आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
चौंक जाओगे जानकर कि मन के पार क्या है || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: विशुद्ध चक्र की साधना करता था और एक दिन ऐसा लगा जैसे पार जा ही रहा हूँ, पर मन ने डराकर वापस कर दिया। फिर हिम्मत बाँधकर कोशिश की लेकिन वो मौक़ा दोबारा नहीं मिला। फिर शादी हुई और बाद में कोई दुर्घटना भी हुई जिसकी वजह से घुटने में चोट लग गयी और अब कभी वैसा ध्यान होता नहीं। ज्ञान प्राप्ति के लिए अब क्या कर सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: पार न तो मन जाता है, न पार के बारे में मन कुछ जानता ही है। आपका कहना है कि आप कोई साधना इत्यादि करते थे, चक्र इत्यादि की, उस साधना में मन पार जाने लगा और जब पार जाने लगा तो डरने लगा और डरकर पुनः वापस आ गया।

पहली बात, पार मन पहुँच नहीं सकता। दूसरी बात, मन डर सिर्फ़ छवियों और कल्पनाओं से सकता है, और किसी चीज़ का मन को डर लग नहीं सकता। कोई चीज़ जो बिलकुल अज्ञेय हो, जिसका आपको ज़रा भी कुछ पता न हो, उससे आपको डर लग सकता है क्या?

बात को बताइएगा ग़ौर से, जिस विषय में आप ये भी न जानते हों कि नहीं जानते हैं, उससे डर लग सकता है? डर लगने के लिए सबसे पहले क्या चाहिए? सूचना, जानकारी। ये कौनसे पार में आप प्रवेश कर रहे थे जिसकी आपको पहले ही सूचना थी? वो कोई पार इत्यादि नहीं था, वो मन की ही एक और अवस्था थी। मन के ही एक खाँचे से दूसरे खाँचे में जा रहे थे आप, मन के ही एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जा रहे थे आप। और जिस क्षेत्र में आप प्रवेश कर रहे थे वो कोई नया क्षेत्र नहीं था, उसके बारे में आपको पूरी सूचना पहले से ही उपलब्ध थी।

जिन्होंने आपको साधना इत्यादि सिखायी, उन्होंने पहले ही आपको बता रखा था कि देखो, जब तुम्हें उस तरह का आध्यात्मिक अनुभव होगा तो ऐसा लगेगा कि प्राण छूटने वाले हैं, ऐसा लगेगा संसार छूट रहा है, जान जा रही है, साँस रुक रही है, दिल दहल रहा है, पसीने आ जाएँगे, रोंगटे खड़े हो जाएँगे इत्यादि-इत्यादि।' और ये बातें लोगों के वृतांतों में भलीभाँति दर्ज हैं।

हर साधक को ये बात पहले से ही बता दी जाती है कि जब तुम पार जाने लगोगे तो हो सकता है तुम्हें मृत्यु-तुल्य कष्ट हो, कि जब तुम पार जाने लगोगे तो तुम्हें ऐसा लगेगा कि अब दुनिया छूट रही है, पुराना सब ख़त्म हो रहा है। भूत भी, भविष्य भी, सब रिश्ते नाते जा रहे हैं, घर-द्वार जा रहा है। ये बातें हर साधक को साधना से पहले ही बता दी जाती हैं और उसे ये भी बता दिया जाता है कि पार जाने के लक्षण क्या होते हैं। आपको दिख नहीं रहा है क्या हो रहा है? जो बात आपको पहले से ही पता है वो अज्ञेय हुई या ज्ञात के ही क्षेत्र में है?

तो हर साधक अपने साथ ये कलाबाज़ी खेलता है, ये एक आंतरिक चालबाज़ी है जो कि ज़रूरी नहीं है कि जानबूझकर की गयी धूर्तता हो स्वयं के साथ। आमतौर पर ये अपने ही प्रति बेहोशी और अज्ञान का नतीजा होती है। हमें पता भी नहीं होता कि हम अपने ही साथ खेल खेल रहे हैं। आप मन के पार नहीं जा रहे थे, आप मन की ही सीमा के अन्दर थे, मन के ही एक दूसरे क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे और वो भी जाना-पहचाना क्षेत्र था, पहले से ही पूर्व निर्धारित क्षेत्र था। ऐसा क्षेत्र था जिसके बारे में आपने कहानियों, क़िस्सों, वृतांतों, आपबीतियों में खूब पढ़ रखा था पहले से।

आपको पहले ही पता था कि उस क्षेत्र में जाऊँगा तो लाल-पीली-नीली रोशनियाँ दिखेंगी, पेट घूमने लगेगा, सिर चक्कर खाने लगेगा इत्यादि-इत्यादि कई तरीक़े के अनुभव होंगे और आपको पहले ही पता था कि वो सब बातें डरावनी हैं, ख़ौफ़नाक हैं। जब पहले ही पता है कि इस तरह के अनुभव होते हैं चक्र साधना में और वो सब ख़तरनाक अनुभव होते हैं तो फिर पहले से ही ये भी तय है कि वो सबकुछ जब होगा तो आप कहेंगे, ‘अरे! मैं डर रहा हूँ’ और आप वापस आ जाएँगे।

मन के पार जो जाता है, क्या उसे कोई अनुभव होगा भाई? सारे अनुभव कहाँ होते हैं?

