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लेख
जैसा जीवन वैसी मृत्यु || आचार्य प्रशांत (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक चैप्टर पढ़ा ‘सम्बन्ध’ पुस्तक से, उसमें एक चीज़ थी जो समझ नहीं आई, 'हमारे रिश्ते ख़राब इसलिए होते हैं क्योंकि वो हमारी अपूर्णता से निकलते हैं'। पूरा जीवन जब सम्बन्ध ही है और अकेले हम रह नहीं पाते, अकेलापन महसूस भी होता है। तो फिर यह अपने अकेलेपन के साथ रहने का क्या मतलब है और हम अपने रिश्तों को ठीक कैसे रखें?

आचार्य प्रशांत: तुम्हें अकेलापन लगता है दूसरों के संदर्भ में। तुम्हें अकेलापन लगता है जब तुम्हें भीड़ दिखाई देती है, जब तुम्हें भीड़ दिखाई देती है तब तुम कहते हो कि ‘मैं अकेला हूँ’। दूसरे न हों तो कहोगे कि अकेले हो? सबसे ज़्यादा अकेला तुम अनुभव तब करते हो जब दूसरों का ख़याल आ रहा होता है। दूसरों का ख़याल न हो तो अकेला कहोगे अपनेआप को? जवाब दो। अकेलेपन की भावना और दूसरों का ख़याल, क्या ये साथ-साथ नहीं चलते?

तुम अकेले होते हो दूसरों को दूसरा बना कर। पहले तो तुम दूसरों को दूसरा घोषित करते हो उसके बाद कहते हो ‘अरे! मैं तो अकेला रह गया’। दूसरों को दूर किसने किया? दूसरों को दूर करने का काम भी तो तुम ही कर रहे हो, दूसरों को दूसरा बना भी तो तुम ही रहे हो। कौन सा नियम-क़ायदा है जो तुमसे कह रहा है कि दूसरों को दूसरा होना ही चाहिए, दूसरों से दूरी तुम्हारी होनी ही चाहिए?

प्र: तो वो वॉलन्टीयरीली (स्वेच्छा से) थोड़े ही न होता है, ऐसे ही हो जाता है।

आचार्य: नहीं, मानना पड़ेगा तुम्हें कि तुम्हारे करने से ही हुआ है। झूठ तुम्हारे ऊपर लादे गए हैं लेकिन झूठ स्वाभाव तो है नहीं तुम्हारा, तुमपर लादे गए और अपनेआप तुमने ग्रहण कर लिए है। तुमने सम्मति तो दी ही हैं न, अब अगर अकेलापन अखरता हो, तो उस सम्मति को वापस ले लो।

प्र: ऐसा कौन सा समय था जब हम सही थे? मतलब जब कंडीशनिंग (संस्कार) नहीं थी?

आचार्य: जब हम, हम नहीं थे।

प्र: तब हम क्या थे?

आचार्य: हम नहीं थे, हम तो जब आए तो कंडीशनिंग (संस्कार) के साथ ही आए।

प्र: तो फिर हम आए कैसे?

आचार्य: "पाप को मम्मी से प्यार है, है न" (गीत), ऐसे आए और कैसे आए?

प्र: तो चीज़ जब कोई थी ही नहीं तो उतपन्न कैसी हुई?

आचार्य: नहीं वो थी, हमेशा से थी, समय की शुरुआत के साथ थी।

प्र: मतलब हम थे लेकिन…

आचार्य: इस रूप में नहीं थे, तुम्हें यह रूप तो मम्मी-पापा के प्यार ने दिया है।

प्र: प्यार?

आचार्य: "पापा को मम्मी से प्यार है", तुम्हें नहीं प्यार है? जैसे तुम्हें प्यार है वैसे पापा को मम्मी से था।

प्र: तो फिर पर्पज़ (उद्देश्य) क्या था, मतलब हम आए तो फिर रूप बदल कर हम क्यों आए?

आचार्य: तुम्हारा आज कोई पर्पज़ है? तुम्हें क्यों लगता है पहले रहा होगा?

प्र: अभी तो हर तरह से पर्पज़ है।

आचार्य: तो वैसे ही तब था जब पैदा होना था, ज़रा चहलक़दमी कर लें, ताज़ी हवा खा लें, या गर्भ में बहुत घुटन हो रही है लेट्स गो फॉर अ वॉक (चलो टहलने चलते हैं)।

प्र: उस रूप में भी पर्पज़ था?

आचार्य: अभी भी तुम्हारे जो उद्देश्य हैं, पर्पज़ हैं वो तुम्हारी वृत्तियों से ही तो निकलते हैं। कौन सा उन्हें तुम संचालित करते हो? तो तब भी यही था, मूल अहम-वृत्ति है वही तब काम कर रही थी।

प्र: तब हमें वो नज़र आ रहा था?

