आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
दीवाली पर इस बड़ी गलती से बचें || आचार्य प्रशांत (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
41 मिनट
41 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक बार आपसे ये समझना चाहता था कि धर्म और संस्कृति – इन दोनों चीज़ों में क्या सम्बंध है? साथ में इसको यदि मैं अभी के परिप्रेक्ष में देखूँ तो हम सभी ने सांस्कृतिक दिवाली देखी है जिसमें मिठाइयों का आदान-प्रदान चलता है, जिसमें नये कपड़े पहने जाते हैं, जिसमें ऐसी बहुत-सी चीज़ें की जाती हैं, जो हम सभी लोग पिछले बहुत सालों से कर रहे हैं। पर एक धार्मिक दिवाली कैसी होगी फिर?

आचार्य प्रशांत: अच्छा सवाल है, बड़ियाँ-बड़ियाँ। हम इन चीज़ों पर चलते हैं, इन्हें अपने आम जीवन में जगह दिये रहते हैं, पर इन पर स्पष्टता से कभी विचार नहीं करते। हम इनकी परिभाषाओं पर नहीं जाते हैं, धर्म क्या है, संस्कृति क्या है।

संस्कृति क्या है?

जो आम आदमी के चलने-फिरने सोने-उठने, आपस में बोल-व्यवहार करने का ढंग है उसको संस्कृति कहते हैं, वही कल्चर है, ठीक है? या कि जैसी हमारी वास्तुकला भी होती है, जिस तरीक़े से हम अपनी इमारतें बनाते हैं, वो भी संस्कृति में ही आ जाता है। आप किसका कैसे अभिवादन करते हैं, ये भी संस्कृति में आ जाता है।

तो संस्कृति एक तरीक़े से व्यवहार की बात है। आप खड़े कैसे होते हो, आप बैठते कैसे हो, आप हाथ बढ़ाकर के किसी का अभिवादन करते हो या हाथ जोड़कर के। आपके सामने यदि एक बुज़ुर्ग महिला आ जाती हैं, तो आप उन्हें क्या कहकर सम्बोधित करते हो, ये सब बातें संस्कृति में आती हैं; आप कपड़े कैसे पहनते हो। आप जब पूजा करने जाते हो तो पूजा का आपका तरीक़ा क्या होता है, ये भी संस्कृति में आ जाती है। आप शांति से पूजा करते हो या ढ़ोल-मंजीरे बजाकर करते हो, ये भी संस्कृति में आ जाता है।

तो संस्कृति, ग़ौर करिएगा, बहुत ग़ौर से सुनिएगा, संस्कृति एक तरह की पारिवारिक और सामाजिक विरासत है। क्या है? संस्कृति पारिवारिक और सामाजिक विरासत है। क्योंकि ये जो ढर्रे हैं ये कोई आपने आविष्कृत नहीं करे हैं, ये ढर्रे आपको दे दिए गए हैं; घर द्वारा और समाज द्वारा। आप उन्हीं का पालन करने लग जाते हो।

कायदे से कर्म का आधार बोध होना चाहिए न। और हमने कहा, संस्कृति व्यवहार की, माने कर्म की बात है, तो संस्कृति का आधार धर्म को होना चाहिए। ठीक वैसे, जैसे हमारा कोई भी कर्म बोध से उत्पन्न होना चाहिए न। उसी तरीक़े से कायदे से संस्कृति को धर्म से उत्पन्न होना चाहिए। संस्कृति के आधार में धर्म को होना चाहिए।

धर्म को तय करना चाहिए की आप कैसे चलो, कैसे उठो-बैठो। और वो फिर कोई नियम नहीं हो सकता। वो प्रत्येक व्यक्ति को देखना पड़ेगा। उसमें से कुछ बातें साझी हो सकती हैं और कुछ बातें साझी नहीं भी होंगी। लेकिन बात व्यवहार की, साझी हो चाहे न हो। इतना निश्चित रूप से होना चाहिए कि व्यवहार के पीछे, कर्म के पीछे, बोध होना चाहिए यानि धर्म होना चाहिए।

तो होना ये चाहिए कि ये संस्कृति है कि लोग कैसे मिल-जुल रहे हैं, खा-पी रहे हैं, बातचीत कर रहे हैं, कौनसी उनकी साझी मान्यतएँ हैं, ये सब ये संस्कृति का है। और संस्कृति के इस पूरे भवन के नीचे जो बुनियाद है, उसका नाम है धर्म; कायदे से ऐसा होना चाहिए।

अभी बहुत उल्टा हो गया है, संस्कृति की बुनियाद हो गई है परम्परा; ख़तरनाक बात। संस्कृति की बुनियाद हो गई है विरासत, जो हमने कहा न अभी? एक पारिवारिक और सामाजिक विरासत। संस्कृति धर्म से नहीं उठ रही है, संस्कृति परंपरा से उठ रही है। तो संस्कृति, धर्म से बहुत दूर छिटक गई है। यहाँ तक कि धर्म, संस्कृति का एक छोटा-सा हिस्सा बनकर रह गया है। एक सबसेट (उप-समुचय)। और वो जो सबसेट (उप-समुचय) है उसमें भी धर्म की गहराई नहीं होती। उसमें भी धर्म के छिलके, माने सतह होती है।

हमारी संस्कृति कहाँ से आ रही है? हमारी संस्कृति आ रही है, जो हम पहले जो कर रहे थे वही आज भी करते रहेंगे, बस यही संस्कृति है। हम जो पहले कर रहे थे वो आज भी करेंगे और वो संस्कृति लगातार बदल भी रही है। क्योंकि हम जो सौ साल पहले कर रहे थे, वो हम आज नहीं कर रहे हैं।

भारत में ही या भारत के किसी क्षेत्र में ही सौ साल पहले की जो संस्कृति थी, वो आज नहीं है न? उन्नीस-सौ-बाईस के लोगों को आप जाएँगे देखने, उनके घरों को देखेंगे, या उनके बाजारों को देखेंगे, या उनके मंदिरों को देखेंगे तो वहाँ जिस प्रकार का आपको व्यवहार, आचरण मिलेगा, क्या आपको आज घरों, बाज़ारों और मंदिरों में वैसा आचरण मिलता है?

तो संस्कृति बदल भी रही है लेकिन वो बदलाव उसमें धर्म से नहीं आ रहा, वो बदलाव भी उसमें इधर-उधर के प्रभावों से आ रहा है। और वो आएगा ही क्योंकि जब आप धर्म से नहीं चल रहे होते, जब आपका आधार धर्म नहीं होता, तो दुनिया की जो तमाम ताक़तें होती हैं वो आपको प्रभावित कर जाती हैं।

तो इसी तरीक़े से भारतीय संस्कृति का भी वेस्टनाइजेशन हो गया। क्योंकि धर्म नहीं था न उसके नीचे, धर्म को न वो आधार में लेकर चल रही, न केंद्र में लेकर चल रही। वो किसको केंद्र में लेकर चल रही, वो अज्ञान को केंद्र कर चल रही। क्या अज्ञान, पता ही नहीं संस्कृति होती क्या है, धर्म आना कहाँ से चाहिए।

तो संस्कृति बस ग्रहण कर ली। किससे ग्रहण कर ली, हमारे पिता जी ऐसा करते थे, हमारे दादा जी ऐसा करते थे तो हम भी कर रहे हैं। आपके पिता जी और दादा जी जो करते थे उसमें अगर बहुत दम होता, तो आप आज भी वही कर रहे होते, जो आपके दादाजी करते थे। लेकिन आप आज वो नहीं कर रहे जो उन्नीस-सौ-बाईस में होता था।

उसका क्या मतलब है?