श्रोतागण: मन में।

आचार्य: ये बिलकुल ज़मीनी बातें, शुरुआती बातें भी हम समझते नहीं क्या? सारे अनुभव कहाँ होते हैं? और अभी अगर आपको अनुभव ही हो रहे हों, चाहे खट्टे चाहे मीठे, चाहे उत्कृष्ट चाहे घटिया — उत्कृष्ट अनुभव हो, निकृष्ट अनुभव हो, देवताओं का अनुभव हो रहा हो कि राक्षसों की पुकार हो — ये सब अनुभव क्या बताते हैं कि कहाँ तैर रहे हो? मन में ही तैर रहे हो। तो क्यों लगने लग गया कि मैं मन के पार जा रहा था? क्योंकि किताबें पढ़ ली हैं जिनमें लिखा हुआ है कि मन के पार जाने के ये लक्षण होते हैं। तीन-चार सौ लक्षण तो मैं ही सुन चुका हूँ, जिसको देखो वही आकर बताता है।

और कितनी अजीब बात है कि वो तीन-चार सौ लक्षण सब आपस में मिलते-जुलते हैं! शरीर में सिहरन का उठना, पेट में एक विचित्र दबाव का अनुभव होना, पीठ में, रीढ़ में झुर्झुरी होना, घंटियाँ बजना, बेहोशी सी छाना। लाल-पीली-नीली रोशनियाँ देखना। एक गूँज सी सुनाई देना, ऐसा लगना बेहोश हो गये हैं, ऐसा लगना कि अपने शरीर से ही बाहर आ गये हैं, हवा में तैर रहे हैं। और जब ये सब होने लग जाए तो कहना, ‘अरे-अरे! मैं तो बहुत डर गया।‘ ये डरना भी तुम्हें पहले से बता दिया गया है कि जब ये सब हो तो डर जाना। तो खूब खेल खेल रहे हो।

पहले ही समझा दिया गया है कि ये सब होना चाहिए। ये सब न हो तो तुम्हारी साधना ही व्यर्थ गयी। अब लगे हुए हो दस साल, बीस साल से साधना करने में, तो कैसे अपनेआप से कह दोगे कि व्यर्थ चक्करों में फँसे हुए थे? तो तुम जानबूझकर ऐसे अनुभव आमन्त्रित करते हो। तुम इस तरह के अनुभवों की कल्पना करते हो और जब ऐसे अनुभव होने लग जाते हैं तो साथ-ही-साथ फिर ये कल्पना करते हो कि अरे मैं तो डर गया। ये बात मैं कोई पहली बार पढ़ रहा हूँ कि मैं डर गया, उसके बाद वो अनुभव लौटकर नहीं आया।

अरे भाई, डरावना अनुभव कोई जीवन में एक-आध बार थोड़े ही हुआ है आपको, पूरा जीवन ही डरावने अनुभवों से भरा हुआ है। कौन कह रहा है कि एक बार डरावना अनुभव हुआ और उसके बाद आप डरावने अनुभवों में लौट कर नहीं गये? ये जो ज़िन्दगी जी रहे हो, ये जो रोज़मर्रा के अनुभव हो रहे हैं, ये कम ख़ौफ़नाक हैं? तो क्यों कह रहे हैं कि बस एक डरावना अनुभव हुआ था, उसके बाद तो मेरी साधना बिलकुल निडरता पूर्वक चल रही है? कौनसी निडरता, जहाँ अज्ञान है और भ्रम है वहाँ निडरता कहाँ से आ जाएगी भाई!

बहुत लोग जो जीवन में अनुभवों के प्यासे होते हैं, वो तो अध्यात्म में प्रवेश ही इसीलिए करते हैं कि इसमें कुछ दिव्य अलौकिक अनुभव होंगे। और वास्तव में उन्हें कौनसे अनुभव चाहिए थे जीवन में जो उन्हें मिले नहीं, वही जो सड़क पर चलते आम आदमी को चाहिए। अच्छी औरत का अनुभव हो जाए, अच्छे खाने-पीने का अनुभव हो जाए, इज़्ज़त-प्रतिष्ठा का अनुभव हो जाए, धन-सामग्री का मस्त अनुभव हो जाए। अब वो सब अनुभव जीवन कई बार देता नहीं है तो आदमी कहता है चलो फिर ज़रा दूसरी दिशा से कुछ रसीले अनुभव लेकर के आते हैं। वो कौनसी दिशा? बोले, 'बाहर तो अनुभव मिल नहीं रहे, मीठे-नमकीन। हम अन्दर जाएँगे और वहाँ से अनुभव निकालकर लाएँगे।’