आचार्य: कुछ नज़र नहीं आ रहा था। न तब नज़र आता है, न अब नज़र आता है। वृत्ति है, अपना खेल तब भी खेल रही थी, अब भी खेल रही है। हाँ, तब उसका रूप दूसरा था, अब रूप दूसरा है।

प्र: मतलब, समय के साथ बदलता रहता है?

आचार्य: बस रूप ही बदलता है समय के साथ और कुछ नहीं।

प्र: सर, एक सिंपल स्टोरी थी ‘सरप्राइज मी’, एक रूढ़ी-विरुद्ध चलने वाले संत हैं जिनकी मृत्यु से कुछ क्षण पहले उनके शिष्य पूछते हैं कि आपके शव को हम जलाऐं या दफ़नाऐं यह हमें बताईए, तो वो कहते हैं ‘सरप्राइज मी’ और उनकी मृत्यु हो जाती है। तो इसमें मैसेज क्या है?

आचार्य: मैसेज यही है ‘सरप्राइज मी।’ जैसी मेरी ज़िंदगी रही है मेरी मौत भी वैसी ही होनी है। और अगर मुझे कुछ देना चाहते हो तो वैसा ही कुछ देना जो मेरी ज़िंदगी के समतुल्य हो, समथिंग दैट बिफ़िट्स माय लाइफ़। मेरा पूरा जीवन कैसा रहा है —क्या लिखा है इसमें— अपारम्परिक, लीग (संघ) से हटकर, किसी ढर्रे पर नहीं चला हूँ मैं। जब जीवन ऐसा रहा है तो मेरी मौत को ढर्रे क्यों डालोगे? जो ढर्रों पर जियें हों उनको ढर्रों पर मरने भी दो। हम तो जैसे ढर्रों पर चलते हैं वैसे ढर्रों पर मरते हैं, हमारे जीने की जगह भी पूर्वनिर्धारित है और मरने की भी। जीते हैं घर और दफ़्तर में, मरते हैं अस्पताल में, पहले से ही तय है। आप अभी से आश्वस्त रह सकते हैं कि आपकी मौत किन हालातों में होगी, कौन से लोग आपके आसपास खड़े होंगे, कितने दिन तक आपकी मौत का कार्यक्रम खिंचेगा, क्या कहते हुए आप मरेंगे।

जिस सीमा तक जीवन सुनियोजित है उसी सीमा तक मौत भी नियोजित ही रहेगी। आपने लोगों की मौतें देखी होंगी, उनमें बहुत अंतर देखा है क्या? सब एक सी ही तो मौत मरते हैं, लेटे-लेटे हार्ट-अटैक हुआ सिधार गए, गाड़ी से जा रहे थे भिड़ गए सिधार गए, कैंसर हुआ दो-चार महीनें लड़ाई लड़ी कैंसर से फिर सिधार गए। कितनी उबाऊ मौत लगती है हमारी, मौतों में भी कुछ ऐसा नहीं होता कि ज़रा रोमांच हो जाए, कि किसी को मौत कि खबर सुनाई जाए तो वो नींद से उठ जाए। कि अच्छा मर गए, ठीक है, पता है, ये कहानी पहले भी बहुत बार सुनी हैं। फिर मरने के बाद भी जो कार्यक्रम होता है वो भी उतना ही उबाऊ, वही लकड़ी, वही कार्यक्रम, वही शवदाह, वही पिंडदान। ये सब उनके लिए ठीक है जिन्होंने जीवन भी वैसा ही जीया हो।

इसको समझ लो कि जाते हुए गुरु की आख़िरी शिक्षा थी। हमने जो ज़िंदगी जी वो इसलिए नहीं जी कि अंत में तुम उसको रूढ़ि में बांध दो, वो वास्तव मैं एक मुक्त ज़िंदगी थी और जो मुक्त होता है वो अमुक्त में तब्दील नहीं हो सकता। अगर मेरा जीवन वास्तव में आज़ाद रहा है तो आख़िरी घड़ी में बंधक नहीं बन सकता। और इसी तरीक़े से अगर मेरा पूरा जीवन बंधक रहा है तो आख़िरी घड़ी में मैं मुक्त भी नहीं हो सकता। मुक्त, मुक्त रहेगा, बंधक, बंधक रहेगा। आख़िरी घड़ी में आपके मुँह में गंगाजल डाल दिया जाए तो उससे आप तर नहीं जाएँगे। मरने के बाद आपके तर्पण-अर्पण के, आत्मा की शांति के हज़ार कार्यक्रम कर दिए जाएँ उससे आप शांत नहीं हो जाएँगे। जीवन भर शांत नहीं रहे अब मरके क्या?