दादाजी जिस तरह का जीवन जी रहे थे वो ठीक है, वो जी रहे थे। वो इसलिए जी रहे थे कि उनके दादाजी वैसा जीते थे। उन्होंने कभी पूछा नहीं कि इस प्रकार के व्यवहार के पीछे, आचरण के पीछे, इन मान्यताओं के पीछे, कहीं धार्मिकता, कहीं बोध है भी या नहीं; उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया। बस जो चल रहा है उसको चलाते रहो, हमने इसको संस्कृति मान लिया है।

और ऐसी संस्कृति निहायती कमजोर होती है। तो फिर हमें बहुत डर लगता है, हम कहते हैं, 'हमारे युवा संस्कृति भ्रष्ट होते जा रहे हैं', कहते हैं न? हमारी संस्कृति में अगर दम होता तो फिर हमें ये शिकायत क्यों करनी पड़ती, काहे को हम रोते कि हमारे युवा अब संस्कृति पर नहीं चल रहे।

क्योंकि जो संस्कृति धर्म की जड़ों से नहीं उठी होगी, वो संस्कृति बहुत जल्दी बहक जाती है। अब आपके युवा अगर बहक गए हों, तो भी ग़लत और नहीं बहके हों तो भी ग़लत। भई आपकी संस्कृति का आधार धर्म तो है ही नहीं, तो अब दो तरह के लोग हो गए हैं। जो वही पुरानी संस्कृति पर चल रहे हैं, वो अपनेआप को बोलते हैं, 'हम सांस्कृतिक लोग हैं।'

और इतना ही नहीं, आपने ये भी बोल दिया है कि राष्ट्रवाद का अर्थ भी सांस्कृतिक ही है। माने भारतीय भी वही है जो पुराने किस्म की संस्कृति पर जो चल रहे, उन सबको हम भारतीय मानेंगे। और जो पुरानी संस्कृति पर नहीं चल रहे, हम कह देंगे, 'ये भारतीय भी नहीं हैं।' इसको आपने नाम दिया है, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का।

जो लोग उस संस्कृति पर चल रहे हैं, उन्होंने भी आधार धर्म को नहीं बनाया। उन्होंने किसको आधार बनाया है? अपने पुरखों को, अपनी विरासत को। और ये भी नहीं कि बहुत पीछे की विरासत, बस पिछले सौ-दो सौ साल की विरासत। क्योंकि उसके पीछे की तो पता नहीं है। अपने दादाजी को देखा था, वो जैसे चलते थे वैसे ही हमको चलना है। उसके पीछे और क्या चलता था पाँच सौ, हज़ार साल पहले, वो हमने कभी इतिहास पढ़ा ही नहीं, तो हम जानते भी नहीं है।

जो उस संस्कृति पर चल रह है, वो भी धार्मिक नहीं हैं और जिन युवाओं को आप कहते हैं कि बहक गए हैं, वो भी धार्मिक नहीं है; वो भी नहीं चल रहे हैं। कुल मिलाकर के कोई नहीं है जो धर्म पर चल रहा हो। बस जो लोग संस्कृति पर चल रहे हैं, उनको अपनेआप पर गौरव बहुत है। वो कहते हैं, 'देखो, हम सांस्कृतिक लोग हैं।'

अरे, संस्कृति में कौन-सा महत्व होता है बहुत? संस्कृति का उद्देश्य होता है, धर्म को सामाजिक तल पर अभिव्यक्ति देना। धर्म जीने की, धर्म आचरण की चीज़ बन सके इसलिए होती है संस्कृति। संस्कृति को धर्म का सेवक होना चाहिए। लेकिन हमने संस्कृति को बाप बना लिया है, और बाप जो कुछ करते थे उसी को संस्कृति बना लिया है।

बस इसी पर लगे हैं — 'हमारे यहाँ ऐसा होता आया है, इन इंडिया दिस हेज ऑलवेज बीन डन।' हाँ, तो क्या हो गया? बहुत कुछ ऐसा है हमारे अतीत में जो बिलकुल अच्छा नहीं है, जिस पर शर्म आनी चाहिए हमको। और बहुत कुछ है हमारे अतीत में ऐसा है कि ऐसे खड़े हो जाओ; तनकर, गौरव से।

जो कुछ ऐसा है, जो जीवन को प्रकाश देता है, भव्यता, गरिमा और गौरव देता है उसको हमने संस्कृति से एकदम दूर रखा है। और अतीत का ज़्यादातर कचरा वगैरह ही हम बाँध करके आगे बढ़ते जा रहे हैं, ये कह कर कि ये तो हमारी संस्कृति है, ये तो हमारी संस्कृति है।

मैं बताता हूँ हमारी संस्कृति, जब धर्म से नहीं आती तो कहा से आती है। भारत हो, दुनिया का कोई भी और देश हो, यदि उसकी संस्कृति धर्म से नहीं आएगी तो मनुष्य के भीतर की पाशविकता से आएगी। और मनुष्य के भीतर की पाश्विकता बस एक चीज़ माँगती है, भोग। इसीलिए दुनियाभर की जितनी संस्कृतियाँ हैं, सबने मिल कर के पृथ्वी को तबाह करा है।

तुम्हें क्या लग रहा है, जो कल्चरल (सांस्कृतिक) लोग हैं, जो कल्चर्ड लोग हैं, जो अपनेआप को बोलते हैं, 'हम बहुत सांस्कृतिक हैं,' ये क्लाइमेट चेंज के लिए उत्तरदायी नहीं हैं; ये बराबर के उत्तरदायी हैं। इनको बोल दो तुम कि अपने जीने का तरीक़ा बदलो, तुम जिस तरीक़े से जी रहे हो इससे प्रदूषण होता है, कार्बन होता है। तो ये तत्काल कहते हैं, ' ये पर हमारे कल्चर का हिस्सा है, हम कैसे बदल जाएँगे?'

संस्कृति, आपको फिर कहूँगा, पूजनीय सिर्फ़ तब होती है, जब उसके आधार में धर्म होता है। पर धर्म हमको पता नहीं — जब मैं धर्म कह रहा हूँ तो उससे आशय, मेरा अध्यात्म है। धर्म से मेरा आशय है, रीत-रिवाज, परंपरा, पाखंड नहीं होता कभी भी। पर धर्म का हमें कुछ पता नहीं।

आपके सामने एक धार्मिक आदमी भी आ जाए तो आप उसको जज करने लग जाते हो, इस बात से कि ये हमारे कल्चर को फॉलो कर रहा है कि नहीं कर रहा है। आपको बड़ी समस्या हो जाएगी। और आध्यात्मिक आदमी कभी भी आपकी संस्कृति पर थोड़ी ही चलेगा। उसके पास चलने के लिए सत्य है, उसे संस्कृति का क्या करना है।

संस्कृति तो एक प्रकार का ज्ञान होती है। उसको आप बोलते हो न, किसी को संस्कारित कर रहे हैं। वास्तव में आप उसको एक प्रकार का ज्ञान दे रहे होते हो ताकि वो ठीक हो जाए। वो एक तरह की कंडीशनिंग होती है, वो एक तरह की दवाई होती है, इलाज होती है। आदमी जानवर पैदा होता है न, तो उसको फिर संस्कारित करना पड़ता है। माने उसे शिक्षित करना पड़ता है, माने उसे ज्ञान देना पड़ता है ताकि वो जानवर से इंसान बन सके।

समझ में आ रही है बात?

