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लेख
जीवन में लक्ष्य कैसे बनाएँ?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी आपसे एक मार्गदर्शन चाहते हैं कि हमें अपना लक्ष्य किस तरह से निश्चित करना चाहिए? क्या हमें अपना लक्ष्य अपने स्वभाव के अनुसार बनाना चाहिए कि हमारे लिए क्या अच्छा होगा?

आचार्य प्रशांत: नहीं, लक्ष्य मात्र स्वभाव के अनुसार नहीं बनता। आपका स्वभाव ये है ही नहीं कि आप कोई लक्ष्य बनाएँ। स्वभाव तो अलख है। अलख समझते हैं? जिसका कोई लक्ष्य नहीं किया जा सकता, अलक्ष्य स्वभाव है हमारा। स्वभाव अलक्ष्य है तो स्वभाव में लक्ष्य नहीं होते। जो स्वभाव में जीने लग गया उसे अब लक्ष्यों की ज़रूरत भी नहीं रहेगी।

तो लक्ष्य स्वभाव के कारण नहीं बनते, लक्ष्य बनते हैं जो हमारे ऊपर दुष्प्रभाव पड़े होते हैं उनके कारण। अभी अपनी हालत देखिए और उस हालत में जो कुछ भी आपको कष्ट देता है उसका निराकरण करना ही लक्ष्य है। और अगर अभी कुछ नहीं है आपकी ज़िन्दगी में जो आपको तकलीफ देता हो तो आप फ़िर स्वभाव में ही जी रहे हैं, आपको फ़िर किसी लक्ष्य की ज़रूरत ही नहीं है।

कोई ज़बरदस्ती या शौकिया थोड़े ही लक्ष्य बनाए जाते हैं कि, "सबके लक्ष्य हैं तो मेरे भी होने चाहिए।" ये वैसी ही बात हो जाएगी कि, "सब नींद की गोली ले कर सोते हैं तो मैं भी नींद की गोली ले कर सोऊँगा।" अरे भाई, तुम्हें अगर यूँही नींद आ जाती है, प्राकृतिक, तो तुम्हें क्यों चाहिए नींद की गोली?

लक्ष्य समझिए एक तरह की दवाई है, वो बीमारों को ही चाहिए। आपका स्वभाव तो स्वास्थ्य है न, तो स्वभाव में तो न किसी बीमारी की जगह है न दवाई की जगह है। लेकिन अभी हम स्वस्थ्य नहीं हैं। हमारी ज़िन्दगी का यथार्थ ये है कि हम बीमार हैं। तो अब आप पूछ रहे हैं कि, "लक्ष्य क्या बनाएँ?" दूसरे शब्दों में, "दवाई कौन सी लें?" दवाई कौन सी लें ये तो मैं तब बता पाऊँगा न जब मुझे पहले पता हो कि आपकी बीमारी क्या है। बीमारी बताइए भाई और बीमारी बहुत साफ़-साफ़ बतानी होगी, ऊँगली रख कर बताना होगा, एकदम देखना होगा।

आप चिकित्सक के पास भी जाते हैं तो यूँही थोड़े ही वो आप को दवाई लिख देता है। आप जाते हो तो सब से पहले क्या कहता है? जाँच करा कर आओ। फ़िर जब आप रिपोर्ट ले कर जाते हैं दूसरी बार, तब दवाईयाँ बताता है। और रिपोर्ट बड़ी विस्तृत होती है, होती है कि नहीं? न जाने उसमें कितनी तो संख्याएँ होती हैं। बारीकी से एक-एक चीज़ लिखी होती है तब जा कर वो आपके लिए कोई दवाई निर्धारित कर पाता है।

