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लेख
हर चेहरा एक मुखौटा || (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
18 मिनट
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आचार्य प्रशांत: तो सवाल है कि एक फ़िल्म आई थी ' द मास्क ' के नाम से। उसमें जो मुख्य चरित्र था उसे एक मास्क मिल जाता है, एक मुखौटा मिल जाता है। उस मुखौटे के मिलने से उसे दुनियाभर की तमाम लड़ाइयों में जीत मिलने लग जाती है, शोहरत मिल जाती है, एक गर्लफ्रेंड मिल जाती है, बुरे लोगों की वो पिटाई लगा सकता है, ताक़त आ जाती है, ये सब हो जाता है। लेकिन अंततः दिखाई देता है कि वो उस मास्क से भी परेशान है और उस मास्क को एक नदी में बहा देता है। ऐसे ही हुआ था न?

अब सवाल है कि बाहर से मुखौटा आ रहा है तो भी आदमी परेशान है, और उस मूवी में यही दिखाया गया था कि मास्क के मिलने से पहले भी उसकी ज़िंदगी बड़ी साधारण, उबाऊ और बड़ी बोझिल सी थी। तो ज़ाहिर सी बात है कि सवाल उठेगा कि जब मास्क नहीं है तब भी बेचैन हैं और ऊबे हुए हैं, और मास्क मिल गया तब भी वो परेशानी का ही कारण बना उसे नदी में बहाना पड़ता है। तो करें तो करें क्या?

मास्क दो तरह के होते हैं, मुखौटे दो तरह के होते हैं। एक तो वो जो तुमने देख ही लिया जो उसे मिलता था और वो उसे लगा लेता था। वो जो चरित्र था जिम कैरी का। कितने लोगों ने वो मूवी देखी है? याद होगी अच्छे से, मज़ेदार मूवी थी। तो वो जो चरित्र था वो उसको लेता था, लगा लेता था। यह एक बाहरी मुखौटा था। चूँकि ये बाहरी था इसीलिए हमारी आँखों को साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता था कि ये मुखौटा लगा रहा है। ऐसे ही होता था न?

एक दूसरा मुखौटा भी होता है। जो आँखों को दिखाई नहीं देता, जिसको तुम ये कभी ये कह ही नहीं पाओगे कि ये मुखौटा है, पर है वो मुखौटा ही। उसको कभी तुम ये कह नहीं पाओगे कि मुखौटा है क्योंकि मुखौटा, मुखौटा तब पता चलता है जब कभी तो वो उतार कर के रखा जाए। अगर कोई ऐसा मुखौटा है जिसे तुम दिन-रात ही पहने हुए हो, तो तुम भूल ही जाओगे कि ये भी तो नक़ाब ही है। अगर उसको पहनने की ऐसी आदत पड़ी है कि तुम्हें यह भ्रम हो गया है कि, "ये तो मेरा अपना चेहरा है", तो तुम उसे मुखौटा कह ही नहीं पाओगे। है वो भी मुखौटा ही।

उस डेढ़ घण्टे की मूवी में तुमने देखा कि उसे मुखौटा मिल भी गया और उसने मुखौटा त्याग भी दिया। आसान था, सब कुछ जल्दी से हो गया। सब कुछ जल्दी से इसलिए हो गया क्योंकि वहाँ पर पता चल रहा था कि ये मुखौटा है। साफ़-साफ़ ज्ञान था उसको कि ये मुखौटा मुझे मिला है, इट्स अ मास्क (ये एक मास्क है)।

हम जो मुखौटे पहन कर के चलते हैं हमें पता भी नहीं होता कि वो मुखौटे हैं, तो उसे अपनी वास्तविक शक्ल ही मानते रहते हैं। हम मानते रहते हैं ये तो 'मैं ही हूँ'। इसीलिए तो डेढ़ घण्टे की मूवी क्या, पूरा-पूरा जन्म बीत जाए तो भी कभी भी हम उस मुखौटे को कभी किसी नदी में विसर्जित नहीं कर पाते। उस चरित्र के लिए आसान था, उसने हटा दिया उसको। हम नहीं कर पाते ऐसा। करें तो तब जब अहसास हो कि ये हमारा मौलिक रूप नहीं है। ये तो कोई नक़ली चीज़ है जो हमें बाहर से मिल गई है।

