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लेख
जब चाहो तब मुक्ति || आचार्य प्रशांत, संत चरणदास पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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काहू से नहि राखिये, काहू विधि की चाह। परम संतोषी हूजिये, रहिये बेपरवाह।।

~ संत चरणदास

आचार्य प्रशांत: सवाल इसमें है कि अगर सत्य की चाह बनी रहती है, पढ़ने की चाह बनी रहती है, तो ये भी तो एक तरह की परवाह है न? अभी बेपरवाही तो आई नहीं?

अजीब भूल-भुलैया है संसार। अनेकों तल हैं इसके, हर तल पिछले तल से ज़्यादा पेंचीदा। जितना आप आगे बढ़ते जाएँगे इस पहेली में, इस भूल-भुलैया में, उतनी ज़्यादा पेंचीदगियाँ बढ़ती जाएँगी। जितना दूर आपका तल है, आपके स्रोत से, उस स्थान से, जहाँ से सब शुरु होता है, जहाँ से आपने भी शुरू किया था; जितना आप उस बिंदु से दूर गए हैं, जितने तलों तक आप आगे चले गए हैं, छिटकते चले गए हैं, पेंचीदगियाँ उतनी ज़्यादा बढ़ती चली जाएँगी।

ज़रा से छिटके आप तो, अभी भूल-भुलैया में बड़े पेंच नहीं हैं, पचासों मार्ग मिलेंगे आपको वापस आने के, सरल सी बात है। आपको ऐसा लगेगा, आप बस टहलने के लिए घर से थोड़ी दूर आ गए; ख़तरे का अभी आपको एहसास भी नहीं होगा। आप कहेंगे, "अरे! जब मन होगा लौट आएँगे, पचासों दरवाज़े हैं इस तल पर तो। मुक्ति सरल है, थोड़ा सा फँस लेने में बुराई क्या है? चलो, स्वाद चख लेते हैं बंधन का; मुक्ति सरल है, पचासों मार्ग है मुक्ति के।"

आप अगले तल पर जाएँगे, पेंचीदगियाँ बढ़ेंगी और साथ ही मुक्ति के रास्ते कुछ कम हो जाएँगे। लेकिन आपका आत्म-विश्वास बढ़ गया है। आप कहेंगे, "ना, फ़र्क नहीं पड़ता, अरे! पिछला वाला था न तल, उसको पार करके यहाँ आ गए हैं। लौटना सहज है, लौटना आसान है, जब चाहेंगे लौट जाएँगे।" और आप एक तल और आगे बढ़ेंगे, और एक तल और आगे बढ़ेंगे और कुछ ही समय में आप पाएँगे कि अब आप ये भी भूल गए हैं कि किस दिशा से आए थे। अब तो आप वापस भी लौटना चाह रहे हैं, तो वापस लौटने की जगह अगले तल पर पहुँच जा रहे हैं; पेंचीदगियाँ बढ़ती जा रही हैं।

जैसे धागे का कोई बहुत बड़ा गुच्छा, उलझ-उलझ गया हो और अब आप उसे जितना सुलझाना चाह रहे हैं, वो उतना और उलझता जा रहा है। आपका आत्म-विश्वास खौफ़ में बदल जाएगा। अब आप भागेंगे, भागने की कोशिश करेंगे, आपका जीवन एक दौड़ बन जाएगा। आप किसी भी प्रकार बचना चाहते हैं, आप भागना चाहते हैं, आपको मुक्ति चाहिए। लेकिन जितना आप भागेंगे, आप उतना पाएँगे कि अगले-अगले और अगले तल पर पहुँचते जा रहे हैं, जहाँ घुमाव बहुत हैं, जहाँ धोखे बहुत हैं, जहाँ उलझनें बहुत हैं और वापस लौटने के रास्ते कम, और कम होते जा रहे हैं।