संस्कृति कंडीशनिंग है। वो कंडीशनिंग बहुत महीन इलाज होता है। उसको दे पाने का हक़ सिर्फ़ उनको होता है, जिन्हें इलाज करना आता हो। किसी को संस्कारित करना लगभग उसकी सर्जरी करने जैसा होता है। इलाज ठीक हो गया तो बीमारी से मुक्त हो जाएगा। इलाज ठीक नहीं हुआ तो जीवन से ही मुक्त हो जाएगा।

हमारे यहाँ पर संस्कारित करने वाले लोग कौन हैं? सब परिवार के लोग मिलकर संस्कारित कर देंगे, बच्चे को। स्कूल में जाएगा तो टीचर छोड़ो, जो उसके साथी छात्र हैं, वो उसको संस्कारित कर देंगे। और सबसे ज़्यादा ये टीवी और मीडिया संस्कारित करेगा बच्चों को। और फिर उसको हम बोलते हैं, 'ये हमारी उज्ज्वल, प्राचीन, गौरवमयी संस्कृति है।' उसका धर्म से, अध्यात्म से ताल्लुक बचा कहाँ है? मुझे ये बता दीजिए।

संस्कार वो हैं, जो आपको सत्य और शांति की तरफ़ ले जा पायें। जो आपको बोध की दिशा ले जा पाएँ, उसको संस्कार कहा जाता है। यूँ ही तुम कुछ किसी के साथ कर दो, बिना ये समझने की कोशिश भी किये कि इसका इस बच्चे के, या इस युवा के जीवन पर प्रभाव क्या पड़ेगा; वो तो अप-संस्कृति है न, वो संस्कृति थोड़ी कहलाएगी।

और अप-संस्कृति का ही परिणाम है, ये क्लाइमेट क्राइसेस। ये हमारे कल्चर में है कि सुख माने, भोग। 'अवर कल्चर टेल्स अस दैट हैप्पिनेस इक्वल्स कंजम्शन'

ये समझ में आ रही है बात?

आप कब किसी को बधाई देते हो, जब आप पाते हो कि अब वो भोगने की और बेहतर स्थिति में आ गया है। तब कहते हो, 'बधाई हो, बधाई हो।' और ये बात धर्म नहीं सिखा रहा आपको क्योंकि धर्म और संस्कृति बहुत अलग-अलग चल रहे हैं, एकदम विपरीत चल रहे हैं। धर्म बोलेगा, 'देखो अपनेआप को; पूछो तुम कौन हो? और पूछो अपनेआप से कि तुम्हें वास्तव में चैन और शांति कहाँ से मिलेंगे,' ये धर्म बोलता है।

संस्कृति आपको कभी बोलती ही नहीं कि आत्मज्ञान होना चाहिए। संस्कृति कहती है, 'और आने दो, और आने दो, और आने दो, जितना आ जाए उतना बेहतर; मोर इज बेटर।'

दुनियाभर की सारी संस्कृतियाँ ऐसी हैं। मैं पूछ रहा हूँ, क्या आवश्यक है कि भारत की संस्कृति भी ऐसी ही हो? भारत अगर वास्तव में वही है, जहाँ से उपनिषद फूटे थे, तो क्या भारत की संस्कृति भी बोध मर्मी नहीं होनी चाहिए, विशिष्ट नहीं होनी चाहिए? या हम भी ऐसे ही ऊल-जलूल संस्कृति पर चलते रहेंगे, जैसे पूरी दुनिया चलती है। और फिर भी दावा करते रहेंगे हमारी संस्कृति अलग है। हमारी संस्कृति अलग क्यों है, बताओ-बताओ? 'क्योंकि हमारे यहाँ महिलाएँ पर्दा करती हैं।'

ये विशिष्टता होती है संस्कृति की? आपकी संस्कृति को ये चीज़़ विशिष्ट बना देगी कि आप अपनी महिलाओं से पर्दा कराते हो। या संस्कृति को विशिष्ट ये बात बनाती है कि हमारे यहाँ छोटा बच्चा भी पूछता है, नचिकेता कौन था। बताओ मुझे! पर आपके घर का छोटा बच्चा अगर पूछ दे कि नचिकेता कौन है, तो होश उड़ जायेंगे, साँप सूँघ जाएगा; ' ये कैसी बातें कर रहा है?'

पहले तो घर में से आधे लोगों को नचिकेता का उच्चारण करना ही नहीं आएगा, 'नची-चेका-केका.. यू नो माय हिंदी इज अलसो वीक।' और जो बहुत प्रयास करके नचिकेता का उच्चारण कर भी लें, वो फिर गूगल की ओर भागेंगे। कहेंगे, 'था कौन ससुरा?'

(श्रोतागण हँसते हैं)

और जहाँ उनको पता चला कि यमराज के सामने बैठा था, तुरंत बेहोश हो जाएँगे। कहेंगे, 'ये क्या हो गया।' पर संस्कृति सिर्फ़ तब है जब आपका दस-बारह साल का नुन्नू पूछना शुरू कर दे, नचिकेता कौन था? और पापा ये क्या पढ़ते रहते हो दिनभर उपनिषद कहाँ हैं। घर में तुमने सौ किताबें जमा कर रखी हैं, मेरे को महाभारत नहीं दिखाई दे रही कहीं इसमें।

कैसे पूछेगा बच्चा? वो तो महभारत ! कैसे पूछेगा? लेकिन हम अपनेआप को बहुत संस्कृतिशाली बोलते हैं, 'साहब देखिये, हमारा न घर वैसा नहीं है बहुत, देखिये, हम सांस्कृतिक लोग हैं।' क्यों सांस्कृतिक लोग हैं? क्योंकि अब हम ऐसे करते हैं, 'नमस्कारम्' (हाथ जोड़ते हुए)।

इससे संस्कृति हो गयी, ये संस्कृति हो गयी। या फलाना वाला ख़ास तिलक या टीका लगाते हैं तो हम सांस्कृतिक लोग हैं। तुम्हारे टीके से क्या होना है, मुझे समझा दो। संस्कृति मैंने कहा, 'धर्म की सेवक होनी चाहिए।' और धर्म का उद्देश्य होता है मन को शांति तक लेकर जाना, ठीक? तो संस्कृति वही है जो मन को शांति तक ले जाए। तुम मुझे बताओ, ये जो कुछ कर रहे हो तुम कल्चर के नाम से इससे मन को शांति कहाँ मिल रही है? तो मैं इसको संस्कृति बोलूँ या अप-संस्कृति बोलूँ? लेकिन तुम्हे इसी संस्कृति पर नाज़ हो जाता है, तुम सुधार भी नहीं करना चाहते।

छोटे बच्चे को जन्माष्मी पर तुमने कुछ कपड़े पहना दिए हैं, कृष्ण जैसे कर दिया और उसको मुरली दे दी हाथ में, मोरपंख लगा दिया और तुम बोलते हो, 'देखो, इंडियन कल्चर सो ग्लोरियस।' कृष्णत्व से भी कुछ परिचय कराओगे उस बच्चे का या बस मुरली ही लगा दोगे और मोरपंख लगा दोगे। और ये पता भी नहीं करोगे कि वो मोरपंख बाज़ार में पहुँचा कैसे था।

जानते हो, आपको जो मोरपंख मिले रहते हैं, उसमें नीचे से देखना आपको वहाँ पर एक साफ़ काट का निशान दिखाई देगा। मोरपंख में आपको, अगर मोरपंख सीधे-सीधे मोर के शरीर से निकाला जाए तो वो जो उसका तना होता है वो टेपर (पतला) करेगा न, अंत में। वो टेपर नहीं होता, वो काटा जाता है; बताओ काटा क्यों जाता है, बताओ क्यों काटा जाता है?