‘आँख बन्द करो बच्चा! देखो, अभी भीतर इमरती तली जाएगी।‘

कहे, ‘हाँ बाबाजी, भीतर इमरती है।‘

‘आँख बन्द करो बच्चा।‘

चक्र वही है न, इमरती (उँगली से गोल-गोल घुमाते हुए), जो चक्र साधना कर रहे थे, वहाँ जलेबी तली जा रही है। छन-छनकर निकल रही है, ‘आहाहा बच्चा, बिलकुल बढ़िया है।‘ और थोड़ी देर में कहा, 'नहीं, वो जलेबी ऐसे, ऐसे, ऐसे (उँगली से घुमाते हुए) थी, उसको जब ऐसे मुँह के पास लाते हैं तो वो कुंडली मारे साँप जैसा हो जाती है जलेबी। दूर से देखा तो जलेबी थी और पास से देखा तो कुंडलिनी थी। तो हम डर गये! अब हमारी जागृति हो ही नहीं रही, अब हमारी जागृति हो ही नहीं रही।‘

तुम ये क्या बेहूदे खेल में फँसे हुए हो? ये सब आत्म-प्रवंचना है, ये सब मन की स्वयं को धोखा देने की कोशिश है, ये चोर दरवाज़े से अनुभवों का रसास्वादन है।

एक आदमी वो होता है जो दुनिया में निकलता है और तमाम तरीक़े के रसीले अनुभवों के पीछ-पीछे दौड़ता है, उसको हम बोल देते हैं कामी, मोही, लोभी, लालसायुक्त। उसको हम इस तरह के विभूषणों से सुसज्जित कर देते हैं न, कहते हैं, ‘ये देखो, छी! चला है जलेबी की दुकान की ओर। जब देखो इसकी लार ही टपकती रहती है। मीठे की लत लग गयी है इसको।‘ कह देते हैं न?

कोई जाता हो बार-बार सिगरेट फूँकने तो तुम कहते हो, 'देखो, धुएँ का आदी हो गया है। कोई तम्बाकू चबाये, कोई बार-बार वेश्यालय की ओर जाए, किसी को शराब की लत हो, किसी को दूसरों पर हुकुम चलाने की, सिक्का जमाने की लत हो, इन सबको तो हम तुरन्त कह देते हैं कि ये सब लोग कैसे हैं? कामी, लालची, लोभी, रसिक-रंगीले। कह देते हैं कि नहीं? तुरन्त इन पर आरोप लगा देते हैं। और उनके बारे में हम यही बात क्यों नहीं कहते जो आँख बन्द करके भीतर के अनुभवों के चटखारे लेते रहते हैं कि आहाहा, एक और जलेबी भीतर से उठी? वो भी तो बराबर के ही कामी और लोभी हुए कि नहीं हुए, बोलो? बोलो। बल्कि ये जो भीतर वाला आदमी है, ये बेईमान है।

जो आदमी बाहर अर्जित करने निकला है, उसने जो भी अर्जित किया, उसके लिए कम-से-कम कुछ मेहनत करी है। उसने बाहर जो अर्जन किया वो अर्जन एक तथ्य है। ये जो भीतर जाकर के खजानों में डुबकी मारता है, ये महा बेईमान आदमी है। इसे कुछ नहीं करना है, बस आँख बन्द करके अपनेआप को धोखा देना है कि भीतर के समुद्र में मैं डूबा और देखो अभी-अभी एक और मोती निकालकर लाया हूँ।

बेटा, भीतर जो डूबता है वो मोती निकालने के लिए नहीं डूबता, वो डूब जाने के लिए, मिट जाने के लिए डूबता है। अगर अभी तुम अनुभवों का ज़ायका लेने के लिए बचे हुए हो तो तुम साधक नहीं, रसिक-रंगीले हो। साधक में और रंगीले-रसिक में एक ही अन्तर होता है — रसिक डूबता है कि और गाढ़ा रस पाऊँगा और साधक डूबता है कि अब वापस नहीं आऊँगा। ये अन्तर समझ रहे हो?

निन्यानवे प्रतिशत जो तुम होते देखते हो साधना के नाम पर, वो क्या है? रसिक-रंगीला। वहाँ मुस्कुराहटों की भरमार है, जैसे अभी। साधक नहीं मुस्कुराता, साधक शान्त हो जाता है। साधक को सुख, प्रसन्नता चाहिए ही नहीं, साधक को नहीं चाहिए अपना होना। साधक की भाषा चाह की नहीं है, साधक की भाषा चाह से मुक्ति की है। साधक ये भी नहीं कहता कि उस पार कुछ मिले, साधक बस ये कहता है, ‘इस पार जो है उससे आज़ाद होना है। उस पार जो भी है, रखो अपने पास, नहीं चाहिए।‘