लेकिन एक बात याद रखिएगा! आप किसी भी तल पर पहुँच गए हों, वहाँ से एक रास्ता हमेशा उपलब्ध होता है लौटने का, हमेशा। अन्यथा फिर वो भूल-भुलैया नहीं है, फिर वो लीला नहीं हो सकती, फिर वो खेल नहीं हो सकता। खेल का तो अर्थ ही यही है–जिसमें अभी आपको थोड़ी सम्भावना दी गई है जीतने की, आप जीत सकते हो। ठीक है अभी आप हार रहे हो, लेकिन खेल अभी पूरा नहीं हुआ। जब तक खेल पूरा नहीं होता, तब तक जीतने की सम्भावना है, और फिर वो अभी खेल नहीं है। आप कितना भी फँसे हुए हो, आपके सामने रास्ता एक खुला होता है–बड़ी कृपा है–इसी को अनुकम्पा कहते हैं। भूल-भुलैया के किसी भी तल पर जा कर के आप गिरे हो, कितनी भी आपने अपनी दुर्दशा कर ली है, लेकिन फिर भी मुक्ति का मार्ग कभी पूर्णतया बंद नहीं होता।

एक सूफ़ी फ़कीर मर रहा था। मरते-मरते उसने अपने साथी को बोला, "जाओ, जो मिले उसी को ले आओ। मैं उन्हें दीक्षित करना चाहता हूँ, एक आख़िरी बात कहना चाहता हूँ।" उसके साथी ने कहा, "किसको ले आऊँ?" उसने कहा, "जो मिले, सड़क, चौराहा, पर जो मिले ले आओ।" वो बोला, "तुम पागल हो गए हो, मरते समय तुम अपना होश गँवा बैठे हो। जीवन भर तुमने कहा कि, ’मैं सिर्फ़ सुपात्र को दीक्षा दूँगा, मैं सिर्फ़ चुनिंदा लोगों से बात करूँगा, मैं यूँ ही किसी को अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा’ और अब जब मर रहे हो तो तुम कहते हो किसी को भी ले आओ?" उसने कहा, "वक़्त नहीं है मेरे पास, जो कह रहा हूँ करो। जाओ और जो मिले ले आओ।" वो गया बाज़ार में, पाँच-सात लोग मिले, उनको उठा लाया और वो लोग कौन थे? एक आदमी घूम रहा था सड़क पर क्योंकि उसकी बीवी ने उसको मार कर निकाल दिया था, तो यूँ ही टहल रहा था, उसको ले आया।

एक शराबी, दिन में भी पिया हुआ भटक रहा था, उसको ले आया। एक चोर जो निरीक्षण करने निकला था कि आज रात सेंध कहाँ मारनी है, उसको पकड़ लाया। एक भिखारी जिसको कोई काम-धंधा नहीं था, यूँ ही पड़ा हुआ था सड़क किनारे उसको उठा लाया। इस तरीके के ‘सुपात्रों’ को लेकर के वो पहुँचा फ़कीर के पास, बोला, "यही मिले हैं। इतनी जल्दी में अब तुमने बुलाया है तो, इन्हें दोगे दीक्षा?" बोला, "हाँ इन्ही को दूँगा।"

उसके साथी ने उससे पूछा, "जीवन भर क्यों नहीं दी? जीवन भर क्यों कहा कि, उचित ग्राहक मिलने पर ही कुछ कहूँगा?" उसने कहा, "भूल थी मेरी।" कोई किसी भी स्थिति में हो उसके लिए एक दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है। ये भूल-भुलैया इतनी ज़ालिम नहीं है कि ये आपकी क़ब्र बन जाए। क़ब्र ही वो जगह होती है, जहाँ कोई दरवाज़ा नहीं होता; जहाँ से लौटने का कोई साधन नहीं होता।

