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लेख
हम हँसें जग रोये || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
42 मिनट
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कबीरा जब पैदा हुए तो जग हँसा हम रोये

ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे जग रोये

सात जन्म के सात फेर हैं

साँप सीढ़ी है भाई

जम का दंड मुंड पे लागे

धरी रहे चतुराई

कबीरा जब पैदा हुए तो जग हँसा हम रोये

ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे जग रोये

पाँच तत्व के पाँच पंच हैं

पाँच व्याद जग डोले

पंचम सुर में अनहद गूंजे

पंचम सुर में अनहद गूंजे

दसो द्वार को खोले

कबीरा जब पैदा हुए तो जग हँसा हम रोये

ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे हग रोये

कबीर

वक्ता: कबीरा जब पैदा हुए जग हँसा हम रोये, ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोये |

मान्यता हमारी यही रहती है कि एक जगत है जिसका कोई वस्तुगत अस्तित्व है, ऑब्जेक्टिव एग्जि़स्टेंस और हम उस जगत में पैदा होते हैं, कि बच्चा उस जगत में आता है| समझिये इस बात को कि बच्चा जगत में नहीं पैदा होता, जगत खुद पैदा होता है| बच्चे का पैदा होना जगत का पैदा होना है| निश्चित रूप से जब बच्चे के साथ जगत अस्तित्व में आ रहा है तो हँसेगा क्योंकि वास्तव में पैदाइश उसी की हो रही है? जगत की हो रही है| जिसे हम बच्चा कहते हैं इस प्रक्रिया में उसके लिए कुछ नहीं रखा है, वो कुछ पा नहीं रहा है पैदा हो कर के, उसका तो न होना भी भला था|

हर इंसान जो पैदा होता है जिसमें हमे लगता है की वो दुनिया में आया; इसमें उस इंसान के लिए कुछ नहीं रखा है, बिलकुल भी नहीं| हाँ उस खेल के लिये बहुत कुछ रखा है जिसको हम संसार कहते हैं| वो खेल आगे बढे़गा, वो खेल प्रसन्न रहेगा कि मैं आगे बढ़ रहा हूँ| बच्चे के लिये तो पैदा होना वही है जिसे बुद्ध कह गये है कि “*जीवन दुःख है*”| यही वजह है की पैदा होने वाला व्यक्ति आनंद को कभी पा नहीं सकता जब तक की वो उससे मुक्त न हो जाए जो पैदा हुआ था| द्विज होने का अर्थ ही यही है कि जो पैदा हुआ था, जो पैदा हुआ था, उसको मार दो क्योंकी जो पैदा हुआ था वो तो पैदा हो कर के सिर्फ दुःख ही पा सकता है|

उसके पैदा होने से संसार का चक्र भले आगे बढेगा| संसार हँसता रहेगा लेकिन जो पैदा हुआ है उसके लिये कुछ नहीं रखा पैदा होने में| उसे मरना होगा, उसे जाना होगा| क्या पैदा होता है? शरीर पैदा होता है, उसे जाना होगा|

ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोये,

तुमहरा शरीर रूप में आना, अपने आप को शरीर ही मान बैठना, द्वैत में जीने लगना, ये सब जग के काम-धंधो को आगे बढ़ाता है| इसी से जग हँसता है और तुम्हारा बोधयुक्त हो जाना सच्चाई को जान लेना दुनिया के काम-धंधो में रुकावट डालता है| और याद रखियेगा हम दुनिया के काम-धंधो की बात कर रहे हैं तो वो सब मूर्खतापूर्ण काम-धंधे ही है|

जगत का हँसाना वैसा ही है कि जैसे कोई आदमी खुद को ही चोट पहुँचा के हँसे; पागल है, मूर्ख है| जगत का रोना भी वैसा ही है कि जैसे कोई आदमी अपने ही हित पर रोये| आप जितने सोये हुए रहते हो, जगत उतना प्रसन्न रहता है| क्योंकि जैसा हमने जगत को जाना है, जो हमारी जगत की परिभाषा है वो है ही यही की सोये हुए का नाम दुनिया है| जो पैदा होता प्रतीत होता है वो सोया हुआ ही है| बुद्ध पैदा नहीं होते, शरीर पैदा होते हैं| अगर बुद्ध होते तो उन्हें ये लगता ही क्यों कि मैं पैदा हुआ हूँ| जो की सोया हुआ है, मूढ है इसीलिये उसे स्वयं भी ये एहसास होता है कि मैं पैदा हुआ| एक संसार था और मैं उसमे आ गया|

बुद्ध या अष्टावक्र ये कहेंगे नहीं कि मैं संसार में आ गया, वो कहेंगे संसार तो मेरा ही प्रक्षेपण है| तो आप जितने ज्यादा सोये हुए रहेंगे आप दुनिया के उतने ज्यादा काम के रहेंगे| आप जितने ज्यादा सोये हुए रहेंगे आप उतने दुःख में रहेंगे लेकिन आपकी दुनिया के लिये उपयोगिता बहुत ज्यादा रहेगी; जग हँसे हम रोएँ|

दुनिया आपसे बहुत प्रसन्न रहेगी, बस आपका चित होगा जो दिन-रात आँसू रोता होगा| आपको आदर-सम्मान खूब मिलेगा जग से; आप काम के हैं यूजफूल हैं; जग हँसे हम रोये, कबीरा जब हम पैदा हुए| पैदा हुए से आशय ही यही है कि जिस दिन मैं का भाव उदित हुआ और उसमे देहाभिमान आया| जब हम पैदा हुए’ से अर्थ है समय की शुरुआत, अहम की शुरुआत, देह के साथ संयुक्ता की शुरुआत, मूढ़ता की शुरुआत, अविद्या ,अज्ञान की शुरुआत| जग हँसे हम रोये – जितने अज्ञानी आप है, जितनी गहरी आपकी अविद्या है आप जगत को उतना ज्यादा प्रसन्न करके रखेंगे|

जगत जिस रूप का है, जो उसकी प्रवृत्ति है उसे मूढ़ों की बहुत शख्त जरूरत है| वो मूढ़ों से ही चलता है, उसे ऐसे लोग चाहिये जो काल में भटकते हों जो समय की पैदाइश हों, जो शरीर से आगे कुछ कभी जान न पाते हों| ऐसे लोग न हो तो कैसे चलेगा जगत का व्यापार? कौन जाएगा इन दुकानो में? कौन खरीदेगा? और फिर बेचने वाले भी कौन होगा? मूर्ख न हों तो कौन दौड़ लगा रहा होगा इन दफ्तरों में? जगत ठप पड़ जाएगा| आपके दुःख की बुनियाद पर जगत का व्यापार चलता है| आप जितने दुखी होंगे आप उतना दौड़ेंगे| आप जितना दौड़ेंगे संसार का पहिया उतना घूमेगा| जिस व्यक्ति ने दुःख को जीत लिया, जो आँसुओं के पार चला गया, वो संसार के किसी काम का नहीं रहता| संसार को दुःख की बड़ी आवश्यकता है|

