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लेख
गृहिणी के लिए बाधा क्या? || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: आचार्य जी, मुक्ति के मार्ग में एक गृहिणी के लिए क्या-क्या बाधाएँ आती हैं?

आचार्य प्रशांत जी: तुम्हारी जो पूरी गति हो रही है किसकी ख़ातिर हो रही है? कौन बैठा है उस गति के केंद्र में? किसको तुम सबसे अधिक महत्त्व दे रहे हो? प्रथम कौन है तुम्हारे लिए? महत्त्वपूर्ण, केंद्रीय कौन है तुम्हारे लिए? यही देखना होता है।

कोई अपने दफ़्तर के चक्कर काट रहा है, और कोई गृहिणी है, वो घर के कमरों के ही चक्कर काट रही है। दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है। एक ने केंद्र में रखा हुआ है पैसे को, और दूसरे ने केंद्र में रखा हुआ है परिवार को। परमात्मा को तो दोनों ने हीं केंद्र में नहीं रखा है। दोनों हीं भूल गए कि प्राथमिक क्या होना चाहिए।

तो जब यह कहा जाता है कि – “गृहिणी भुलाए बैठी है,” तो इसका यह मतलब नहीं है कि बाज़ार में जो व्यापारी है, दफ़्तर में जो कामकाज़ी है, जो व्यवसायी है, नौकरी-पेशा है उसको याद है। न! जो गृहिणी भुलाए बैठी है, वो बाज़ार में बैठा है, वो भी भुलाए बैठा है क्योंकि दोनों ने ही अपने दायरे बना लिए हैं। और उन दायरों के केंद्र में सत्य तो नहीं है, कुछ और ही है।

गृहिणी अपने लिए मजबूरियाँ और बढ़ा लेती है। बताओ क्यों? क्योंकि वो अपने लिए जो दायरा बनाती है उस दायरे में न सिर्फ़ केंद्र ग़लत है, बल्कि उस दायरे में सलाखें भी हैं।

भूलना नहीं कि देह जीव की एक बड़ी मजबूरी है। होगे तुम आध्यात्मिक, होगे तुम कोई भी, देह का पालन तो करना ही है, पेट तो चलाना ही है न। साधारण ही सही, कपड़ा तो चाहिए ही होता है। गृहिणी अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लेती है, क्योंकि उसका अन्न और वस्त्र भी कहीं और से आता है। अब अगर वो अपने दायरे से आज़ाद होना चाहे तो उसके लिए मुश्किल ज़्यादा है।

पहली बात तो मानसिक सलाखें। स्त्री है, तो मोह-ममता ज़्यादा होती है उसको, परिवार को केंद्र में रखा है। केंद्र को बदलना उसको मुश्किल लगता है, मोह-ग्रस्त है।

और दूसरी बात – देह की सलाखें, आर्थिक सलाखें। हटना चाहेगी भी तो कैसे हटेगी। आर्थिक निर्वाह की कला भी वो भूल गई है। जितना उसने अपने ऊपर व्यय करना शुरू कर दिया है, उतना कमा पाना उसके लिए मुश्किल होने वाला है। अब अगर वो इस दायरे को तोड़ना भी चाहे, तो उसके सामने बड़ी व्यावहारिक कठिनाईयाँ हैं।

खाएगी क्या? कमाएगी क्या? रहेगी कहाँ? पहनेगी क्या? और ऐसा नहीं है कि खाना, कामाना और पहनना, बड़ी कठिन बातें हों। बातें आसान हैं, पर दस साल, बीस साल, तीस साल से जब तुमने कमाने की कला ही भुला दी, तो अब एकाएक समाज में निकल के अपने लिए आर्थिक उपार्जन करना मुश्किल पड़ेगा। फ़िर बाहर निकलो, धन कमा भी लो, लेकिन परिवार में रहते तुमको व्यय करने की जो आदत पड़ गयी थी, उतना कैसे कमाओगे बाहर।

तो मैं जब कहता हूँ कि गृहिणी दुखद स्थिति में है, तो इससे आशय ये मत समझ लेना कि जो बाज़ार में हैं, वो सुखद स्थिति में हैं। केंद्र तो दोनों का ही ग़लत है। पर गृहिणी का मामला ज़्यादा खेदजनक इसलिए है क्योंकि उसके लिए बाहर आना अपेक्षाकृत ज़्यादा मुश्किल है। उसने अपने लिए आर्थिक बाधा खड़ी कर ली है, उसने अपने लिए एक अतिरिक्त अवरोध खड़ा कर लिया है।

मानसिक अवरोध तो दुकानदार के सामने भी है और गृहिणी के सामने भी। दुकानदार कहता है, “मेरी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है दुकान से इसको केंद्र से कैसे हटा दूँ?” जैसे गृहिणी का मोह और तादात्म्य है घर से, वैसे ही व्यापारी का मोह और तादात्म्य है दुकान से। ऐसा नहीं है कि बाहर निकल कर अर्जित करने का सामर्थ्य नहीं है उसमें। सामर्थ्य होगा, पर सामर्थ्य को ज़रा चमकाना पड़ता है। सामर्थ्य को ज़रा कसरत देनी पड़ती है, सामर्थ्य का इस्तेमाल करने की आदत डालनी पड़ती है, नहीं तो वो सामर्थ्य संकुचित हो जाता है।

हमारे हाथों में तो सामर्थ्य रहता है न? पर सामर्थ्य कायम कैसे रहता है? जब हाथ चलते रहें। हाथ जितना वजन उठाते रहते हैं, हाथों का वज़न उठाने का सामर्थ्य उतना बना रहता है, बचा रहता है, और बढ़ता रहता है। और गृहिणी ने आर्थिक सामर्थ्य का अभ्यास छोड़ दिया है।

वो एकबार अपने आप को घर में सीमित कर लेती है, उसके बाद वो अर्थव्यवस्था, दुनिया के ज्ञान, इन सबसे अपने आप को काट लेती है।

वो घर से ज़रा बाहर निकले, तो उसको कठिनाई आती है, समझने में मुश्किल आती है कि दुनिया चल कैसे रही है – इसके रंग-ढंग, इसके कायदे क्या हैं? अर्थव्यवस्था में नया ताज़ा क्या है? क्या रंग है? क्या ढर्रे हैं? किन क्षेत्रों में प्रगति है? और उन क्षेत्रों से लाभ कमाने के लिए कौन-से ज्ञान और कौन-सी कुशलता चाहिए? वो इन सब में पिछड़ती चली जाती है। क्योंकि पिछड़ती चली जाती है, इसलिए उसकी परिवार पर निर्भरता बढ़ती चली जाती है। सामर्थ्य उसमें भी है, लेकिन वो सामर्थ्य सो जाता है।

ऊँची-से-ऊँची व्यावसायिक शिक्षा पाई हो, हुनर हो, ज्ञान हो, कला हो, पर अगर कोई अपने आप को दस-बीस बरस घर में हीं सीमित कर ले, तो उसके बाद क्या उसे बाज़ार रास आएगा?

वो बाज़ार से बाहर नहीं हो जाएगा?

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