भूल-भुलैया है, तुम्हारी क़ब्र नहीं है। संसार लीला है, दुःख बहुत है इसमें, पर आनंद का एक मार्ग हमेशा खुला छोड़ा गया है। तुम्हें खोजना भर है। कितनी भी तुम्हारी विषम स्थिति हो, तुम ख़त्म नहीं हो गए हो। हज़ार तुमने गुनाह कर लिए हों, हज़ार बार तुमने अपना संकल्प तोड़ा हो, मन तुम्हारा कितना रुग्ण हो, तब भी अभी कुछ बिगड़ नहीं गया है क्योंकि तुम्हें तो एक ही दरवाज़ा चाहिए न? किसी तल पर सौ होते हैं दरवाज़े, किसी पर पचास, किसी पर बीस और अंतत: भी एक दरवाज़ा तो होता ही है। तुम्हें कितने चाहिए? एक ही तो चाहिए न? एक हमेशा उपलब्ध होता है। वो एक, उस भूल-भुलैया का हिस्सा ही है, वो उसकी संरचना में शामिल है, उसके डिज़ाइन में शामिल है। वो हमेशा उपलब्ध है, समझ रहे हो? उस एक आखिरी दरवाज़े का ही नाम होता है–सत्संग।

सत्संग का अर्थ है–उसकी संगति जो ‘है’, जो ‘सत है’, जो वास्तव में है।

प्रश्नकर्ता: आपने कहा है कि पढ़ने की और आ कर के चर्चा करने की चाहत बनी हुई है, तो मैं बेपरवाह कैसे हुई?

आचार्य: आपके भीतर स्वाध्याय की, या ऐसी चर्चा की, या ऐसे श्रवण की जो चाहत है, ये बेपरवाही की ही चाहत है। यही है आपका आख़िरी दरवाज़ा मुक्ति का। जो भूल-भुलैया में फँसा हो, उसे बाकी अपनी सारी परवाहों को छोड़ना पड़ेगा। वो ये परवाह नहीं कर सकता कि मेरे कपड़े कैसे हैं, वो ये परवाह नहीं कर सकता कि पानी मिला कि नहीं मिला, वो ये परवाह भी नहीं कर सकता कि दुनिया में क्या चल रहा है।

उसका ये पूछना मूर्खता है कि दिन है कि रात है। उसका ये परवाह करना भी मूर्खता है कि जेब में पैसे कितने हैं, पर एक परवाह तो उसको करनी ही पड़ेगी, ‘मुक्ति का मार्ग कहाँ है?’ ये परवाह तो उसे करनी ही पड़ेगी। और याद रखिएगा, मुक्ति का मार्ग भूल-भुलैया के शिल्प में ही निहित है। जिसने ये भूल-भुलैया रची है, वो इतना कठोर नहीं कि उसने आपके लिए कोई मार्ग ना छोड़ा हो।

आप अपने लिए सौ दुखों का निर्माण कर लो, लेकिन आनंद का आकाश सदा खुला रहता है आपके लिए। आप अपने-आप को सौ जंजीरों में बाँध लो, लेकिन उन जंजीरों को तोड़ने की आपकी ताक़त फिर भी सदा विद्यमान रहती है। वो ताक़त है आपके पास, आपने गढ़ी होंगी अपने ही लिए सौ जंजीरें, लेकिन जिसने अपने-आपको अब जंजीरों में बाँध लिया है उसे अपनी बाकी सारी परवाहों को छोड़ना पड़ेगा। उसे ये ख्याल छोड़ना पड़ेगा कि हाथ कट तो नहीं रहा, खून आ तो नहीं रहा। ‘मैं दिख कैसा रहा हूँ, लोग क्या सोचेंगे, मेरा मालिक खफ़ा तो नहीं हो जाएगा?’ उसे सारी परवाहें छोड़नी पड़ेंगी, उसे बेपरवाह ही होना पड़ेगा।