तुम साधक से कहोगे, ‘आओ तुम्हें परलोक का सौन्दर्य बतायें।‘ वो कहेगा, ‘हमें परलोक का सौन्दर्य मत बताओ, ये मर्त्यलोक में जो बन्धन है और दुख है, इनसे मुक्ति दिलाओ, बस। अरे! एक ही लोक में फँसकर हम बहुत बड़ी क़ीमत अदा कर रहे हैं, तुम हमें अब किसी और लोक के चक्कर में भी फँसा‌ रहे हो! और मृत्युलोक तो छोटा-मोटा कमज़ोर लोक है, यहाँ पर फँसे तो इतना भारी जुर्माना देना पड़ रहा है और अगर कहीं परलोक में फँसे तो? तब तो न जाने कितना बड़ा जुर्माना देना पड़े। भैया, हमें किसी लोक में नहीं फँसना, हम जहाँ हैं बस वहाँ से आज़ादी दिला दो।‘

हम लोगों ने अध्यात्म को भी महत्वाकांक्षा बना लिया है। हम वहाँ कुछ पाने निकलते हैं। हम कहते हैं, 'ये साधना करो, वो साधना करो, उससे कुछ मिल जाएगा और हमें बड़ा आत्मविश्वास रहता है, ‘बस मिल ही रहा था, चूक गया मैं। पा तो लिया ही था, बस चूक गया।‘ एक क्षण को भी विचार नहीं करते कि कहीं मूर्ख तो नहीं बन रहा था। ये क्या अति विश्वास है? सत्य पर श्रद्धा रखना समझ आता है, स्वयं के प्रति इतना अन्धविश्वास? अपनी ही बेहोशी को इतनी मान्यता कि बिलकुल अड़कर के भरोसे के साथ कह रहे हो कि मैं तो पार निकल ही गया था बस, आख़िरी क्षण में फ्लाइट ने टेकऑफ़ नहीं करा, नहीं तो सब हो गया था।

कुछ पाना नहीं है, गँवाना है। हमने कुछ खोया नहीं है, हमने जो अनावश्यक और अनुपयोगी है उसे अर्जित कर लिया है।

उस दिन बात हो रही थी तो श्रीकृष्ण अर्जुन को क्या समझा रहे थे? कि बेटा, सत्य ढँका हुआ है। सत्य खो गया है, ऐसा कहा था? क्या कहा था? ढँका हुआ है। और उपनिषद् क्या बोलते हैं? कि सच का मुँह स्वर्ण से ढँका हुआ है। किसी ने भी तुमसे ये कहा क्या कि खो बैठे हो, कहीं और जाकर लेकर आओगे, इस पार उस पार?

सबने यही कहा है कि जो व्यर्थ तुमने अपने दिमाग में फ़ितूर भर रखे हैं, उनको उतार दो। सच को कहीं पाने की ज़रूरत नहीं है। ये दिमाग में जो भूत चढ़े हुए हैं, बस उन्हें उतारो।

छः-आठ बरस पहले किसी ने मुझसे पूछा था, ‘व्हाट लाइज़ बियोंड माइंड?’ (मन के परे क्या है?)

मैंने कहा, ’मोर माइंड (अधिक मन)।‘

जिस भी चीज़ की तुम बात कर सको वो मन ही है। तो अगर तुम मन के आगे की बात कर रहे हो तो वो 'और मन' है। पार की अगर तुम बात कर रहे हो तो वो पार इत्यादि नहीं है, मन का व्यापार है।

समझ में आ रही है कुछ बात?

आध्यात्मिक अनुभवों से बचना। कोई अनुभव आध्यात्मिक नहीं होता, सब अनुभव मानसिक मात्र हैं। और जो आध्यात्मिक अनुभवों में फँसेगा, जान लो कि उसकी ज़िन्दगी तमाम तरह के मीठे-मीठे, रसीले अनुभवों में फँसी हुई है। वो कद्रदान ही किसका है? अनुभवों का। तो जो भी अनुभव उसे भा गया, वो रीझ जाता है। वो कहेगा, ‘आहाहा! क्या सुन्दरी है! क्या गीत गाया है! क्या दुपट्टा लहराया है!’ ये सब क्या है? अनुभव ही तो है, चाहे बाहर उठे, चाहे कल्पना में उठे। और ये भीतर का अनुभव कुछ नहीं होता, बाहर-भीतर एक है। अनुभव करने वाला तो एक ही है न, कौन? मन ही है न। फिर तो तुम्हारे परम आध्यात्मिक अनुभव वो होने चाहिए जो सपनों में होते हैं क्योंकि वहाँ जो कुछ हो रहा है, वो भीतर-ही-भीतर हो रहा है।

तुम कहते हो कि दो तरह के अनुभव हैं, एक जो बाहर संसार में होते हैं और एक जो भीतर होते हैं। जो भीतर होते हैं वो बड़े पवित्र-पावन हैं क्योंकि वो आध्यात्मिक अनुभव हैं। तो ऐसे तो सपनों में भी जो होता है वो भीतर-ही-भीतर होता है, उसी को मान लो कि सब पवित्र-पावन खेल है। लेकिन अब भलीभाँति जानते हो कि सपनों में कौनसी पवित्रता और कौनसी पावनता चलती है।

