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लेख
हमारे जीवन में कब उतरती है गीता? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आपकी जो बाकी शिक्षाएँ हैं वो भी मुझे बिलकुल गीता से मिलती हुई लग रही हैं। आप जैसे पहले कहते थे कि हृदय में शिव और भुजाओं में शक्ति। तो अभी आप बोले कि हृदय कोमल होना चाहिए और बलिष्ठ भुजाएँ होनी चाहिए तो बिलकुल वो बातें एक जैसी लगीं मुझे।

आचार्य प्रशांत: देखो, ये गहराई में उतरने का आनंद होता है। बहुत सारी चीज़ें जो पहले अच्छी लगती थीं लेकिन अलग-अलग लगती थीं, अब वो अच्छी तो लगती ही रहेंगी, एक भी दिखेंगी। एक तो ऐसी-सी बात है कि जैसे तुम्हारा एक दोस्त है जो तुम्हें प्यारा है, एक तुम्हारा दूसरा दोस्त है जो तुम्हें प्यारा है और फिर तुम्हारा तीसरा दोस्त भी है और फिर चौथा दोस्त भी है, ठीक? और ये सारे जो तुम्हारे दोस्त हैं उनका आपस में कोई परिचय नहीं है। न सिर्फ़ ये एक-दूसरे से अपरिचित हैं बल्कि एक-दूसरे से बीच-बीच में रुष्ट भी हो जाते हैं, इनमें से कुछ जो एक-दूसरे को सतही तौर पर जानते हैं, वो एक दूसरे से रुष्ट भी हो जाते हैं और लड़ भी लेते हैं। ये स्थिति अच्छी है क्या तुम्हारे लिए? तुम्हारे लिए वो सब अच्छे हैं, तुम्हें वो सब-के-सब प्रिय हैं। मान लो तुम्हारे जीवन में तुम्हारे दस स्वजन हैं, मित्र हैं, कोई हैं, उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो एक-दूसरे से अपरिचित हैं और जो एक-दूसरे को जानते भी हैं वो एक-दूसरे से छत्तीस का आँकड़ा रखते हैं। ये स्थिति तुम्हारे लिए कैसी होगी? और लोग वो सब अच्छे हैं तुम्हारे लिए, तुम्हारे लिए वो सब अच्छे हैं, तुम्हें वो सब प्यारे हैं। लेकिन तुम्हारी हालत कैसी रहेगी? जैसे कोई बेटा हो, उसे माँ भी प्यारी हो, पत्नी भी प्यारी हो और माँ और पत्नी आपस में लड़ते रहते हों, बेटे की क्या हालत होती है?

प्र: द्वंद में रहता है वो।

आचार्य: और ये एकदम लड़ते ही रहते हैं, आपस में लड़ते ही रहते हैं और एक दिन बेटा घर वापस आए और पाए कि माँ और पत्नी एक हो गए हैं। कैसा लगेगा?

प्र: अद्वैत।

आचार्य: अद्वैत, बढ़िया (हँसी)। तो ऐसा होता है जब तुम शास्त्रों में गहराई में उतरते हो। वो सब जो तुम्हें भाता बहुत था पर भिन्नता भी दर्शाता था, अब भिन्नताएँ मिटने लगती हैं। अभी तो तुमने इतना ही परखा है कि वेदांत के ग्रंथ सब एक ही दिशा में इशारा कर रहे हैं, अलग-अलग श्लोक भी अलग-अलग नहीं हैं। अभी जब आगे बढ़ोगे तो तुम पाओगे कि वेदांत से भिन्न भी जो ग्रंथ हैं, कैसे वो वेदांत के साथ ही जुड़ जा रहे हैं, बड़ा आनंद आएगा। उससे और जब आगे जाओगे तो पाओगे कि कैसे जीवन ही वेदांत हो जा रहा है, तब आनंद में स्थापित ही हो जाओगे, तब आम ज़िंदगी में भी तुम्हें गीता के सूत्र दिखाई देंगे। सड़क पर जा रहे होओगे, कोई साधारण-सी घटना घट रही होगी, उसमें तुम्हें कबीर साहब का कोई दोहा याद आ जाएगा और सब कुछ एक हो जाएगा। उसमें समय लगता है, धीरे-धीरे होता है, अभ्यास भी चाहिए, हृदय भी चाहिए, लेकिन ऐसा होता है। ठीक है, बढ़िया जा रहे हो।