ऐसे थोड़े ही कि आप उसके यहाँ पहुँचे और वो बोले कि, "अरे झुन्नू कम्पाउण्डर, इनको पीली वाली गोली दे दो।" ऐसा होता है छोटे गाँवों में, कस्बों में। वहाँ ऐसे ही चलता है। वहाँ पर डिस्पेंसरी में चार तरह की गोली होती हैं, नीली, पीली, काली, सफ़ेद। और आपको कोई भी मर्ज़ हो इन्हीं चार में से कोई गोली दे दी जाती है। एक और पाँचवी गोली होती है। वो स्त्रियों वाली होती है। वो लाल होती है, कि औरतें आएँ तो ये गोली दे देना, पूछना ही मत कि क्या हुआ है। बस ये पूछ लेना, "औरत हो? हाँ? ये लाल गोली ले जाओ।" वैसा अध्यात्म चलाना हो तो बताइए, नहीं तो फिर साफ़-साफ़ ईमानदारी से बताइए न अपना मर्ज़।

और उसके अलावा कोई लक्ष्य नहीं होता है। आपका मर्ज़ अगर ये है कि गलत नौकरी में फँसे हैं तो भई वहीं पर उसका इलाज करना पड़ेगा न। गलत नौकरी में फँसे हैं और आप कहें कि, "मैं पंद्रह दिन का रात्रि जागरण करुँगा देवी की भक्ति में", क्या मिल जाएगा? पंद्रह दिन के बाद फिर कहाँ पहुँच जाओगे, उसी दफ़्तर में जहाँ पर खून पिया जाता है तुम्हारा। आपका मर्ज़ ये है कि परिवार में आपके गड़बड़ चल रही है तो परिवार में ठीक करना पड़ेगा भाई। वहाँ ये थोड़े ही होगा कि आप फिर कहें कि, "मैं उपनिषद पढ़ लूँगा तो हो जाएगा काम।"

अध्यात्म जीवन से भगोड़ापन थोड़े ही सिखाता है। जहाँ पर तकलीफ है ठीक वहीं पर इलाज करना पड़ेगा। जहाँ दुश्मन है ठीक वहीं पर धावा बोलना पड़ेगा। ये थोड़े ही कि तकलीफ वहाँ है (और इलाज इधर)। फिर इसीलिए बहुत लोगों को शिविरों से अधिक लाभ नहीं होता। यहाँ से वापस जा कर के आप फिर अपनी मुसीबतों के साथ हँसी-खेल करने लग गए तो शिविर क्या लाभ देगा आपको? उन्हीं मुसीबतों से घबरा कर शिविर में आए थे और यहाँ से निकल कर गए और उन्हीं मुसीबतों के गले लग गए, शिविर क्या लाभ देगा आपको?

बिना बात उघाड़े जितना बताया जा सकता था मैंने बता दिया। संकेत पढ़ रहे होंगे तो आप समझ गए होंगे।

किसी ने पूरा चिकित्सा शास्त्र भी पढ़ा हो दस साल, एम.बी.बी.एस., डी.एम.एम.डी. ये सब करे बैठा हो, तो भी आप उसके पास जाएँगे और आपके घुटने में तकलीफ है, तो उसने जो दस-बारह साल पढ़ा वो सब थोड़े ही आपको खिला देगा, या खिला देगा? बारह साल की उसने जितनी अपनी शिक्षा ली है वो सब आप पर लगा देगा क्या? वो तो बस ये कहेगा न कि, "आपके घुटने में तकलीफ है, घुटने भर का इलाज करुँगा।" पढ़ तो हो सकता है उसने सब कुछ रखा हो। वैसे ही आप आकर कह रहे हैं लक्ष्य बता दो। अरे, तकलीफ तो बताओ, घुटना तो दिखाओ।

ज्ञान तो विस्तृत होता है लेकिन उसका उपयोग सदा विशिष्ट होना चाहिए। अंतर समझ रहे हो? तभी मज़ेदार बात हुई। नॉलेज वुड बी जनरल बट इट्स एप्लीकेशन हैस टू बी स्पेसिफिक (ज्ञान विस्तृत होता है परन्तु उसका उपयोग विशेष)।

प्र: वही, लक्ष्य को लेकर ये लगता है कि जिसमें एक संतुष्टि दिखाई दे, जीवन की एक पूर्णता दिखाई दे।

आचार्य: अभी असंतुष्टि कहाँ से है?

