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लेख
ध्यान में मन न लगता हो तो || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
12 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ध्यान में मन नहीं लगता है और बोलने में कठिनाई होती है और इसकी वजह से परेशान रहता हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: मुक्ति सबको चाहिए। बेचैन सभी रहते हैं। तड़प सभी को है। लेकिन मुक्ति के जो तरीक़े हम चुन लेते हैं, वह तरीक़े गड़बड़ होते हैं।

उन तरीक़ों में भी दो तरह की गड़बड़ होती हैं। दोनों बताए देता हूँ। एक तो भूल यह होती है‌ कि हम सोचने लगते हैं कि दुनिया में कुछ हासिल करके, कुछ पाकर के, कुछ कमा करके, कुछ बन करके मुक्ति मिल जाएगी। एक तो यह भूल होती है और इस भूल से उबरता है आदमी, कहता है कि दुनिया में चीज़ें कमा करके चैन नहीं मिलने वाला, अध्यात्म की शरण में जाओ। तो अध्यात्म में वह एक दूसरी भूल कर बैठता है। अध्यात्म में वह यह भूल कर बैठता है कि वह ध्यान इत्यादि की कोई सार्वजनिक पद्धति उठा लेता है और सोचता है कि इससे मुझे भी लाभ हो जाएगा।

आपको जिसके लिए मुक्ति चाहिए वह अपनेआप को बड़ा अलग, बड़ा पृथक, बड़ा विशिष्ट समझता है। हो भले न, पर समझता यही है। अहंकार कहते है उसे। तो उसको आपको एक अलग, पृथक और विशिष्ट विधि ही देनी पड़ेगी।

आप कह रहें हैं ध्यान में मन नहीं लगता। जिस ध्यान में मन न लगे वह ध्यान है ही नहीं। ध्यान का अर्थ ही होता है कि मन के संस्कारों और संरचना के अनुरूप उसे एक ध्येय दिया जाए। ध्यान का तो अर्थ ही होता है कि मन को ऐसा ध्येय दे दिया कि मन प्यार में पागल हो गया। ध्येय से प्रेम नहीं तो ध्यान कैसे लगेगा?

फिर तो एक आंतरिक लड़ाई लड़ रहे होगे। मन कहीं और को भाग रहा है और तुम उसे खींच-खींच के तथाकथित ध्यान की ओर ले जा रहे हो, और अधिकांश लोगों के साथ ऐसा ही होता है। आमतौर पर मन भटके, न भटके, ध्यान के क्षणों में ज़रूर वह विक्षिप्त हो जाता है। वह लोग सोचते हैं इसमें मन की ग़लती है। लोग कहते हैं, ‘यह मन बड़ा नालायक है, बड़ा चंचल है। ध्यान में बैठना ही नहीं चाहता, इधर-उधर भागता है।‘

इसमें मन की ग़लती नहीं है। इसमें उस तरीक़े की ग़लती है जो तुम लगा रहे हो। ध्यान मन पर बाहर से थोपी गयी कोई प्रक्रिया नहीं हो सकती। ध्यान प्रकाश में मन द्वारा चुना गया अपना लक्ष्य, अपना प्रेम है। मन को ज़रा रोशनी दिखाओ, मन ख़ुद चुनेगा अपने लिए एक सुंदर और प्यारा लक्ष्य।

अब उसने ख़ुद चुना है न! जब स्वयं चुना है तो वह उसकी ओर स्वयं बढ़ेगा। तुम्हें उसे धक्का देने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। अब तुम शिकायत नहीं करोगे कि चंचल मन ध्यान से उठ-उठ कर भागता है। अब तो ऐसा होगा कि ज़िन्दगी ही ध्यान बन जाएगी क्योंकि तुमने मन को उसके अनुरूप एक ध्येय दिया है। अब ध्यान सार्थक हो पाएगा।

अपने जीवन के अनुसार, अपने चित्त के अनुसार, अपनी धारणाओं के अनुसार एक लक्ष्य बनाना पड़ता है और उसी लक्ष्य की प्राप्ति को जीवन समर्पित कर देना होता है। यह ध्यान है।

