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लेख
(गीता-14) चिंताओं की नदियाँ, समुद्र को चंचल नहीं कर पातीं || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर(2022)

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।

जिस प्रकार अनेक नदियों का जल समुद्र में निरन्तर प्रविष्ट होता रहता है, किन्तु समुद्र उससे विक्षुब्ध नहीं होता अर्थात् बढ़ नहीं जाता, इस प्रकार आत्मज्ञान में प्रतिष्ठित जिस योगी के मन में विषय की चिन्ताएँ प्रविष्ट होकर भी उसे चंचल नहीं कर सकतीं, वही परम-शान्ति प्राप्त करता है, किन्तु जो विषय भोग की कामना करता है, वह कभी स्थायी शान्ति नहीं पा सकता।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ७०

आचार्य प्रशांत: जिस तरह अनेक नदियों का पानी समुद्र में लगातार मिलता रहता है लेकिन समुद्र उससे विक्षुब्ध नहीं हो जाता, माने परेशान नहीं हो जाता, माने बढ़ नहीं जाता, माने अपनी अवस्था बदल नहीं देता। जिस तरह इतनी नदियाँ आकर के अपना पानी उड़ेलती रहती हैं समुद्र में लेकिन समुद्र, समुद्र जैसा ही रहता है। उसी तरह आत्मज्ञानी विषयों की चिन्ताएँ लेकर भी चंचल नहीं हो जाता।

जैसे समुद्र इतनी नदियों को लेकर भी बदल नहीं जाता, क्षुब्ध नहीं हो जाता, उसी तरह आत्मज्ञानी के मन में भी चिन्ताओं की इतनी नदियाँ प्रवेश करती हैं पर वो उसके मन रूपी समुद्र को चंचल नहीं कर पातीं, वह शान्त रहता है। लेकिन जो विषयों की, भोगों की कामना करते हैं वो कभी स्थायी शान्ति पा नहीं सकते।

अब ये बात समझिए। किसी ने अभी थोड़ी देर पहले प्रश्न पूछा था, ‘आचार्य जी, आप संस्था में रहते हैं, आपको संस्था के लोगों पर कभी गुस्सा आता है, कभी दुख होता है?’ हाँ, गुस्सा भी आता है बहुत, दुख भी बहुत होता है, सब होता है। आपको ये कल्पना भी क्यों हो रही है कि कोई एक आदर्श स्थिति है जिसमें न दुख है, न चिन्ता है, न क्षोभ है, न क्रोध है? वो सब रहेगा।

ये भी बहुत झूठे अध्यात्म की निशानी है। इस तरह की छवियाँ न जाने कहाँ से आ गयी हैं कि जो ज्ञानी होता है या जो साधु-सन्त, महात्मा लोग हो जाते हैं वो हमेशा ऐसे रहते हैं (दोनों हाथ और निगाहें ऊपर की ओर करते हुए)। कोई अगर सदा ऐसे रहना शुरू कर दे तो उसको इलाज की ज़रूरत है। उसको पूजो नहीं, दवाई दिलाओ। वो ख़तरनाक भी हो सकता हैजेड दवाई देने से पहले उसको बेहोश कर देना। कैसे कोई ऐसे जिएगा?

तो आत्मज्ञान में प्रतिष्ठित योगी के मन में भी विषय की चिन्ताएँ प्रवेश करती हैं। करती हैं लेकिन वो उसको चंचल नहीं कर पातीं। वजह क्या है? नदियाँ इतनी आती हैं, समुद्र फिर भी क्यों नहीं चंचल हो जाता? जिस वजह से समुद्र नहीं चंचल होता। उसी तरीक़े से इतनी चिन्ताएँ ज्ञानी को लगी रहती हैं फिर भी वो बचा रह जाता है।