प्र: असंतुष्टि वही जैसे आप इशारा कर चुके हैं कि सुना और श्रवण में आए, फिर उसके बाद वापस संसार में गए।

आचार्य: हाँ, उस संसार में बिलकुल ऊँगली रख कर बताइए कि असंतुष्टि कहाँ पर है। किस रिश्ते में है, किस जगह पर है, किस काम में है?

प्र: ऑफिस में है। ऑफिस में जैसे सारा माहौल ही भ्रष्ट जैसा लगता है। हमें लगता है कि फिर प्रतिदिन जाना भी ऑफिस में ही है। और कई बार लगता है कि उसको एक्सेप्ट (स्वीकार) कर लें, जब हर जगह यही चल रहा है, या तो नौकरी छोड़ दें। नौकरी लोग कर ही रहे हैं, नौकरी करते हैं तो फिर उसको एक्सेप्ट करें। सब ईश्वर की उपस्थिति में हर चीज़ चल रही है, ये सोच कर मैं अपना काम करता रहता हूँ परन्तु उसमें भी संतुष्टि नहीं मिलती।

आचार्य: देखिए साहब, हो सकता है कि कोई माँस की दुकान चलाता हो, कसाई का ही काम करता हो पर उसे अगर कोई दिल की बीमारी लग गई है, और वो गया डॉक्टर के पास और डॉक्टर ने बोल दिया, "आज से माँस खाना बंद।" तो बंद, वो ये थोड़े ही कहेगा कि, "मैं रोज़ वहीं जाता हूँ, वो तो मेरा काम है, वो मैं कैसे रोक लूँगा? कैसे परहेज़ कर लूँगा? मेरा तो काम ही वही है।"

डॉक्टर कहेगा, काम ही वही है तो करे जाओ। फिर वही करो और मरो। हाँ, जीने का इरादा हो तो जो हमने बताया उस पर अमल कर लो। कितने ही लोग ऐसी जगहों पर काम करते हैं जहाँ पर काम करना ही उनको बीमारी दे देता है। केमिकल इंडस्ट्रीस में आप काम करिए। वहाँ तमाम तरह की फ्यूम्स (रसायनिक धुँआ) होती हैं, हवा में केमिकल (रसायन) घुले मिले होते हैं, उनसे कैंसर होता है। अब आप जाएँ और डॉक्टर कह दे कि, "कल से दफ्तर जाना बंद", और आप कहें कि, "मेरा तो काम ही वही है, सब ईश्वर की छत्र-छाया तले होता है, केमिकल भी तो सब ईश्वर ने ही बनाए हैं।" तो डॉक्टर कहेगा, "अच्छा ज्ञान है, जो करना है करो।"

फिर वही है न, दिवाली आ रही है। विभीषण बोले राम से कि, "यहाँ मैं वैसे रह लेता था जैसे बत्तीस दाँतों के बीच में जीभ रह लेती है।" राम पूछे विभीषण से कि, "तू लंका में रह कैसे लेता है?" तो विभीषण ने क्या कहा? "बत्तीस दाँतों के बीच में जीभ रह तो लेती है, वैसे रह रहा था।" और आप कह रहे हैं कि, "मैं क्या करूँ? चारों तरफ घूसखोर हैं तो मुझ पर दबाव पड़ जाता है।" जिसको राम का नाम लेना होता है वो लंका में भी ले लेता है। आप पर दबाव कैसे पड़ गया?

प्र: पड़ता है, जो काम मेरा है।

आचार्य: तो काम में ये भी है क्या कि अभी घूस खाई कि नहीं खाई? ये काम का हिस्सा है?