क्योंकि उसके सिरे पर खून लगा होता है, वो आपको दिखे न इसलिए। खून क्यों लगा होता है क्योंकि वो मोरपंख मोर के शरीर से प्राकृतिक रूप से नहीं झड़ा होता है, उसे मोर की खाल से खींच कर निकाला गया होता है, उसमें खून लगा होता है। तो काटा जाता है फिर आपको दिया — तुम कहते हो, 'कान्हा बन गया बच्चा।' ये संस्कृति है?

और कृष्णत्व से मैं कह रहा हूँ, उसका कोई परिचय नहीं करा रहे हैं क्योंकि माँ-बाप को दूर-दूर तक गीता से कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप ने खुद कभी न गीता को सम्मान दिया, न गीता को पढ़ा, न गीता को कभी जीवन में उतारा। बस संस्कृति चाहिए, संस्कृति चाहिए।

और क्रोध मुझे इस बात पर कि तुम ये अपसंस्कृति करके गौरव का भी अनुभव कर ले जाते हो। और इतना ही नहीं, जो इस संस्कृति पर नहीं चल रहे, तुम उनको नीचा समझते हो; उन पर लानते भेजते हो। तुम कहते, 'ये देखो, हमने अपने बच्चे को कान्हा बनाया लेकिन वो पड़ोस का घर है न, उनके बच्चे बहुत वेस्टनाइज्ड हैं, वो बेकार लोग हैं, गन्दे लोग हैं, छी, थू!'

ज़्यादा संभावना है कि जो अपने बच्चे को कान्हा नहीं बना रहा उसके घर में गीता को फिर भी सम्मान मिलता हो, वहाँ गीता पढ़ी और गुनी जाती हो।

कंजम्शन (भोग) तो कंजम्शन है। जब तुम कल्चरल कंजम्शन (सांस्कृतिक भोग) शुरू कर दो तो बात और भयानक हो जाती है। कह रहे हैं, 'कंजम्शन इन द नेम ऑफ़ कल्चर।' बिटिया का ब्याह है, कल्चरल बात है। हमने राजस्थान से डांसर्स बुलाए हैं, छः डीजी सेट्स स्पेशल खड़े करे हैं।

क्या हम इस बात को देख पा रहे हैं, साफ़-साफ़ कि ये जिसको हम अपना कल्चर बोलते हैं, भारत में भी, पूरे विश्व में भी ये कल्चर ही कार्बन और क्लाइमेट के लिए उत्तरदायी है। क्या ये दिख रहा है? ये बात हमारे खोपड़े में ठूस के घुसेड़ दी गई है, कल्चरली घुसेड़ दी गई है, 'बी हैप्पी दैट इज द पर्पज ऑफ लाइफ' ये हमारा कल्चर है; सुखवादी।

अध्यात्म सुखवादी नहीं होता इसीलिए अध्यात्म को संस्कृति का आधार होना चाहिए। हमारी संस्कृति के पास आध्यात्मिक आधार नहीं है। कल्चर के जो भी एलिमेंट्स (तत्व) हैं, लोगों से पूछना, जो भी कोई कल्चर और कल्चर के ये सब एलिमेंट्स (तत्व) होते हैं — भाषा एक एलिमेंट होता है, शिल्प एक एलिमेंट होता है; ये सब संस्कृति के तत्व माने जाते हैं। किसी भी घर में चले जाओ वो लोग संस्कृति पर चल रहे हों, पूछना, इसके तत्वों का अध्यात्म से क्या रिश्ता है ये बताओ, वो नहीं बता पाएँगे।

उदाहरण के लिए आपके कल्चर की बात है, आप दीवाली पर कुर्ता पहनोगे। अब ये बात मान्यवर के लिए बहुत अच्छी है। वो तो यही दिखाएगा कि धर्म का सम्बन्ध कुर्ते से है। मेरे को बताओ कुर्ता कैसे? दीवाली का कुर्ते से कैसे सम्बन्ध बैठ गया? बोलो, दीवाली का कुर्ते से कैसे सम्बन्ध बैठ गया?

और इसी तरह से विवाह को भी आप एक सांस्कृतिक उपलक्ष्य ही में लेते हो। विवाह पर तो जो आप पहनते हो, वो तो सीधे-सीधे मुगलई है; पर आप कहते हो, 'मेरा कल्चर है।' बोलो कैसे? कुछ नहीं पता लेकिन, ठसक पूरी है कि हम तो देखिए, संस्कृतिवादी लोग हैं।

आपकी संस्कृति में क्या कुछ भी ऐसा है, जो ऋषियों से आ रहा हो। आपकी संस्कृति में ज़्यादातर वो है जो अब्राहमिक स्रोतों से आ रहा है। और ये कहने से मेरा आशय बिलकुल ये नहीं है कि स्रोतों से मुझे नफ़रत है। लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूँ कि जिसको आप अपनी भारतीय संस्कृति बोल रहे हो न। वो प्रच्छन्न रूप से, छद्म रूप से, कोवर्ट , छुपे हुए रूप से, अब्राहमिक संस्कृति ही है।

और वैसे तो ज़्यादातर लोगों को बड़ी समस्या रहती है कि छी-छी-छी, हिंदुओं का कल्चर बेहतर है, मुसलमानों, कसाइयों का कल्चर बेहतर नहीं है! घूम रहे हैं, ये सब बातें लेकर के। लेकिन ज्ञान के अभाव में आपको ये पता भी नहीं है कि आप जिसको अपना कल्चर बोलते हो वो ज़्यादातर वहीं से आ रहा है।

और जो आपकी अपनी चीज़ है सनातन, विशुद्ध सनातन; उससे आपका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं बचा है। ये जो पूरा पर्दा और ये सारा जो कार्यक्रम है, उदाहरण के लिए ये विक्टोरियन मोरेलिटी (अंग्रेजी नैतिकता) है, ये अंग्रेजो ने आपको दी है। पर आप कहते हो, 'हमारी संस्कृति है,' ये आपकी संस्कृति है ही नहीं।

भारत में महिलाओं को ढकने की कोई बात हो ही नहीं सकती कभी। ये आपको अंग्रेजों ने सिखाया है और अंग्रेजों से पहले आपको मुगलों ने सिखाया है। पर आज आप बोलते हो, ये तो मेरी संस्कृति है। ठीक वैसे ही जैसे आज आप पुलाव और कुर्ते-पजामे को अपनी बात बोलते हो।

आपको नहीं पता न कि पुलाव और पजामा कहाँ से आ रहा है लेकिन आप आज वो अपने त्यौहार पर भी बनाओगे। पजामा भारतीय कहाँ से हो गया — मैं भी खूब पहनता हूँ। पर मैं उनसे पूछ रहा हूँ, जो बार-बार बोलते हैं कि नहीं हम तो — यू नो, इंडियन कल्चर। पुलाव भारतीय कहाँ से हो गया? बिरयानी पर आक्षेप करते हो, पुलाव क्या है, ये भी तो जान लो।

लेकिन चाहे पजामा हो, चाहे पुलाव हो, मूल बात ये भी नहीं है कि भारतीय है, कि मुगलई है, कि विक्टोरियन है, मूल बात ये है कि भाई मज्ज़ा आना चाहिए!