सब अनुभवों का अनुभोक्ता एक है, कौन? जो इस भ्रम में बैठा हुआ है कि अनुभव कर-करके कुछ पा लेगा। उस बेचारे पगले को ये पता ही नहीं है कि तू जो पाना चाहता है, वो तुझमें ही है। कमी कुछ नहीं है, बस तूने कुछ अतिरिक्त अर्जित कर लिया है। तेरे ख़याल की दिशा ही उल्टी है। तू सोच रहा है कि कहीं कुछ कमी है, कमी नहीं है भाई, अधिकता है, अधिकता को हटाओ। तुम उल्टी गंगा बहाते हो, पहले ही अधिकता है, उस अधिकता पर तुम और अधिक डालते हो, कहते हो, ‘और अनुभव ले आऊँ दो-चार।’

पहले ही तुम्हारे साथ समस्या ये है कि तुम अनुभवों के बड़े खिलाड़ी हो, ये अनुभव मिल जाए, वो अनुभव मिल जाए। जीवनभर जो भी करते हो, मीठे-मीठे, प्यारे-प्यारे अनुभवों के लिए ही तो करते हो। 'आओ, स्विट्जरलैंड घूमकर आते हैं।' वहाँ काहे के लिए जा रहे हो, मोक्ष के लिए? अनुभवों के लिए ही तो जा रहे हो। बढ़िया वाला गद्दा लेकर के आते हैं बैठने के लिए, अच्छा कपड़ा लेकर के आते हैं, कुछ गीत-संगीत सुनते हैं, आओ कहीं टहलते हैं — ये सब तुम किसलिए कर रहे हो? जीवन में हम एक ही चीज़ चाहते हैं, अच्छे-अच्छे अनुभव होते रहें। भीतर जो अनुभोक्ता बैठा है, वो अनुभवों पर मरा जा रहा है। मर ही जाएगा, कुछ नहीं पाएगा।

मन में बहुत सारी सामग्री दबी हुई है। बीच-बीच में ऐसा होगा कि तुम्हें कोई ऐसा अनुभव होगा कि तुम्हें लगेगा कि ये सांसारिक तो है ही नहीं, ये ज़रूर कहीं पार का है। कुछ नहीं, सब अनुभव यहीं के हैं, कोई अनुभव पार का नहीं होता।

हमारी हालत उन बच्चों जैसी है या कौतूहल से भरे और विज्ञान में अशिक्षित लोगों जैसी है जिन्हें लगता है कि एयरफ़ोर्स (वायु सेना) के एन्टीने और रडार यूएफ़ओ को पकड़ लेंगे। यूएफ़ओ समझ लो, तुम्हारी पार की चीज़ हो गयी। भाई, तुम्हें बात समझ में क्यों नहीं आ रही है? तुम्हारा जो एन्टीना है वो सिर्फ़ इस दुनिया की चीज़ें पकड़ सकता है, है न? तुम्हारे जो आम एन्टीने हैं एविएशन (विमानन) के और रडार हैं, उनका निर्माण ही क्या पकड़ने के लिए हुआ है? सिर्फ़ इसी दुनिया की वस्तुओं को। वो कुछ ऐसा पकड़ सकते हैं क्या जो फाइव डायमेंशन (पाँच आयाम) में हो? बोलो!

लेकिन हम बड़े उत्सुक रहते हैं, हमें लगता है यही जो हमने खिलौने लगा रखे हैं, जगह-जगह पर ज़मीन में, ये यूएफ़ओ को पकड़ लेंगे। हमें लगता है यूएफ़ओ भी हमारी ही तरह कुछ बोइंग एयरबस जैसा कोई विमान होता होगा। बात ही नहीं समझ में आती।

या वो लोग जो कहते हैं, ‘हम जा रहे हैं मंगल ग्रह पर जीवन की खोज करने।‘ अरे! पागलों, तुम्हारा जो पूरा तन्त्र है, वो अधिक-से-अधिक किस प्रकार के जीवन की पहचान कर सकता है? जो जीवन तुम्हारे जैसा हो, बिलकुल जो तुम्हारे जैसा जीवन हो उसकी ही पहचान कर सकता है। लेकिन ज़रूरी है कि जीवन तुम्हारे ही जैसा हो? हो सकता है कि चन्द्रमा और मंगल ग्रह जीवन से भरपूर हों, तुम्हें दिखाई देगा वो जीवन? तुम्हारी इन्द्रियों की पकड़ में आएगा वो जीवन? पर आदमी का अज्ञान, आदमी का अहंकार, आदमी कहता है, 'नहीं, जीवन होगा तो हमारी पकड़ में आ ही जाएगा। यूएफ़ओ होगा तो हमारा रडार उसको पकड़ ही लेगा।' तुम्हारे रडार की संरचना और डिज़ाइन ऐसा है क्या कि वास्तव में अगर कुछ आ जाए अतीन्द्रिय तो वो उसको पकड़ ले? बोलो!

