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लेख
जिस तन लगिया इश्क कमाल || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
26 मिनट
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जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

दरदमन्द नूं कोई न छेड़े, जिसने आपे दुःख सहेड़े।

उस वेदना भरे जीव को कोई क्या तंग करेगा, जिसने स्वयं अपने लिए दुख संजो लिये हैं।

जम्मणा जीणा मूल उखेड़े, बूझे अपणा आप खिआल।

दुखों का वरण करने वाला जन्म और मरण को उखाड़ फेंकता है, और वह अपनी हस्ती को स्वयं पहचान लेता है।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

जिसने वेश इश्क़ दा कीता, धुर दरबारों फतवा लीता।

जिसने प्रभु प्रेम को जीवन आधार बना लिया है, उसे स्वयं आदिसत्ता से आदेश मिलने लगता है

जदों हजूरों प्याला पीता, कुछ न रह्या सवाल-जवाब।

जब स्वयं आदिसत्ता के हाथों से प्रेम प्याला पिया हो तो उस अवस्था में किसी प्रकार की दुविधा के लिए स्थान नहीं रहता

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

जिसदे अन्दर वस्स्या यार, उठिया यार ओ यार पुकार।

जिसके हृदय के अंदर उसका यार बस जाता है, तो वह आपा भूल कर बस यार-ही-यार पुकार उठता है।

ना ओह चाहे राग न तार, ऐवें बैठा खेडे हाल।

जब रोम-रोम में प्रिय की ध्वनि गूंजने लगे तब फिर किसी बाहरी राग अथवा ताल की चाह नहीं रह जाती और वह अनायास मिलन-सुख में डूबकर नाचने लग जाता है।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

बुल्हिआ शाह नगर सच पाया, झूठा रौला सब्ब मुकाया,

बुल्लेशाह कहते हैं कि प्रिय (मुर्शीद) के नगर में ही सच प्राप्त हुआ है प्रियतम के नगर को देखने के बाद संसार के सारे झूठे शोर सब समाप्त हो जाते हैं।

सच्चियां कारण सच्च सुणाया, पाया उसदा पाक जमाल।

यह परम सत्य मैंने उनके लिए कहा है जो सच्चे हैं और जिन्हें उसके प्रेममय पवित्र रूप सौंदर्य का दर्शन हो चुका है।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

आचार्य प्रशांत: बेसुर, बेताल इस आशय में है कि सुर और ताल भी ढर्रे होते हैं, मानवकृत पैटर्न्स (ढर्रे) होते हैं, हमने रचे हैं, हमारे द्वारा निर्धारित हैं इस अर्थ में। सुर, लय, राग, ताल और वो सबकुछ जो इंसान और इंसानी समाज का है, उसकी फ़िक्र अगर करते रह गये और दुनिया और दिमाग द्वारा निर्धारित रास्तों पर, ढर्रों पर, नियमों-निर्देशों पर अगर चलते रह गये तो इश्क़ तो भूल जाओ।

और इससे आशय बस एक है — वापस लौटिएगा कौनसे तीन होते हैं?

प्र: आत्मा, अहम्, प्रकृति।

आचार्य: ठीक, श्रीमद्भगवद्गीता में ये तीनों हैं — प्रकृति, अहम्, आत्मा। अहम् के लिए यही दो चुनाव होते हैं — या तो प्रकृति को चुन लो या आत्मा को चुन लो। इश्क़ क्या है? अहम् का आत्मा को चुन लेना, अहम् का अपनी भलाई को चुन लेना। अहम् की घोषणा कि जो मेरी अभी दुख और बन्धन की स्थिति है उसी में मुझे आगे नहीं रहना — ये प्रेम है, यही इश्क़ है।

इश्क़ मुक्ति की घोषणा है। इश्क़ दुनिया की किसी चीज़ के मोह में पड़ने को नहीं कहते। कोई वस्तु, कोई व्यक्ति आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाए, इसको इश्क़ नहीं कहते। आपकी चेतना कहे, 'मेरे लिए मुक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं', इसको इश्क़ कहते हैं। तो इस 'इश्क़' शब्द का दुरुपयोग नहीं करना है, और खूब हुआ है।