हुआ ये है कि जन्म से ही और जन्म के पहले से भी जितना कुछ तुमने अपने बारे में सुना है, जितना कुछ तुम्हें तुम्हारी पहचान के रूप में दिया गया है, तुमने उसी को अपना 'मैं' समझ लिया है। यह हम सबके साथ होता है क्योंकि बच्चा पैदा होता है उसके पास कोई पहचान होती ही नहीं। इसको बच्चे की दुर्बलता मत समझ लेना, इसको बच्चे की कमी मत समझ लेना कि उसके पास कोई पहचान होती ही नहीं। असल में पहचान की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि हर पहचान तुम्हें सिर्फ़ बाँटती है।

पहचान का अर्थ ये होता है कि 'मैं ये हूँ जो बाकी सारे अस्तित्व से अलग है', 'मैं ये हूँ जो दूसरों से अलग है'।

बच्चे के पास कोई पहचान होती ही नहीं। पर उसके पास एक मस्तिष्क होता है जिस मस्तिष्क में पहले से ही इस बात के बीज बैठे हुए हैं कि अपने-आप को बचाओ। इसीलिए मैंने कहा था, 'जन्म के साथ ही और जन्म से पहले से भी'। बच्चा पहचान तो ले कि नहीं पैदा होता, लेकिन उन खूँटियों को ले कर ज़रूर पैदा होता है जिस पर दुनिया भर की पहचानें टाँगी जा सकती हैं। वो खूँटियाँ अभी खाली हैं, और जो खूँटियाँ हैं तो कोई-न-कोई आकर के उस पर पहचान टाँग देगा। बाहरी होगी वो पहचान।

बच्चा डरा हुआ तो नहीं पैदा होता लेकिन डर का बीज अपने अंदर लेकर के पैदा होता है। और धीरे-धीरे आस-पास के लोगों द्वारा, परिवार द्वारा, समाज द्वारा, जो कुछ भी उसके पूरे वातावरण में है, शिक्षा, मीडिया, दोस्त यार, उन सब के द्वारा उसको तमाम तरह की पहचानें दी जाने लगती हैं। बच्चा खाली था, बिलकुल कोरा। उसको ये सब मिलने लगता है परत-दर-परत। उसका अपना कोई चेहरा होता ही नहीं है, याद रखना। उसको ये सारे चेहरे दिए जाने लगते हैं।

भूल मत कर बैठना। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बच्चे के असली चेहरे के ऊपर नकली चेहरे चढ़ा दिए जाते हैं। मैं ये कह रहा हूँ - असली चेहरा कोई होता ही नहीं है। बच्चा तो एक खालीपन होता है। जैसे आकाश खाली होता है न, कि है पर खाली है, सुंदर है, पर खाली है, बच्चा ऐसा होता है। उसके ऊपर ये तमाम परतें एक के बाद एक चढ़ाई जाती हैं। और चूँकि वृत्ति का बीज उसके मस्तिष्क में पहले से मौजूद है, वो आतुर है कि कोई अपनी पहचान बना लूँ, तो वो जल्दी से ये सारी जो परतें उसको दी गई हैं, ये सारी बातें जो उसको सिखाई जा रही हैं, ये सारे चेहरे जो उसको दिए जा रहे हैं वो जल्दी से उनको सोख लेता है। वो जल्दी से उनको अपना मान लेता है।

अब बच्चा कुछ हो गया। अब उसके पास एक पहचान है, एक नाम है। अब उसके पास एक व्यक्तित्व है और ये सब बाहर से आ रहा है। ये उतना ही बाहरी है जितना की वो मास्क जो उस चरित्र को एक दिन मिल गया था।

हम सब यहाँ पर जो बैठे हैं हम मास्क लगाकर ही बैठे हैं। एक बात को समझना। कोई मास्क कभी इस चिंता में, इस विचार में नहीं पड़ेगा कि मैं असली हूँ कि नकली। वो तो नक़ाब के पीछे कोई और बैठा है जो जानना चाहता है कि सच क्या है।