समुद्र कैसे बचा रह जाता है? समुद्र में विस्तार भी है, गहराई भी है। नदी की धारा समुद्र के विस्तार के आगे बहुत छोटी है। और नदी की धारा आकर के मिलती है समुद्र की सतह से। और समुद्र के पास क्या है? अथाह गहराई। वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती नदी की धारा। ऐसे ही ज्ञानी का मन बचा रह जाता है, क्योंकि उसका मन आत्मा की गहराई के संपर्क में है। उसके मन का विस्तार आत्मा की अनन्तता लिये हुए है। तो ऐसा नहीं है कि उसे चिन्ताएँ आतीं नहीं, चिन्ताएँ आती हैं पर उसके लिए छोटी चीज़ बन जाती हैं, ठीक वैसे ही जैसे समुद्र के लिए नदी एक छोटी चीज़ है।

तुम्हारे लिए नदी बहुत बड़ी चीज़ है, 'बाप रे! इतनी विशाल नदी, इतनी विशाल नदी।' अमेज़न नदी हो सकती है, ब्रह्मपुत्र, गंगा हो सकती है, बहुत बड़ी-बड़ी‌ नदियाँ। समुद्र के लिए क्या है अमेज़न? दुनिया की सबसे बड़ी नदी भी समुद्र के लिए क्या है? ऐसे ही। ऐसे ही जैसे आपके किचन (रसोईघर) में वो आरओ (जल शोधन यन्त्र) की धार आती है पतली सी। उससे आपके घर में कभी बाढ़ आ सकती है? होगा ऐसा कि नल की टोटी खुली रह गयी तो उससे घर बह गया, मोहल्ले भर में बाढ़ आ गयी? होगा ऐसा? ठीक वैसे ही बड़ी-से-बड़ी नदी समुद्र के लिए छोटी चीज़ है।

नहीं कहा जा रहा कि नदी समुद्र के लिए कुछ नहीं है या कि समुद्र में जाकर नदी मिल नहीं रही, कहा जा रहा है कि मिल तो रही है पर चीज़ छोटी है। यही बात ज्ञानी मन और चिन्ताओं के सन्दर्भ में है। चिन्ताएँ हैं और अपनेआप में बहुत बड़ी चिन्ताएँ हैं, जैसे अपनेआप में अमेज़न बहुत बड़ी नदी है। चिन्ताएँ हैं लेकिन उन चिन्ताओं से कहीं ज़्यादा बड़ा है कुछ, कुछ और। उन चिन्ताओं से कहीं ज़्यादा गहरा है कुछ, कुछ और। एक परायापन, एक अनूठापन, एक अनछुआपन, जिसको कोई चिन्ता छू नहीं सकती, जो इतना बड़ा है कि उसको कोई चिन्ता नाप नहीं सकती। सिर्फ़ ऐसे बच सकते हो चिन्ता से।

'कौन-कौन ऐसा जीवन चाहता है जिसमें चिन्ताएँ न हों?'

(कुछ श्रोता हाथ उठाते हुए)

'बाक़ियों को चिन्ता है कि हाथ उठायें कि नहीं, न जाने क्या हो जाए!'

सबको चाहिए ऐसा जीवन। अब सुनो! थोड़ा सा नमक घुल गया है पानी में, नमक घुल गया है, कैसे हटाऊँ? मेरे पास वो सब विधि नहीं है कि पानी गरम कर दो और ये सब कर दो, तो बुद्धि मत लगाइएगा बहुत। क्या करूँ? चिन्ताएँ हैं, मन में घुल गयी हैं, ये बिलकुल नमकीन हो गया है, पीया नहीं जा रहा, प्यास से मर रहा हूँ। क्या करूँ?

श्रोता: उसमें पानी मिला दीजिए।

आचार्य: ऐसे! उससे नमक कहीं चला गया क्या? चिन्ताएँ कहीं चली जाऍंगी? वो रहेंगी। तुम्हें चिन्ताओं से कहीं ज़्यादा बड़ा कुछ और लाना है जीवन में जिसके सामने चिन्ता छोटी चीज़ बन जाए, ऐसे हटती है चिन्ता। चिन्ता को नहीं हटा सकते, कृष्ण को बढ़ा सकते हो। कृष्ण के सामने वो चिन्ता फिर छोटी चीज़ बन जाएगी।