इश्क़, प्रेम बहुत पवित्र शब्द हैं और उनको सिर्फ़ एक अर्थ में ही उपयुक्त होना चाहिए — मुक्ति; वही सच्चा अर्थ भी है। और सच्चाई का तक़ाज़ा यह भी है कि सांसारिक जीवन में आपको जो विषयों, वस्तुओं, व्यक्तियों की ओर खिंचाव होते हैं उनको आप उनके सही नाम से पुकारें। नामकरण बहुत बड़ी समस्या भी हो सकती है और किसी चीज़ को, किसी प्रक्रिया को, किसी घटना को सही नाम देना मुक्ति का एक माध्यम, साधन भी हो सकता है। आप मोह को मोह बोलना शुरू कर दें तो मोह से मुक्ति मिल जाएगी।

मोह बचा रह जाता है क्योंकि आप मोह को कभी मोह बोलते ही नहीं; आप मोह को प्रेम बोल देते हैं। आप डर को डर बोलना शुरू कर दें, डर बहुत दिन नहीं टिकेगा; आप डर को महत्वाकांक्षा बोल देते हैं, डर बचा रह जाता है।

जब आप बोलते हैं न मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूँ मुझे ये चाहिए, मुझे वो चाहिए, वो वास्तव में कुछ नहीं है, आपका डर है। लेकिन आप बोलते ही नहीं कि मेरा डर है; आप बोलते हो, ‘मेरी ऐम्बिशन (कामना) है।' वो ऐम्बिशन कुछ नहीं है, इन्सिक्युरिटी (असुरक्षा) है, डर है, असुरक्षा की भावना है।

कभी लेकिन किसी चीज़ को हम उसके यथार्थ नाम से पुकारते ही नहीं हैं। किसी के प्रति आपका कामना और वासना का रिश्ता है, उसको आप इश्क़ बोल देते हैं। किसी की आपको बस आदत लग गयी है क्योंकि उसके साथ बहुत अरसे से रह रहे हो, उसको आप प्रेम बोल देते हो।

कुछ भी जो हमारे साथ घट रहा होता है, हम ईमानदारी से उसको सही नाम देते कहाँ हैं। जो सही नाम देना शुरू कर दे वो मुक्त हो जाएगा। अहम् को हम आत्मा का नाम दे देते हैं, देखा है? अहम् को हम आत्मा का नाम दे देते हैं। साधारण तथ्य जो हमें हमारी बस इन्द्रियों से पता चलते हैं, उनको हम सच का नाम दे देते हैं।

हमने सच को इतनी ओछी चीज़ बना दिया कि हम कहते हैं, सच ऐसा है कि अगर हाथ में पाँच उँगलियाँ हैं और मैं कहूँ कि पाँच ही उँगलियाँ हैं तो मैंने सच बोला। सच इतनी छोटी चीज़ है कि उँगलियों के गिनने में आ जाएगी! आपके पाँच उँगलियाँ हैं ये आपका देखा तथ्य हो सकता है, ये सच नहीं है। पर जो सच है, जो सच है सचमुच, हम उससे किसी कदर बचे रह जाएँ, इसके लिए हम इन छोटी-छोटी चीज़ों को सच का नाम दे देते हैं।

हम बच्चों से कहते हैं, ‘बेटा सच बोला करो।’ और सच बोलने का क्या मतलब है? कि अगर परीक्षा में बीस में से पन्द्रह नम्बर आये हैं तो पन्द्रह ही बताना, सोलह मत बताना; ये सच है! ये सच नहीं है, ये अधिक-से-अधिक एक तथ्य है। पर हमने सच शब्द का भी भयानक दुरुपयोग करा है। जितने भी ऊँचे शब्द हैं उनको हम घसीट-घसीट कर अपने निचले तल पर ले आये हैं; हमने उनको छोड़ा ही नहीं। हमने ये भी नहीं कहा कि चलो अगर हम उनका सही इस्तेमाल नहीं कर सकते तो कोई इस्तेमाल नहीं करेंगे, उन्हें छोड़ ही देंगे। हमने यह भी नहीं करा; हमने उनका बुरा इस्तेमाल करा।

कोई आपको ताज्जुब न हो अगर आप किसी हिन्दी फिल्म में इस गाने (जिस तन लगिया इश्क़ कमाल) पर एक लड़के और एक लड़की को नाचते देखें। जल्दी ही ऐसा हो भी जाएगा। और इसके बोल ख़ूबसूरत हैं और इस पर कोई मादक सी धुन अगर चढ़ा दी जाए तो वो सुपरहिट गाना हो जाएगा। आकर्षक सा हैंडसम दिखने वाला कोई लड़का हो और अर्धनग्न कोई लड़की हो, इसपर नाच रहे हैं, क्या नशा चढ़ेगा! तन भी बोल ही दिया है, बात ही पूरी तन की है — "जिस तन लगिया इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।" तो माने झूम-झूम कर नाचने का भी लाइसेंस मिल ही गया। ये दुरुपयोग है और ये बहुत बड़ा अपराध है। यह नहीं करना चाहिए।