तुम भी अगर ये सवाल उठा रहे हो कि, "हमारा सच क्या है?" तो याद रखना ये सवाल तुम्हारे व्यक्तित्व से नहीं आ रहा है, तुम्हारी जो दुनियाभर की पहचानें हैं उनसे नहीं आ रहा है, ये आशुतोष (पास बैठे एक श्रोता) नाम के व्यक्ति से नहीं आ रहा है। ये सवाल एक ऐसी जगह से आ रहा है जिसका कोई नाम नहीं है। जो किसी आइडेंटिटी के दायरे में क़ैद नहीं है। उसको बोध कहते हैं, उसको इंटेलिजेंस कहते हैं और वो इंटेलिजेंस किसी की नहीं होती। वो बस होती है। और वो बाहर से नहीं आई होती। वो अकेली सत्ता होती है जो सारे ऩकाबों पर सवाल उठा सकती है कि ये असली है या नहीं है। वो सत्ता ही मौजूद है। वही सत्ता है जो तुम्हें कुछ भी समझाती है।

तुम अगर मुझे सुन पा रहे हो, कुछ भी समझ पा रहे हो तो ये उसी सत्ता के कारण है। ये बिलकुल भी मत सोचना की मैं तुमसे जो बोल रहा हूँ उसको समझ पाने की ताक़त तुम्हारे ऩकाबो में है। तुम सौ नक़ाब लगा लो, तुम चतुर-से-चतुर होने का नक़ाब लगा लो, तुम अतिबुद्धिमानी का नक़ाब लगा लो, तुम बड़े-से-बड़े ज्ञानी होने का नक़ाब लगा लो। कोई नक़ाब कुछ समझ नहीं सकता क्योंकि वो नक़ली ही होता है, उसमें जान नहीं होती। और जो समझ सकता है उसकी कोई शक्ल ही नहीं होती क्योंकि शक्ल तो सिर्फ नक़ाब के पास है, मास्क के पास है।

अभी जो सत्ता यहाँ पर बैठी हुई है तुम सब के भीतर बैठी हुई है। और मैं जो कुछ कह रहा हूँ वो समझ पा रही है। वो कोई नक़ाब नहीं है। उसकी कोई शक्ल नहीं है, उसकी कोई पहचान नहीं है। वो आकाश की तरह है खुली, व्यापक। उस पर कोई बंदिश नहीं लगाई जा सकती। बंदिश अगर लगती तो फिर वो समझ ही नहीं पाती। फिर वो रट सकती थी, दोहरा सकती थी, स्मृति संबंधी सारे काम कर सकती थी, पर समझ नहीं सकती थी। तो ये बिलकुल भूल जाओ कि तुम्हारा कोई असली चेहरा भी है।

मैं तुमसे बहुत साफ़-साफ़ कह रहा हूँ प्याज की तरह हैं हम, प्याज की तरह है हमारा व्यक्तित्व। बाहर वाली परत हटाकर के ये मत समझ लेना कि अंदर की जो परत निकली वो मेरा असली चेहरा है क्योंकि वो परत भी हट सकती है। वो हटेगी। और अगर और ध्यान से देखोगे तो भीतर की एक और परत एक और परत और अंततः पाओगे की परतें समाप्त हो गईं और परतें समाप्त होती हैं।

प्याज का उदाहरण बस यहीं तक जाता है कि क्योंकि प्याज में तुम पाओगे कि जहाँ परतें समाप्त होती हैं उसके बाद कुछ दिखाई ही नहीं देता। आदमी की स्थिति उससे बिलकुल उल्टी है। प्याज में जहाँ परतें खत्म होती हैं वहाँ प्याज का अस्तित्व खत्म हो जाता है, ठीक?

