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लेख
धागा प्रेम का
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय।

टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।।

धागा क्या है? जिसके दो छोर हैं, दो सिरे हैं। दो दूरियों के मध्य जो है, सो धागा।

एक ही दूरी है जीवन में, बाकी सारी दूरियां इस एक दूरी से निकलती हैं। स्वयं की स्वयं से दूरी। मन की मन के स्रोत से दूरी। अहंकार की आत्मा से दूरी। बड़ी झूठी, पर बड़ी विकराल दूरियां हैं ये। ऐसी दूरियां जो कभी ख़त्म ही नहीं होतीं। जीवन और कुछ नहीं है, बस इन दूरियों को तय करने की यात्रा है।

कैसे मिटेगी ये दूरी? कैसे होगा मिलन?

प्रेम एकमात्र सेतु है, प्रेम एकमात्र धागा है। प्रेम के अलावा और कुछ है ही नहीं जो इस असंभव दूरी को तय कर सके। प्रेम का अर्थ है: परम की पुकार और मन का उस पुकार पर स्वीकार। जैसे कृष्ण ने पुकारा और राधा नाच उठी। बिलकुल आंतरिक घटना है प्रेम। हमारा अंतस लगातार हमारे अहंकार को पुकारता ही रहता है। वो आवाज़ देता ही रहता है। स्रोत, अंतस परमप्रेमपूर्ण है। उसके पुकारने की कोई सीमा नहीं। वो लगातार बुलाता है, रिझाता है।

जिस क्षण मन पर अनुकम्पा हुई, जिस क्षण मन ने तय किया कि उस पुकार का जवाब देना है, उसी क्षण मन अंतस के प्रेम के रंग में रंग जाता है।

मन को एक नयी अनुभूति होती है, एक गहन तृप्ति, एक गहरा आकर्षण। पर इस गहरे आकर्षण के साथ गहरा अंदेशा भी उठता है। एक गहरी आशंका। मन देखता है कि अगर परम का आमंत्रण स्वीकारेगा तो पुरानी दुनिया छूटेगी। और मन बड़े समय से पुरानी दुनिया का ही अभ्यस्त है, उसके भीतर की सारी सामग्री दुनिया ने ही तो दी है।

यही प्रेम की आरंभिक दुविधा है। इसी को फरीद ने बड़ी खूबसूरती से कहा है कि “अगर पिया से मिलने जाती हूँ तो मेरे कपड़ों में कीचड लग जाएगा, और अगर न मिलने जाऊं तो नेह टूटेगा”।

माया का विचित्र खेल है कि अंतस की पुकार सुनकर भी, उस से आकर्षित होकर भी, उस की सच्चाई को जानकार भी, पुरानी दुनिया का डर हमें दबा देता है। कोई ही सूरमा, कोई ही राधा, प्रेम की सच्चाई का साथ दे पाता है। कबीर बार-बार कहते हैं कि सूरमा तो है ही वही जो प्रेम निभाना जाने।

सूरमा कम होते है। पुकार सुनकर भी अनसुनी कर दी जाती है। हम छुप के रो लेते हैं, दिन में सौ-सौ बार मर लेते हैं, पर साहस नहीं दिखा पाते।

धागा अपनी ओर से तो हम तोड़ ही देते हैं। हमारा जीवन धागे को लगातार तोड़ते रहने कि ही कहानी है। वो बुलाता है, हम ठुकराते हैं। वो जोड़ता है, हम तोड़ते हैं।

प्रेम की धार उसकी ओर से निरंतर बहती रहती है, हमारी सारी कृतघ्नताओं के बावजूद वो हमसे मुंह नहीं मोड़ता। हम ही विमुख रहे आते हैं।

जितनी बार हमने धागा तोड़ा है, उतनी बार हमारा आत्म-बल कमज़ोर हुआ है। जितनी बार हमने उसकी पुकार को ठुकराया है, हमने अपनी सामाजिक गुलामी पर मुहर लगायी है। जितनी बार हमने सस्ते समझौते किये हैं, उतनी ज़्यादा हमारे भीतर ये विश्वास पुख्ता हुआ है कि विरह ही जीवन है।

जितनी बार हमने धागा तोड़ा है, हमने परम से दूरी थोड़ी और बढ़ा ली है। उसकी ओर से कोई दूरी नहीं, पर हमारी ओर से अब अरबों मील का फासला हो चुका है। कबीर कहते हैं कि पिया का मार्ग तो सरल है, पर तेरी चाल के चलते तेरे लिए बड़ा मुश्किल।

ये शब्द चेतावनी हैं। आत्मा अमर होगी, पर तुम्हारे पास ज़्यादा समय नहीं है। जो एकमात्र पाने योग्य है, उसको पा लो। बाकी झंझट छोड़ो। बाकी सब पाकर भी उसको न पाया तो भिखारी ही मरोगे। तर्क मत करो। चालें मत चलो, टालो नहीं। ज़िम्मेदारियों की दुहाई मत दो। जो प्रेम को नहीं जानता, जो परम से दूर है, वो अपनी कोई और ज़िम्मेदारी क्या निभाएगा? तुमने जितनी बार चालाकी दिखाई है, अपने ही रास्ते में कांटे बिछाए हैं। चुपचाप, सीधेसाधे होकर उसकी आहटों पर ध्यान दो। वो जब खटखटाये, तो डरो मत, दरवाज़ा खोल दो। बाहर आओ, और साथ चल दो। वो तुम्हें तुम्हारे असली घर ले जाएगा।

जितनी बार होशियारी दिखाओगे, पछताओगे। और जनम छोटा है। धागा क्यों तोड़ते हो बार-बार? क्यों अपना ही काम मुश्किल बनाते हो? आओ, और पाओ!

दिनांक: १४ जून, २०१४

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