इश्क़ माने क्या? दोहराइएगा — अहम् का मुक्ति के प्रति खिंचाव ही इश्क़ है, और नहीं कुछ इश्क़ होता। झूठ का सच के प्रति प्रेम ही, खिंचाव ही इश्क है। जो नहीं है, उसका नहीं हो जाने के प्रति खिंचाव ही इश्क़ है। वो कहता है, 'हूँ तो मैं वैसे भी नहीं तो मुझे होने से मुक्त ही कर दो न, क्योंकि होने का झूठ बोल-बोल कर मैं हो तो पा नहीं रहा; इतनी कोशिश कर रहा हूँ कि मैं हो जाऊँ पर कोशिशें हुई जा रही हैं, मैं नहीं हो पा रहा।' अहम् की सारी कोशिश क्या होती है? हो जाने की, किसी तरह हो जाओ क्योंकि जो है उसी को तो सत्य बोलते हैं। दैट व्हिच इज़ (जो है) उसको ही तो ट्रूथ बोलते हैं। तो अहम् पूरी ज़िन्दगी इसी पुरज़ोर कोशिश में रहता है कि मैं हो जाऊँ; कोशिशें हो जाती हैं, वो नहीं हो पाता।

तो पैदा तो हम सब आशिक़ ही होते हैं क्योंकि हम सब परेशान हैं अपनेआप से। जो कोई परेशान है अपनेआप से उसमें एक खिंचाव है विश्राम के प्रति, राहत के प्रति; इसी खिंचाव को इश्क़ कहते हैं। आशिक़ सभी हैं, बस कुछ झूठे आशिक़ हैं, कुछ सच्चे आशिक़ हैं; ज़्यादातर झूठे ही हैं।

झूठा आशिक कौन होता है? जो उसके साथ नहीं जाता, उसकी तरफ़ नहीं जाता जिसके साथ उसे सचमुच प्रेम है; वो भागकर के उसकी तरफ़ चला जाता है जो सिर्फ़ रिझाता है। एक होता है प्रेम और एक होता है आकर्षण। झूठा आशिक़ कौन होता है? जो आकर्षण की तरफ़ भागता है। हालाँकि प्रेम उसको भी है। ऐसा कोई नहीं होता जिसे आनंद से प्रेम न हो, बोध से प्रेम न हो, मुक्ति से प्रेम न हो। बस कुछ लोग चुनाव ये करते हैं कि प्रेम की तरफ़ नहीं जाऊँगा।

जैसे अभी थोड़ी देर पहले कबीर साहब कह रहे थे न कि विषय रस खींच रहे हैं — एक तरफ़ विरह की पुकार है, एक तरफ़ विषय की। वो विरह की पुकार से ज़्यादा विषय की पुकार को सुनते हैं, ये झूठे आशिक़ हैं; और बुलाएँगे हमेशा ये दोनों आपको। अहम् इसीलिए बीच में खड़ा होता है; वो बीच में खड़ा है, एक तरफ़ प्रकृति एक तरफ़ आत्मा दोनों ही बुलाते हैं उसको; अब किधर को जाना है ये आपको तय करना है। और आपके अलावा आपके लिए कोई तय कर नहीं सकता; आप ही फ़ैसला करोगे आपको कहाँ को जाना है।

"दरदमन्द नूं कोई न छेड़े" — अरे! दुनिया वालों, मुझे तो वैसे ही दुनिया का सबसे बड़ा दर्द लगा हुआ है, दुनिया से आगे का दर्द लगा हुआ है। कौनसा दर्द? ‘उसका’; मुझे काहे दुखी कर रहे हो? और दुनिया तो दुखी करने आ गयी है क्योंकि ये सुर-ताल पर नहीं नाचते। नाचना माने समझ रहे हो क्या है? गति करना, कर्म करना; नृत्य से अर्थ कर्म करने से है।