जब बुद्ध कहते हैं कि संसार दुःख है, जीवन दुःख है, तो वो नहीं कह रहे हैं कि ये संयोगवश है| वो कह रहे हैं कि उसकी प्रकृति ही दुःख है| वो दुःख के अलावा कुछ और हो नहीं सकता| उसने दुःख छोड़ा तो उसे मिटना पड़ेगा| जग हँसे हम रोये; आपके रोने से आपका समस्त जीवन है, कुछ ऐसा नहीं है आपके जीवन में जो आपके आनंद से है| जरा सा अगर आप गौर से देखेंगे तो बहुत साफ़ हो जाएगा की मन मे जो कुछ भी है दिल की किताब का एक-एक पन्ना दुःख की ही स्याही से ही लिखा गया है| देखिये साफ़-साफ़ और बताइये कि आपके सारे सम्बन्धो का आधार – निराशा, पीड़ा, क्षोभ, भय, लोभ, मोह ये हैं की नहीं हैं? क्या एक भी सम्बन्ध है आपका जिसका आधार आनंद है? एक भी? और ये आपके सारे सम्बन्ध संसार के सम्बन्ध है| आप जितना रोते हो उतने आपके सम्बन्ध बनते है|

जग हँसे हम रोये, जगत का व्यापर आगे बढता है और आपकी पीड़ा सघन होती जाती है| आप जितना तड़पते हो, आप उतना महत्वाकांक्षा की दौड़ में आगे बढ़ते हो| आपको कुछ बनना है, आपको कुछ पाना है, आप प्रगति ततरक्की चाहते हो| बाजारें और सजती जायेंगी, लोग बढ़ते जायेंगे, माल बिकता जायेगा| जगत गहराता जायेगा और आप देख भी नही पाओगे कि ये सब कुछ आपके कष्ट की बुनियाद पर हो रहा है और मूढ़ता की पराकाष्टा ये है कि आप ये दावा करोगे कि ये सब कुछ मेरे लिये अच्छा है|

थोड़ा, एक भेद करना जरुरी है| कबीर जब यहाँ पर कह रहे हैं, “जग हँसे हम रोये तो जग से वो अस्तित्व की बात नही कर रहे हैं| जब वो कह रहे हैं जग तो उनका आशय समाज से है, उनका आशय उस जगत से है जो इंसान ने बनाया है| उनका आशय उस जगत से है जिसमे रुपया है, पैसा है, दुकान है, व्यापार है, तंत्र है, राजनीति है घर है परिवार है, नियम है, कायदे हैं – ये उस जगत की बात कर रहे हैं जो इंसान का बनाया हुआ है| वही हँसता भी है| आपके घर में बच्चा पैदा होता है तो कुत्ते और बिल्ली नहीं हँसने आते और बंदर नहीं बधाई गीत गाते| अड़ोसी-पड़ोसी और रिश्तेदार हैं जिन्हें हंसी फूटती है|

बहुत सार्थक और तुरंत जगा देने वाली पंक्ति है अगर याद रह सके *“ जग हँसे हम रोये ”* | टटोलिये अपने मन को और जितनी बार हो सके उतनी बार टटोलिये| जब भी देखिये अपने चारो ओर जगत को उत्सव मनाते हुए पूछिये कि क्या यही नहीं हो रहा है? जग हँसा हम रोये| आप हैं एक शौपिंग मॉल में, है मूर्खता का आयोजन चारो तरफ और उस पूरे माहौल में क्या हो रहा है आपके मन के साथ? क्या आनंदमग्न है? माहौल हँस रहा है, याद रखियेगा सिर्फ माहौल है जो हँस रहा है, मूढ़ता हँस रही है| मूढ़ता जब भी हँसेंगी बहुत गहरे में कुछ होगा आपके भीतर जो रोएगा|

आप गए हैं किसी शादी ब्याह में, आपकी ही शादी है| बधाइयों का तांता लगा हुआ है पूरा जगत हँस रहा है, नाच रहा है| काश की आप उस समय पर ये कह सके कि जग हँसे हम रोए |

और जग बहुत हँसता है, उसको इससे ज्यादा किसी और अवसर की तलाश होती नहीं | “कब करोगे? फिर बच्चा कब पैदा करोगे?” मैं आपसे कह देता हूँ, “जब भी कभी जग आपको बधाई देने आये, उसी दिन को समझना कि आत्म हत्या हो रही है| जब-जब तुम्हे बधाइयाँ मिली हैं वो बधाइयाँ नहीं हैं वो तुम्हारी मौत के सन्देश हैं| ये है इस जगत की प्रकृति| बुद्ध को बधाइयाँ नहीं मिलती है, मूढ़ों को बधाइयाँ बहुत मिलती है| और आप निरंतर उसी दिशा में बढे़ जाते हो, वही काम करे जाते हो जहाँ आपको बधाईयाँ मिल सके| आप चाहते हो दफ्तर में तरक्की, व्यापार में तरक्की और पैसा बढ़े, बधाइयाँ मिलेंगी| आप चाहते हो छोटी कार है बड़ी कार आ जाये, बधाइयाँ बेशक मिलेंगी| ये सूत्र पकड़ लीजिये अच्छे से कान में पड़े कोंग्रैक्चुलेषण, आप को सुनाई दे ‘आई ऍम डेड |

जगत यूँही आपको कोंग्रैक्चुलेषण कभी बोलने आएगा नहीं| वो तो बधाई तभी बोलेगा जब आपने अपने रोने का इंतजाम कर लिया हो| जग हँसे हम रोए, जितनी गहरी आपकी मूढ़ता उतनी मरतबा आपको मिलेगी बधाई और मिलती ही जाएगी| जो विवेकी लोग हैं वो एक सूचि बना लें की जिंदगी में मैंने ऐसा क्या-क्या किया है जिसपे मैंने बधाई पायी है| उनके सामने उनके दुःख की किताब खुल जायेगी| यही वो मौके थे जब मैं मरा| और जिनका इरादा जीवन को नष्ट करने का न ही हो वो एक दूसरी सूचि भी बना लें की मैं ऐसा क्या-क्या करने जा रहा हूँ जिस पर बधाई मिलेगी| जिसमे पे आके लोग कहेंगे, “बहुत बढ़िया, कोंग्रैक्चुलेषण ,बधाइयाँ, शाबाश और जो भी कुछ उसमे लिखे उसको ज़हर की तरह त्याग दे| वो ही ज़हर है, वही ज़हर है|

‘ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोए ’| अस्तित्व हँसेगा और नाचेगा भी तुम्हारे साथ, जगत नहीं नाचेगा| सम्भव नहीं है कि वो स्थिति आए कि तुम भी हँसो और जगत भी हँसे| जिस दिन तुम वाकई हँसे उस दिन जगत रोएगा ही क्योंकि जगत के होने का अर्थ ही है भ्रमों का होना| भ्रम नहीं तो जगत कहाँ और तुम्हारे हँसने का अर्थ ही यही है कि भ्रम मिट गया, कोहरा छंट गया| भ्रम तो रोयेगा, तुम्हारा जगना उसकी मौत है| जगत तो रोएगा जब तुम वास्तव में हँसोगे| तो साफ़ समझ लो जब जगत को रोते देखो, तड़पते देखो अपने चारो ओर अपने कारण तो जान लेना की कुछ ठीक ही किया होगा| जान लेना की ठीक न किया होता तो ये लोग इतना बिलबिला न रहे होते| जान लेना कि कबीर को आज नाज है तुम पर क्योंकि यही तो सन्देश दिया उन्होंने, तुम्हारे ही लिये तो जिये वो| ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोए|