फिर इसी सूत्र को समझाते हुए कबीर साहब ने कहा है, 'प्रेम करूँगा तो राम से करूँगा। दुख सहूँगा तो राम का सहूँगा। चिन्ता भी करूँगा, यही शब्द है ‘चिन्ता’, चिन्ता भी करूँगा तो राम की करूँगा। मोह करूँगा तो राम से करूँगा।' माने वो स्वीकार रहे हैं कि चिन्ता तो रहेगी, भय भी रहेगा, मोह भी रहेगा, सबकुछ रहेगा। 'लेकिन उन सबको मैं किससे जोड़ दूॅंगा? वो जो थोड़ा सा नमक है उसको मैं किससे जोड़ दूॅंगा? बहुत बड़े पानी से। वो सब रहेंगे लेकिन उनके साथ, उनसे बहुत बड़ा राम जोड़ दूॅंगा। उसके बाद वो छोटे हो जाते हैं।'

अब जो लोग ये कोशिश कर रहे हों जैसा कि आजकल के समसामयिक अध्यात्म में ये कोशिश की जाती है कि चिन्ता तो हटानी है पर राम को नहीं लाना है, मैं आपसे कह रहा हूँ, आप असफल रहेंगे, नहीं हो पाएगा। ये वही लोग हैं जो कह रहे हैं, 'नहीं, इसमें से नमक तो हटाना है पर पानी नहीं बढ़ाना है', नहीं हो पाएगा। अगर आपके जीवन में राम के लिए, कृष्ण के लिए कोई स्थान नहीं है तो चिन्ताएँ आपके लिए बड़ी भारी चीज़ बनी ही रहेंगी। दुख, भय, मोह, लोभ ये सब बहुत भारी चीज़ बने रहेंगे। और ये किसी के भी जीवन से जाते नहीं हैं। क्यों नहीं जाते हैं, इसका कारण भी समझ लो। ये यहाँ (शरीर में) होते हैं इसलिए नहीं जाते।

सन्त के भी ये (शरीर) होता है कि नहीं होता है? सन्त खाना खाता है कि नहीं खाता है? साॅंस लेता है कि नहीं लेता है? भोजन उसे भी पचता है कि नहीं पचता है? मल वो भी त्यागता है कि नहीं त्यागता है? जब ये (शरीर) हर तरीक़े से सन्त में मौजूद है तो इसमें वास करने वाली वृत्तियाँ भी तो सन्त में भी मौजूद रहेंगी न? चिन्ता इससे (शरीर से) उठती है। तो सन्त को भी उठती है लेकिन जब उसे उठती है तो वो क्या बोलता है? 'राम!' और चिन्ता उसके सामने छोटी सी चीज़ हो जाती है बिलकुल। चिन्ता है, बस छोटी हो गयी क्योंकि सामने राम आ गये, अब नहीं है चिन्ता।

समझ में आ रही है बात?

राम को जीवन में लाना नहीं है क्योंकि अजीब सा लगता है न ‘राम!’ 'गीता नहीं पढ़नी है और चिन्ताओं से और बाक़ी वृत्तियों से भी मुक्ति चाहिए', असम्भव! और अगर कोई मिले ऐसा जो कहे कि मुझे, न वेदान्त से मतलब है, न कृष्ण से, न गीता से लेकिन मेरे जीवन में सुख-चैन बहुत है तो तुरन्त जान जाइएगा कि ये आदमी या तो बेहोश है या झूठा। या तो बेहोश है या मक्कार, बेहोश या बेईमान।

आते हैं लोग, पूछते हैं, 'आचार्य जी, डर बहुत लगता है, डर कैसे मिटायें?' डर घटाने का सवाल पूछ लेते हो, राम बढ़ाने का सवाल कभी क्यों नहीं पूछते? क्योंकि डर नहीं घट सकता, डर कहाँ है? डर आपको प्रकृति ने दिया है आत्मरक्षा के लिए। बच्चा अपने साथ डर लेकर पैदा हुआ है, कैसे घटाओगे बाबा? डर घटाने की बात मत पूछो, राम बढ़ाने की बात पूछो। चिन्ता कैसे मिटायें ये मत पूछो, गीता के साथ और समय कैसे बितायें ये पूछो। क्योंकि चिन्ता का कोई सीधा, डायरेक्ट समाधान नहीं है।

