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लेख
जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या है? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम जिसके पीछे भाग रहे हैं वो अल्टीमेट डिज़ायर (आख़िरी इच्छा) क्या है?

आचार्य प्रशांत: तुम भाग रहे हो तो कोई तो उद्देश्य होगा। और अगर बिना उद्देश्य जाने भाग रहे हो, तो फिर स्पष्ट है कि क्या उद्देश्य है। एक आदमी जो बिना उद्देश्य जाने भाग रहा हो, उसके लिए तो एक ही उद्देश्य है अभी, क्या? पता करना कि क्या उद्देश्य है।

ये नहीं पता कि जाना कहाँ है, और गाड़ी चल रही है एक-सौ-साठ किलोमीटर प्रति घण्टे पर, तो इस वक़्त क्या उद्देश्य होना चाहिए? कि थोड़ा गति धीमी करके पता तो कर लो जाना कहाँ है।

हाँ, कहीं को जाना तो था शायद, गाड़ी इसीलिए चलाई थी। पर गाड़ी चलाने की धुन में यही भूल गए कि जाना कहाँ था। तो ऐसा करते हैं गाड़ी थोड़ी धीमी करते हैं, पता तो कर लें कहाँ को निकले थे, कहाँ पहुँचना था।

तुमसे ये तो मैं कह नहीं सकता कि तुम्हें कहीं जाना नहीं है। तुम्हारी बेक़रारी सबूत है कि तुम कहीं तो पहुँचना चाहते हो, नहीं तो इतनी कशिश नहीं होती। इतनी तड़प से कहीं को तो दौड़े चले जा रहे हो। कुछ चाहिए तो है तुमको। क्या चाहिए है, थोड़ा थम कर पूछो अपने-आप से। एक सावधानी रख लेना, बहुत तेज़ दौड़ते- दौड़ते अपने आप से पूछना मुश्किल हो जाएगा कि- “कहाँ जाना है?”

अगर बहुत तेज़ दौड़ रहे हो, तो सारी ऊर्जा लग जाएगी दौड़ने में ही। ये जान नहीं पाओगे की कहाँ जाना है। थोड़ा थमो, विश्राम लो।

प्र: क्या कोई अल्टीमेट डिजायर (आख़िरी इच्छा) नहीं है जिसको हमें प्राप्त करना हो?

आचार्य: तुम अल्टीमेट (आख़िरी) हो क्या?

तुम तो वही हो न जो यहाँ बैठे हो, तो तुम अल्टीमेट डिज़ायर (आख़िरी इच्छा) का क्या करोगे? तुम वो हो, जो यहाँ बैठे हो। तुम बात कर रहे हो अल्टीमेट डिज़ायर की, आख़िरी *डिज़ायर*। तुम ये देखो कि ठीक अभी तुम्हें क्या बेचैनी है, उसको दूर करो।

आख़िरी डिज़ायर कोई नहीं होती, आख़िरी तो आज़ादी होती है।

कामना तुम्हें अभी है या अल्टिमेटली (आख़िर में) होगी? इच्छाओं में अभी लथपथ हो, या अल्टिमेटली (आख़िर में) होओगे? अभी हो न? तो अभी देखो इन इच्छाओं से क्या पा रहे हो। इन्हीं के पीछे भागना है एक-सौ-साठ किलोमीटर प्रति घण्टे पर? इससे पहले तुम पूछो कि सही इच्छा क्या है, उन इच्छाओं का तो सर्वेक्षण कर लो जिनके पीछे इतनी ज़ोर से भाग रहे हो।

प्र: पर हमें यही नहीं पता कि हम किसके पीछे भाग रहे हैं।

आचार्य: ऐसा तो नहीं है, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। रोज़ सुबह उठकर तुम्हें नहीं पता होता है कि कहाँ जाते हो गाड़ी उठाकर?

आम दिनचर्या ही जीवन है, इसके अलावा और कोई जीवन नहीं होता।

रोज़ जिसके पीछे भाग रहे हो, यही देखो की उसके पीछे भागना मुनासिब है क्या? रोज़ सुबह गाड़ी उठाकर किसके लिए भागते हो? रोज़ शाम को वही गाड़ी लेकर कहाँ वापस आते हो? भाग तो रहे हो लगातार। जिनके पीछे भाग रहे हो, पूछो अपने-आप से, “कब सीखा मैंने इनके पीछे भागना? और इनके पीछे भागकर क्या पा रहा हूँ?”

आख़िरी इच्छा कोई नहीं होती। आख़िरी आज़ादी होती है। आख़िरी आज़ादी मौजूदा इच्छाओं से।

कोई नहीं बैठा है यहाँ जिसके पास कोई अल्टीमेट डिज़ायर (आख़िरी इच्छा) हो। सबके पास यही फुटकर इच्छाएँ होती हैं। क्या फुटकर इच्छाएँ?

“चलो यहाँ खाने चलते हैं!”

“घर बनवा लेते हैं!”

“बेटे की शादी करनी है!”

“विदेश घूमकर आना है।”

अल्टीमेट डिज़ायर किसके पास है, बताना ज़रा?

क्योंकि अल्टीमेट डिज़ायर होती, तो उस अल्टीमेट डिज़ायर को पूरा करने की भी कहीं कोई दुकान ज़रूरी होती।

आदमी बड़ा व्यापारी है। जहाँ इच्छा है, वहाँ उस इच्छा की पूर्ति करने वाली दुकान भी होती है।

कोई दुकान है जो बताती हो, “ अल्टीमेट डिज़ायर यहाँ पूरी होती है”?

बताती है क्या? नहीं है न? तो अल्टीमेट डिज़ायर भी कुछ नहीं होती है। यही आम दिनचर्या की इच्छाएँ ही हैं। इन्हीं दैनिक इच्छाओं में फँसे हुए हो।

प्र: आचार्य जी, पता नहीं कि आप मेरे जीवन में कैसे आए, लेकिन अब जब आ गए हैं, तो आपके साथ चलना कठिन लग रहा है। मुझे अध्यात्म पसंद आ गया है, और पता है कि यही सार्थक है, किंतु मैंने जो जीवन जिया है इतने सालों से, वो जीवन नहीं छूट रहा है। अपने अतीत की इच्छाओं में और अभी की इच्छाओं में दुविधा लगती है।

आचार्य जी, मैं इस पथ पर निरंतर कैसे चलता रहूँ?

आचार्य: साथ चलना कठिन लग रहा है, साथ छोड़कर चलना कैसा लगेगा?

तो तुमको ये उम्मीद किसने दी कि ज़िन्दगी आसान है? ज़िन्दगी का तो मतलब ही है कठिनाई। सही कठिनाई चुनो, सही कष्ट चुनो। मैं तो बिलकुल भी ये उम्मीद या दिलासा नहीं देता कि मेरे साथ चलोगे तो बड़ी आसानी रहेगी। मेरे साथ चलोगे तो दुविधा रहेगी, द्वंद रहेगा, कठिनाई रहेगी। हाँ, ये भी देख लो कि मेरे साथ नहीं चलोगे तो क्या रहेगा।

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