तुम्हें प्याज दी जाए और कहा जाए, "इसको परत-दर-परत उतारते चलो।" जब आख़िरी परत उलटेगी तो उसके बाद प्याज क्या बचेगा? नहीं बचेगा, प्याज ख़त्म हो जाएगा। तुम्हारी स्थिति उससे बिलकुल विपरीत है। तुम्हारी परतें हटेंगी, हटेंगी और हटती रहेंगी और जब हट जाएँगी तब तुम वास्तव में पैदा होते हो। प्याज खत्म हो जाता है परतों के हटने पर, तुम प्रकट जो जाते हो परतों के हटने पर। अंतर को समझना।

और वो जो 'तुम' है वो, वो तुम नहीं है जिसको तुमने आज तक जाना है, कि जिसको तुम आईने में रोज़ निहार लेते हो। नहीं वो नहीं है। वो तुम्हारा कोई ज़्यादा साफ़-सुथरा रूप नहीं है कि तुम सोचो कि मैं जब ज़्यादा साफ़ हो जाऊँगा तो वैसा हो जाऊँगा। ना, वो तो कोई और ही सत्ता है।

ये सारी बात जो मैं कह रहा हूँ ये तुम्हारे किस काम की है? वो इस काम की है कि जब भी कभी तुम अपने आप को किसी भी चेहरे से, किसी भी व्यक्तित्व से, किसी भी नक़ाब से जोड़कर ही देखते रहोगे, तो तुम्हारा जीवन छोटा सा और नकली-नकली सा ही रहेगा।

हर चेहरा बाहर से आया है, हर चेहरा सीमित है, हर चेहरा डरा हुआ है। पर तुम जो हो वास्तव में वो कभी डरता नहीं यदि तुम उसको जगने का, उठ बैठने का मौका दो। हर नक़ाब अपने आप में रुका हुआ, बंधा हुआ, स्टैटिक होता है। होता है कि नहीं होता है? और तुम जो हो वो पूरे तरीक़े से खुला हुआ है। वहाँ कोई बंधन नहीं है। हर नक़ाब की अपनी एक शक्ल होती है जो बदल नहीं सकती। और यही बंधन है नक़ाबों का कि तुमने जो नक़ाब पहन लिया वो बदलेगा नहीं। वो तुमको विवश करेगा कि, "ये तुम्हारा चेहरा है ऐसे ही रहो।" और बंधन में रहना किसको पसंद है! तुम्हें पसंद है?

हर नक़ाब एक बंधन है, हर नक़ाब एक मुर्दा है। पर तुम मुक्त हो और तुम जीवन हो। इस कारण नक़ाबों को ऩकाब जानना, नकली जानना बहुत ज़रूरी है। भले ही तुम्हें उससे कितना मोह हो गया हो, भले ही तुमने उसको बचपन से पहन रखा हो, भले ही तुम्हारी सारी यादें जुड़ी हुई हों उसके साथ, भले ही उससे तुम्हें कितनी सुविधाएँ मिलती हों, कितनी ताक़त मिलती हो, कितनी सहूलियत मिलती हो, पर फ़िर भी अगर जीना चाहते हो और भयमुक्त होकर के जीना चाहते हो तो समझो कि, "ये बाहरी है ये, मैं नहीं हूँ। ये तो मुझे परिस्थितियों ने दे दिया है। परिस्थितियाँ दूसरी होती तो कोई और नक़ाब मिल जाता। ये मैं नहीं हूँ। ज़रा सी परिस्थितियाँ बदलती तो मेरा चेहरा कुछ और होता।" संयोगवश हैं सारे नक़ाब, आकस्मिक हैं हमारे सारे चेहरे। उनसे जुड़ाव कैसा?

खुल कर जीना चाहते हो न? तो ये छोटे-छोटे चेहरों को पकड़ना छोड़ दो। यह मुर्दा चेहरे हैं। नक़ली हैं यह सब।

चलो, ठीक है। तो महेंद्र ने पूछा क्या नक़ाब के बिना जीवन जीना सम्भव है? और मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि क्या नक़ाब के साथ जीवन सम्भव है? अरे जब नक़ाब ही नक़ाब हैं तो तुम कहाँ हो? जीवन किसी का होता है न? किसके जीवन की बात कर रहे हो? नकाब के जीवन की? हाँ नक़ाब के साथ जीवन सम्भव है, किसका? नक़ाब का। तुम कौन हो? तुम नक़ाब हो? तुम मास्क हो क्या? जीएगा, कौन जीएगा? वही जीएगा। तुम नहीं जीयोगे। तुम अनजीए ही रह जाओगे।