प्र: जैसे आप ही बता रहे थे डायलेक्टिक्स (द्वंदवाद) के बारे में, कि एक अहम् है और अहम् आत्मा की तरफ़ भी जाना चाहता है और नहीं भी जाना चाहता है, इसलिए द्वन्द में रहता है; तो ये जो विरोध है, ये क्या भिन्नता की वजह से है? कि कोई चीज़ अगर किसी दूसरे चीज़ से भिन्न है, अलग है तो वो दूसरी चीज़ की दुश्मन तो होगी ही क्योंकि भिन्नता में ही भय है और अगर अलगाव है तो डर है।

आचार्य: नहीं, नहीं, इससे अलग बात है। यहाँ एक चीज़ नहीं है जो दूसरी चीज़ से भिन्न है, यहाँ खेल और अजब है। यहाँ ऐसा है कि एक ही चीज़ है जो स्वयं से ही भिन्न हुई पड़ी है और वो भिन्न हो नहीं सकती क्योंकि वो चीज़ वही है। तो उसको बड़ी मेहनत करनी पड़ती है अपनी भिन्नता को बचाने के लिए। अहम् कोई आत्मा से भिन्न है क्या? आत्मा यदि एकमेव सत्य है, तो अहम् कहाँ से आ गया? वस्तुतः तो अहम् भी आत्मा ही है न, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, ठीक? आख़िरी बात तो यही है कि अहम् भी है तो आत्मा ही, लेकिन उसे आत्मा होना नहीं है, उसे अहम् रहना है। तो उस बेचारे को दिन-रात बड़ी मेहनत-मजदूरी करनी पड़ती है अपने-आपको आत्मा से भिन्न बनाए रखने के लिए। अब उसकी सच्चाई उसे आत्मा की ओर खींचती है क्योंकि सच्चाई तो यही है कि बेटा तुम तो वही हो, लेकिन उसकी ढिठाई उसे आत्मा से दूर रखती है क्योंकि कुछ भी कीमत अदा करके उसे ये दुराग्रह कायम रखना है कि ‘मैं हूँ’। ‘मैं हूँ’ माने आत्मा से भिन्न हूँ, मैं अलग हूँ, मैं कुछ हूँ।

वो जो व्यक्तिगत हस्ती है वो तभी तक बनी रह सकती है जब तुम उससे अलग रहो जो एक के अलावा किसी दूसरे को अस्तित्व की अनुमति ही नहीं देता और तुम्हारा आग्रह है कि ‘मैं तो रहूँगा’। तो फिर तुम अपना पूरा जीवन बस बने रहने के संघर्ष में बिताते हो और वो भी आरंभ से ही एक हारी हुई लड़ाई है। क्योंकि ये तो स्थापित बात है, निश्चित, कि तुम हो तो वही, जब तुम हो तो वही तो तुम कितनी भी जद्दोजहद कर लो तुम्हारा श्रम व्यर्थ ही जाना है न। तुम अनहोनी को होनी करना चाहते हो, तुम झूठ को सच करना चाहता हो, कर तो पाओगे नहीं। हाँ, मेहनत खूब करते हो। उस मेहनत से लेकिन एक चीज़ हो जाती है, दुनिया के सारे आँसू भी उसी मेहनत से निकलते हैं और सारे गीत भी। ये पूरा संसार ही अहंकार की व्यर्थ मेहनत का परिणाम है। हाँ, आँसू तब उठते हैं जब वो मेहनत की जा रही होती है आत्मा से और दूर जाने के लिए और गीत तब उठते हैं जब मेहनत की जा रही होती है आत्मा की तरफ़ जाने के लिए।

प्र: मैं पहले ओशो को भी सुनता था भगवद् गीता पर, वो भी लेक्चर में कहते थे कि अहंकार आकाश कुसुम खिलाना चाहता है, वही बात आपने बोली कि वह असम्भव को करने की कोशिश कर रहा है। खिल ही नहीं सकता कभी।

प्र२: नमस्ते आचार्य जी, आपने बोला ‘होशपूर्ण चुनाव’ तो वो समझ में नहीं आया कि होश में चुनाव कैसे करें?

आचार्य: चुनाव तो मजबूरी है, करना तो पड़ता ही है। चुनाव के पल में जो पहला बहाव है, उसके साथ ना जाकर पलभर के लिए ठिठकना (ठहरना) होता है। चुनाव करना ही है और चुनाव एक तरफ़ को ही हो, एक पक्ष, एक दिशा को ही हो, इसके लिए भीतर एक प्रवाह मौजूद है। चुनाव होना ही है और भीतर कोई बैठा है जो एक ही तरफ़ को चुनाव करना चाहता है लगातार। उसको कहना पड़ता है — “एक पल को थम”, बस यही होश है, इतना ही।