जब चिन्ता लेकिन छाती है तो हम चिन्ता के बारे में ही चिन्ता करने लगते हैं। और यही तो चिन्ता की साज़िश है, वो आपको राम से और दूर कर देती है। तुम चिन्तित लोगों को देखना, उनको उनकी चिन्ता ही इतना घेर लेती है कि अब तो राम के लिए उन्होंने कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी। जब चिन्ता नहीं थी तब तो फिर भी वो राम नाम ले लेते रहे होंगे, लेकिन जब चिन्ता आ गयी है तो अब बस चिन्ता का ही नाम लेते हैं। ऐसा होता है या नहीं होता?

'मन्दिर क्यों नहीं गये?'

'व्यस्त थे।'

'किसमें?'

'कुछ चिन्ता आ गयी थी।'

अरे! मन्दिर ही जाकर तो चिन्ता हटेगी, तुम कह रहे हो, ‘चिन्ता है इसलिए मन्दिर नहीं गये।’ मैं असली मन्दिर की बात कर रहा हूँ।

'क्यों नहीं आये भाई महोत्सव में आचार्य जी से मिलने?'

'देखो! अभी कुछ परेशानी चल रही थी इसलिए नहीं आये।'

'तो जब परेशानी ख़त्म हो जाएगी तब आओगे? तब आओगे क्यों? तब तो हम ही कहेंगे कि मत आओ, जब परेशानी बची नहीं तो क्यों आ रहे हो?'

लेकिन ये कितना बेहूदा तर्क है कि परेशानी चल रही है इसलिए मेरे पास नहीं आये। अरे! परेशानी चल रही है इसीलिए आओ न बाबा! यहाँ हम मनोरंजन के लिए थोड़े ही बैठे हैं। परेशानी ही तो हटाने के लिए मिले हैं। पर बुद्धि उल्टी चलने लगती है, बुद्धि कहती है जब स्वस्थ हो जाऍंगे तब चिकित्सक के पास जाऍंगे।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी! आचार्य जी मेरा सवाल अहंकार पर है। जैसे साधना या अभ्यास करने की मैं कोशिश करता रहता हूँ तो ये दो नज़रिये जो हैं अहंकार को देखने के, एक तो ये कि उसको मैं कई बार एक बुरी एंटिटी (इकाई) की तरह देखता हूँ और कई बार एक बेवकूफ़ एंटिटी की तरह।

आचार्य: पहले क्या कहा, कैसी एंटिटी ?

प्र: बुरी। या फिर कभी उसको एक बेवकूफ़ एंटिटी की तरह। दोनों में से कभी-कभी समझ नहीं पाता हूँ कि सही नज़रिया क्या है उसको देखने का।

आचार्य: एक ही हैं दोनों। बेवकूफ़ी ही बुराई है। बुराई और बेवकूफ़ी अलग-अलग थोड़े ही होते हैं। ये हमारी भ्रान्ति है कि हम उनको अलग-अलग कर देते हैं। और अलग करने के बाद जब आप बेवकूफ़ी को बुरा नहीं मानते हो तो फिर आप बेवकूफ़ी को क्यूट (भोला) मानते हो, वहीं फॅंस जाते हो। बेवकूफ़ी जैसी भी दिखे, जहाँ भी दिखे, वो बुरी है, क्यूट नहीं हो गयी। इस शब्द पर ग़ौर करिएगा, 'क्यूटनेस' (भोलापन)। ये क्या होती है? ऐसी बेवकूफ़ी जो आपको बहुत मोहित कर रही हो उसको आप बोल देते हो क्यूटनेस। और भी अर्थों में क्यूट शब्द का इस्तेमाल हो सकता है पर इस अर्थ में बहुत होता है।