दुनिया वालों के जो कर्म हैं वो सधे-सधाये होते हैं और जो प्रेमी है उसके कर्म नृत्य की तरह हो जाते हैं। वो भी एक अप्रत्याशित नृत्य, एक अनआयोजित नृत्य, जिसमें नाचने वालों को भी नहीं पता होता कि उसका अगला क़दम किधर को बढ़ेगा; तो दुनिया ऐसों को पसन्द नहीं करती। दुनिया कहती है, बट वाट इज़ योर ऐल्गोरिदम (तुम्हारी विधि क्या है)? वो कहता है, मेरा कोई ऐल्गोरिदम है नहीं। दुनिया कहती है, पर बताओ तो, तुम अपना ब्लू प्रिंट (आधार प्रति) दिखाओ। वो कहता है, मेरे पास है नहीं। दुनिया कहती है, अपना सूत्र, अपना फार्मूला बताओ। वो कहता है, मेरे पास है नहीं। 'ठीक है अपना उद्देश्य बताओ? अपनी कामना दिखाओ?' कहता है, वो भी मेरे पास है नहीं। तो दुनिया कहती है कि फिर नाच किस हिसाब से रहा है, जेल में डालो इसको, पागल खाने में। इसके पास कोई उद्देश्य नहीं है, इसके पास कोई विधि नहीं, इसके पास कोई ढर्रा नहीं, इसके पास कोई तयशुदा मार्ग नहीं, लेकिन झूमे जा रहा है पता नहीं क्यों। मिल क्या जाएगा तुझे ये सब करने से? वो ऐसे देख रहा है (सख़्त चुप्पी वाला चेहरा बनाकर दिखाते हैं)।

वो ऐसे देखता है और फिर बोलता है, "दरदमन्द नूं कोई न छेड़े" भाई। दुनिया की सबसे बड़ी तकलीफ़ तो मैंने स्वीकार कर ली है, अब तुम काहे को मेरे को छेड़ने आये हो? मुझे छोड़ दो मेरे हाल पर।

दरदमन्द नूं कोई न छेड़े जिसने आपे दु:ख सहेड़े,

मैंने तो स्वयं ही इतने दुःख सहेज लिये हैं मुझे काहे के लिए तुम दुखी कर रहे हो।‌

जम्मणा जीणा मूल उखेड़े,

ये जो जन्म का और जीवन का मूल है, मैं तो उसको उघेड़ने के प्रयास में लगा हुआ हूँ। मुझे तुम्हारे मामलों से, सरोकारों से अब कुछ अर्थ, कुछ प्रयोजन नहीं रहा। तुम जानना चाहते हो कि ये क्या है, और वो क्या है। मैं जानना चाहता हूँ ये (स्वयं की ओर इशारा करते हुए) क्या है।

तुम क्या कहते हो ये सब क्या है, मैं जानना चाहता हूँ ये (स्वयं) क्या है। तुम जानना चाहते हो कि कामनाएँ कैसे पूरी होंगी, मैं जानना चाहता हूँ कामनाएँ किसको हैं। तुम जानना चाहते हो कि जीवन में अधिक-से-अधिक सुख और भोग कैसे लूटें, मैं जानना चाहता हूँ जन्म किसका हुआ था। हमारे तुम्हारे सरोकार बहुत अलग हो चुके हैं, हमें न छेड़ो, हमें माफ़ करो।

जिसने वेस इश्क़ दा कीता, धुर दरबारों फतवा लीता

हम तुम्हारी नहीं सुन पाएँगे; हम अब उस दरबार की आज्ञा लेते हैं, सीधे ऊपर से, तुम्हारी कैसे सुनें! तुम चाहते हो तुम्हारे हिसाब से चलें, तुम चाहते हो तुम्हारे जैसे कपड़े पहनें। मेरा वेस अब इश्क़ का है। वेस से आशय है, वो सब कुछ जो दूसरों को दिखायी देता है। उसमें सिर्फ़ कपड़े ही नहीं आते, उसमें बोल-वचन, कर्म सब आता है। मेरा जो वेस है, मेरा आचरण, मेरे कर्म, मेरा जीवन — वो अब निर्धारित होता है ऊपर से आ रही आज्ञा से।

ऊपर से आ रही आज्ञा से क्या मतलब है? कोई आज्ञा उतरती है उपर से? नहीं, वो निर्धारित होता है मेरे इश्क़ से। मैं अब वो करूँगा जो मुझे आज़ादी देता हो, जो मुझे समझ देता हो, जो मुझे सुलझाता हो। मैं अब वो नहीं करूँगा जो तुम मुझे करने के लिए बोलते हो; न तुम्हारी आज्ञा पर चलूँगा, न तुम्हारी सलाह मानूँगा। तुम्हारी सलाह न मानने का ही नाम है कि “धुर दरबारों फतवा लीता।"