जो जेल में बंद हो क़ैदी, उसके लिए बहुत संभव है कि ध्यान यही हो कि वह जल्दी-से-जल्दी रिहाई को ध्येय बना ले, और जल्द रिहाई के लिए जो कुछ भी संभव हो सकता हो उसको वह दिनभर करता चले। यही ध्यान है।

जो जेल में बंद हो क्रांतिकारी और मिथ्याबंद हो, उससे तुम कहो कि तुम सलाख़ों में बंद रहे आओ और भीतर आसन लगाओ और रोज़ एक घंटे सुबह, एक घंटे शाम ध्यान किया करो, तो यह ध्यान व्यर्थ है उसके लिए। उसके लिए तो ध्यान यही है कि वह खोजे कि कैसे सलाख़ें तोड़कर के बाहर आ सकता है और इसी प्रयत्न को पूर्णतया समर्पित हो जाए।

तुम्हारी स्थिति के अनुसार जो भी उच्चतम ध्येय तुम बना सकते हो वह बनाओ और उसी ध्येय की प्राप्ति को समर्पित हो जाओ। इसको कहते हैं ध्यान।

यह तुमने शायद पहले सुना नहीं होगा। कहोगे, ‘बहुत चीज़ें सुनी हैं, यह तो सुना ही नहीं। यह कौनसा ध्यान है?’ तो दे लो, इसे कोई नाम दे लो। बहुत सारे तरह के तुमने योग सुने होंगे। वह सब छोटे-मोटे योग हैं। यह जो मैं बता रहा हूँ यह विराट जीवन योग है, कि पूरी ज़िन्दगी ही योग को समर्पित कर दी।

उच्चतम ध्येय के सामने न्योछावर हो गये, यही ध्यान है। उसके बाद नहीं कहोगे कि मन भटक रहा रहा है, यह कर रहा है, वह कर रहा है।

अच्छा, एक बात बताओ, सब बताना; छोटी-मोटी भी जो चीज़ें प्यारी लगती हैं, जब वह करते हो तो मन चंचल होकर भटकता है कभी?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: नहीं भटकता न? रसगुल्ला किसको-किसको ख़ूब पसंद है?

बड़े दिनों के बाद बिलकुल मस्त बड़े-बड़े रसगुल्ले सामने आयें तो मन भटकता है? भटकता है? दो मिनट के लिए ही सही लेकिन मन बिलकुल “चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहिं जाय” हो जाता है न? हो जाता है कि नहीं हो जाता है? तो माने मन को जब कोई प्यारी चीज़ मिलती है तो वह स्थिर होना जानता है। जानता है न? जानता है कि नहीं जानता है?

श्रोता: जानता है।

आचार्य: और वह प्यारी चीज़ भले ही रसगुल्ले जैसे होगी, ज़्यादा खा लिया तो मधुमेह हो जाएगा। या कामवासना को ले लो, तुम कितने भी विक्षिप्त आदमी हो, कि मन हर समय इधर-उधर डोलता रहता है, वासना के पलों में मन हो जाता है इधर-उधर? या ऐसा भी होता है कि आलिंगन का क्षण है और तुम सोच रहे हो कि बृहस्पति ग्रह पर अभी क्या चल रहा है? (श्रोतागण हँसते हैं)

ऐसा तो होता नहीं। तब तो बिलकुल तीर की तरह निशाना। बिलकुल एकाग्र हो जाते हो, है न? तो बात सीधी है – मन को जो रुचेगा, मन उसकी संगत में बिलकुल हिलेगा-डुलेगा नहीं। अब जिन्होंने जाना है, उन्होंने बताया है कि रसगुल्ला क्या मीठा है और साथी क्या प्यारा है, सबसे प्यारा तो वह (हाथ से ऊपर की ओर संकेत करते हुए) है। कौन? जिसको रिहाई बोलते हैं, जिसको रोशनी बोलते हैं। वह प्यारों से प्यारा है। छोटी सी प्यारी चीज़ के सामने भी जब मन अडिग, अकंप हो जाता है तो उतनी प्यारी चीज़ के सामने क्या होगा? क्या होगा? बिलकुल ही अडिग हो जाएगा। यही ध्यान कहलाता है।

तुम देखो कि तुम्हारे जीवन में परमात्मा किस रसगुल्ले के रूप में आ सकता है। और वह तुम्हारे जीवन पर निर्भर करता है; सबके रसगुल्ले अलग-अलग होंगे और फिर उस रसगुल्ले की सेवा में तन, मन, धन से अर्पित हो जाओ — यही ध्यान है।

आ रही है बात समझ में?