बेवकूफ़ी ही बुराई है और बोध में ही अच्छाई है, शुभता है, और नहीं कहीं कोई अच्छाई होती। न प्रेम में अच्छाई होती है, न शुभकामनाओं में होती है, कोई ममता में आकर के आपसे पाँच मीठी बातें बोल दे उसमें भी कोई अच्छाई नहीं होती है। अच्छाई बस एक है — बोध, समझदारी। और बेवकूफ़ी कितने भी प्यार से की गयी हो, वो अशुभ ही है, उसके झाॅंसे में मत आ जाइएगा।

गीत चलने लग जाते हैं, 'मीठी नादानियाँ', कोई नादानी मीठी नहीं होती। मीठे सिर्फ़ ‘नीम लड्डू’ होते हैं। नादानियाँ अगर मीठी लग रही हैं तो आगे डायबिटीज़ (मधुमेह) कराऍंगी। यहीं पर तो आकर के ज़िन्दगी फिसल जाती है, 'मीठी नादानियाँ।' अब ढोओ बेटा क्यूटी पाई का मीठा एप्पल पाई।

अजीब हमने एक संस्कृति बना ली है जिसमें समझदारी को हमने रूखापन मान लिया है, है न? और बेवकूफ़ी हमें बड़ी गीली-गीली लगती है। वो कहते हैं, 'भीतर से बिलकुल गीला हो गये, एकदम नम हो गये, भीग गये, बारिश हो गयी। ऐसी प्यारी बेवकूफ़ियाँ देखीं कि एकदम भीतर वर्षा ही हो गयी।' और कोई आपको समझदारी की‌ चार बातें बताये तो आप कहते हैं कि रूखा! रूखा बहुत है। लाना रे! मोइस्चराइज़र दो थोड़ा, रूखे हो गये इसकी पूरी बात सुनकर, चमड़ी सूख गयी।

कुछ तो ये हमारी वृत्तियों का काम है, बाक़ी फ़िल्मों का। फ़िल्मों ने यही सब सिखा दिया, हमें पता भी नहीं चलता। मूर्खता जहाँ भी देखो, जान का ख़तरा मानो। भले ही वो कितनी भी सुन्दर लग रही हो, कितनी ही मोहक, बहुत आकर्षक, मूर्खता तो मूर्खता है। और आमतौर पर जो चीज़ जितनी सुन्दर होती है उतनी ही मूर्खता भरी होती है, चीज़ भी, इंसान भी। सुन्दरता धीरे-धीरे चली जाती है, मूर्खता क़ायम रह जाती है और बढ़ जाती है। फिर कहते हैं, 'हाय दैया! जे का हो गयो!'

(सभी हॅंसते हुए)

उसके बाद अध्यात्म की शरण में आते हैं, संस्था को फ़ोन लगाते हैं, ‘कहाँ है अगला महोत्सव, बताओ!’

(सभी ज़ोर से हॅंसते हुए)

सन्तों ने कहा है, 'माया पापिनी, माया डाकिनी, माया पिशाचिनी।' सन्तों को दिखती है वो पिशाचिनी जैसी, हमको वो कैसी दिखती है? रूपसी अप्सरा समान। सन्तों को वो पिशाचनी दिखती है इसीलिए बच जाते हैं। हमको कैसी दिखती है? 'अले,ले,ले छुंदल,छुंदल!' तो फिर हम फॅंस भी जाते हैं।

“माया ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए।” उनको दिखता है कि यह कलेजा काटकर खा रही है, डाकिनी है। हम बोलते हैं, 'नहीं, मैंने दिल तुझको दिया।’ तुमने दिया नहीं है, उसने कलेजा काटकर खा लिया है, पगले! यहाँ जिसको देखो, वही दिल दे रहा है, उन्हें ये समझ में ही नहीं आ रहा कि उसने लम्बे नाखूनों वाले हाथ सीधे अन्दर डाला है, कलेजा बाहर निकाला है और उसमें मस्टर्ड सॉस डालकर खा रही है। नौजवानों के चेहरे उतर गये।

(श्रोतागण हॅंसते हुए)

प्र२: श्रीकृष्ण तो ईश्वर थे उनको सबकुछ पता है, भूत, भविष्य। तो श्रीकृष्ण ने जो गीता कही, अगर वो नहीं कहते तो क्या युद्ध का परिणाम कुछ और था?