तुम्हारी सलाह नहीं मानूँगा, ये गीता के संदर्भ में क्या हुआ? कर्मसन्यास; और ऊपर से आज्ञा लूँगा, ये क्या हुआ? कर्मयोग।

जदो हजूरों प्याला पीता कुछ न रह्य सवाल-जवाब

सवाल-जवाब यहाँ के होते हैं, भौतिक होते हैं, कामना मूलक होते हैं। मुझे जो अब नशा है वो मुक्ति का है, हजूर का है। जिसको परमपिता, परमशक्ति बोल सकते हो उसका है। उसको हजूर कह रहे हैं, वही मालिक, स्वामी है।

अब तुम्हारे साथ सवाल-जवाब करने की, तुमको संतुष्ट करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। मुझे मेरे हिसाब से काम करना है, वही करूँगा। मुझे दिख गया है कि मैं कौन हूँ और मुझे दिख गया है कि मेरी मंज़िल क्या है। तुम अब व्यर्थ में आकर अड़चन न डालो; डालोगे भी अड़चन तो तुम्हारी सुनने वाला तो मैं हूँ नहीं।

जिसदे अन्दर वस्स्या यार, उठिया यार ओ यार पुकार

मेरे भीतर जो है वही अब मेरे वचन में है, मेरे कर्म में है; मेरे केंद्र में आत्मा है और मेरे सारे कर्म आत्मा की अभिव्यक्ति मात्र हैं।

ये मुक्त पुरुष का जीवन होता है। इसको थोड़ा सा समझेंगे। एक चीज़ होती है अचीवमेंट (प्राप्ति) और एक चीज़ होती है एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति)। प्राप्ति और अभिव्यक्ति, इन दोनों का अन्तर समझिए लिख लीजिए चाहें तो।

अहम् जब प्रकृतिस्थ होता है या प्रकृतिमुखी होता है तो वो प्राप्ति के केंद्र से जीता है। वो जिधर को भी देखता है उसकी एक ही हसरत होती है — कैसे पालूँ। ज़्यादातर लोग ऐसे ही जीते हैं, सिर्फ़ पाने के लिए। वो जिस भी चीज़ को देखते हैं उससे भोग का रिश्ता बैठाते हैं।

और दूसरा केंद्र होता है अभिव्यक्ति का। ये तब होता है जब अहम् आत्मस्थ होता है या कम-से-कम आत्मा के प्रेम में होता है। तब इसे पाना नहीं है। तब इसके कर्म निकलते हैं बस अपनेआप को अभिव्यक्त करने के लिए। ये निष्काम कर्म होता है, ये अभिव्यक्ति मात्र है। प्राप्ति के लिए नहीं है, अभिव्यक्ति है। ठीक वैसे जैसे एक है कि आप इनकी तरफ़ आये क्योंकि आपको इनसे दस रुपए लेने हैं। मान लीजिए आप वहाँ बैठे हैं, आप इनकी तरफ़ आये क्यों? क्योंकि आपको इनसे दस रुपए लेने हैं। आप किस केन्द्र से चल रहे हैं? प्राप्ति के।

और एक ये है कि कुछ ऐसा ज़बरदस्त संगीत उठा और ऐसी बात बोल दी सन्तों ने कि आप उठे हैं तो अपनी सीट से लेकिन कहीं जाने को नहीं, कुछ पाने को नहीं, यहाँ पर आकर आपने नाचना शुरू कर दिया। कर्म और गति तब भी हो रहा था जब आप दस रुपया पाने के लिए भगे जा रहे थे। कर्म था न और गति भी थी; उस कर्म को कौनसा कर्म बोलते हैं? सकाम कर्म।

और कर्म तब भी है जब अपनी सीट से उठ गये हैं और नाचने लग गये हैं यहाँ पर। ये बस प्रतीक के तौर पर बोल रहा हूँ, ये निष्काम कर्म हुआ। क्योंकि नाच करके कुछ मिल जाएगा नहीं आपको, नाच करके आपको दस रुपए क्या अठन्नी नहीं मिलेगी, कुछ नहीं मिलेगा। पर नाच रहे हो, क्यों नाच रहे हो? क्योंकि आत्मा आनन्द स्वरूपा है और वो अपनेआप को नृत्य के रूप में अभिव्यक्त करती है। ये अभिव्यक्ति है। ये प्राप्ति नहीं है, अभिव्यक्ति है। जो मुक्त पुरुष होता है उसका जीवन प्राप्ति नहीं होता है, अभिव्यक्ति होता है।