कबीर से पूछा किसी ने तो वो बोले “जीवत न तरे, मरे का तरे हौं”, जब ज़िंदा थे तब तो तरे नहीं अब मर कर क्या तरेंगे। पर हमें यह लगता है जैसे मौत जीवन से कुछ हटकर होगी। न, जैसा आपने जीवन जीया है मौत उसी का विस्तार मात्र होती है। जो हँसते हुए जीया है वो हँसते हुए मरेगा, जो बिलखते हुए जीया है वो बिलखते हुए मरेगा भी। जो जीवन भर आज़ाद था मौत की घड़ी में भी आज़ाद ही रहेगा और जो जीवन भर आज़ाद नहीं रहा है वो मौत के समय लाख कोशिश कर ले कि अब मरने का समय आ रहा है तो चलो तीर्थ कर आएँ, अब आख़िरी के कुछ महीने हैं चलो कुछ पुण्य कर लें, वो लाख कोशिश करले उसका कुछ नहीं हो पायेगा। जिसका जीवन ही ताज़ा रहा हो, जिसने कदम-कदम पर अस्तित्व को ही चौंकाया हो, वो अपनी मौत पर भी सबको चौंकाएगा, कह तो रहा है सरप्राइज़ मी।

वो ज़ेन फ़कीरों की कहानी सुनी है न, वो जो दो-तीन एक साथ घूमा करते थे। सुनी है? तो उनका काम ही यही था वो जहाँ जाते थे लोगो को गुदगुदी करें, किसी को कुछ करें, कुछ करें। किसी को चिकोटी काट कर भागें, किसी को चुटकुला सुना दें, किसी को लंगड़ी लगा दें। तो उनका काम ही यही था मौज़ करना, मौज़ कराना, हँसना-हँसाना। तो उनमें से एक मर गया, तो बाकी दोनों दुःखी होने लगे, जीवन में पहली बार उन्हें रोते देखा गया। तो ख़ैर ठीक है उसको ले गए जलाने के लिए जो मर गया था, जो जलाया तो पिट-पिट, पिट-पिट, पिट-पिट, बम-बम, बम-बम। वो मरते-मरते भी अपने भीतर फुलझड़ी, बम, पटाखे, अनार खोस कर मरा था, कि अच्छा चौकाऊँगा जब जलाने जाएँगे, ले जाओ भईया जलाने तभी मज़ा आएगाा। अब वो उसको चिता पर लेटा रहे हैं और अनार जल गया।

तो जैसा जीवन होता है मौत भी वैसी ही हो रही है। जब जीवन उन्होंने चुटकुले की तरह लिया तो मौत भी फिर चुटकुला थी। और हमारी सूरतें देखो कैसी हो जाती है, मुर्दे देखे हैं कैसे हो जाते हैं, जैसे हम रहें हैं जीवन भर, गप्प। फिर इसीलिए तो बेटा जाकर मुँह तोड़ता है बाप का, कहता है ‘अब मौक़ा मिला’।

कोई चमत्कार नहीं हो जाने वाला है, कुछ बदलना है तो या तो अभी बदल लो नहीं तो कुछ बदलेगा नहीं। तुम सोचते हो जीवन में कुछ नहीं बदल पाया मौत शायद कुछ बदल दे, अगले जन्म में कुछ दूसरा हो जाए। कभी कुछ दूसरा नहीं होगा, अहम-वृत्ति समय के आदि से बहती हुई आ रही है और कुछ बदल नहीं जाता है। इसी को कहते हैं सौ-सौ जन्म लेना। तुम्हारे नहीं जन्म हो रहे लेकिन मृत्यु के समुद्र में तो लहरें उठ-गिर रही ही हैं।

कुछ बदल नहीं जाता, जैसे हो वैसे ही रह जाओगे, हमेशा से ऐसे ही रहे हो और यात्रा तुम्हारी हमेशा से चल ही इसीलिए रही है क्योंकि ऐसे रहे हो। समय पर निर्भर मत करना, अनुभव पर निर्भर मत करना। बहुत समय बिता चुके हो, जब से समय शुरू हुआ था तब से समय बिता ही रहे हो। क्या बदल गया है? तो और सोचो कि अभी थोड़ा और समय बिता लें दस-बीस साल। अरे! दस-बीस अरब साल बीत चुके कुछ नहीं बदला और दस-बीस साल में क्या बदल जाएगा। बदलना है तो अभी बदलो। हज़ारों जन्म, हज़ारों मौतें कुछ नहीं बदल पाईं, कुछ और जन्म, कुछ और मौतें क्या बदल देंगी? तो इंतज़ार मत करो।

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