और जग का अर्थ क्या है? जग का अर्थ कोई बहुत बड़ा नहीं है| हमने कहा जगत वो जो आदमी ने बनाया है, वो तुम्हारे मन से निकला है| तो जगत का अर्थ बस वही है तुम्हारे आस-पास के लोग, तुम्हारा करीबी परिवेश बस इतना ही है| जगत का अर्थ दुनिया की पूरी आबादी नही हैं| जगत में नदी या पहाड़, पर्वत शामिल नही हैं, जगत में तो यही लोग शामिल हैं, बस लोग व्यक्ति| और मैं साफ़-साफ़ ये निवेदन कर देना चाहता हूँ तुम जागोगे तो ये व्यक्ति रोएँगे| ये इसलिये रोएँगे क्योंकि ये इतने मूढ़ हैं की इन्हें पता ही नहीं है की इनका हित किस में है| ये अँधेरे के इतने अभ्यस्त हैं कि रौशनी इनकी आँखे चौंधिया देती है, इन्हें कष्ट देती है|

बहुत रोएँगे, बहुत बिलखेंगे इनके रोने, बिलखने, कलपने से पसीज मत जाना| वो रोना, बिलखना, कलपना, वो सब भी चाल है माया की, वो भी अँधेरे की शाजिश है अपने आप को कायम रखने की| उनके रोने से तुम पे जो असर होता है उसको शाजिश मानना और उनके रोने से उन पर जो असर हो रहा है उसे उनकी सफाई मानना| उसे उनके प्रायश्चित की शुरुआत मानना|

पीड़ा के क्षण में ये सम्भावना पैदा हो जाती है कि व्यक्ति थोड़ा ईमानदार हो कर के अपने जीवन को देखे| प्रसन्नता में लिप्त मन आत्म चिन्तन कर पाएगा इसकी संभावना शून्य होती है| इस अर्थ में पीड़ा, प्रसन्नता से भली होती है| दुःख में आप अपनी ओर देखना चाहते हैं| दुःख में आप पूछते हैं कि चूक कहाँ हुई? क्या गलत हो गया? तो उनके आँसुओं के दो तरफ़ा अर्थ हैं| एक तरफ तो उनके आँसू तुम्हे गलाने के लिये हैं, तुम गल मत जाना, इस अर्थ से सावधान रहना और दूसरी तरफ उनके आँसू खुद उन्हें भी गलाएंगेऔर ये बड़ी शुभ बात है|

उन आँसुओं को बहने ,दो जितना बहेंगे मन उतना गलेगा| अच्छे हैं वो आँसू, दो आँसू बहते हो तुम चार के बहने का इंतजाम करो| निर्मम हो जाओ बिलकुल| आवश्यक है की जग रोए , रोएगा नहीं तो उसकी पीड़ा कैसे गलेगी, “*हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये ”*| पीड़ा ही तो ठोस बर्फ बन कर बैठ जाती है, पूरा पहाड़| “*इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये ”*गंगा कुछ नहीं है पर्वत के आँसू है| जैसे पर्वत की जमी हुई पीड़ा जब गलती हो तो गंगा बहती है|

वो आँसू शुभ हैं, तुम नैतिकता में मत फंस जाना कि मेरे कारण कोई क्यों रो रहा है| भला है की रो रहा है और भला होता यदि और पहले रोता| तुम व्यर्थ परेशान मत हो जाना कि मेरे कारण इसको कष्ट मिला, उसको कष्ट मिला| किसको कष्ट मिला? समझो तो किसको कष्ट मिला, मूढ़ता को कष्ट मिला और भला है की कष्ट मिला| कष्ट नही मिलेगा तो मूढ़ता, अधिक मूढ़ता और परम मूढ़ता में तबदील होती जायेगी| तुम यही चाहते हो कि तुम्हारे आस-पास बेवकूफी का जो नाच चल रहा है वो बढ़ता जाए? तुम उसे रोकोगे तो नाचने वालों को कष्ट होगा वो रोयेंगे| तुम नही रोकोगे? नहीं रोकोगे? तुम कहोगे, अरे! नही ये तो रोएँगे ? भाई-बन्धु हैं, नाते-रिश्तेदार हैं, माँ-बाप हैं ये रोएँगे, हम कैसे इनका नाच रोक दें|

ये मौत का नाच है, उस नाच में सबके लिये सिर्फ कष्ट है| तुम्हें इसे रोकना होगा और वो अकसर रुकते-रुकते रह जाता है क्योंकि रोकने वाले आँसुओं में बह जाते हैं| पत्नी के आँसू बर्दाश्त नहीं हुए, माँ के आंसू झेल नहीं पाए, बच्चो की बिलख झेल नहीं पाए|

ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोए; नहीं, क्रूर होने के लिये नहीं कह रहे हैं कि अपने आस-पास वालों को मार-पीट के रुलाओ| ये हिंसा का पाठ नहीं पढ़ा रहे हैं कि ऐसी करनी कर चलो की तुम राक्षश की अट्टहास कर रहे हो और आस-पास पाँच दस पड़े हुए हैं जिन्हें तुमने धमा-धम पीट दिया है, कह रहे हो कबीर ने ही तो कहा था कि ऐसी करनी कर चलो की हम हँसे जग रोए तो कर दी| तुम हिंसा करते हो, तुम मूर्खता और क्रूरता करते हो उसमे जगत रोता नहीं है| उसमें तो जगत बहुत प्रसन्न रहता है क्योंकि उससे तो जगत का काम आगे बढ़ रहा है|

देश आपस में लड़ते हैं जगत बहुत प्रसन्न है, घर परिवार आपस में लड़ते हैं तो बहुत प्रसन्न हैं| लड़े न, तो जगत करेगा क्या फिर? क्या करेगा मुझे बताओ ना? बीमारियाँ न हों तो ये जगत क्या करेगा? कुछ करने को बचेगा? अप्रसन्नता न हो, अधूरापन न हो, तड़प, बेचैनी और कामना न हो तो ये जगत करेगा क्या? किसी के पास कुछ करने को बचेगा?

ये तड़प, बेचैनी, कष्ट यही से तो हमारी उर्जा निकलती है; यही तो इंजन है हमारा| तुम लोगो से उनके घाव छिंग लो वो पागल हो जायेंगे, तुम लोगो से उनके झूठ छीन लो, वो गिर पड़ेंगे| तुम्हे किसी से कुछ छीनना है छीन लेना वो तुम्हे माफ़ कर देगा, रूपये पैसे छीनोगे वो माफ़ी दे सकता है, उसके सम्बन्ध भी छीन लोगे तो भी हो सकता है माफ़ कर दे पर अगर तुमने किसी से उसके झूठ छीने वो तुम्हे कभी माफ़ नहीं करेगा| ये दुनिया चलती ही झूठ पर है| बेचैनी का नाम ही तो मन है और मन से ही जगत है| तुम उठोगे जगत रोएगा और यही घटना एक शुभ घटना है|

रो कर के रोने वाला खुद ही गल जाएगा, मिट जाएगा| कुछ शेष नहीं बचेगा, धन्यवाद के अलावा| वास्तव में अगर कोई रो सके तो रोना उपचार है, हम रोते भी नही हैं| वास्तव में अगर कोई रो सके तो आँसू औषधि है| हमारे आँसू सूख गए हैं| तो जगत रोता है तुम्हारे परितः, भली बात हुई रोने दो|