(श्रोतागण हँसते हैं)

फिर मज्ज़ा कहीं से भी आ रहा हो क्या फ़र्क पड़ता है। नहीं तो बिरयानी की खपत इतनी दुनिया में कैसे होती? जोमेटो ने पता लगाया कि होम डिलीवरी सबसे यादा ऑर्डर के ही आते हैं?

पिछले दस साल में भारत में बहुत ज़बरदस्त रूप से कट्टरता बढ़ी है, और उतनी ज़ोर से बिरयानी बढ़ी है; ये कैसे हो गया चमत्कार, ये कैसे हो गया? दूसरे पंथ वाले बहुत बुरे लोग हैं, गंदे लोग हैं, छी-छी-छी। लेकिन बिरयानी की खपत बढ़ती जा रही है।

और किसी भी चीज़ से ज़्यादा जोमैटो बिरयानी की डिलीवरी करता है; ये कैसे हो गया? क्योंकि कल्चर में न बात हिंदू की है, न मुसलमान की है। बात बस किसकी है भोगो, मज्ज़े मारो, मज्ज़े। और मज्ज़े दो तल पर मारने हैं, एक इस तल पर (शरीर की ओर इशारा करते हुए), एक इस तल (मन की ओर इशारा करते हुए) पर। इस (मन के) तल पर मजे मारने में एक चीज़ होती है प्राइड , तो प्राइड भी लेना है। प्राइड भी तो हम कंज्यूम करते हैं न, तो प्राइड भी खूब रखना है — हमारा कल्चर, हमारी संस्कृति।

सत्य महत्वपूर्ण है। संस्कृति को सत्य का अनुचर होना चाहिए। संस्कृति पहले नहीं आती है, बार-बार संस्कृति-संस्कृति मत कहिए, हमारा यहाँ तो ऐसे ही चलता है, पर ये तो इंडियन (भारतीय) कल्चर है। संस्कृति बदलती रही है लगातार और आज भी बदलनी चाहिए, सत्य सर्वोपरि है; ये अध्यात्म की सीख है।

और ऐसा नहीं है कि आप खुद भी संस्कृति को बचाने में बड़े उत्सुक हों। आप भी संस्कृति के बस उन पक्षों को रखना चाहते हैं जिसमें मज्ज़ा मारने को मिलता है। संस्कृति के वो पक्ष जिसमें कम मज्ज़ा मारने को मिलता है, आप धीरे से उन्हें साइड (एक तरफ़) कर देते हो, हटाओ इसको।

दीवाली भी जैसी मनाई जाती थी कुछ ही दशक पहले, वैसे अब थोड़ी मना रहे हो। दीवाली में भी जो भोग के तत्व हैं वो मैगनिफाई हो गए, वो बढ़ गए, और जो अन्य तत्व थे दीवाली में वो क्षीण हो गए। और मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि जो क्षीण हो गए वो सब धार्मिक तत्व थे। धार्मिक तो बहुत कम है हमारी दीवाली में।

मैं बार-बार पूछा करता हूँ, और जब मैं पूछता हूँ तो बड़ी गालियाँ पड़ती है लोगों से। पूछता हूँ, 'हमारी इस दीवाली का बताओ राम से सम्बन्ध कितना है।' कितना सम्बन्ध है राम से? — डिस्काउंट्स, बम्पर सेल , धमाका ऑफर इससे सम्बन्ध है, दीवाली का। वर्मा जी का काजू और शर्मा जी की गुझिया मिला करके गुप्ता जी को दे दी। ये है दीवाली। इसमें श्री रामचन्द्र कहाँ हैं? इसमें योगवाशिष्ट कहाँ हैं?

जो आपके केंद्रीय शास्त्र हैं उनके पास जाइए — वेदान्त, वेदान्त और वेदान्त। एक हारती हुई लड़ाई लड़ रहा हूँ, पता नहीं कितनी दूर तक जाएगी, कितनों का साथ मिलेगा। मैं गीता की बात करता हूँ और अब ये बहुत ज़्यादा होने लग गया है। मैं लिखता हूँ, 'गीता' और उसके नीचे पाँच लिख देते हैं 'गरुणपुराण' पाँच कम बोल रहा हूँ, पचास।

बिना ये जाने कि वेद क्या है, वेदान्त क्या है, गीता क्या है और गरुणपुराण कितने हजार साल बाद की बात है, और क्यों रचा गया था। कुछ नहीं पता, बस ऐसे ही हमारे दादाजी को बहुत पसंद था, क्यों? क्योंकि उसमें लिखा हुआ था कि जीवात्मा क्या-क्या करती है। अच्छा तो, उससे क्या? बोले, 'नहीं, वो दादाजी के छोटे भाई की अकाल मृत्यु हो गई थी तो गरुड़पुराण पढ़-पढ़कर पता लगते थे कि उनकी जीवात्मा अभी कहाँ है, तो उन्हें बड़ा अच्छा लगता था, उन्हे बड़ा अच्छा लगता था।'

'तो दादाजी ऑब्सेस्ड (आसक्त) थे, यही सब जीवात्मा और ये चक्कर, फ़लानी नदी पार करना, फ़लाने पेड़ पर प्रेत चढ़ गया, इन चीज़ों से।' वो गरुड़पुराण गीता से बड़ा हो गया, और ये लिखित में आता है कि अजी गीता वगैरह तो बाद की बात है, असली चीज़ तो गरुड़ पुराण है। गरुड़पुराण और न जाने कितने पुराण हैं, दसियों-पंद्रहियों साल पहले मैंने पढ़कर छोड़ दिए। मैंने कहा, इसमें से थोड़ा बहुत ही है जो काम का है, बाक़ी सब त्याज्य है।

न अष्टावक्र से कोई सम्बन्ध, न संतवाणी से कोई सम्बन्ध, उपनिषदों का 'उ' नहीं छूना, गीता को ये कह देना कि अरे, ये तो ऐसे ही है; कृष्ण की असली चीज़ तो रास लीला है न, गीता तो बाद में आती है। गीता पर कोई बात करो तो, पर कृष्ण भी तो ऐसा कहते थे, ऐसा करते थे। मैं कहता हूँ, ये सब बातें गीता में लिखी हैं कृष्ण के बारे में। नहीं, हमने पढ़ी हैं, या सुनी हैं, या ऐसा माना जाता है।

मुझे कृष्ण से सम्बन्ध होगा तो मैं कृष्ण की कहानियों में रस लूँगा या गीता में? मुझे कृष्ण से प्रेम होगा तो मैं कृष्ण की कहानियों में रस लूँगा, फिर कृष्ण ने ये बोला, वो बोला, ये करा या गीता में? कृष्ण आपको क्या सुनाना चाहते थे, गीता या अपने जीवन की पचास कहानियाँ? पर हम गौसिपवादी लोग हैं, कृष्ण के भी जीवन में क्या चल रहा है उसमें भी हमें ताक-झाक करनी है। और वही सब मुझे तर्क दे देते हैं, कहते हैं, 'देखो, गोपियों के कपड़े उठाए थे। वीगन बात करते हो, वो तो खुद मक्खन खाते थे।'

गीता? 'नहीं, गीता छोड़िए; गीता हटाइए, गीता से बाद में बात करेंगे, ये सब बात करिए न आप।' कृष्ण कोई ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे, कोई बैठकर के उनका वृतांत लिख रहा था। तुम्हें समझ में नहीं आता ये सारी बातें गीता के हजार-डेढ़ हजार साल बाद कही गयी हैं।

तुम किस तरह के आदमी हो कि तुम्हें कृष्ण के बोध में नहीं रस है, तुम्हें कृष्ण से सम्बंधित किस्से-कहानियों में रस है। तुम कृष्ण के साथ भी वही कर रहे हो न, जो तुमने अपने पड़ोसी के साथ करा। कि उसके साथ बैठ करके गप्पें लड़ाईं, और पूछा कि मोहल्ले में किसकी लड़की का किसके साथ चल रहा है। तुम कृष्ण को भी उसी स्तर पर खींचकर गिराते हो न, बार-बार। संस्कृति का खेल है, और संस्कृति में गीता से ज़्यादा किस्सों के लिए महत्व होता है।

समझ में आ रही है बात?