जैसे कि संभावना थी जीवन की पर, पैदा नहीं हो पाए, भ्रूण हत्या हो गई जैसे कुछ। संभावना पूरी थी कि जीते खुल के पूरा जीवन, पर पैदा ही नहीं हो पाए। ऐसा सा रह जाओगे। हो सकता है अस्सी नब्बे साल जीयो और बिना पैदा हुए मर जाओ। सोचो कितनी विचित्र स्थिति होगी कि कुछ लोग तो कह रहें हैं साहब नब्बे साल जीए, और जानने वाले कह रहें हैं अरे बिना पैदा हुए मरे।

ऐसा जीवन चाहते हो कि बिना पैदा हुए ही मर गए? और मैं तुमसे कह रहा हूँ हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे लोग बिना पैदा हुए मर जाते हैं। अस्सी नब्बे सौ साल भी जी सकते हैं पर पैसा ही नहीं होते। नक़ाब जीता है और नक़ाब ही मर जाता है। वो कभी आए ही नहीं अस्तित्व में। अफ़सोस की बात है ना? बड़ी दुखी घटना है कि नहीं है?

प्रश्नकर्ता: पर सर लाइफ़ डिफरेंट (ज़िंदगी अलग) हो जाएगी न?

आचार्य: लाइफ़ डिफरेंट तो हो ही जाएगी। जो सोया हुआ है और जो जगा हुआ है उनका जीवन अलग-अलग होता है।

आदित्य (प्रश्नकर्ता) ने कहा कि नक़ाब के बिना, मुखौटे के बिना जीवन बड़ा मुश्किल हो जाता है क्योंकि परिवार में, समाज में, हम स्वीकार नहीं किए जाते। तो उसके बिना जीवन कैसे चलाएँ? कोई हमें स्वीकार ही नहीं करेगा।

आदित्य देखो, क्या हो रहा है, देखो क्या घटना घट रही है, ध्यान से देखो। तुम एक छोटे से बच्चे के पास जाओ, छः महीने का है, सालभर का है, दो साल का भी हो सकता है और तुम उससे कहो, "मैं तुम्हें स्वीकार नहीं करता।" और तुमने बड़े जलवे के साथ कहा है उससे कि, "तू मुखौटे नहीं पहनता और मैं तुझे स्वीकार नहीं करता।"

बच्चा तुम्हें क्या जवाब देगा? "हुर्र हट!" और तुमने तीन-चार बार ज़्यादा उसे परेशान किया गरज कर बोलने लगे कि, "तुम्हारी ये हरकत स्वीकार्य नहीं है। ये मान्यता के विरुद्ध है, मर्यादा के विरुद्ध है", ज़्यादा परेशान करोगे तो सूसू और कर देगा तुम्हारे ऊपर। करेगा कि नहीं करेगा?

ये भी कौन कह रहा है कि दूसरों द्वारा स्वीकार किए जाना ज़रूरी है? याद रखो बच्चे में कोई चाहत होती नहीं है कि दुनिया आ कर के उसको मान्यता दे, उसका अनुमोदन करे। बच्चा यह कहता ही नहीं है कि, "तुम मुझे लाइसेंस दो, मुझे सर्टिफिकेट दो कि मैं अच्छा हूँ।" यह बात भी कौन कह रहा है कि, "दूसरों द्वारा स्वीकार किया जाऊँ, यह आवश्यक है"? यह कौन कह रहा है? यह तुम नहीं कह रहे हो, यह भी नक़ाब ही कह रहा है। यह बात भी तुमको सिखा दी गई है कि बड़ा ज़रूरी है स्वीकृत होना।

समझो, स्वीकृत होना ज़रूरी है ही नहीं। कोई नहीं कर रहा है स्वीकार, ना करे, उसकी बला से। मत करो। हमने कहा है हमें स्वीकार करो? हमारी सेहत पर क्या अन्तर पड़ता है! नीचे जाओ, घास उगी हुई है, छोटे-छोटे फूल हैं और तुम उनके पास जा कर खड़े हो जाओ और कहो, "हम तुम्हें स्वीकार नहीं करते!" तुम्हें क्या लगता है वो कुम्हला जाएँगे?