मैं कह रहा हूँ रो कर के रोने वाला ही मिट जायेगा| मात्र धन्यवाद की गूंज शेष रहेगी| लेकिन उसके लिये तुम्हें अपना दिल पक्का करना पड़ेगा, उसके लिये तुम्हारे मन में श्रद्धा होनी चाहिये की जो भी हो रहा है बिलकुल उचित हो रहा है, की सत्य कभी गलत नहीं हो सकता, की जो उचित है उसे होना ही चाहिये, की भावना कभी श्रद्धा से बड़ी नहीं हो सकती|

लेकिन इस दुनिया की ये कहानी रही है कि जब भी आँसू बहे हैं हमने भावना को श्रद्धा से ज्यादा कीमत दे दी है| तुम्हारी भावनाओ की कीमत दो कौड़ी की है| तुम्हारे मधुर सपने पाँच पैसे के नही हैं| ये प्यारी-प्यारी मुस्कुराहते, ये आकर्षक चितवन, थिरकते होंठ, लजाई पलके दो कौड़ी की कीमत नही है इनकी| पर कवियों ने इन्ही के गीत गाये हैं और हमे यही बताया गया है कि जीवन इन्ही से है| हमे बताया गया है कि किसी का दिल न दुखाना| दिल न दुखाना? जिन्होंने कहा है किसी का दिल न दुखाना, उन्हें जरा भी पता है की दिल क्या है? हृदय की बात वो कर नहीं रहे क्योंकि हृदय पर कभी चोट पड़ नही सकती| क्या है जिस पर चोट पड़ रही है? ये दिल क्या है? पर हमे बचपन से इस तरह की मूर्खता पूर्ण बाते बता दी गयी हैं|

और तुम अपने तथा कथित प्रेम में पड़ते हो और तुम्हारी प्रेमिका तुमसे पहला सवाल ही यही करती है “कभी मेरा दिल तो न तोड़ोगे?” तुम में जरा भी होश होगा तो तुम कहोगे और किस लिये तुम्हारे पास आया हूँ| दिल क्या मैं तुझे पूरा ही तोडूंगा| प्रेम इस के अलावा और करता क्या है? तोड़ता है, तोड़-तोड़ के मिटा ही दूँगा तुझे| हमारी आँखों में खौफ है क्योंकि तुम जानते हो कि तुमने ये कहा नहीं कि तुम्हारा रिश्ता बचेगा नहीं और मैं ठीक इसीलिये कह रहा हूँ ताकि कुछ बचे नहीं| वो बचने लायक होता तो इस बात से टूट न गया होता| ये मूढ़ता का रिश्ता है| इसमें दम होता तो तुम्हे बार-बार ये डर और शक न रहता की टूट जाएगा| ये टूट जाएगा नही ये टूटा हुआ है|

पर वही दो साल चार साल दस साल की उम्र में सुनी हुई बातें ले कर के तुम अपने मन में फिर रहे हो| किसी का दिल न तोड़ देना, किसी को आँसू न दे देना| और मैं तुमसे कह रहा हूँ तुमने जब भी कुछ बोध में किया तो आँसू ही आंसू पाओगे हर कोई रोएगा तुम्हारे चारो तरफ और अगर तुम समझदार नहीं हो तुमने बात को समझा नहीं है ठीक से तो तुम हिल जाओगे| तुम कहोगे, “अरे मैंने कोई पाप किया है क्या? अरे मैं तो बड़ा दुराचारी हूँ देखो मेरे कारण कितने लोगो को कष्ट मिल रहा है|” तुम तुरंत संदेह में पड़ जाओगे तुम्हारे कदम डगमगाने लगेंगे|

सत्य की राह पर चलने वाले का चित्त बहुत साफ होना चाहिये| तुम जैसे ही आगे बढ़ोगे, तुम्हारे चारो तरफ माया का नाच शुरू हो जाएगा| आँसू उसी नाच का अनिवार्य हिस्सा हैं| ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोए, जग तो रोएगा और जग रोया नहीं की तुम भावुक हो उठे और ये तुम भूल ही गए की तुम्हें ये भावुकता सिखाई किसने है| किसने सिखाई है?

श्रोतागण: जग ने|

वक्ता: जग ने ही तुम्हे सिखाया है किसी को आँसू मत देना| क्यों न देना? इंसान की फितरत कुछ ऐसी है कि वो मोटी से मोटी लोहे की बेड़ियाँ तोड़ सकता है पर दो आँसुओं की जंजीर वो ऐसा बाँधती है कि जिंदगी भर नहीं तोड़ पाता| ये बात आप स्पष्ट समझ लें, आप अपने आप को बंधन में पाते हैं, उसके पीछे आपकी भावुकता जिम्मेदार है| आपकी भावुकता आपकी महा बेवकूफी है और आपके दुःख का कारण है|

जो आदमी आँसुओं को नहीं झेल सकता, वो सत्य को भी नहीं झेल सकता क्योंकि सत्य तो आँसुओं की बाढ़ ले कर आता है| जिस दिन सत्य से साक्षात्कार होगा, रोओगे, रोओगे और जिस दिन सत्य में उतर ही जाओगे जगत को रोता हुआ ही पाओगे| उस रुदन का कारण अपने आप को मत मान लेना, तुम नहीं हो कारण| जगत की प्रकृति ही ऐसी है कि वो रोएगा| जिस दिन रोना बंद कर देगा जगत रहेगा नहीं| उस दिन तो शुद्ध, साफ, निर्मल अस्तित्व बचेगा बस| तुमने नहीं रुलाया है, इस दुनिया की प्रकृति ऐसी है कि ये रोने में ही जिंदा रहता है| ये रोना बंद कर दे, मैं फिर पूछ रहा हूँ, दुनिया में लोगो में बेचैनी न रहे तो बाजारों में नजर आएँगे क्या? रोना इनके लिये जरुरी है, तुम ये क्यों सोच रहे हो तुम इनके रोने का कारण हो?

बेवकूफ लोग न हों तो कपड़ो की दुकाने कैसे चलेंगी? कौन वहाँ खरीदेगा? और कौन वहाँ काम करेगा? ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोये, एक ही ऐसी करनी होती है तुम्हारा जागरण| और कोई ऐसी करनी नहीं है, कुछ और करने के लिये नही कह रहे हैं| बड़ी अजीब बात है हमसे कहा गया है जब बुद्ध को बुद्धत्व मिला तो देवताओ ने उन पर पुष्प वर्षा करी| हमसे कहा गया है कि तपस्वी, संन्यासी जब ज्ञान प्राप्त करते हैं तो लोग आ कर के चरण स्पर्श करते है| मैं तुमसे कह रहा हूँ ये बातें अर्ध सत्य हैं, आधी कल्पना है| सच तो ये है जिस दिन तुम जगते हो उस दिन तुम इस बेहोश व्यवस्था के लिये बहुत बड़ा खतरा बन जाते हो| सूरज तुम्हारे भीतर उग बैठा है अँधेरे के लिये अब तुम खतरा हो| तुम स्वयं सूरज हो गये हो| अँधेरा हजार तरीकों से तुम्हारा प्रतिरोध करेगा| वो चाहेगा कि तुम्हारा सूरज किसी तरह से अस्त हो जाए| और जैसे-जैसे तुम्हारा सूरज उगेगा वैसे-वैसे जगत का कष्ट बढेगा तुम्हे देख-देख के बढ़ेगा|