आचार्य: वो ख़ुद कह रहे हैं क्या ऐसा कुछ?

प्र२: नहीं, वो ख़ुद तो नहीं कह रहे।

आचार्य: अगर वो ऐसे सर्वशक्तिमान ईश्वर ही हैं तो अर्जुन के साथ उन्हें इतना श्रम क्यों करना पड़ रहा है? बस ऐसे कर दें (हाथ से जादू का इशारा करते हुए), अर्जुन का मन बदल जाएगा। ये सात-सौ श्लोकों वाली अठारह अध्यायों वाली गीता उनको क्यों कहनी पड़ी?

ये जैसे ही तुम किसी को सर्वशक्तिमान बना देते हो न वैसे ही तुम अमृत से अपनेआप को वंचित कर लेते हो क्योंकि अब तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ रहा है कि यहाँ पर कितनी ऊँची घटना घट रही है। अगर कोई सर्वशक्तिमान है और वो कोई बड़ा काम कर देता है तो कोई बड़ी बात हुई क्या? सर्वशक्तिमान माने सबकुछ! कोई सर्वशक्तिमान आदमी या सर्वशक्तिमान इकाई कुछ करके दिखा दे तो ये कोई उल्लेखनीय बात हुई क्या? नहीं हुई न, आपने उल्लेखनीयता छीन ली इसकी।

कृष्णत्व एक चीज़ है और यहाँ जो व्यक्ति खड़े हैं अर्जुन के सारथी बनकर वो दूसरी बात है। वो व्यक्ति ही हैं और उनकी महानता देखो, उनका जीवट देखो, उनका श्रम देखो, उनका ज्ञान देखो और साहस देखो। उनको एब्सॉल्यूट (पूर्ण) बनाकर के वो जो यहाँ पर चमत्कार कर रहे हैं उससे वंचित मत रह जाओ।

देखो दो बातें हैं यहाँ पर। जब हम बात करते हैं, जब मैं बार-बार कहता हूँ कि कृष्ण केन्द्र होने चाहिए तो मैं वहाँ पर ‘व्यक्ति कृष्ण’ की बात नहीं कर रहा, मैं वहाँ किसको कृष्ण बोल रहा हूँ? मैं वहाँ ब्रह्म को कृष्ण बोल रहा हूँ, सत्य को कृष्ण बोल रहा हूँ। पर जब आप गीताकार की बात कर रहे हैं तो गीताकार एक व्यक्ति ही हैं जिनके केन्द्र में, जिनके हृदय में सत्य बैठा हुआ है। वो अर्जुन से इस मामले में बहुत अलग हैं कि अर्जुन के केन्द्र में मोह बैठा है और कृष्ण के केन्द्र में सत्य बैठा है। दोनों में ये अन्तर है।

पूरा श्रेय दो ‘व्यक्ति कृष्ण’ को इस बात का कि व्यक्ति होते हुए भी उनके हृदय में सत्य ही स्थापित रहा, तब जाकर के तुम उनकी प्रशंसा कर पाओगे। नहीं तो अगर ये कह दिया कि ये तो चमत्कारिक हैं तो फिर अपने लिए ही सब ख़राब कर लिया आपने।

प्र३: आचार्य जी, वैदिक ग्रन्थों में 'कर्मकांड' नाम का एक बड़ा हिस्सा है और उसका वास्तविक रिश्ता है असली वेद से। तो उसकी उपयोगिता क्या है?

आचार्य: अब कुछ नहीं है।

प्र३: उस समय उसका क्या महत्व था?