अभी मैं बिलकुल ज़मीनी बात कर रहा हूँ, विज्ञान की, आगे भी नहीं जा रहा, आगे कुछ है ही नहीं। विज्ञान में ऐसे भी कणों की बात है — अभी वो प्रमाणिक रूप से सिद्ध नहीं हुए — जो प्रकाश की गति से भी ज़्यादा तेज़ी से चलते हैं, उनकी गति प्रकाश की गति से भी ज़्यादा है। उनके साथ मज़ेदार बात ये है कि वो कार्य-कारण सिद्धान्त का ही उल्लंघन कर जाते हैं। भई, अगर पोता प्रकाश की गति से ज़्यादा तेज़ चल रहा है तो वो दादा से पहले आ जाएगा न। तो अजीब हालत हो जाएगी कि दादा है नहीं, पोता आ गया। पोता कहाँ से आ गया, दादा तो है ही नहीं! तो कॉज़ैलिटि (कारणता का सिद्धान्त) ही वॉयलेट (अवैध) हो जाएगी। हमारे पास कोई ऐसा सेन्सर नहीं है — मेरे ख़याल से 'ट्रैक्योन्स' इनका नाम है — हमारे पास कोई ऐसा सेन्सर नहीं है जो इन छोटे कणों को या वेव्स (तरंग) को किसी तरीक़े से चिह्नित कर सके, कम-से-कम अभी तक नहीं है।

अब अगर कोई यूएफ़ओ आएगा जो प्रकाश की गति से ज़्यादा तेजी से चल रहा होगा तो क्या करोगे, पकड़ लोगे उसको? पर हमारा मानना है कि पकड़ लेंगे। और ये सब उदाहरण मैं इसी लोक के दे रहा हूँ, परलोक के नहीं दे रहा हूँ। परलोक से कोई उदाहरण दिया नहीं जा सकता। ये सिर्फ़ समझाने के लिए दे रहा हूँ कि हमारे सेन्सर, ये जो हमारे शरीर में निहित पाँच इन्द्रियाँ हैं और एक मन है, ये इस क़ाबिल नहीं हैं, इनकी इस तरह की संरचना, अभिकल्पना, डिज़ाइन नहीं है कि ये पार का कुछ भी अनुभव कर पायें, नहीं कर सकते न।

तुम्हारे पास एक रेडियो सेट है, वो टीवी वेव्स पकड़ लेगा? पकड़ लेगा क्या? नहीं न। तो उसी तरीक़े से ये (मस्तिष्क) जो तुम्हारे पास है, ये पार का कुछ पकड़ नहीं सकता। उदाहरण मेरा पूरी तरह ठीक नहीं है क्योंकि टीवी वेव्स भी भौतिक होती है, लौकिक होती है। पार की तो कोई वेव्स ही नहीं होतीं। उसके बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता, मामला पूरा अकथ्य है।

लेकिन हम बिलकुल भी विनम्रता नहीं जानते। हम बार-बार अकड़ में यही कहते रहते हैं कि अभी-अभी न, मेरे रेडियो ने कौनसी वेव्स पकड़ ली? किसी का रेडियो इन्फ्रारेड (अवरक्त) पकड़ रहा है, किसी का रेडियो कॉस्मिक वेव्स (ब्रह्मांडीय तरंगे) पकड़ रहा है। कैसे भाई? वो डिज़ाइंड ही नहीं है वो सब पकड़ने के लिए, कैसे पकड़ रहा है?

चलो और ज़मीनी तल पर आकर बता देता हूँ। हमारी चूहेदानी हाथी और डायनासोर पकड़ रही है, और हमारा दावा होता है कि आचार्य जी, मेरी चूहेदानी में हाथी बस फँसने ही वाला था, फँसने ही वाला था कि रह गया। रह ही गया, बस आचार्य जी, रह गया। फँसा ही लिया था मैंने अपनी चूहेदानी में और हाथी भी नहीं, डायनासोर। जो कि है ही नहीं। इतनी सी तो तुम्हारी चूहेदानी, उसमें एक तो तुम डायनासोर फँसा रहे हो, वो भी वो डायनासोर जो है ही नहीं।

ये उन सब लोगों का पेशेवर धन्धा है जो दसों सालों से साधना कर रहे हैं। वो अपनी चूहेदानी में डायनासोर फँसाये घूम रहे हैं और पूरा बाज़ार लगा रखा है, ‘आओ, आओ, तुम्हारी भी चूहेदानी में मैं डायनासोर फँसाकर दिखाऊँगा।‘ और कई हैं जो बता रहे हैं, ‘हमारे फँसा हुआ है, ये देखो, ये रहा डायनासोर।‘ मज़ेदार बात ये है कि औरों को दिख भी जाता है, वो कहते हैं, ‘हाँ बढ़िया, क्या डायनासोर फँसाया है!’