हमें जब भी चुनाव करना होता है न, आप ग़ौर करिएगा ऐसा नहीं होता है कि आप शून्य से या मध्य बिंदु से या निष्पक्ष होकर के शुरुआत करें। आपको जब भी चुनाव करना है आप शुरुआत किसी स्थान से करते हो और वो स्थान निष्पक्षता का नहीं होता। जैसे किसी ने आपको पहले ही पूर्वाग्रह ग्रस्त कर दिया है, बायस्ड कर दिया है और तत्काल यदि आपने वहाँ से चुनाव कर लिया तो आपका चुनाव उसी के पक्ष का हो जाएगा जो आपको बहाए हुए है। तो मैं कह रहा हूँ — बस एक पल को ठिठक जाना होता है। एक पल से ज़्यादा ठिठक जाओ तो और अच्छा, पर एक पल भी यदि रुक जाओ तो वो प्रवाह बाधित हो जाता है; किस प्रवाह की बात कर रहे हैं हम? वृत्तियों के प्रवाह की। वो एक पल का ठिठकना भी काम कर जाता है। फिर होश से होश और बढ़ता है।

प्र२: आपने कहा था कि कुछ भी कर रहे हो तो उसकी जड़ में जाओ, तो मैं ऐसे ही अपने कर्मों को देखने लगा कि ये आ कहाँ से रहे हैं। अब कुछ काम ऐसे आते हैं कि मैं उसका विश्लेषण ही नहीं कर पाता कि ये किस वजह से किया या फिर कोई निश्चित सा पका-पकाया ही उत्तर मिलता है। एनालिसिस करने का पॉइंट ही नहीं लगता क्योंकि जैसा मैं हूँ, जैसी मैं आर्ग्युमेंट देना चाहता हूँ, मैं उसको वैसे रंग सकता हूँ।

आचार्य: नहीं, एनालिसिस निर्णय के बाद या निर्णय से पहले?

प्र२: कुछ हुआ उसके बाद।

आचार्य: बाद में मत करो क्योंकि बाद में करने पर सम्भावना यही है कि जो करा उसके पक्ष में ज़्यादा तर्क निकलेंगे या जो तात्कालिक स्थिति है उससे प्रभावित होकर के ज़्यादा तर्क निकलेंगे। होश का मतलब है — करने के पल में ज़रा सा ठिठक जाना।

प्र२: नहीं, ठिठकने से मैं समझ रहा हूँ कि वो जो एक मोमेण्टम है वो रुक जाएगा, लेकिन रुक तो सकते नहीं, काम तो करना ही है। तो फिर मैंने यही कहा कि अगर काम करना ही है तो खाली भी बैठ सकते हैं, ज़बरदस्ती मशीन में हाथ फँसाना ज़रूरी है क्या?

आचार्य: नहीं! वो भी काम है, खाली बैठना भी। मशीन में हाथ देना ज़रूरी नहीं है, पर ये भी एक निर्णय है कि खाली बैठना है। ये भी गति का हिस्सा ही है। काम करने का मतलब इंद्रियों से सक्रिय हो जाना ही नहीं होता, कर्ता का प्रत्येक चयन कर्म कहलाता है। फिज़िक्स में वर्क सिर्फ़ तब है जब डिस्प्लेसमेंट (विस्थापन) हो, है न? अध्यात्म में कर्म तब भी है जब पूर्ण स्थिरता हो, क्योंकि कर्म वहाँ पर कोई भौतिक घटना ही नहीं है, कर्ता का चयन कर्म है। कर्ता का चयन यदि ये है — स्थिर, तो ये कर्म है, ये भी कर्म है। ये चुना जा सकता है।

प्र२: मैं कितना भी सोच-विचार कर लूँ, मुझे अपने लिए कोई नया रास्ता नहीं दिखता। मेरे विचार में एक ठहराव-सा आ गया है। मैं कितना भी दिमाग दौड़ा लूँ, घूम-फिरकर एक-दो विचार ही आते हैं कि ये करने से ये होगा, वो करने से वो होगा। और अंततः मुझे आगे बढ़ने के लिए कोई नयी दिशा नहीं दिखती।

आचार्य: देखो, अर्जुन को गीता नहीं मिलती अगर अर्जुन अपने महल में बैठे होते और जो किसी भी योद्धा या राजा की आम दिनचर्या होती है उसमें ही व्यस्त होते। कुछ सोच-विचार कर सकते थे, थोड़ा दृष्टि किसी चीज़ में गहरी जा सकती थी, थोड़ा बहुत कहीं लाभ हो जाता मानसिक तल पर, पर गीता तो नहीं मिलती। गीता के स्तर का यदि लाभ चाहिए तो उसके लिए तो कोई युद्ध ही चाहिए। अब वो युद्ध आप अगर भाग्यशाली होंगे तो संयोग से मिल जाएगा, नहीं तो चुनना पड़ता है। हमारी जो दैनिक व्यवस्था है, उसकी सुविधा के भीतर-भीतर विचार भी बहुत दूर तक जा नहीं पाता। जो हमारी सुविधा के दायरे हैं वो हमारे विचार के भी दायरे बन जाते हैं, उससे आगे की बात हम सोच सकते ही नहीं। और सुविधा से मेरा मतलब ये नहीं है कि आप कोई बहुत विलासिता कर रहे हों। सुविधा से मेरा मतलब है कि वो स्थिति जिसमें तन और मन यथावत चल पा रहे हों।