हमारी संस्कृति आज सुधार माँग रही है। हमारी संस्कृति गहराई माँग रही है और समुचित आधार माँग रही है। हमें अपने तौर-तरीक़ों का, अपने रीति-रिवाजों का, अपनी परंपराओं का पुनर्विलोकन करना पड़ेगा। हमें पूछना पड़ेगा उनमें से कितना है जो वास्तव में आध्यात्मिक है। और जितना आध्यात्मिक है, हमें उसे पूरे सम्मान के साथ सहेज के रखना चाहिए। लेकिन जो कुछ भी आध्यात्मिक नहीं हैं, वो तो सिर्फ़ पृथ्वी के विनाश का कारण बन रहा है न? मैं कह रहा हूँ, क्लाइमेट चेंज वहीं से आ रहा है; उसको क्यों पकड़े बैठे हो।

इतना ही नहीं, हो सकता है कि आज की माँग के अनुरूप हमें नए सांस्कृतिक तत्व भी आविष्कृत करने पड़ें। उदाहरण के लिए हमें नई परंपराएँ बनानी पड़े आज; और क्यों नहीं बनाए हम नई परंपराएँ? जैसे कि आप घोषित कर देते हो कि फलाना दिन है, आप बोलते हो देते हो न मदर्स दे है। ये आपने संस्कृति में एक नया तत्व जोड़ दिया। ठीक किया न?

अगर आप पाओ की माँ को जो स्थान मिलना था, वो नहीं मिल रहा है तो उसमें कोई ग़लती तो नहीं कि आप मदर्स डे जोड़ दो। आज से एक हज़ार साल पहले पर्यावरण को किसी संरक्षण की ज़रूरत नहीं थी, पर आज बहुत ज़रूरी है कि 'इंटरनेशनल एनवायर्मेंट डे' (अंतराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस) मनाया जाए। और वो बात कल्चर का हिस्सा बननी चाहिए, वो बात एक त्यौहार बन जानी चाहिए।

तो कल्चर में एक नई चीज़ जुड़ गई कि पर्यावरण दिवस के दिन हम बड़ा उत्सव मनाते हैं, एक अनूठे किस्म का। आज हमें नई परंपराएँ चाहिए। मुझे नहीं पता ये बात मेरी कितनी दूर तक और कितनी गहराई तक जा रही है, पर कहना ज़रूरी है तो कह रहा हूँ।

प्र: जब कभी आचार्य जी, आज के परिपेक्ष्य में भी धर्म की रक्षा की बात होती है तो अक्सर उसमे देखा गया है कि वो कहते हैं कि परंपराओं को बनाए रखो, परंपराओं को ही समय में आगे बढ़ाओ।

पर आपके साथ देखा है कि आप बार-बार बात करते हैं पुनर्विचार करने की, देखने की, कि वो चीज़ क्या इस काल के धर्म से मेल खाती भी है या नहीं। तो धर्म की रक्षा वास्तविक रूप में कैसे होगी?

आचार्य: देखो, धर्म कोई ऐसी चीज़ तो है नहीं जिसका आपने स्वयं अविष्कार करा हो, ठीक है न? तो क्या ये बात बिलकुल व्यावहारिक नहीं है कि जिन्होंने आपको धर्म दिया, आप सीधे उन्हीं से जाकर पूछ लो कि धर्म चीज़ क्या होती है? आम आदमी को अगर छोड़ दिया गया होता, तो क्या अपने सौ साल के जीवन में भी वो धर्म जैसे किसी शब्द को इज़ाद कर पाता?

एक बच्चा पैदा हो आज की दुनिया में और आप उसको धर्म जैसा शब्द बताइए मत। तो वो कौनसे शब्द हैं जिन्हें ख़ुद ही खोज निकालेगा? वो बाज़ार खोज निकालेगा, वो केक खोज निकालेगा, वो पिज़्ज़ा खोज निकालेगा, वो स्कूल भी निकाल लेगा, वो प्लेसमेंट भी निकाल लेगा, वो प्रोफिट निकाल लेगा, वो, वो सेक्स निकाल लेगा, वो प्लेजर निकाल लेगा, वो कार निकल लेगा, वो टूरिज्म निकाल लेगा, ये सब चीज़ें वो खुद निकाल लेगा?

फिर से सोचिएगा एक क्षण ले करके, क्या अध्यात्म जैसा शब्द वो निकाल पाएगा। सेल्फ इन्क्वायरी , आत्म जिज्ञासा ये शब्द कभी उसके ज़ेहन में कौंधेगा भी! कभी नहीं कौंधेगा; न?

तो धर्म कोई आपकी अपनी चीज़ तो है नहीं, आपको किसी ने दिया है। जिन्होंने दिया है उनसे ही क्यों नहीं पूछते कि धर्म माने क्या? जिन्होंने दिया है — मैं सनातन यदि धारा की बात करूँ, उन्होंने अपनी बात को सबसे स्पष्ट और सशक्त तरीक़े से वेदान्त में अभिव्यक्त करा है। तो धर्म क्या है? ये जानने के लिए वेदान्त के पास जाओ। अन्यथा जिस चीज़ को धर्म समझ कर बैठे हो, वो न जाने क्या है, व्यर्थ का कूड़ा है अधिकतर, क्यों पकड़े हो?

आप अपनेआप को हिन्दू बोलते रहिए बार-बार, और हिन्दू शायद आप हों भी, क्योंकि हिंदू तो शब्द ही एक खिचड़ी जैसा है, कोई भी अपनेआप को हिंदू बोल सकता है। लेकिन सनातनी नहीं हैं आप, अगर उपनिषदों का और गीता का आपने पाठ नहीं करा है तो हिंदू होंगे।

मैं बहुत बार बोलता हूँ न, कि कहने को तो दुनिया में एक-सौ-दस-करोड़ हिंदू हैं, पर वास्तव में एक लाख भी न हों। तो लोगों को आपत्ति हो गई, वो न्यायालय का फैसला लेकर आने लग गए। वो बोले, 'देखिए, न्यायालय भी यही कहता है कि ये तो एक जीने की पद्धति है हिंदू।' और लोग बोलते हैं कि जितने भी इतिहासकार, कि सिन्धु नदी के पूर्व में जितने भी लोग रहते हैं, सब हिंदू हैं। मैंने कहा, 'ले लो, होंगे हिंदु, तुम बने रहो हिंदू। ये शब्द तुम्हें ही मुबारक हो, रखो।' मैं ज़्यादा शुद्ध और ज़्यादा ऊँचा शब्द, अब पकडूँगा सनातनी। तुम होओगे हिंदू, सनातनी हो क्या तुम?