सत्य अनुभव रूपी चूहेदानी की पकड़ में नहीं आने वाला, कृपा करके आशा छोड़ दीजिए। थोड़ी विनम्रता लाइए और थोड़ी लज्जा अनुभव करिए कि बड़ा बेवकूफ़ बनाया अपना इतने सालों तक। और ये सब बातें कुछ नहीं हैं बस दुष्प्रचार का नतीजा हैं। इतना दुष्प्रचार हुआ है और हम थोड़े भोले, थोड़े भोंदू, उस दुष्प्रचार की चपेट में आ गये हैं।

एक बात साफ़ कर देता हूँ, इस दुनिया में जो कुछ है, उसको जानने का एक ही तरीक़ा है — विज्ञान। कोई आपसे कहे कि इस दुनिया में जो कुछ है उसको समझने के लिए विज्ञान के अतिरिक्त भी और कोई तरीक़ा है, तो चटनी चटा रहा है आपको, चाट मत लीजिएगा।

तुम कहाँ मुस्कुरा रहे हो, तुम भी हो तो आइआइटी से लेकिन चटनी तुम भी खूब चाटते हो, अलग-अलग रंगों की (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए)।

अध्यात्म का क्षेत्र ये नहीं है कि आपको नये-नये रसीले-रंगीले अनुभव दिलाये। अध्यात्म का काम है आपको आपके दुख के मूल तक ले जाना। कहाँ ले जाना? दुख के मूल तक। और वहाँ आपको दिखाई देगी ईर्ष्या, वहाँ आपको दिखाई देगी तुलना, वहाँ आपको दिखाई देगा अज्ञान, वहाँ आपको दिखाई देंगी वासनाएँ और वृत्तियाँ। अहंकार का काम है इनको सम्बोधित करना, इनको समझना और इन्हें चुनौती देना।

अध्यात्म का क्षेत्र ये नहीं है कि वो आपसे कहे कि आँख बन्द करो और लड्डू उछलता देखो। लड्डू की हक़ीक़त क्या है, ये आपको विज्ञान बताएगा। इसके लिए अध्यात्म के पास मत चले जाइएगा।

जगत क्या है ये विज्ञान बताएगा, जगत से रिश्ता रखने वाला कौन है ये अध्यात्म बताएगा। ये भेद सदा स्पष्ट रहे, भूलिएगा नहीं। सड़क पर चलती कार क्या है ये जानने के लिए अध्यात्म के पास मत चले जाइएगा। कार क्या है ये तो आपको विज्ञान ही समझाएगा। हाँ, कार से आपका रिश्ता क्या है और ये रिश्ता रखने वाला कौन है, यहाँ (हृदय की ओर इशारा करते हुए), ये आपको अध्यात्म बताएगा।

बात समझ में आ रही है? बिलकुल साफ़ है ये?

कोई आंतरिक विज्ञान या आंतरिक इंजीनियरिंग (अभियान्त्रिकी) नहीं होती। विज्ञान सब भौतिक है और बाहरी ही है। विज्ञान का सम्बन्ध कार से है, कार से, अहंकार से नहीं है। विज्ञान का सम्बन्ध कार से है, अहंकार से नहीं है। अहंकार से किसका सम्बन्ध है? अध्यात्म का। तो कोई अगर कार में अध्यात्म घुसेड़े तो या तो मूर्ख है या चालबाज़। इसी तरीक़े से अगर कोई अहंकार में विज्ञान और तकनीक और इंजीनियरिंग घुसेड़े तो वो भी या तो बेवकूफ़ है या चालबाज़। इन दोनों क्षेत्रों को सर्वथा अलग-अलग ही करके देखना।

कोई मन्त्र, कोई श्लोक, कोई वेद, कोई पुराण, दुनिया का कोई धर्मग्रन्थ तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता अगर तुम कार को समझना चाहते हो। अभी हो रहा है, कई लोगों में ये भ्रान्ति फैली हुई है कि दुनिया भर का जितना विज्ञान है, वो तो फ़लाने धर्मग्रन्थ में लिखा हुआ है और ऐसा है, वैसा है। लोग कहते हैं कि अरे ये न्यूक्लियर फ़िज़िक्स (परमाणु भौतिकी) क्या चीज़ होती है, ये तो फ़लानी किताब में वर्णित है पूरी। नहीं साहब, नहीं, बिलकुल भी नहीं। दुनिया के किसी धर्मग्रन्थ में न्यूक्लियर साइंस (परमाणु विज्ञान) वर्णित नहीं है, इन चक्करों में मत फँसिएगा।

ये दो तरह के धोखे हैं, दोनों को समझ पा रहे हो? एक धोखा वो जो बताता है कि वो हमारी पुरानी किताब है, उसमें इंटरनेट के बारे में सबकुछ लिखा हुआ है। आज से अठारह-हज़ार साल पुरानी किताब है, उसमें सब लिखा है इंटरनेट वगैरह, पूरा बताया हुआ है।

'अरे! आप जानते नहीं हैं, दुनिया में एक ही किताब है पढ़ने लायक़। वही एक किताब जो हमारा धर्म, हमारा मज़हब बताता है और उस एक किताब के अलावा कुछ जानने की ज़रूरत नहीं, उसमें सब लिखा हुआ है। आप बताइए, मैक्सवेल्स इक्वेशन , इन्टरनल कंबस्शन इंजन (आंतरिक दहन इंजन), क्या जानना चाहते हैं आप? सब लिखा हुआ है हमारी किताब में।‘

