहा है, सिर्फ़ स्वीकार किया जा रहा है कि, “तूने पहले ही बहुत कुछ दे दिया। सब तेरा, मेरा सँसार तेरा, मेरा शरीर तेरा, मेरा मन तेरा; तेरे हुक्म से”। प्राथना का अर्थ, माँगना नहीं है, कि तुम एक सूची ले करके खड़े हो गए हो, “डिमांड्स (माँगें)”। वो नहीं प्राथना है।

प्रार्थना क्या है? “कुछ नहीं माँग सकता तुझसे, क्योंकि तूने पहले ही सब कुछ दे रखा है। तेरे हुक्म से पूरा संसार है, अब माँगूँ क्या?” ये ही प्रार्थना है, कि- “ये जीव ही तेरे हुक्म से है, अब और क्या बचा माँगने कि लिए? माँगने वाला ही तेरा है, तो माँग क्या बची?”

श्रोता : सर, वो उस गाने की पंक्तियाँ हैं, “तेरी है ज़मीन, तेरा आसमान…”।

वक्ता : “तेरी है ज़मीन, तेरा आसमान,” पर उसमें भी जो अगली पँक्ति होती है, वो क्या कह रही है? “तू बड़ा मेहरबान, तू बक्शीश कर”, जैसे कि उसने बक्शीश पहले ही नहीं कर रखी। अब और क्या बक्शीश करेगा? कुछ अपूर्णता है क्या? पर वही बात है न, “ भुखिया भुख न *उतरी*”। अभी भी कह रहा है, “थोड़ा-सा और? नहीं-नहीं, तूने बहुत कुछ दिया है, लेकिन अब थोड़ा-सा और दे दोगे तो और भी अच्छा रहेगा”।

भुखिया भुख उतरी “। “थोड़ा-सा और दे दो। नहीं, नहीं, हम ये नहीं कह रहे है कि दिया नहीं है, बहुत दिया है”। जैसे कुछ खा-पी लेने के बाद, थोड़ी सौंफ-इलाइची? *( सब* हँसतें *हैं )* “अरे! इतना दिया है, तो एक इलायची और दे सकते हो न? कमी रही आती है।

“हुकमी *होवनि जिअ ,* हुकमी मिलै *वडिआई ,*

जो कुछ भी *महत है ,* वृहद *है ,* बड़ा *है ,* वो तो तुम्हें उसके अनुग्रह से ही मिलेगा। और जो कुछ भी सीमित है, और छोटा है, और बंटा हुआ *है ,* वो तुम्हें तुम्हारी कोशिशों से मिलेगा।

जो कुछ भी मंगलकारक *है ,* आनंददायक *है ,* वो तो हुक्म से ही आएगा। और जो कुछ भी कष्टदायक *है ,* छाती में गड़ा हुआ *है ,* दुखी कर रहा *है ,* तड़पा रहा *है ,* वो तुम्हें खुद *कर कर* के मिलेगा।

अनंत आकाश ‘वो’ देगा, सीमाएँ तुम खड़ी करोगे। मन का पूरा अनबंटा फैलाव ‘वो’ देगा, और मन को संकुचित तुम करोगे; छोटा मन। हुक्म से वो सब मिलेगा जो बड़ा है, अनंत है, असीमित है, बाकि आप कमाइये। अरे! आप भी तो कुछ करेंगे, कि नहीं करेंगे? या सब बैठे-बैठे ही पालेंगे? सब बैठे-बैठे ही मिल गया, तो पदक कैसे लगेंगे दीवार पर? तो अर्जित करना ज़रूरी है न? नहीं तो फिर सेल्फ-मेड (स्वयं-निर्मित) कैसे कहलाओगे?

तो अर्जित करो, “ज़ोर लगाके हईशा,” और गाड़ी भरकर दुःख ले आओ। और उस पर लिखो, “ये हमने महनतों से कमाया है, सेल्फ-अर्न्ड (स्वयं-अर्जित), कर-कर के पाया है। अरे! हम बड़े होशियार हैं। किसी का दिया नहीं लेते, किसी की बक्शीश पर नहीं पलते हैं। खुद्दारी है, कर्मठ हैं, पुरुषार्थी हैं। अरे! करके दिखाएँगे, कोई छोटी-मोटी बात है। ये थोड़ी है कि किसी ने हुक्म दिया। भीख लेंगे क्या?”