लेकिन भूलना नहीं ये कष्ट शुभ है क्योंकि कष्ट में तो जगत है ही| जगत की परिभाषा ही यही है, वो जो कष्ट की उर्जा से चलता है| वो जिसका इंजन बेहोशी का है और बेचैनी का है कि जो जितना बेचैन है उतना ज्यादा चलायमान प्रतीत होता है, उसका नाम जगत है| तो तुम मत सोचना कि तुमने कष्ट दिया| कष्ट उसकी प्रकृति है, तुमने नहीं दिया है| अपने को दोषी मत मन लेना, ग्लानी में मत आ जाना| तुमने नहीं दिया है कष्ट| इसी कष्ट से वो तरेंगे, इसी से उनका उद्धार होगा| ये परीक्षा है; तुम्हे ये परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी| ये दाव जीतना होगा| मोहित हो गये, विकल हो गये, भावुक हो गये तो गए; गए| मोहित हो – गए, भावुक हो – गए, विकल हो- तो भी गए; गए, बचना इनसे|

सत्य के प्रति संकल्पित रहो, गहरी श्रद्धा रखो और कमजोरी को मन को स्पर्श न करने दो| हिल मत जाया करो, इंसान होने का अर्थ है कि एक बार जान गये कि क्या उचित है तो फिर करेंगे, फिर मजबूरियों का बहाना नही देंगे| जान जाओ की क्या उचित है तो उसके बाद करो, मजबूरियाँ न गिनाओ|

हर मजबूरी नकली है| अभी हमने कहा ना, जगत चल ही मजबूरियों से रहा है| कोई वासना से मजबूर है, कोई भावुकता से मजबूर है, कोई रिश्तो से मजबूर है जगत चल ही इनसे रहा है| मजबूरियाँ मत गिनाओ, अडिग खड़े हो जाओ कि अब चाहे कष्टों का भूकम्प आए, चाहे आँसुओं की बाढ़ आए हम तो यहीं खड़े रहेंगे जहाँ खड़े है, हम बहेंगे नहीं|

देखो जगे व्यक्ति के लिये अस्तित्व लीला होगी, उसके लिये क्रीड़ा होगा, खेल होगा, आनंद का नाच होगा| जो अभी नहीं जगा, जिसकी आँखे अधमुंदी है पर जो आकांक्षी है जागने का उसके लिये अभी जगत लीला नहीं है, क्रीड़ा नही है, नाच नहीं है| उसके लिये तो जगत युद्ध है, उसे लड़ना होगा नींद से| हाँ, उठ गये तो उसके बाद नाच लेना| उसके बाद तो सत्य सामने है, सब लीला है ,फिर ठीक| पर अभी तो युद्ध ही है, जीवन समर है| लड़ना जानो, मन को कड़ा करना जानो| आँसू तो आँसू, खून भी बहे तो विचलित मत हो जाओ और नौबत आ सकती है की खून भी बहे, तो हिल मत जाओ|

देह रूप में पैदा हुए ना? अपने आप को देह ही तो जानते थे| कर्मफल है काटना पड़ेगा, कीमत अदा करनी पड़ेगी| वासनाओ का पिंड होता है जो पैदा होता है, उसे कटना होगा| पाप ही तो पैदा होते हैं, उन्हें कटना होगा|

तो कीमत अदा करिये, कीमत है आपके आँसू, आपका पसीना, आपका खून| मेहनत भी करनी पड़ेगी, भावनाओ से भी लड़ना पड़ेगा और चोटे भी खानी पड़ेगी और चोटें देनी भी पड़ेंगी| यही प्रायश्चित है, ये पैदा होने का दंड है ये भुगतना पड़ेगा| इसी को कबीर कहते हैं * देह धरे को दंड* | देह धरी है तो अब कीमत अदा करो| तुम इतने ही साफ़ होते तो पैदा काहे को होते, और पैदा होने से अर्थ यही है की तुम्हारे मन ये भाव की क्यों आता की मैं शरीर हूँ| शरीर ही तो पैदा होते हैं, तुम्हारे मन में भाव ही क्यों उठता? अब, जब उठा है ये भाव कि मैं व्यक्ति हूँ, तो उसकी सफाई भी करो| ये भाव ही पाप है, सफाई करो, कीमत अदा करो|

जैनों में एक वर्ग ऐसा भी निकला है जो यहाँ तक गया कि कहता है अगर कोई कष्ट में है तो उसकी मदद करने की कोशिश भी मत करो क्योंकि कष्ट के द्वारा वो अपने पुराने पापों को काट रहा है| मैं उनकी बात का समर्थन नहीं कर रहा हूँ, मैं नही कह रहा हूँ कि उनकी दृष्टि सत्य की दृष्टि है| पर मैं आपसे कह रहा हूँ, उनकी बात का इशारा समझिये| जिसने करा है वो भुगतेगा की नहीं भुगतेगा? या तुम कर्म के सिधांत को तोड़ दोगे? अब वो अगर भुगत रहा है तो तुम जिम्मेदार कैसे हो गये? तुम अपने आप को क्यों दोषी मानते हो?

कोई जीवन भर अपनी धारणाओं को सहेजे चलता रहा है; धारणाएँ हैं झूठी हैं, कभी तो उनपे चोट पड़नी थी| अब आज चोट पड़ी तो तिलमिला रहा है रो रहा है, तुम जिम्मेदार हो उसके रोने के? तुम जिम्मेदार हो? जवाब दो? तो तुम्हे क्यों ग्लानि अनुभव करना जरुरी है| जिस व्यक्ति ने एक गलत जीवन जिया है वो रोएगा और तड़पेगा और तिलमिलायेग, तुम कैसे जिम्मेदार हो गये? उसका गलत जीवन जिम्मेदार है, उसकी धारणाएँ जिम्मेदार है, उसका अज्ञान जिम्मेदार है| हाँ, दुःख है उसको पर उसके दुःख का कारण उसका अज्ञान है तुमने क्या किया है|

तुम अगर उसके दुःख को अनावश्यक रूप से रोकते हो तो तुम सिर्फ उसके अज्ञान को आगे बढ़ा रहे हो| अब जरुर तुम ज़िम्मेदार हो, उसे कष्ट में रखने के जिम्मेदार हो अब तुम| दुःख आ रहा है आने दो, शुभ है, रोने दो बिलखने दो और इन प्रश्नों में मत उलझो कि अरे बिलख-बिलख के इसकी मौत ही हो गयी तो| जीवन, मौत तुम्हारे हाथ में नहीं है, इन प्रश्नों से उलझने का कोई अर्थ नहीं| ये सारे प्रश्न ठीक वहीं से आ रहे हैं जहाँ से आँसू आते हैं| कहाँ से? माया से| हमने कहा था ना, बाहर से आए तो माया और भीतर से उठे तो वृति| दो तरफ़ा मार करती है, बाहर से तुम्हे दिखाई देगा की तुम्हारी पत्नी आँसुओ में है और भीतर से तुम्हारे ये वृति उठेगी जो सवाल उठाएगी “कि अगर ये मर ही गयी तो? आत्म हत्या कर ली तो?” वो जब मर ही रही होगी तो तुम रोक नहीं पाओगे| तुम्हारी इच्छा से उसने जन्म नही लिया, तुम्हारी इच्छा से मरेगी भी नही| पर हमारे भीतर ये सवाल उठता है और हम अपने आप को बड़ा जिम्मेदार समझने लगते हैं कि देखो मैं जिम्मेदार हूँ, कहीं मेरे कारण ये मर ना जाए| तुम्हारे कारण जी थी? कि तुम्हारे कारण मरेगी?