बेपरवाह होने का ही अर्थ है कि सारी परवाहों को छोड़ दिया, एक परवाह बाकी है, क्या? मुक्त कैसे हों; ये आख़िरी परवाह है। ये आख़िरी परवाह, आपको करनी पड़ेगी क्योंकि मन तो आपका अभी पहेली, भूल-भुलैया में ही फँसा हुआ है। बेपरवाह होने का अर्थ समझिए। बेपरवाह होने का अर्थ है-जो कुछ मुझे बाँधता है, मैं उसके प्रति बेपरवाह हो जाऊँगा। एक परवाह शेष रहेगी, ‘मुक्त कैसे होऊँ?’ और ये परवाह भी फिर बहुत दिन तक रखनी नहीं पड़ती है। जिसके मन में ये लौ लग गई कि मुक्ति चाहिए, वो बहुत शीघ्र पाता है कि मुक्ति चाहिए नहीं, मुक्त हो ही गया।

कामनाओं में ऊँची-से-ऊँची कामना है - मुक्ति की कामना। उसे मुमुक्षत्व कहते है।

वो आम कामना नहीं है; मुमुक्षत्व का अर्थ ही है कि बाकी सारी कामनाएँ तिरोहित हुईं, एक बची, एक। और अंतत: फिर वो एक भी शेष नहीं बचेगी। जो मुक्त हो ही गया, वो मुक्ति की कामना क्यों करे?

समझ रहे हो बात को?

कृपा करके ये कुतर्क अपने-आप को मत दीजिएगा कि, "बेपरवाही का तो ये अर्थ भी हुआ न कि हम सर के सत्र में क्यों जाएँ, हम बेपरवाह हैं, नहीं गए। अरे! हम बेपरवाह हैं; नानक ने बताया बेपरवाह रहो।" आप का तर्क बिलकुल वही तर्क होगा कि भूल-भुलैया में फँसा हुआ आदमी कहे कि, "अरे! हम बाहर क्यों निकलें? हम बेपरवाह हैं।" तुम किसे तर्क दे रहे हो? तुम दिन रात रो रहे हो, तुम हो सकते हो बेपरवाह? तुम्हारा कतरा-कतरा रो रहा है क्योंकि मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है, बंधन तुम स्वीकार नहीं कर पाओगे और तुम झूठ बोलते हो कि तुम बेपरवाह हो। लेकिन बीमार मन कैसे भी कुतर्क दे सकता है।

अभी भी जब मैंने प्रश्न आमंत्रित किए हैं कुछ लोगों ने प्रश्न लिखे नहीं हैं और कुछ लोगों ने लिखे हैं तो बस यूँ ही लिख दिए हैं। अष्टावक्र गीता से प्रश्न पूछा जा रहा है, श्लोक नदारद है। कह रखा है स्पष्ट कि क्या पढ़ कर आना है और ये प्रश्न दिया जा रहा है। ‘हम बेपरवाह हैं! कौन कबीर, कौन नानक, कौन अष्टावक्र? हमें ज़रूरत ही नहीं है; हम बेपरवाह हैं।’ तुम बेपरवाह नहीं हो, तुम बेअक्ल हो।

कबीर, अष्टावक्र, नानक, ये व्यक्तियों के नाम नहीं हैं; ये मुक्ति के मार्गों के नाम हैं।

तुम इनके प्रति बेपरवाह हो रहे हो? कितना घना है तुम्हारा अँधेरा कि कोई प्रकाश तुम्हें छू नहीं पाता!