अभी बारिश हो जाएगी अचानक और तुम्हारे कपड़े भीग रहे हैं और तुम कहो, "हम तुम्हें स्वीकार नहीं करते, हमारे कपड़े गीले कर रहे हो!" तुम्हें क्या लगता है बारिश शर्म से डूब जाएगी, आत्महत्या कर लेगी? "अरे, साहब ने स्वीकार नहीं किया मुझे, मेरा जीवन किस काम का!" तुम्हारा पूरा समाज इकट्ठा हो कर के सूरज से कहे, "हम तुम्हें स्वीकार नहीं करते तुम रोज़ इसी दिशा से क्यों उगते हो?" तुम्हें क्या लगता है वो पलट देगा अपनी दिशा?

तुम्हारे मन में ये बाध्यता डाली किसने कि तुम जो कुछ करो उसको दूसरों की सहमती मिले? नहीं मिलती सहमति तो कोई बात नहीं, सहमति की क्या कीमत है! तुम तुम हो, मैं मैं हूँ कोई आवश्यक थोड़े ही है कि तुम मुझसे सहमत हो, या आवश्यक है? पर ये षड्यंत्र है बहुत बड़ा। ये मौलिकता के ख़िलाफ़ साज़िश है कि तुम जो कुछ भी करो वो स्वीकार्य होना चाहिए, वो हमारे बनाए हुए दायरों के भीतर होना चाहिए। हम माने तो ही ठीक है। क्यों भाई? क्यों?

इसी प्रकार तुमने दूसरी बात कही कि पिछले बीस वर्षों से मन में कुछ धारणाएँ बैठी हुई हैं, और अब जब उन धारणाओं से कुछ विपरीत सुनने को मिलता है तो मन उसके ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है। बेटा, मन नहीं खड़ा हो रहा, धारणा ही धारणा के विरुद्ध खड़ी होती है। मन तो होशमंद भी हो सकता है, मन तो चैतन्य भी हो सकता है। धारणा मृत होती है।

मन में तो जीवन की पूरी संभावना है। मन में होश की पूरी संभावना है और जब भी होश से, ध्यान से, सुनोगे और देखोगे, तो तुम कहोगे, "नहीं, नहीं, नहीं, ये जो बात कही जा रही है न मुझे इससे लड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि ये बात ठीक ही है।" हाँ, धारणा होगी तो वो लड़ जाएगी। पर मैं तुमको धारणाएँ नहीं दे रहा हूँ। मैं तो तुम्हें आमन्त्रित कर रहा हूँ कि अपनी आँखें खोलो और अपने होश से दुनिया को देखो।

धारणा की ख़िलाफत धारणा से होती है। होश और धारणा जब भी टकराएँगे तो धारणा को तो ऐसे उठना पड़ेगा। धारणा समझते हो? बिलीफ , *कंडीशनिंग*। उसको ऐसे (चुटकी में) हटना पड़ेगा।

तो जब भी कभी कुछ नया सुनने को मिले, ज़रा उसको होश में ध्यान से आकर के सुनो। तुम्हारे भीतर तुरंत एक प्रतिक्रिया होगी, एक रिएक्शन होगा। पर तुम्हारे ही भीतर वो क्षमता भी है कि तुम समझ सको कि ये मात्र एक प्रतिक्रिया है। धारणाएँ बैठी हुई हैं और वो अपना सर उठा रही हैं। पर मैं मात्र धारणा नहीं हूँ। मुझमें होश की ताक़त है। मैं कोई मशीन नहीं हूँ। मैं कोई केमिकल (रसायन) नहीं हूँ कि उसपर एक दूसरा केमिकल पड़ा और रिएक्शन हो गया। मैं समझदार हूँ, मैं समझ सकता हूँ।

जैसे-जैसे होश उठता जाता है, जैसे-जैसे जागृति आती जाती है, वैसे-वैसे ये जो पुरानी जमी हुई धारणाएँ होती हैं इनका ज़ोर अपने आप, अपने आप कम होता जाता है। इसी को मैनें कहा था कि मन हल्का होता जाता है।

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