उसको देखकर जो प्रकृतिस्थ हैं उनको धोखा हो जाता है; उनको लगता है कि नाच रहा है तो ज़रूर कुछ पाने के लिए नाच रहा होगा। कोई पूछे कि 'आपको क्यों लग रहा है कि ये पाने के लिए नाच रहा है?' तो वो बोलते हैं कि 'क्योंकि कोई कुछ भी करता ही नहीं बिना किसी कामना के, बिना किसी पर्पस (लक्ष्य), बिना किसी उद्देश्य के; इसका कुछ तो एजेन्डा होगा अगर नाच रहा है।'

आपको ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि आप कभी बिना किसी सरोकार के, उद्देश्य के, कामना के नाचे भी नहीं हैं। ज़्यादातर लोग जब नाचते हैं तो उनकी एक निगाह कैमरे पर रहती है, 'बढ़िया वाला मेरा पोज़ लेना।' वो नाचते वक़्त भी कैमरामैन को देख रहे होते हैं या अपने कपड़ों को देख रहे होते हैं।

कभी सिर्फ़ अपनेआप को अभिव्यक्त करने के लिए — आनन्द है और वो आनन्द अब अतिरेक में हो रहा है इसीलिए नृत्य है। कोई पूछे, 'क्यों है?' तो, बस है। हमें तो पता भी नहीं हमें कौन देख रहा है; हज़ार लोग देख रहे हों तो भी एक बात है और कोई न देख रहा हो तो भी वही बात है। हम किसी को दिखाने के लिए थोड़े ही नाच रहे हैं।

शिवसूत्र कहते हैं, "आत्मा नर्तक है।" अब समझ में आया? ये बिलकुल आरम्भिक सूत्रों में है शिवसूत्र में — आत्मा नर्तक है; आत्मा ऐसे नर्तक है कि अहम् जब आत्मा के पास आ जाता है, एकदम आत्मा जैसा हो जाता है, तो अहम् नाचना शुरू कर देता है, "जिस तन लगया इश्क़ कमाल नाचे बेसुर ते बेताल;" ऐसे, आत्मा नर्तक है। आत्मा स्वयं नहीं नाचती पर आत्मा के सानिध्य में आकर के अहम् नाचने लग जाता है, आत्मा ऐसे नर्तक है। आत्मा ऐसे नर्तक है।

नृत्य से मतलब समझ रहे हो? निष्काम कर्म, वही नृत्य है। और निष्काम कर्म में, नृत्य में जो जान होती है, जो धार होती है वो सकाम कर्म में कभी नहीं हो सकती। अगर नाचने को ही लें, तो जो व्यक्ति आपको दिखाने के लिए नाच रहा होगा, तो उसके नाच में कुछ कमी रह जाएगी क्योंकि उसका थोड़ा सा ध्यान आप पर लगा हुआ है। वो जब नाच रहा है तो साथ-ही-साथ यह भी देख रहा है कि आप खुश हुए कि नहीं हुए। वो आपकी आँखों में झाँक रहा है कि इनसे मुझे तालियाँ मिलेंगी कि नहीं मिलेगी; वो पूरे तरीक़े से अपने नृत्य में डूब नहीं पाएगा न।

और जो बेपरवाह होकर के नाच रहा है उसके नाचने में जो बात होगी, वो अतुल्य है। उसे मतलब नहीं। वो पूरी तरह से अपने में ही डूबा हुआ है। उसका समर्पण अपने नृत्य के प्रति पूर्ण है तो फिर उसका नृत्य भी एक विशेष गुणवत्ता का होता है।

जो कुछ पाने के लिए नहीं करता है उसके करे को रोकना बड़ा मुश्किल होगा।

मैं बार-बार कहा करता हूँ, ऐसे व्यक्ति को रोकने का एक ही तरीक़ा होता है, उसे मार डालो। क्योंकि आप जब भी किसी को रोकते हो और रोक पाने में सफल हो पाते हो तो कारण होता है उस व्यक्ति का स्वार्थ। जिसका स्वार्थ जितना ज़्यादा होता है दुनिया में उसे उतनी आसानी से रोका जा सकता है।