श्रोता : सर, तो ये कर्ताभाव भी हमारे अंदर कंडिशन्ड (संस्कारित) किया जाता है?

वक्ता : (एक हिंदी पिक्चर में अभिनेता द्वारा कही गई एक पंक्ति का उदाहरण लेते हुए) अमिताभ बच्चन ने तुम्हें बताया है न? “मैं आज भी किसी के फेंके हुए पैसे नहीं उठाता”। *( सब* हँसतें *हैं )* याद है? “मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता,” और यहाँ फेंका हुआ हाथ, फेंका हुआ पाँव, फेंका हुआ मन, फेंका हुआ संसार – सब तो फेंका ही मिला हुआ है। तो फेंका हुआ पैसा भी उठा लो भाई! पर पिक्चर नहीं चलेगी फिर। (हँसी)

श्रोता : सर, अभी भी मन नहीं मानता कि सब फेंका हुआ है।

वक्ता : न मानो। वो ऐसा है कि तुम्हारी सारी कृतघ्नता के बाद भी, दिये ही जाएगा। न मानो, वो दिए जाएगा, तुम्हें नहीं मिलेगा। कृतज्ञता से ये नहीं होता कि, वो देता है। कृतज्ञता से ये होता है कि – तुम्हें मिलता है। अंतर करना इन बातों में।

जो तुम कहते हो न, “जो हाथ जोड़ेगा, सो पाएगा,” या कि, “भगवान से माँगने पर भगवान दे देता है,” तो इन दोनों बातों में अंतर है। भगवान के सामने हाथ जोड़ो, चाहे न जोड़ो, नमन करो, चाहे न करो, वो तो दे ही रहा है। उसके देने में कोई कमी नहीं है। उसकी धार अखण्ड है। आ रहा है, लगातार। कृतज्ञता से तुम्हें मिलना शुरू हो जाता है।

कृतज्ञता से उसका देना नहीं शुरू हो जाता, कृतज्ञता से तुम्हें मिलना शुरू हो जाता है।

(मौन)

(पक्षियों की चहचहाहट गूँजती हुई)

श्रोता : इस बात से क्या तात्पर्य है कि – मिलना शुरू हो जाता है? मिल तो पहले से ही रहा है।

वक्ता : वो दे रहा है, तुम्हें मिलेगा तब न, जब तुम लोगे। हम तो इतने धुरंधर हैं, कि मिले हुए को भी नहीं लेते। मैं बोल रहा हूँ, मेरे बोलने में कोई कसर नहीं है, जितनी सामर्थ्य है, दे रहा हूँ। पर जो मैं दे रहा हूँ, वो आवश्यक नहीं कि तुम्हें मिल रहा हो। अंतर समझो। कृतज्ञ रहोगे, तो तुम्हें मिलना शुरू हो जाएगा। दे तो आज भी रहा हूँ, दूँगा कल भी, तुम्हें मिलता कहाँ है?

बोलो, अगला प्रश्न बोलो?

श्रोता ३ : सर, इसमें अंग्रेज़ी अनुवाद में लिखा है कि, “बाय हिज़ कमांड सोल्स कम इनटू बींग; बाय हिज़ कमांड, ग्लोरी एंड ग्रेटनेस आर ऑब्टेंड (उसके हुक्म से सब पैदा होता है, उसके हुक्म से प्रतिष्ठा और प्रभुता है)”। इसमें “ग्लोरी एंड ग्रेटनेस” का क्या अर्थ है?

वक्ता : नानक ने बस इतना ही बोला है, “वडिआई”; बड़ा, वृहद। ये हमारा अनुवाद है कि हमने उसको “ग्लोरी एंड ग्रेटनेस” बना दिया है। नानक ने मात्र “वडिआई” कहा है।

गावै को ताणु होवै किसै ताणु

गावै को दाति जाणै नीसाणु ॥

गावै को गुण वडिआईआ चार ॥

गावै को विदिआ विखमु वीचारु ॥

गावै को साजि करे तनु खेह ॥

गावै को जीअ लै फिरि देह ॥

गावै को जापै दिसै दूरि ॥

गावै को वेखै हादरा हदूरि ॥

श्रोता ४: सर, ये जो पंक्तियाँ हैं, “गावै को ताणु होवै किसै ताणु,” इनका क्या अर्थ है?