परमहंस कहते थे कि दो मौकों पर मुझे बड़ी हँसी आती है| पहला, जब कोई वैध्य किसी माँ के पास जाता है और उसके बच्चे को देखता है और कहता है कि चिंता न कर माई मैं तेरे बच्चे को बचा दूँगा| परमहंस कहते थे, “मैं हँसता इसलिये हूँ क्यूंकि उस समय इश्वर भी हँस रहा होता है| वो कहता है “तू बचा देगा? तू बचा देगा?”|” वो बोलते हैं दूसरा मौका होता है जब मुझे बड़ी हँसी आती है जब जमीन-वगैरह में दो भाई आपस में कह रहे होते हैं की इतना तेरा है और इतना मेरा है| बोलते है, “क्योंकि इश्वर भी उस समय हँस रहा होता है कहते हैं, “उतना तेरा है? उतना तेरा है?””

जिसे जाना है वो चला ही जाएगा, तुम्हारे रोके रुकेगा नहीं, तुम्हारे चलाए चल नहीं रहा है| ये तुम्हारी गहरी आंतरिक बेईमानी है, तुम्हे अपने आप को एक तर्क देना है कमजोरी का| अपनी कमजोरी के समर्थन में तुम्हे एक तर्क देना है अपने आपको बस| तो तुम अपने आप को ये तर्क देते हो कि “देखो मेरा झूठ में शामिल होना जरुरी था नaही तो ये आत्म हत्या कर लेती”| ये तुम्हारी अपनी आन्तरिक बेईमानी है, इसका उससे कोई लेना देना नही है| मेरा बच्चा पैदा करना जरुरी था, क्यों? सास को बड़ा कष्ट था| ये तुम्हारी गहरी बेईमानी है इसका सांस से कोई लेना देना नही है| मेरा दूसरी नौकरी करना जरुरी था, क्यों? बच्चो को पैसो की बड़ी जरूरत थी| क्यों झूठ बोलते हो? क्यों नकली तर्क जुटाते हो? अपने आप को ही दोखा दे रहे हो, ये तुम्हारी अपनी बेईमानी है|

कबीरा जब पैदा हुए तो जग हँसा हम रोये

ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे हग रोये

सात जन्म के सात फेर है

साँप सीडी है भाई

जम का दंड मुंड पे लागे

धरी रहे चतुराई

कबीरा जब पैदा हुए तो जग हँसा हम रोये

ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे हग रोये

पाँच तत्व के पाँच पंच है

पाँच व्याग जग डोले

पंचम सुर में अनहद गूंजे

पंचम सुर में अनहद गूंजे

दसो द्वार को खोले

कबीरा जब पैदा हुए तो जग हँसा हम रोये

ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे हग रोये

प्रश्न: ये क्यों कह रहे थे कि आप जब हँसेगे तो जग रोयेगा? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप भी हँसे और जग भी हँसे? क्या कोई विन-विन स्थति नहीं हो सकती क्या?

वक्ता: आप भी हँसे जग भी हँसे, परिभाषा क्या है? किन दो इकइयो की बात हो रही है? आप कौन है जो हँसता है? जग कौन है जो रोता है? और ये रोना कैसा रोना है? जगत को पहले परिभाषित करना पड़ेगा, जगत वो है जो चलता ही दुःख में है| समझो बात को, इस जगत का कोई भी काम, कोई भी गति, इसकी कोई भी प्रेरणा आनंंद से नही उठती है, पूर्णता से नही उठती है| यहाँ, सब कुछ ना कुछ पाने को व्याकुल है| ऐसा है की नही है?

जहाँ सबको कुछ ना कुछ चाहिये हो वो जगह तो क्षुद्रता के भाव से भरी हुई होगी, “हम में कुछ कमी है, हमे कुछ हासिल करना है|” और जिसे लगातार ये एहसास हो कि कुछ कमी है वो आनंदमग्न होगा या दुखी होगा? क्यूंकि इस जगत में सबको कुछ ना कुछ पाना जरुर है, उसी से स्वतः प्रमाणित है कि जगत की उर्जा दुःख है| आप हासिल करने के लिये बढ़ रहे हो, दौड़ रहे हो, यत्न कर रहे हो, उस सब के पीछे आपका दुःख है| तो जगत क्या? जो दुःख से ही भरा हुआ है और दुःख से बाहर निकलने का रास्ता नहीं जानता है| बुद्ध का पहला आर्य सत्य यही था, *“ जीवन दुःख है ”* | वही कहा था अभी आपसे जगत है ही क्या दुःख के अलावा|

आप हँसे जग रोए, आपके हँसने का क्या अर्थ है? आपका हँसना जगत के रोने का विपरीत नहीं है| मैं यहाँ हँसने रोने का युग्म नहीं बना रहा हूँ| आपके हँसने का अर्थ है आनंद में आपका मुस्कुराना, आपके हँसने का अर्थ है बुद्ध जैसा आपका प्रदीप्त हो जाना| बुद्ध की मुस्कुराहट देखी है ना? मैं जग उठा, मैं जल गया| एक बुद्ध का जगत से क्या रिश्ता होता है? जगत दुःख और बुद्ध उस जगत का क्या करता है? उपचार करता है, उपाय करता है, नाश ही तो करता है|

जगत दुखी इसीलिये नहीं है कि उसको श्रापित किया गया है दुखी रहने के लिये| जगत दुखी इसीलिये है क्योंकि दुःख से उसका गहरा तादात्मय है| आपसे कुछ भी छीन लिया जाए आप बर्दाश्त कर लोगे लेकिन आपसे आपके दुःख छिने जाए आप बर्दाश्त नहीं करोगे| सुनने में ये बात आपको बहुत अजीब लग रही होगी| मैं दोहरा के और जोर दे के कह रहा हूँ आप माफ़ नहीं करोगे उसको जो आपसे आपके दुःख छिंनता हो| आप आपके सुख छिनने वाले को माफ़ ही नहीं करोगे| आप उसके भाई बन जाओगे क्क्योंकी जो आपके सुख छिंग रहा है वो आपको और दुखी कर रहा है, और वही तो आप होना चाहते हो उसी में तो आपकी उर्जा है सारी|