अब इसी त्यौहार को मनाने के दो तरीक़े हो सकते हैं — एक, सांस्कृतिक तरीक़ा, जिसको आप मोटे तौर पर हिंदू तरीक़ा बोल सकते हैं। और एक, आध्यात्मिक तरीका, जो सनातनी तरीक़ा है। आप जाएँगे यहाँ से वापस, मैं चाहता हूँ आप ये लगातार अपनेआप से पूछते रहे कि आप जो दीवाली मना रहे हो वो सांस्कृतिक है या आध्यात्मिक।

अगर आपकी दीवाली मात्र सांस्कृतिक है तो उस दीवाली का कोई मूल्य नहीं। वो दीवाली बस एक विरासत की बात है कि ऐसे ही पहले मन रही थी ऐसे ही हमने मना ली। मैंने क्या प्रश्न पूछा है, ये प्रश्न आप तक पहुँच भी रहा है? आपको सांस्कृतिक दीवाली मनानी है या आध्यात्मिक? ये है मेरा प्रश्न है।

हाँ, पूछिएगा फिर कि आध्यात्मिक दीवाली का अर्थ क्या हुआ? आध्यात्मिक दीवाली का अर्थ शायद ये होगा — आप ख़ुद खोज करें, पर कुछ इशारे दिये देता हूँ – शायद ये अर्थ होगा कि राम के थोड़े निकट आया जाए कि नहीं।

रामचरितमानस पढ़ी भी है हमने, वाल्मिकी रामायण हमारे घर में भी है एक प्रति के तौर पर, योगवाशिष्ठ क्या, योगवाशिष्ट सार भी हमने पढ़ा है? 'आचार्य जी-आचार्य जी' आप बोलते हैं, मैंने ही योगवाशिष्ठ पर इतना बोला है वो आपने यूट्यूब पर भी विडियोज़ हैं, उसपर कोर्स भी है; उस पर किताब भी है वो किताब यहाँ बाहर ही होगी।

वास्तविक दीवाली में रामायण का, रामचरितमानस का, और योगवाशिष्ठ का बहुत केंद्रीय स्थान होगा न, होगा न? ये बात लेकिन पाठन के तल पर हुई। व्यवहार और आचरण के तल पर वास्तविक दीवाली का क्या अर्थ होगा? यही होगा, वैसा कुछ भी नहीं करना जो शायद राम न करते।

राम को सोने से लगाव था, दुनिया का जो बड़े से बड़ा सोने का गढ़ हो सकता था उसको छोड़कर आ गए। एक ही बार नहीं त्याग किया है राम ने, कि पिता ने कहा कि अयोध्या छोड़ दो, तो अयोध्या छोड़ दी बस। अयोध्या तो चलो पिता की थी; पिता कहेंगे, 'छोड़ दो' तो छोड़नी पड़ेगी। लंका तो ख़ुद जीती थी और जीती हुई लंका, सोने की लंका। और लंका के पास अयोध्या की अपेक्षा बहुत ज़्यादा सोना था, लंका अपने समय का अमेरिका था। सामरिक, मिलिटरी ताकत भी सबसे ज़्यादा अमेरिका के, माने आज की लंका। उस समय की लंका, आज के अमेरिका के पास और आर्थिक ताकत भी, माने सोना भी, वो भी लंका के पास और दबदबा भी।

रावण का था न दबदबा! सब सारे राजाओं को अधीन कर लिया था, देवताओं को नीचे जाकर कैदखाने में डाल दिया था। वो सबकुछ राम को उपलब्ध रहा। राम ने कहा, चाहिए ही नहीं। जिसको मारा उसी के छोटे भाई को सौंपकर आ गये – 'तुम रखो, नहीं चाहिए'।

अरे अगर अयोध्या छोड़कर चौदह वर्ष तक वन में भटक सकते हैं तो लंका क्या, इसको भी छोड़ देंगे और फिर वापस जाएँगे। हाँ, दो-चार चीज़ें उनको लोगों ने भेंट कर दी उसको लेकर अयोध्या चले गए थे। बाक़ी कुछ चाहिए ही नहीं, ये राम थे। त्याग और राम समानार्थी शब्द हैं।

तो बोलिए, दीवाली फिर कैसी होगी? क्यों न वो सबकुछ त्यागें अपने घर से, जिसकी आवश्यकता नहीं है? और फिर त्यागें अपने मन से वो सबकुछ जो व्यर्थ ही बैठा हुआ है। ऐसी दिवाली क्यों न मनाएँ? दीवाली हमारे लिए वास्तविक सफ़ाई, स्वच्छता माने त्याग का त्यौहार क्यों न हो? और त्याग कोई ऐसी बात नहीं होती कोई चीज़ बहुत-बहुत अच्छी थी, इसलिए छोड़ दी है। ये क्या बोला था अभी?

जो असत् है उसको छोड़ना है न, "असतो मा सदगमय" माने 'असत्' क्या होता है? जो चलना नहीं है, जो लगता है, बहुत अच्छा है ज़रूरी है पर वो वास्तव में व्यर्थ है उसको असत् बोलते हैं।

जो आज ऐसा लग रहा है, कल पलटकर कुछ और हो जाएगा। उससे सम्बन्धित आपकी कामना की कभी पूर्ति होगी ही नहीं, उसको असत बोलते हैं। क्यों न असत् को, तम को, और मृत्यु को त्यागने का पर्व बने दीपावली? कहिए, बोलिए! राम धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खोते जा रहे हैं। प्रसिद्ध तो रहेंगे वो, लेकिन लोकप्रियता खोते जा रहे हैं, आपने ये ग़ौर करा है?

कितने ही ज़्यादा लोग हैं जो अब राम को लेकर के अनाप-शनाप बोलने लगे हैं, अपशब्द बोलते हैं। राम हिंदुओं के एक बहुत बड़े वर्ग के आदर्श रहे नहीं। उसके बहुत कारण हैं और विशेषकर युवा पीढ़ी को तो राम ज़्यादा नहीं भाते। और क्यों नहीं भाते क्योंकि कई कारण हैं, पर जो एक बड़ा महत्वपूर्ण कारण है, वो ये है कि राम त्याग के प्रतीक हैं। और नई पीढ़ी विशेषकर भोग में रुचि रखती है।

राम कह रहे हैं, 'जिसपर तुम्हारा सामाजिक रूप से या कानूनन हक़ हो तुम उसको भी छोड़ दो यार, रखा क्या है।' और नई पीढ़ी कह रही है, 'जिसमें तुम्हारा हक़ नहीं है उसको भी हथिया लो। तो राम कैसे पसंद आएँगे?

इस पृथ्वी को लेकिन आज ज़रूरत किसकी है? जो नयी संस्कृति चल रही है उसकी या जो हमारे पुराने राम हैं उसकी? तो पृथ्वी को बचाने के लिए भी हमें असली, वास्तविक, पुराने राम चाहिए। क्यों न इस दीपावली पर हम असली रामचन्द्र को घर लेकर आएँ? वो वास्तविक दीवाली होगी कि नहीं होगी? और उनको घर लाने का अर्थ होगा बहुत कुछ अपने घर से, जो व्यर्थ है उसको निष्कासित करना।

राम का निष्कासन तभी समाप्त होगा, जब आपके जीवन से वो सब निष्कासित हो जो व्यर्थ है, तब राम की घर वापसी होती है। अन्यथा राम तो सत्य हैं। कबीर साहब बोलते हैं न, कि चार राम हैं जगत में, जो चौथा है उसको बूझो तो जानें। तीन तो सभी पकड़ लेते हैं। जो, जो मनुष्य रूपी राम हैं उनको सभी जानते हैं। वो पहले तल के राम होते हैं।

'एक राम दशरथ का बेटा' वो पहले तल के राम हैं। दूसरे राम को कहते हैं कि वो जो प्रकृति बनकर के फैले हुए हों, दूसरे राम हैं। तीसरे राम कौन से हैं? जो प्रत्येक मनुष्य में अहंवृत्ति बनकर बैठे हैं। कहते हैं, चौथे राम हैं वो असली हैं और जगत पहले ही राम में उलझा रह जाता है। जो चौथे राम हैं वो हैं निर्गुण, निराकार, ब्रह्म। दीवाली असली, चौथे राम का त्यौहार क्यों नहीं होनी चाहिए? बताइए, होनी चाहिए न? तो क्यों न हम असली राम की मानें जो चौथे राम हैं, जो उच्चतम राम हैं उनकी दीवाली क्यों न बनाएँ?