आप कुछ करने निकलो, कोई आकर के बोले अगर तुमने ये काम किया तो मैं तुम्हारा नाम बदनाम कर दूँगा; आप रुक जाओगे; क्यों रुक जाओगे? क्योंकि आपका स्वार्थ है अपना नाम बनाये रखने में।

कोई बोले देखो फ़लाना काम अगर तुमने किया तो नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, तो आप रुक जाओगे क्योंकि आपका स्वार्थ है नौकरी को बचाये रखने में। लेकिन जिसका कोई स्वार्थ नहीं किसी चीज़ में, जो कर रहा है वो करने में ही डूब गया है, उसको आप कैसे रोकोगे? कोई बटन नहीं जो दबा सको, कोई तरीक़ा नहीं कि आप उसकी बाँह मरोड़ सको। वो रुकेगा ही नहीं, वो बहुत ख़तरनाक हो जाता है। समझ में आ रही है बात?

अभी यहाँ तो बहुत सौम्य होकर कह रहे हैं, "दरदमन्द नूं कोई न छेड़े", आगे उग्र होकर बोलेंगे, "घड़ियाली दिओ निकाल — बाहर करो इसको।" घड़ियाली माने? जो बार-बार समय का एहसास कराता है, माने जो प्रकृति का दूत है।

प्रकृति में समय होता है न? तो जो घड़ी लेकर खड़ा हो जाता है कि देखो जो काम करो समय के हिसाब से करो। तो आगे उग्र हो जाते हैं, बोलते हैं, 'बाहर निकालो इसको। मैं कुछ कर रहा होता हूँ और ये घड़ियाली काल की बातें करना शुरू कर देता है, समय की बातें, प्रकृति की, संसार की बातें। इसको बाहर निकालो।' आप रोक नहीं सकते; जो व्यक्ति निष्काम हो गया, जो नर्तक हो गया उसको अब रोका नहीं जा सकता।

जिसदे अन्दर वस्स्या यार, उठिया यार ओ यार पुकार न ओह चाहे राग न तार, ऐवें बैठा खेडे हाल।

वो बस ऐसे ही बैठा रहता है, न राग है न तार है; वो तो बस योग में नृत्य कर रहा है, उद्देश्यहीन है। 'ऐवें' समझ रहे हैं? उद्देश्यहीन, पर्पसलेस , यूँही। कोई पूछे गीता क्यों पढ़ते हो और आपके पास अगर कोई उत्तर है तो अभी आप बहुत आरम्भिक स्तर पर हो। जो प्रेमी हो जाते हैं, बोलते हैं, यूँही या फिर बोल देंगे कि इश्क़ हो गया है। कृष्ण के प्रेम में पड़ गये हैं इसीलिए गीता पढ़ते हैं और तो कोई बात नहीं; कुछ पाने के लिए थोड़े ही पढ़ते हैं!

वो धार्मिक काम जो किसी कामना के लिए करे जाते हैं वो बहुत छोटे स्तर के धार्मिक काम हैं।

बुल्हिआ शाह नगर सच पाया, झूठा रौला सब्ब मुकाया, सच्चियां कारण सच्च सुणाया, पाया उसदा पाक जमाल।

उनके गुरु थे शाह इनायत; बोल रहे हैं उनके नगर में सच मिला है मुझे। और उसके बाद से ये जो दुनिया का रौला और स्यापा है, ये मेरे लिए मिट गया है। मेरा अब दुनिया के उपद्रव से कोई वास्ता नहीं रहा; मुझे पता चल गया मुझे किस राह चलना है, उसी राह चलूँगा।

सच के कारण सच सुना रहा हूँ। आमतौर पर कारणता में जो कारण है और जो कार्य है वो अलग-अलग होते हैं। निष्कामता में कार्य और कारण अनन्य हो जाते हैं; इनका भेद समाप्त हो जाता है।

आमतौर पर जब आप कोई चीज़ उठाते हो तो इसीलिए नही उठाते हो कि आपको वो चीज़ चाहिए। आप कोई चीज़ उठाते हो इसीलिए क्योंकि आपको उस चीज़ से कुछ चाहिए; तो चीज़ कारण है और उससे आपको कुछ और कार्य चाहिए, यही होता है न। भई अगर मैं इस तौलिया को उठा रहा हूँ, तो इसीलिए नहीं उठा रहा हूँ कि मुझे इस तौलिया से प्रेम है; इसलिए उठा रहा हूँ क्योंकि मुझे पसीना पोंछना है। लो पोंछ लिया; अब पोंछते ही इस तौलिया का क्या करूँगा? दूर हट! काम निकल गया न। ये साधारण सकाम कर्म होता है, जिसमें कारण (तौलिया) और कार्य (पसीना पोंछना) अलग-अलग होते हैं। निष्काम कर्म में ये दोनों एक हो जाते हैं।