जब जा रहे होते हो अपना प्यारा रसगुल्ला खाने तो कोई ख़्याल नहीं आता न इधर-उधर का? यह ध्यान है। क्योंकि ध्येय बना हुआ है। क्या? मीठा ध्येय है, गोल-गोल। अभी कोई इधर-उधर का ध्यान नहीं है। वैसे ही मीठों में मीठा वह ऊपर बैठा है। कह लो ऊपर बैठा है, कह लो भीतर बैठा है, जो भी कहना हो। वह मीठों में मीठा है।

सब रसगुल्ले फीके हैं उसके सामने; उसकी चाशनी की बात ही दूसरी है। उसकी ओर बढ़ोगे तो ध्यान इधर-उधर भटकेगा ही नहीं। मर्मभेदी तीर की तरह सीधे निशाने की ओर बढ़ते रहोगे; दाएँ क्या चल रहा है, बाएँ क्या चल रहा है हमें कोई मतलब नहीं है। हम जा रहे हैं अपने परम रसगुल्ले की ओर; यह ध्यान है। अपने जीवन को ऐसा कोई रसगुल्ला देना पड़ेगा। नहीं दोगे तो फिर बैठे करते रहो ध्यान। उससे कुछ नहीं मिलेगा। यही जीवन योग है।

श्रोता: नींद नहीं आती।

आचार्य: वह सब। अरे! मैं नहीं कह रहा कि आएगी। मैं कह रहा हूँ सब उड़ जाएगी जो आती भी है। जब इतनी प्यारी चीज़ मिलने जा रही है तो नींद किसको चाहिए, भाई? यह तुमसे किसने कह दिया कि अध्यात्म का मतलब है कि नींद बढ़िया आएगी? अध्यात्म का मतलब है जो आती भी थी वो उड़ जाएगी। यह है असली अध्यात्म। काहे को नींद चाहिए?

अब आप लोगों का स्टेमिना (सहन-शक्ति) कितना है, मालूम नहीं। नहीं तो, मेरी तो आदत है कि सत्र रात में तीन बजे या सुबह चार-पाँच बजे तक चले। नींद चाहिए किसको?

श्रोता: सब तैयार हैं।

आचार्य: बस बढ़िया। आप बात कर रहे हो कि नींद कम आती है। मैं कहता हूँ कि आती ही क्यों है? सोने के लिए पैदा हुए हो?

कबीर साहब कहते हैं कि क्या करोगे अभी सो कर। एक दिन ऐसा आएगा जब सो ही जाओगे। जब एक दिन सो ही जाना है तो भी काहे सो रहे हो, भाई? अभी समय का कुछ सदुपयोग कर लो।

प्रश्नकर्ता: हकलाने का समाधान?

आचार्य: क्या करोगे? यही तो बोलना है कि रसगुल्ला। अब हकला के बोलो चाहे बड़ी श्रेष्ठता के साथ बोल दो। रसगुल्ला तो रसगुल्ला है। या अलग-अलग वस्तु सामने आएगी?

आप पहुँचे हो उस जगह पर जहाँ परम हलवाई अपने परम रसगुल्ले वितरित कर रहा है। अब आप हो सकते हो ज़्यादा पढ़े-लिखे, अंग्रेज़ी के क़ायल हो आप, बोलें ‘रशगुल्ला’। तो भी देगा तो वह रसगुल्ला ही। और हो सकता है बंगाल तरफ़ से आ रहे हो, आप बोलो, ‘रॉसोगुल्ला,’ तो भी देगा तो वह रसगुल्ला ही। और हो सकता है ज़ुबान थोड़ा ऊपर-नीचे होती हो तो आप बोले, ‘रसगुलगुल-गुल्ला’ तो वह दूसरी चीज़ थोड़े ही दे देगा।

वहाँ नाम का खेल ही नहीं है। वहाँ तो बात वस्तु की है। वस्तु वही है, नाम उसके इधर-उधर होते रहते हैं। तो यह भावना, यह हीनता तो मन में लाओ ही मत कि हमारी ज़ुबान ऐसी है और हमारी ज़ुबान वैसी है।

यहाँ कोई ऐसा बैठा है क्या जिसकी ज़ुबान बिलकुल साफ़ हो? यहाँ कोई ऐसा बैठा है क्या जिसके मन में, शरीर में, चित्त में, जीवन में, आचरण में कोई दोष न हो?