ज्यों-ज्यों आप दुखी होते जाते हो त्यों-त्यों आपके विश्वास और गहरे होते जाते हैं कि हाँ देखो जीवन दुःख ही तो है| जैसे-जैसे ये पक्का होता जाता है जीवन दुःख है त्यों-त्यों ये प्रमाणित होता जाता है कि जिन तरीकों से आप जीवन जी रहे हो बिलकुल ठीक है| आप अपने चारों ओर सुरक्षा का एक कवच बनाना चाहते हो, आप दीवारें कड़ी कर लेना चाहते हो, आप ताले लगाना चाहते हो| कोई आ कर के आपकी पिटाई कर देता है इसे क्या सिद्ध हुआ? कि आप जो कर रहे थे बिलकुल ठीक कर रहे थे| तालों की जरूरत है, बल्कि आपने जो ताले लगाये थे वो छोटे थे और बड़े तालो की जरूरत है| यही तो आप चाहते थे| आपके घर में चोरी हो जाती है, ऊपर-ऊपर देखोगे तो ऐसा लगेगा कि अरे इनके घर में चोरी हुई है बड़े अफ़सोस की बात है| अफ़सोस की बात नहीं है, आपके लिये गौरव की बात है क्योंकि इसे सिद्ध हुआ जिन ढर्रों से आप जीवन जी रहे थे वो धरे बिलकुल ठीक थे|

आप जिंदगी कैसे जीते हो? आप जिंदगी ऐसे जीते हो, “दुनिया चोर है, दुनिया आक्रामक है, दुनिया खूंखार है, दुनिया मुझे खाना चाहती है, सुरक्षा करो, कवच पहनो, ताले लगाओ”| चोरों ने आपको सही सिद्ध कर दिया है, यही तो आप चाहते थे| जिस दिन आपके घर में चोरी होगी उस दिन से आप अपने बच्चो पर पहरा और कड़ा कर दोगे| आप कोई एक बहाना और मिल जाएगा, उनकी स्वतंत्रता छिनने का| आप कहोगे, “देखो दुनिया चोरो से भरी हुई है तू रात को नौ बजे घर आती थी ना अब से सात बजे आया करेगी” यही तो आप चाहते थे|

जो आपको दुःख देता है वो आपका साथी है उससे आपकी गहरी मित्रता है| जिन देशो में युद्ध चल रहा होता है वहाँ पर पहला आंतरिक आघात होता है व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर| हम सब जानते हैं संविधानो में मूल अधिकार नाम की एक चीज होती है और हम ये भी जानते हैं युद्ध के समय वो सारे अधिकार छिंग लिये जाते हैं| यही तो चाहते थे| दुख आपको मजबूत करता है इसीलिये आप उसे माफ़ नहीं करोगे जो आपके दुखो को गला दे| कोई सड़क पर आपकी पिटाई कर दे, आपको चोट लगेगी, आपका खून बहेगा लेकिन आपका अहंकार बड़ा तुष्ट होगा क्योंकि आपकी जीवन दृष्टि अब सही प्रमाणित हुई| आपने हमेशा यही तो मानना चाहा था कि जगत मेरा दुश्मन है, संसार एक खौफनाक जगह है जहाँ मैं फस गया हूँ| आपको पीट करके उसने आपको अनुज्ञापित कर दिया है कि अब तुम जाओ और दुनिया के साथ हर तरह की तिकड़म लगाओ, उपाय लगाओ, कमीनापन करो, लाइसेंस मिल गया है आपको| बात समझ रहे हो ना?

जो आदमी सड़क पे पिट के आता है, जो आदमी कपडे फ़डवा के आता है, जो आदमी अपने रूपये पैसे लुटा कर के आता है वो पाता है कि अब उसको अधिकार मिल गया है, लाइसेंस मिल गया है दुनिया के साथ हर तरह का छल करने का|

वो कहता है, “मेरे साथ हुआ, मैं भी कर सकता हूँ|” यही तो तुम हमेशा से चाहते थे| सच तो ये है कि दुःख तुम्हारी खुराक है, तुम्हे दुःख न मिले तुम तड़प -तड़प के भूखे मर जाओगे| और जहाँ दुःख नहीं मिल रहा होता है, वहाँ तुम दुःख का निर्माण करते हो| तुम गौर से देखो अपने जीवन को, दुःख से अगर भरा हुआ है, मैं पुनः पूछ रहा हूँ, तुम शापित हो क्या? तुम्हे दुःख दिया नही गया है तुम दुःख की फैक्ट्री हो| तुम बनाते हो दुःख, खुद ही बनाते हो और खुद ही उसमे लोट-पोट होते हो और जितना लोट-पोट होते हो उतना अपने आप को कहते हो “अरे जीवन दुःख है”| अजीब है तुम्हारा तर्क, जीवन दुःख है और दुःख से बचने की एक ही दवा है तुम्हारे पास और दुःख| यही तो करते हो ना, तुम्हे पीट दिया गया तुम्हे बदला चाहिये| दुःख को एक ही उत्तर दे पाते हो तुम, क्या? और दुःख| तो बुद्ध ने यूँँ ही नहीं कहा था, जन्म दुःख है, जीवन दुःख है, जरा दुःख है, मृत्यु दुःख है|

आप हँसे जग रोए, जगत बहुत रोएगा जब तुम उससे, उसके दुःख छिनोगे| माफ़ नही करेगा तुम्हें, हाँ जब दुःख छिन जाएँगे, जब जो दुखाभिमानी इकाई थी वो नष्ट हो जाएगी तो तुमको बार-बार धन्यवाद देने आएगा, कृतज्ञता ज्ञापित करेगा| (हँसते हुए) तुम्हारी प्रतिमा पर फूल चढ़ाएगा; मार दिया मैंने आपको| पर जब छिन रहे होगे उसके दुःख तब माफ़ नहीं करेगा| आप हँसे जग रोये, बहुत तकलीफ होती है अँधेरे को, जब सूरज की पहली किरण फूटती है| शासन था उसका, वही छाया हुआ था चारो तरफ, राज, अँधेरा और अँधेरे के गुमनाम रहस्य और सूरज आता है और सब कुछ साफ़, स्पष्ट, सरल हो जाता है, “अरे कोई जटिलता थी ही नहीं, हम यूँ ही फँसे हुए थे| कुछ था ही नहीं फँसने के लिये, कोई गाठें थी नहीं , बात सीधी और सहज थी और हम फंसे हुए थे|” बड़ी मूर्खता सी लगती है ना? आप माफ़ नहीं कर पाओगे| आपने दुखों से साथ, दोहरा रहा हूँ, पहचान बना रखी है| इतना पीछे छोड़ आए हो अपने स्वाभाव को की उसकी एक हलकी सी बस गूंज बाँकी रह गयी है|

अभी तो तुम जो अपने आप को जानते हो वो सिर्फ एक गंदगी का, कीचड़ का, दुर्गन्ध युक्त पात्र है| वही है जो तुम्हारा जीवन है, वही है जो तुम्हारा मन है, वही है जो तुम्हारी स्मृतियाँ हैं| अब तो बहुत-बहुत गहरा ध्यान चाहिये उसको याद करने के लिये जिससे तुम इतनी दूर आ गये हो| बहुत गहरा ध्यान चाहिये, बहुत दूर आ गये हो, बहुत छिटक गये हो| तुम्हे कुछ याद नही पड़ता अब|

तुमने बेड़ियों के आभूषण बना लिये हैं| कोई छीनेगा तुम्हारी बेड़ियाँ, तुम्हें यही लगेगा की मेरे सोने के कड़े छीने जा रहे हैं| तुम रो पड़ोगे| आप हँसे जग रोए| हाँ तुम रो जोर-जोर से बिलख-बिलख के, कलप – कलप के रोओ, जगत से बड़ी यारी रहेगी| जगत बड़ा सम्मान करेगा तुम्हारा, “ये साहब पिछले तीस साल से अनवरत रो रहे हैं, आइये इन्हें फूल मालाएँ पहनाइये| इनकी शक्ल देखिये, इनका मरा हुआ चेहरा देखिये| इनसे ज्यादा प्रसन्न, सम्माननीय कोई हो सकता है? दीजिये इन्हें सबसे बड़ा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार क्योंकि इन्होंने आनंद कभी जाना नहीं| इन्हें सबसे ऊँची जगह बिठाइये क्योंकी ये महारोगी हैं| ये बीमारों में बीमार हैं, ये सरताज बीमार हैं|