सच्चियां कारण सच्च सुणाया

सच ही कारण है और सच ही कार्य है। सच कारण है और सच सुनाना मेरा कार्य है। सच सुनाना मेरा कार्य है और उस कार्य के पीछे का कारण क्या है? सच। यही निष्कामता है।

ये सकामता कब बन जाएगी? जब सच सुनाना मेरा कार्य हो और पीछे का कारण क्या हो? कारण यह हो कि प्रसिद्धि मिल जाएगी, सब लोग वाह-वाही देंगे तो वो सकामता हो गयी। और “सच्चियां कारण सच्च सुणाया”, ये पूरा निष्काम कर्म है गीता का और चार शब्दों में आपके आगे रख दिया है; ये सन्तों का जादू होता है।

पाया उसदा पाक जमाल

उसका जो पवित्र जादू है — कृष्ण को मोहन भी बोलते हैं न, जादू करते हैं वो मोह लेते हैं — जबसे उसके जादू के आगे समर्पण करा है बस यही कर रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ? सच कारण सच गा रहा हूँ।

यहाँ (शरीर के भीतर) आत्मा है सूक्ष्मतम और यहाँ (शरीर के बाहर) आत्मा का नृत्य है। दोनों एक हैं; जो भीतर है और जो बाहर है दोनों एक हो चुके हैं और कुछ आगे हमें करना नहीं है।

कुछ बात बन रही है? (श्रोतागण की ओर से कोई उत्तर नहीं) सब समझ में आ रहा है या फिर कुछ नहीं समझ में आ रहा है — मौन के दोनों अर्थ हो सकते हैं।

(भजन मंडली से) चलिए अब गाइए और जैसे बोल हैं वैसे ही गाइए।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

दरदमन्द नूं कोई न छेड़े, जिसने आपे दुःख सहेड़े।

उस वेदना भरे जीव को कोई क्या तंग करेगा, जिसने स्वयं अपने लिए दुख संजो लिये हैं।

जम्मणा जीणा मूल उखेड़े, बूझे अपणा आप खिआल।

दुखों का वरण करने वाला जन्म और मरण को उखाड़ फेंकता है, और वह अपनी हस्ती को स्वयं पहचान लेता है।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

जिसने वेश इश्क़ दा कीता, धुर दरबारों फतवा लीता।

जिसने प्रभु प्रेम को जीवन आधार बना लिया है, उसे स्वयं आदिसत्ता से आदेश मिलने लगता हैं।

जदों हजूरों प्याला पीता, कुछ न रह्या सवाल-जवाब।

जब स्वयं आदिसत्ता के हाथों से प्रेम प्याला पिया हो तो उस अवस्था में किसी प्रकार की दुविधा के लिए स्थान नहीं रहता।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

जिसदे अन्दर वस्स्या यार, उठिया यार ओ यार पुकार।

जिसके हृदय के अंदर उसका यार बस जाता है, तो वह आपा भूल कर बस यार-ही-यार पुकार उठता है।

ना ओह चाहे राग न तार, ऐवें बैठा खेडे हाल।

जब रोम-रोम में प्रिय की ध्वनि गूंजने लगे तब फिर किसी बाहरी राग अथवा ताल की चाह नहीं रह जाती और वह अनायास मिलन-सुख में डूबकर नाचने लग जाता है।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

बुल्हिआ शाह नगर सच पाया, झूठा रौला सब्ब मुकाया।

बुल्लेशाह कहते हैं कि प्रिय (मुर्शीद) के नगर में ही सच प्राप्त हुआ है प्रियतम के नगर को देखने के बाद संसार के सारे झूठे शोर सब समाप्त हो जाते हैं।

सच्चियां कारण सच्च सुणाया, पाया उसदा पाक जमाल।

यह परम सत्य मैंने उनके लिए कहा है जो सच्चे हैं और जिन्हें उसके प्रेममय पवित्र रूप सौंदर्य के दर्शन हो चुका है।

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।

जिसे प्रभु से पूर्ण प्रेम हो जाता है, वह आनन्दमय मस्ती में आकर बेसुर और बेताल नाचने लग जाता है।

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