वह सब रहे आते हैं, करना क्या है? शरीर टैक्सी की तरह है। जब तक वह आपको पहुँचा रही है आपकी मंज़िल पर, आपको क्या करना है यह गिनकर कि इसमें कितने डेंट (खरोंच) लगे हैं?

या करते हो ऐसा? एक ही चीज़ देखते हो न – जहाँ जाना है वहाँ पहुँचा देगा या नहीं पहुँचा देगा? तो शरीर टैक्सी की तरह है, इससे ज़्यादा उसे क़ीमत मत दिया करो कि टैक्सी में घुसने से पहले देख रहे हैं, गिन रहे हैं और घुसकर फिर अंदर कि सफ़ाई शुरू कर दी और ड्राइवर से बोल रहे हैं, ‘इतनी जल्दी मत चला, मंज़िल पर पहुँचने की जल्दी क्या है?’ गाड़ी साफ़ होनी चाहिए न? चल ब्यूटी-पार्लर की ओर मोड़ दे।

अब टैक्सी करी इसलिए थी कि जाएँगे मंदिर और टैक्सी खड़ी कर दी है ब्यूटी पार्लर में और टायर का पेडीक्योर (सफ़ाई) चल रहा है। लो! अब? अरे! टैक्सी है, एक दिन तो उसको स्क्रैप (कबाड़) में ही जाना है। हर टैक्सी की मंज़िल क्या है? श्मशानघाट या स्क्रैपरयार्ड (कबाड़ख़ाना)।

तो जब तक वह है उसका फ़ायदा उठा लो। क्या फ़ायदा? मंज़िल पर पहुँचा दे। इसमें न लगे रहो कि टैक्सी चमकाई जा रही है। चलती वह है नहीं, उपयोग उसका कुछ नहीं है, बस उसकी चमकाई चलती रहती है। और उसकी सर्विसिंग में और उसको चमकाने में और उसकी नयी-नयी चीज़ों में धन, समय, ऊर्जा सब व्यय हो रहे हैं।

हममें से ज़्यादातर लोग भूल ही जाते हैं कि शरीर टैक्सी है। टैक्सी को ही चमकाने में लगे रहते हैं। याद ही नहीं रखते कि इससे तो उतरना है।

अध्यात्म माने यह नहीं होता कि मेरी हालत बड़ी अच्छी हो जाए। अध्यात्म का मतलब होता है हालत जैसी भी रहे, मैं ध्येय की तरफ़ बढ़ता रहूँ। और जैसी भी हालत है, अगर मैं ध्येय की तरफ़ बढ़ रहा हूँ तो फिर हालत बुरी कहाँ है!

एक बार यह दिख गया कि कोई विचार या कोई काम आपकी आत्मा से, आपकी समझ से नहीं आ रहा बल्कि वह सिर्फ़ आपकी ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) से, आपके संस्कारों से, आप पर पड़े प्रभावों से आ रहा है, तो उसके बाद आप वह काम कर ही नहीं पाओगे। आप उस विचार से, कर्म से, उस ढ़र्रे से, उस लत से अपनेआप मुक्त हो जाओगे।

तो इसमें प्रश्न की कोई बात नहीं है। आप जिसे कंडीशनिंग (संस्कारित होना) कह रहीं हैं, वह आप पर प्रभावी ही तब तक रहेगी जब तक आपने उसे साफ़-साफ़ देख नहीं लिया। दिख रहा है साफ़-साफ़ कि यह तो मुझे ऐसा बना दिया गया है, तो उसके बाद जैसा बना दिया गया है वैसे रह नहीं पाओगे।

थोड़ा हो सकता है समय लग जाए, लेकिन ढ़र्रे से बाहर आ ही जाओगे।

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