अगर आपको संतवाणी में रुचि हो तो राम पर इतने दोहे हैं, इतनी चौपाइयाँ हैं, उनको ही क्यों न घर में सब लोग बैठ कर के गाएँ और रिकॉर्ड कर-करके डालिए न फेसबुक पर!

अपने वाट्सएप ग्रुप्स पर जिनको भागना है भागे। जो राम के नाम से भागते हैं, उनके साथ आप हो ही क्यों वैसे भी। मानस की इतनी सुन्दर-सुन्दर चौपाइयाँ हैं, क्यों न उनको गाया जाए दीवाली पर? क्यों न हो ही यही कि दीवाली क्या होना है, दीवाली पूरे दिन सुबह से लेकर रात दस बजे तक बस मानस की चौपाइयाँ गाएँगे। कबीर साहब ने राम पर इतना बोला, इतना बोला क्यों न उसको गाएँ।

ये ऐसे ही कोई विचार करके नहीं आया था, बैठे-बैठे बात आई तो कह दिया। बाक़ी आपको सोचना हैं कि व्यवहार के रूप में श्री रामचन्द्र को अपने घर लेकर कैसे आना है, वो होगी वास्तविक दीवाली। ये बात बहुत कठिन लग रही है, बहुत महँगी लग रही है खर्च हो जाएगा, या बस डर लग रहा है कि अड़ोस-पड़ोस वाले क्या बोलेंगे? 'हाय राम! हाय राम!' – राम को याद कर लिया।

(श्रोतागण हँसते हैं)

जो बाज़ारवाद की संस्कृति है हमारी, उसकी जगह राम की दिवाली मनाएँ अच्छा लगेगा, और अच्छा लगे तो बताइए सबको। पहले जब शिविरों में जाते थे, वहाँ पाँच-दस लोग ही साथ होते थे तो वो बोला करते थे — एक ग्रुप हुआ करता था, 'पाओ और गाओ' नाम से अब पता नहीं है या नहीं है, क्या है। तो उस पर बोला करते थे कि अगर मिला है तो बाँटो और गाओ, छुपाओ मत। क्योंकि तब लोग और इतने कम होते थे कि बेचारे डरते थे कि घर में भी क्या बताएँगे?

तो मैं उनको बोलता था कि देखो, कुछ चीजें हैं, जिनको लेकर के कभी लज्जित नहीं होना चाहिए। उनमें सर्वप्रथम सत्य होता है, वहाँ अगर तुम डर गए तो तुमने सच्चाई के प्रति बेअदबी कर दी। और बातों पर डरना हो डर लो, सच को खो दूँगा, इस बात से डरना है तो डर लो। लेकिन सच्चाई के पक्ष में हो, इस बात से डरते हो, तो ये तो, ये तो कैसी बात हो गई! क्या बोलें! कोई शब्द भी है इसके लिए कि नहीं, मालूम नहीं। ये ऐसी-सी बात हो गई कि जिससे प्रेम है उसी को धोखा दो। कि प्यार भी करते हैं, और डरते भी हैं और धोखा भी देते हैं; ऐसा इंसान कैसा होगा, छी!

तो प्यार का तकाज़ा यही होता है, उसकी माँग यही होती है, प्यार का अधिकार होता है ये कि वो अभिव्यक्त हो। उसको छुपाकर नहीं बैठा जाता। राम अगर एक शब्द भर रह गए तो, राम को प्राण बनना होता है, राम को जीवन बनना होता है; या फिर राम को शब्द की तरह भी मत रखो मन में। राम अगर शब्द की तरह हैं तो ये बड़ी अनिष्ठा की बात है, बड़ी बेवफ़ाई की बात है।

ये ऐसी-सी बात है कि किसी से बस बार-बार यही बोलते रहो कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ और ये जो प्रेम है ये जीवन में कहीं दिखाई न दे; ज़बान पर है जीवन में नहीं है।

गंदी बात है न, ऐसे इंसान के साथ रहना चाहोगे। कोई हो जिंदगी में जो बस बोले बार-बार आई लव यू, आई लव यू। उसकी जिंदगी को देखो तो उसमें लव जैसा, प्रेम जैसा कुछ है नहीं। उसको तो छोड़ ही देते हो न? मैं कह रहा हूँ ऐसी जिंदगी से ब्रेकअप ही कर लो। अगर कुछ सही है तो उसको जी करके दिखाओ।

आप यहाँ बैठे हो या तो अपनेआप को साबित कर लो कि मैंने जो कुछ बोला, वो बिलकुल कचड़ा था, बेकार था — मुझे तर्क देने की ज़रूरत नहीं है, अपनेआप को ही सिद्ध कर लो कि मैंने जितनी बातें बोलीं, वो बिलकुल बेकार हैं। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आप कर लीजिए ये अपनेआप को सिद्ध लेकिन अगर मेरी बातों में आपको सच दिखाई दे रहा है, तो अब ये आपका कर्तव्य है कि उस सच को अपनी ज़िंदगी में जीकर दिखाओ या फिर बोलो मत कि सच है।

या तो मेरी बात को झूठ साबित कर दो और अगर ये मेरी बात झूठ नहीं हैं, तो कैसे इंसान हो कि सच को जी नहीं सकते? कितनी कायरता है! साधारण भाषा में इसको बोलेंगे बेवफ़ाई। शास्त्र इसको बोलेंगे – आत्म प्रवंचना, सेल्फ डिल्यूजन ख़ुद को धोखा देना। ये मत करो, ये मत करो!

ये सब करते हैं। जीवन के कई मौक़ों पर मैंने भी करी है। पर जितनी बार ये करो न, अपना ही भीतरी कद छोटा हो जाता है। इंसान भीतर से बेइज़्ज़त हो जाता है। अच्छी बात नहीं है न, अपनी ही नज़रों में बेइज़्ज़त होकर जीना, अच्छा तो नहीं लगता न? मत करो।

दुनिया की नहीं बात कर रहा, दुनिया क्या कहेगी। मैं कह रहा हूँ, सबसे ज़्यादा भीतरी घाव लगता है जब ख़ुद ही पता होता है कि जो सही था उसको सही जानते हुए भी करा नहीं, जिया नहीं, है न? वो सबसे बड़ी भीतरी बेइज़्ज़ती होती है, उस बेइज़्ज़ती को क्यों आमंत्रित करना? उस बेइज़्ज़ती का थप्पड़ क्यों खाना।

इसको जी करके दिखाइए। दो ही दिन हैं उस दो दिन में एक नयी शुरुआत करी जा सकती है। व्यर्थ से नाता तोड़िए, राम से नाता जोड़िए।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें