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लेख
देहभाव से मुक्ति || आत्मबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आविद्यकं शरीरादि दृश्यम बुद्बुदवत्क्षरम। एतद्विलक्षणं विद्यादहं ब्रह्मेति निर्मलं॥

देहानयत्वान्न मे जन्म जराकाशर्य लयादयः। शब्दादिविशयैः सङ्गो निरीन्द्रियतया न च॥

शरीर और इससे सम्बंधित सभी वस्तुओं का जन्म अज्ञान से होता है, ये केवल दृश्य हैं और पानी के बुलबुले की तरह नाशवान हैं, इन सबसे विलग अपने-आपको निर्मल ब्रह्म जानो।

मैं शरीर से विलक्षण हूँ, अतएव जन्म, बुढ़ापा, क्षय और मृत्यु इत्यादि परिवर्तन मेरे नहीं हैं। मैं बिना इंद्रियों के हूँ, अतः शब्दादि विषयों से भी मेरा कुछ संबंध नहीं है।

—आत्मबोध, श्लोक ३१-३२

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। होली के दिन पड़ोस में एक अंतिम यात्रा में शामिल हुआ। तत्वबोध का पाठ करने के कारण डर नहीं था। वहाँ यही दोहराया जा रहा था कि, "राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है।" पहले भी कई बार शामिल हुआ हूँ और अज्ञानवश इसका अर्थ कुछ भयानक ही निकालता था। जैसा कि आपने बताया था कि हम सब मुक्ति के विषय में भयानक छवियाँ बना रहे हैं, यह उस अंतिम शवयात्रा में समझ आया। वहाँ उपस्थित सभी लोग मुक्ति के नाम पर भयभीत ही थे। कृपया शरीर से मुक्ति का सही अर्थ स्पष्ट करें, मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: शरीर से मुक्ति किसकी? जब सो रहे होते हो तो क्या शरीर से मुक्ति का प्रश्न उठता है? वास्तव में नींद तुमको इतनी प्यारी लगती ही इसीलिए है क्योंकि उस समय तुम शरीर से भी मुक्त हो जाते हो, शरीर-भाव बचता ही नहीं। तो शरीर से मुक्ति उसे ही चाहिए न जिसमें सर्वप्रथम शरीरभाव हो। तो शरीर से मुक्ति का यही अर्थ है – शरीरभाव से मुक्ति। बार-बार देह का ख़्याल चल रहा है मन में, इस ख़्याल से मुक्ति पानी है, यही है देह से मुक्ति।

अब शरीर का ख़्याल मन में चल रहा है, इससे क्या अर्थ है?

शरीर का ख़्याल माने यही नहीं होता कि अपनी नाक के बारे में सोच रहे हैं या अपनी उँगली के बारे में सोच रहे हैं। वो सब कुछ जिसका संबंध तुम्हारी देह से ही है, अगर उसका विचार तुम्हारे मन में चल रहा है, तो ये देहभाव है। कोई ज़रूरी नहीं कि तुम अपने हाथ का ही ख़्याल कर रहे हो तो ये देहभाव हुआ; हाथ पर पहने जाने वाली शर्ट (क़मीज़) का भी अगर ख़्याल लगातार मन में चल रहा है तो ये देहभाव ही है। तुम अपने ही शरीर का ख़्याल कर रहे हो, ये देहभाव नहीं है; तुम किसी और के जिस्म का ख़्याल करे जा रहे हो, ये भी देहभाव ही है।

देह से संबंधित क्या-क्या है?

अब ये (चाय का कप उठाते हुए) देह से ही संबंधित है न? तो इसका भी अगर ख़्याल मन में चल रहा है, तो ये क्या हुआ?

श्रोतागण: देहभाव।

आचार्य: देहभाव।

अरे! अब ऐसे देखेंगे तो पता चलेगा कि पूरा संसार ही इस शरीर से संबंधित है। तो मतलब वो समस्त पदार्थ जो शरीर से संबंधित हैं अर्थात् समस्त संसार ही अगर तुम्हारे मन में घूम रहे हैं, तो इसका नाम है देहभाव अर्थात् मन का किसी भी विषय से आच्छादित होना देहभाव कहलाता है। मन में कुछ भी चल रहा है, तो इसको देहभाव ही मानना।

तो फिर शरीर से मुक्ति का क्या अर्थ हुआ?

शांत मन। मन किसी भी विषय से आसक्त नहीं है, मन किसी भी बात को इतनी गंभीरता से नहीं ले रहा कि उससे लिप्त ही हो जाए —ये हुई देह से मुक्ति।

प्र२: शंकराचार्य जी श्लोक संख्या ३१ में कहते हैं कि “सभी शरीर दृश्य हैं और नाशवान हैं, इसलिए ऐसा अनुभव करो कि मैं इनसे पूरी तरह से अलग निर्मल ब्रह्म हूँ। मैं शरीर से विलक्षण हूँ, अतएव जन्म, बुढ़ापा, क्षय और मृत्यु इत्यादि परिवर्तन मेरे नहीं हैं। मैं बिना इंद्रियों के हूँ, अतः मेरा शब्द आदि विषयों से भी संबंध नहीं है।"

आचार्य जी, यहाँ पर अनुभव करने से क्या तात्पर्य है? क्या इसका अर्थ कल्पना करने जैसा नहीं है?

आचार्य: श्लोक में ‘अनुभव’ लिखा ही नहीं है, श्लोक में लिखा है, ‘विद्यात्’ – ऐसा जानो। अब अनुवादक ने लिख दिया ‘अनुभव’, और तुमने उसी को आधार बनाकर मुझसे प्रश्न भी पूछ दिया। फिर आगे तुमने ख़ूब लिखा है कि “अनुभव करना कल्पना की ही बात है, मेरा कल्पनाओं से गहरा संबंध रहा है, कल्पनाओं पर कोई वश नहीं है।”

इतनी बड़ी समस्या खड़ी कर दी, जबकि मूल बात ये है कि जो तुम्हारी समस्या है, जिस शब्द से तुमको आपत्ति है, शंकराचार्य ने उस शब्द का प्रयोग ही नहीं करा है। उस शब्द का प्रयोग अनुवादकार ने अपना चाट-मसाला मिलाकर किया है।

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