आचार्य: देखो, लोगों को ये याद दिलाना कि उनकी खेती-बाड़ी, उनके रोज़ के काम-धन्धों से आगे भी कुछ है, इसके लिए कुछ परंपराएँ, प्रथाएँ, रिचुअल्स ये सब बनाये गए, वो कर्मकांड है। उसका उद्देश्य बस यही था कि तुम कर क्या रहे हो। तुम खेत में हल चला रहे हो, तुम गाय का दूध निकाल रहे हो, तुम कहीं पर बैठ गये हो, वहाँ पंचायत जोड़ ली है, वहाँ पर फ़ालतू चर्चा कर रहे हो, गाॅसिप कुछ कर रहे हो। उससे अच्छा इधर आ जाओ, मैं तुम्हें कुछ कर्मकांड बता देता हूँ। ये करोगे तो ये करने से तुम्हारा मंगल होगा, शुभ होगा, तुम्हारी कामनाएँ पूरी होंगी। तो उसका बस इतना ही औचित्य था। आज उसका कोई औचित्य नहीं है। वेदों की अमरता वेदान्त में निहित है।

देखो, कर्मकांड को तो भारत वैसे भी अधिकांशतः बहुत पीछे छोड़ ही चुका है। आज भी जो लोग कर्मकांड की बहुत हिमायत करते हैं वो जानते हो कौन हैं? वो सब पंडे, पुरोहित, ब्राह्मण वर्ग के लोग हैं। वो क्यों इतनी ज़्यादा आज भी कर्मकांड की बात करते हैं? क्योंकि सदियों से उनके पुरखों ने कर्मकांड की ही तो खायी है यजमानी। मुझपर भी जो वर्ग है हिन्दुओं का जो सबसे ज़्यादा आक्रमण करता है वो ब्राह्मणों का ही तो है, शुक्ला, मिश्रा, तिवारी, त्रिपाठी, शर्मा।

मैंने कहा था, ‘यूट्यूब पर हमें रोज़ बीस-हज़ार काॅमेंट्स (टिप्पणियाँ) आते हैं। उसमें से कुछ नहीं तो पाॅंच-हज़ार गालियाँ होती हैं जिसमें से चार-हज़ार-नौ-सौ-निन्यानवे ब्राह्मणों ने दी होती हैं। उनको बहुत तकलीफ़ यही है कि धर्म का जो रूप, जो ढाॅंचा, जो अर्थ उन्होंने इतनी शताब्दियों से फैलाकर रखा है, सबको भ्रमित करके रखा है, मैं उसको चुनौती क्यों दे रहा हूँ। गये किसी के घर में, वो बीमार पड़ा है, कह रहे हैं, ‘अरे! बीमार थोड़े ही है, इसको भूत चढ़ा है, हम भूत उतार देते हैं।' और भूत उतारने के पाॅंच-हज़ार ले लिये।’ अब वो पाॅंच-हज़ार मिलना रुक जाएगा न अगर समझ में आ गया कि ये कर्मकांड, ये जादू-टोना, ये कुछ नहीं हैं।

वो कहते हैं, ‘जादू-टोना है, अथर्ववेद में लिखा है।’ सीधे पेट पर लात पड़ रही है, पाॅंच-हज़ार गये। क्योंकि अगर बात खुल गयी कि इससे कुछ नहीं होता तो आजीविका भी तो रुक गयी महाराज की। और आज भले ही वो पुरोहिती की और यजमानी की न खाते हों लेकिन फिर भी सम्मान तो जुड़ा ही हुआ है न इन चीज़ों के साथ। इतने दिनों तक ब्राह्मण होने के नाम पर जो सम्मान मिला वो कर्मकांड से ही तो उठा सम्मान था?

आप ब्राह्मणों को किस बात पर सम्मान देते थे? इसलिए कि वो बहुत ज्ञानी थे? ज्ञानी, पहली बात, अधिकांशतः वो थे नहीं। दूसरी बात, अगर वो ज्ञानी थे भी तो अपना ज्ञान वो बहुत कम बाॅंटते थे। तो उनके ज्ञान के नाते तो आप उनको सम्मान क्या ही देते रहे होंगे? हाँ, सम्मान इस नाते दे देते थे कि वो आये हैं, ब्राह्मण देवता पधारे हैं, अब बैठेंगे, कद्दू खाऍंगे, पूड़ी खाऍंगे और उसके बाद फ़लाना काम करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। तो सम्मान ही कर्मकांड से जुड़ा हुआ है। और उस कर्मकांड को जब मिथ्या बताया जाएगा तो बहुत बुरा लगता है।

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