उसका अनुग्रह कि वो तुम्हारे सामने मार्ग खोले हुए है अभी भी, तुम्हारी तमाम मूर्खताओं के बाद भी तुम्हारे सामने विकल्प मौजूद है कि ‘आज मुक्त हो जाओ’। ये उसकी अनुकम्पा और उसके सामने देखो अपनी मूढ़ता कि, ‘तू मदद दिए जा, हम ठुकराते जाएँगे। तू रास्ते खोलता जा, हम हर खुले हुए रास्ते की ओर पीठ कर लेंगे। तू हज़ार सूर्यों का प्रकाश चमकाता रह, हम अपने बिलों में घुस जाएँगे।’ लेकिन कब तक कर पाओगे ये? एक-न-एक दिन आज़िज़ आ जाओगे, कहोगे, "बहुत हुआ।" मुक्ति तो स्वभाव है ही तुम्हारा, क्यों व्यर्थ अपने-आपको दुःख देते हो? क्यों नहीं सद्मार्ग पर चलते? जब रास्ता दिखाया जा रहा है, जब मदद के लिए हाथ बढ़ाया जा रहा है, तो चुपचाप समर्पित भाव से क्यों नहीं मान लेते बात को? क्यों उसमें अपनी जोड़-तोड़ लगाते हो? क्यों होशियारी दिखाते हो?

विवशता नहीं है तुम्हारी होशियारी; ये ना कहना कि, "मजबूर हूँ, विवश हूँ।" विवश आदमी तो चुपचाप बैठ जाता है, अब उसके बस की कुछ है नहीं, वो चालाकियाँ नहीं करता। विवशता चालाकी नहीं कर सकती, विवशता तो समर्पित हो जाती है। अब असहाय हूँ, अब समर्पण के सिवा क्या बचा? तुम जब अपने-आप को मजबूर बोलते हो, तब ग़ौर से देखो अपने-आपको। अगर मजबूर होते, तो दाँव-पेंच खेलते? अगर मजबूर होते तो चालें चलते?

तुम मजबूर कहीं से नहीं हो; तुम बहुत होशियार हो, बड़े चतुर हो। मजबूर आदमी तो चुपचाप कि, "करके देख लिया, मेरे बस की तो नहीं है।" ठसक हममें खूब है; ‘हम करके दिखाएँगे’ हालाँकि ये ठसक भी तुम्हारी ठसक नहीं है। तुम्हारे भीतर जो अहंता जोर मारती है, वो कुछ नहीं है, वो बस एक फीकी सी परछाई है। उसी सूर्य के प्रकाश से बनी हुई परछाई। तुम्हारी अहंता भी तुम्हारी नहीं है जिसके दम पर इतने फूलते हो; वो भी तुम्हारी नहीं है। अहंकार क्या तुमने अर्जित किया?

जिस अहंकार पर इतने चौड़े रहते हो, ये तो बताओ कि वो अहंकार भी क्या तुमने अर्जित किया है? वो अहंकार भी तो किसी ने दिया ही है। ये तो बड़ा बुरा लगेगा, "मेरा अहंकार भी मेरा नहीं है। अभी तक तो ये ही कहते थे कि अहंकार के जो विषय हैं, वो मेरे नहीं हैं। मैं कहता था मुझे ज्ञान पर अहंकार है, तो कहते थे ज्ञान बाहर से आया है"; मैं कह रहा हूँ ‘ज्ञान का अहंकार’, इसमें ज्ञान तो बाहरी है ही, अहंकार भी बाहरी है। अहंता भी तो उसी स्रोत से निकली है न? मूल वृत्ति; निकली तो वो भी उसी स्रोत से है; वो भी तुम्हारी कहाँ है?