वक्ता : ये जो पूरा गाने वाला भाग है, या ये जो पूरी श्रृंखला है न, उसको एक साथ पढ़ो, तब समझ में आएगा। और उससे जो ऊपर वाली पंक्ति है, जहाँ से पूरी श्रृंखला शुरू हो रही है न, यहाँ से पढ़ना शुरू करो।

जो उसको समझता है, वो अहंकार में बात नहीं करता; वो गाता है। वो नहीं है, “पाओ और गाओ”? जिसको उसकी अनुकम्पा नसीब हो जाती है, उसके मुँह से अब अहंकार का शब्द नहीं फूटता। वो तो अस्तित्व का संगीत होता है, वो बस गाता है।

श्रोता : सर, कृष्णमूर्ति तो नहीं गाते हैं?

वक्ता : तुम्हें कैसे पता? गाना तब होता है, जब दो-चार लोग नाच रहे हों आसपास? तुमसे किसने कह दिया कि कृष्णमूर्ति नहीं गाते?

श्रोता : गाने का मतलब, एक लय में, एक बहाव।

वक्ता : तुम्हे क्या कृष्णमूर्ति का बहाव कभी दिखाई नहीं पड़ा? इतना सहज बहाव है उनका। उनसे ज़्यादा सहजता से कौन बहा है? तुमने कृष्णमूर्ति को फिर ज़रा नहीं पढ़ा है, अगर तुम कह रहे हो कि कृष्णमूर्ति गाते नहीं। हाँ, बड़ा सूक्ष्म संगीत है उनका। तुम्हें तब लगता है कि कोई गा रहा है, जब ज़रा शोर-शराबा हो, राग-रागिनियाँ हों, तब तुम्हें लगता है कि किसी ने गाया

कृष्णमूर्ति का जो पूरा जीवन है, वही बहुत शांति का और अंडरस्टेटेड जीवन है। ‘अंडरस्टेटेड’ समझते हो? जहाँ प्रदर्शन-प्रियता नहीं है। कृष्णमूर्ति गाते हैं, निश्चित रूप से गाते हैं। कोई ज्ञानी देखेगा तो कहेगा, “कृष्णमूर्ति बिल्कुल उतनी ही गहराई से गाते हैं, जैसे मीरा गाती है”।

श्रोता : उनको समझने के लिए, जिस पॉइंट (बिंदु) पर वो हैं, उसी पॉइंट (बिंदु) पर जाना पड़ेगा?

वक्ता : बिल्कुल वहीँ जाना पड़ेगा।

श्रोता : उनकी एक रिकॉर्डिंग है, जिसमें वो, गायत्री मंत्र गा रहे हैं।

वक्ता : बिल्कुल। वो न भी गाएँ। कोई ज़रूरी नहीं हैं कि वो गीत ही गुनगुनाएँ, वो गद्द में बात करें, चाहे पद्द में बात करें, फ़र्क नहीं पड़ता, गा तो रहे ही हैं। हाँ, ओशो जब बोलतें हैं, तो एहसास-सा होता है कि जैसे कोई गा रहा हो। पर निसर्गदत्त बोलें या कृष्णमूर्ति बोलें, तो ऐसा लगता नहीं है कि कोई गा रहा है। इसमें, उनकी ओर से कमी नहीं है, कमी हमारे कान में है।

बड़ी दिक्कत हो जाएगी कि तुम रमण महर्षि के संवादों को पढ़ो, और कहो कि, “महर्षि गा रहे हैं”। ऐसा लगेगा ही नहीं कि गा रहे हैं। उनका तो सारा ज़ोर ही मौन पर है? पर गा तो रहे ही हैं। सुनो!

*( चिड़ियाँ* चहचहा रहीं *हैं )*

(उसी चहचहाहट की ओर ध्यान दिलाते हुए)

दिक्कत ये है कि दिल्ली, गुडगाँव में रह-रह कर, तुम्हें ये गीत सुनाई नहीं देता। पूरा आर्केस्ट्रा (वाद्य वुन्द) बज रहा है यहाँ पर। यही कृष्णमूर्ति का संगीत है।

– ‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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