यहाँ देखा है न कि चंद श्लोकों में ही कितनी बार बात आ रही है कि ‘मेरा मन नहीं बचेगा कोई बात नहीं, मेरा तन नहीं बचेगा कोई बात नहीं, मृत्यु भी हो जाए तो कोई बात नहीं।‘ चलिए शरीर को खतरे में डालने की कोई विशेष आवश्यकता ना भी हो, तो भी मन जब तक खतरे में ना आए तब तक तो साधारण विचार से आगे आप नहीं निकल पाएँगे। विचार के साधारण वृत्त का अगर आपको उल्लंघन करना है, जो विचार का साधारण घेरा होता है, उसको यदि लाँघ देना है तो ज़िंदगी का भी जो साधारण घेरा है उसको लाँघना पड़ेगा। आम दिनचर्या में खास विचार नहीं कर पाओगे।

जो कह रहे हो न कि बार-बार सोचते हैं फिर बात वहीं आ जाती है, हम चाहे उधर का सोच लें, चाहे तो उधर का सोच लें। वो आम विचार चल ही इसीलिए रहा है क्योंकि दिनचर्या शायद बहुत आम है। ज़िंदगी को खास बनाओगे तो विचार भी खास किस्म के आ पाएँगे। विचारों को भी अनुमति देनी होगी। अभी हमने कहा न कि आरंभ तो अर्जुन को करना पड़ता है, आगे का काम कृष्ण का है। तो गीता को भी अनुमति देनी पड़ेगी आने की।

उसके लिए कुछ ज़रा अलग जीना पड़ता है। अब कैसे अलग जीना पड़ता है ये बता पाना मेरे लिए कठिन है, क्योंकि थोड़ी सी व्यक्तिगत बात हो जाती है अपनी-अपनी व्यक्तिगत स्थितियों के अनुसार, क्योंकि बात तो यहाँ भी व्यक्तिगत थी, आधार व्यक्तिगत ही होता है। हाँ, आप उसको यदि निर्वैयक्तिक होकर देख लो तो फिर कुछ उससे समष्टिगत निकलता है। लेकिन हमारे सारे क्रियाकलापों का आधार तो व्यक्तिगत ही होगा न। यहाँ भी व्यक्तिगत बात ही है — मेरा राज्य, मेरे सगे-संबंधी, मेरे भाई, मेरी पत्नी, मेरा ये, मेरा वो।

तो आधार तो व्यक्तिगत ही होता है, तो आपके जीवन में वो विशिष्ट क्या घटना हो सकती है वो तो आपको अपने व्यक्तिगत सरोकारों को देखकर ही तय करना होगा। अर्जुन का भी व्यक्तिगत राज्य ही छिन रहा था तो वह युद्ध में उतरा था। लेकिन वहाँ बात फिर व्यक्तिगत से आगे तक चली गई। तो कुछ तो ऐसा शुरू करना पड़ेगा जिसमें थोड़ा खतरा हो, सड़क की भाषा में जिसको कहें तो — ज़िंदगी से पंगे लेना, फिर कुछ हो सकता है; वैसे हो सकता है कि नहीं भी हो कुछ।

तो कोई कुछ यहाँ निश्चित नहीं है गारंटी जैसा और फिर बिलकुल कह सकते हो कि ‘कहा था पंगे लो, हमने मशीन में हाथ दे दिया’, गीता भी नहीं मिली, हाथ से भी गए। तो ऐसा भी हो सकता है। तो अगर इतना सुनिश्चित करके बोला जा सकता तो गीता बड़ी सस्ती चीज़ हो जाती न। हमें नहीं पता कि गीता कैसे आएगी, लेकिन इतना हम जानते हैं कि अगर साधारण ज़िंदगी के अपने साधारण सरोकार रखेंगे तो सुविधा आ सकती है, गीता नहीं आएगी। ये आपको देखना है कि कितनी दूर तक जाना है, कब जाना है, कैसे जाना है, कहाँ से प्रयोग करना है। लंबी छलाँग आरंभ में ही मत मार दीजिएगा, छोटे प्रयोग करिएगा।

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