प्र: हिस्सा है सर।

आचार्य: (व्यंग्य करते हुए) तो फिर करिए, ये तो बहुत अच्छा हिस्सा है, बेशक करिए। आप की जब ट्रेनिंग हुई होगी अपने काम के लिए उसमें ये बताया गया होगा न कि ये करो, ये करो, ये करो फिर घूस खा लो, काम का हिस्सा है। वो सब आप लिखित में भी रखते होंगे, डायरी पर या फाइल पर ये भी लिख देते होंगे कि ये काम हुआ, ऐसे निबटाया और इसमें इतनी घूस खाई।

माहौल का हिस्सा है, काम का हिस्सा नहीं है। तो किसने कह दिया कि आप माहौल के रंग में ही रंगे रहें? कुछ भीतर वाला रंग है कि नहीं है?

प्र: वही प्रायोरिटी (वरीयता) पर है।

आचार्य: तो बस ठीक है, फिर तो हो गई बीमारी हल।

हम माहौल देखें क्या? चलिए माहौल देखते हैं — यहाँ आस-पास कितने घरों में इस तरह की बातचीत चल रही है? तो माहौल देखते हैं। हम भी क्यों कर रहे हैं, हम पगलाए हुए हैं? आधी रात बीत चुकी है और हम यहाँ बैठ कर ये कैसी ऊट-पटांग बातें कर रहे हैं। पूरे माहौल में कोई कर रहा है? तो हमें भी तो माहौल के मुताबिक चलना चाहिए। मुझे भी अपने ही माहौल के मुताबिक चलना चाहिए था, मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? मुझे अमेरिका में होना चाहिए था, किसी एम.एन.सी. (बहुराष्ट्रीय कंपनी) का डायरेक्टर वगैरह होता, यहाँ क्या कर रहा हूँ? मिस्टर त्रिपाठी को आचार्य जी बनने की क्या पड़ी थी? लखनऊ में नहीं, लॉस एंजेलिस में होता।

माहौल के हिसाब से ही चलना चाहिए न। आई.आई.एम. में ये माहौल होता है, ये हरकत करो? वहाँ घुसते हुए इंटरव्यू में बता देता कि मेरे इस तरह के उपद्रवी काम करने के इरादे हैं तो वो मुझे अंदर नहीं आने देते।

उन लोगों की बात आप क्यों नहीं करते जिन्होंने अपना माहौल ही बदल डाला? उन्हीं की बात क्यों करते हैं जो माहौल के कारण बदल जाते हैं? ये आप जितने लोगों को यहाँ पर पढ़ रहे हैं, जिन भी महापुरुषों के नाम ले रहे हैं, ये कौन लोग थे? जो अपने माहौल से प्रभावित हो गए या जिन्होंने अपने माहौल को ही बदल डाला?

प्र: माहौल को ही बदल डाला।

आचार्य: तो आप ऐसे क्यों नहीं हो सकते जो अपनी रक्षा तो करे ही, फिर आगे किसी मुकाम पर जाकर अपने माहौल को भी बदल ही डाले? ऐसे क्यों नहीं हो सकते? चलिए, आज आपमें इतनी ताकत न हो कि पूरे माहौल पर अपना प्रभाव न डाल सकें पर इतनी ताकत तो दिखाइए कि माहौल से अछूते रह जाइए।

और ये बात मैं ऐसे किसी व्यक्ति से नहीं कह रहा हूँ जो बड़े आराम से और बड़ी सहजता से रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार में लिप्त है। आप अगर ऐसे होते कि आपको घूस वगैरह लेने से कोई समस्या ही नहीं हो रही होती तो मैं आपसे कुछ कहता ही नहीं। आप वो व्यक्ति हैं जिसे समस्या हो रही है, है न? चूँकि आपको समस्या हो रही है इसलिए मैं आपसे कह रहा हूँ कि समस्या है तो मत करो न भाई ये काम।

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