सोचो जब अहंकार झूठ-मूठ का इतना मज़ा दे देता है, तो सोचो वो कितना मज़ा देगा जिसकी हल्की सी छाया भर है अहंकार, वहाँ कितना आनंद होगा? जब अभी एक झूठी ताक़त का ग़ुमान तुम्हें मस्त कर देता है, तो असली ताक़त कैसी होगी? झूठी छोड़ दो, असली उपलब्ध हो जाएगी। फँस जाते हो, असली का पता नहीं; झूठी कम-से-कम हाथ में तो है। "आप बड़ा अज़ीब सौदा करने को कहते हैं। कहते हैं, ‘कुछ मिलेगा और उसके बदले में अपना सब कुछ दे दो’। अरे! अपना जो कुछ है, वो कम-से-कम है तो। अरे! बीमारी है, कीचड़ है, बदबू है पर है तो मेरे पास कुछ! मेरी जेब तो भरी हुई है न? देखो मैं कितना कुछ लेकर के चलता हूँ। मेरा सी.वी पढ़ा? मेरे पास अट्ठाईस तरीके की बीमारियाँ हैं-मानसिक, शारीरिक, आत्मिक, हर तरह की बीमारी है मेरे पास और तुम कहते हो ये सब दे दो? अरे! जैसा भी है, कुछ है तो; भिखारी बनाना चाहते हो, बेवकूफ़ समझ रखा है, नंगा कर के मानोगे?"

"और वादा क्या है - ‘बदले में कुछ मिलेगा जो बहुत बड़ा है।' कहाँ है? डेमो दिखाओ, अरे हम मान कैसे लें कुछ मिलेगा? हमें तो नहीं दिखाई देता। किसी से मिलाओ जिसे मिला हो, फोन नंबर दो। अच्छा, चलो लिंक्ड-इन पर कनेक्ट करा दो (मिलवा दो), चलो, हम पूछ लेंगे। हाँ जी भाईसाहब, आपको मिला क्या? नहीं, कैसा लगता है?"

"आप कितने अंक देंगे पाँच में से? क्या फ़ीडबैक (प्रतिउत्तर) है आपका? नहीं, आप खुश हो आपको मिल गया तो? नहीं, माने कोई ना लेना चाहे तो? कोई डील (सौदा) चल रही है अभी, फेस्टिवल ऑफर ? नहीं, मैं तो ले लूँगा असल में मेरी वाइफ़ (पत्नी) है न, वो बड़ी शकी है, वो नहीं मानती। कुछ है क्या कॉम्बो ऑफर , एक के साथ एक फ्री (मुफ्त)? नहीं भाई साहब, मैं तो हमेशा ही लेना चाहता हूँ पर लेडीज़ (महिलाओं) का तो आप जानते हैं न, आसानी से मानती नहीं है। मैं तो आज ही ले लूँ, मुझे तो पता ही है मोक्ष है, मुक्ति है, ये ही तो असली चीज़़ें होती हैं बाकी तो संसार में क्या रखा है। लेकर आना भइया ज़रा एक, एक पैग और बना!"

सारी दिक़्क़त ही यही है न? जो मिलना है वो अज्ञेय है, अचिंत्य है, उसका कुछ पता नहीं चल सकता।

प्र: एक कहावत है अंग्रेजी में कि, ‘*अ बर्ड इन द हैण्ड इज़ बेटर देन टू इन द बुश*’ (हाथ की एक चिड़िया झाड़ के दो से बेहतर है)

आचार्य: हाँ, ‘ अ बर्ड इन द हैण्ड इज़ बेटर देन टू इन द बुश * ’, ‘अरे! मरी हुई चिड़िया है, पर मेरी चिड़िया है। मेरी गुलाबो, मेरी गुल, मेरी बुलबुल। हमें चिड़ीमार समझा है? जो हाथ में है, वो भी छूटेगी बाकियों के पीछे-पीछे दौड़ते रहेंगे। अभी जो भी है, है तो कम-से-कम। हम यकीन कैसे कर लें कि कुछ और होता है? अच्छा! अज्ञेय है कोई बात नहीं, कुछ तुक्का, कुछ अनुमान तो लगाएँ।’ तो शास्त्र खड़े हो जाते हैं अज्ञेय ही नहीं है, अनअनुमानेय है, तुक्का भी नहीं मार सकते। अनुमान भी नहीं चलेगा। "नहीं, यार फिर तो रहने दो, बंदे को कुछ तो * एश्युरेंस (आश्वासन) चाहिए ही होता है न?"

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