बीमारों के देश में स्वास्थ्य को अपराधी घोषित कर दिया जाता है, भूलना नहीं| आप हँसे जग रोए| दुनिया को तो छोड़ दो सबसे पहले तुम्हें ही तुम्हारा आनंद पसंद नहीं आएगा| हुआ है, लोग आए हैं कुछ क्षण कुछ दिन यहाँ रहे हैं, पास बैठे हैं मेरे| उसके बाद अचानक विलुप्त हो गए हैं| मिले कहीं बाद में पूछा तो बात जो निकल के आई कुछ ऐसी थी कि बड़ा अपराधी अनुभव करते थे| ऐसा लगता था कोई पाप करे दे रहे हैं, ऐसा लगता था अपनी जिम्मेदारियों को भूले जा रहे हैं| आप हलका कर देते थे और हलका होना बड़ा असहज लगता था| ऐसा लगता था कोई कीमती चीज थी जो छिन गई, जो छूट गई| क्या छूट गया? कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ, बोझ तो भागना पड़ा; बड़ी ग्लानि होती थी|

ये तो छोड़ ही दीजिये दुनिया आपको माफ़ नही करेगी आप खुद अपने आपको माफ़ नही कर पाओगे अपने उन्मुक्तता के क्षणों में| आप अपने आप से जवाब माँगोगे “तू कैसे जी लिया कुछ पल? कैसे तू साँस ले पाया? कैसे मुक्ति में तेरा दिल धड़क पाया?” आप अपने आप को ही सजा दोगे| और होता है, विधान होते हैं| कई पंथ हैं ऐसे जिनमें ये विधान होते हैं कि यदि पाप कर लो तो अपने आप को ही सजा दे लो, कोड़े मार लो|

आप अपने आप को कोड़े मारोगे| “अरे घंटे दो घंटे के लिये, हफ्ते दो हफ्ते के लिये मैं बहक कैसे गया था? मैं दुखों को भूल कैसे गया था? मैंने अपनी बेड़ियाँ उतार कैसे दी थी? आपके लिये सब स्वीकार करना आसान है, ये स्वीकार करना बहुत मुश्किल है की आनंद रूप हो| आपको कोई सौ गालियाँ दे दे; सच तो ये है कि आप जशन मानते हो| उपर-उपर से आप भीड़ जाओगे उससे, दंडा, गोली, पिस्तौल भी चला लोगे पर वो सब ऊपर-ऊपर है| मैं कह रहा हूँ अन्दर ही अन्दर आप मौज मनाओगे| आप कहोगे “देखा मैं जानता था, मैं जानता था दुनिया कामिनी है, देखो गाली दी| ठीक जानता था ना मैं देखा ऐसी ही तो है दुनिया”| विन-विन कुछ हो नहीं सकता| सूरज उगे और अँधेरा साथ ले कर के चले? अगर अभी आपकी हसरत ये है कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, कुछ इस तरीके के आपके उपाय हैं, चतुराईयाँ है कि देखो कुछ ऐसे करते हैं कि मसाला भी बना रहे और मोक्ष भी मिल जाए|

तो देखिये थोड़ा सा मुश्किल होगा| विन-विन मुश्किल पड़ेगा| दुःख भी बना रहे; दुःख पर आधारित जितने सम्बन्ध हैं वो भी बने रहें, कचड़ा पूरा कायम रहे और सुगंध भी उठे, मुश्किल है| हाँ बिकेगा खूब, आप जाके बाजार में लगा दीजिये अपना बोर्ड ‘मसालेदार मोक्ष’ बिकेगा खूब क्योंकि यही तो चाहिये, इसी का नाम तो विन-विन है| और ये खूब बिक भी रहा है; दोनों हाथ लड्डू, काम भी और आम भी, योग भी और सम्भोग भी| बताओ कहाँ? बेड़ियाँ भही उड़ान भी, स्वप्न भी जागरण भी| बताओ कैसे? “हम देंगे बच्चा” बहुत दुकाने हैं ये देने वाली, ये मत समझना कि ये जो तथा कथित धर्म गुरु हैं यही देते हैं| ये जो तुम्हार कॉर्पोरेट ऑफिसेस और क्या दे रहे हैं? तुम्हारे धर्म गुरु कहते हैं आध्यात्मिकता देंगे संसारिकता के साथ और तुम्हारे कॉर्पोरेट हाउसेस कहते हैं संसारिकता देंगे आध्यात्मिकता के साथ| दोनों एक ही बात कह रहे हैं|

ये जो ढोंगी बाबे घूम रहे होते हैं इनमे और कंपनी के जो सि.इ.ओ होते हैं उनमे कोई विशेष अंतर नहीं है और सच तो ये है कि अगर तुम दोनों के काम भी देखो तो बिलकुल एक जैसे हैं| दोनों एक ही काम कर होते है ना, लोगो को प्रेरणाए देने का| तुम किसी बाबा जी का प्रवचन सुनो या किसी सि.इ.ओ का भाषण सुनो, तुम हैरान रह जाओगे कि ये इतने एक से हैं| दोनों दो अलग-अलग दिशाओं से आ रहे हैं पर आ एक तरफ को ही रहे हैं| एक मसालेदार मोक्ष देता है दूसरा मोक्षदार मसाला देता है| इसी को तो विन-विन कहते है यही तुम माँग रहे हो|

इसी को धूमिल ने कहा है ना कि आम माध्यम वर्गी आदमी कुछ इस तरह क्रांति करना चाहता है कि विरोध में तने हुए हाथ की मुट्ठी भी कसी रहे और काँख भी दिखाई ना दे| आम माध्यम वर्गीय क्रांति कुछ इस तरह से करना चाहता है कि विरोध में हाथ तना रहे, “क्रांति-क्रांति” और चीजो की शालीनता भी बनी रहे की काँख भी न दिखाई दे, काँख भी ढकी रहे| यही तुम माँग रहे हो विन-विन, क्रांति भी हो गई और मर्यादा भी नही टूटी| (हँसते हुए) “देखा हम कितने चालाक हैं, हमसे होशियार कोई और है”| पति भी बने रहेंगे और परम को भी पा लेंगे| महत्वाकांक्षाए भी रखे रहेंगे और मुक्ति भी पा लेंगे| करवाचौथ मनाएँगे और उपनिषदों के गीत गायेंगे, जय हो! अरे यही तो कहते हैं उपनिषद, *“पूर्नामिदः पूर्णमिदं ”* पूरे चाँद के लिये ही तो बोला है| जब चाँद पूरा हो तो उसको देखो *“पूर्नामिदः पूर्णमिदं ”|* जो लोग इस उम्मीद पर चल रहे हैं वो ये उम्मीद छोड़ दें और नहीं छोड़नी तो न छोड़ें दुःख तो आपको चाहिये ही है ना, वो और मिलेगा

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