ये एक तरह का पागलपन है कि जहाँ कहा जाता है कि आध्यात्मिक ग्रन्थों में तुमको विज्ञान मिल जाएगा। कृपया करके समझिए, आध्यात्मिक ग्रन्थों में, धार्मिक साहित्य में आपको विज्ञान नहीं मिलने वाला, बिलकुल नहीं मिलने वाला, एक प्रतिशत नहीं मिलने वाला। और उसी तरीक़े से आज एक दूसरा फ़रेब चल रहा है, वो फ़रेब चल रहा है कि अहंकार को मिटाने के लिए हम विज्ञान का सहारा लेंगे। आंतरिक कलपुर्ज़े ठीक करने के लिए एक नयी आंतरिक तकनीक, टेक्नोलॉजी बनाएँगे।

जैसे कार में अध्यात्म नहीं चलेगा वैसे ही अहंकार पर कोई टेक्नोलॉजी, कोई इंजीनियरिंग नहीं चलने वाली भाई। वहाँ श्रद्धा चलती है, प्रेम चलता है, समर्पण चलता है, ज्ञान चलता है। भीतर जोड़-तोड़ नहीं चलेगी, वो तो चालाकी होती है। चालाकी से तो हम पहले ही भरपूर हैं, और चालाकी करेंगे अपने साथ तो उससे कुछ मिल जाएगा क्या?

लेकिन खूब चल रहा है। कोई बता रहा है कि तुम्हारी चेतना में न, वाइब्रेशन्स (कम्पन) में डिस्टरबेंसेज़ (गड़बड़ी) आ गये हैं। उसको ठीक करने के लिए मैं क्वान्टम मैकेनिक्स (क्वान्टम यान्त्रिकी) लगाऊँगा और जैसे ही मैं तुम पर क्वान्टम मैकेनिक्स लगा दूँगा, तुम्हारा एनलाइटनमेंट (प्रबोधन) हो जाएगा। और लोग बड़े प्रभावित हो जाते हैं, वो कहते हैं, ‘अरे, एनलाइटनमेंट थ्रू क्वान्टम फ़िज़िक्स!’ (क्वान्टम भौतिकी के माध्यम से प्रबोधन) क्या बात है, क्या बात है!’

उन्हें समझ में ही नहीं आता कि क्वान्टम फ़िज़िक्स हो कि कोई फ़िज़िक्स हो, फ़िज़िक्स माने फ़िज़िकल , और फ़िज़िकल माने भौतिक, इस दुनिया का। जो फ़िज़िकल है, उसका इस्तेमाल करके तुम जो बियोंड फ़िज़िकल (भौतिक के परे) है उस तक कैसे पहुँच जाओगे? फ़िज़िकल तो जो कुछ है, वो मन को उपलब्ध ही है, उससे मन तृप्त कहाँ हो रहा था? क्लासिकल फ़िज़िक्स (शास्त्रीय भौतिकी) हो चाहे मॉडर्न फ़िज़िक्स (आधुनिक भौतिकी) हो, उसका वास्ता किससे है? उसे क्या बोलते हैं? भौतिकी। पार्थिव चीज़ों से ही वास्ता है न।

तुम विज्ञान कितना भी आगे बढ़ा लो, उसका सम्बन्ध किससे रहेगा? वो बात किस चीज़ की करेगा? वो मटीरियल (पदार्थ) की ही तो बात करेगा न? तो तुम काहे के लिए इतराये जाते हो कि अरे-अरे-अरे! अभी तक कुछ ख़ास नहीं मिल रहा था, अब क्वान्टम मैकेनिक्स मिली है, उससे हम भीतर का कुछ मामला सेट (स्थापित) कर देंगे।

इसी तरीक़े से कई हैं जीवशास्त्र और चिकित्साशास्त्र में शोध करने वाले, वो कह रहे हैं ये जो एनलाइटनमेंट वगैरह होता है न, मुक्ति, ये होती कहाँ होगी, होती तो अन्ततः ब्रेन (मस्तिष्क) में ही है। तो वो लगे हुए हैं ब्रेन की चीर-फाड़ करने में। वो कह रहे हैं, ’ब्रेन में ही ज़रूर कोई ऐसा अड्डा है जहाँ मुक्ति छुपी बैठी है।‘ कह रहे हैं, जैसे ही मिलेगा वैसे ही हम मुक्ति के टीके लगाना शुरू कर देंगे। बच्चा पैदा होगा, तुरन्त उसके ब्रेन में टीका मारेंगे, खट्। और ऐसे अड्डों का नाम होगा ‘द बुद्धा फैक्ट्री’। आप अन्दर आइए, आपको टीका मारा जाएगा यहाँ पर मस्तिष्क में, ब्रेन में और तुरन्त आपका एनलाइटनमेंट हो जाएगा।

इन पागलों को समझ में ही नहीं आ रहा कि बात फ़िज़िकल नहीं है। और मस्तिष्क क्या है पूरी तरह? फ़िज़िकल है। ये सोच रहे हैं कि एनलाइटनमेंट भी कोई पार्थिव घटना ही होती है, कोई भौतिक चीज़ है, कुछ हो गया। इन्हें लग रहा है कि जैसे कहते हैं न कि आइन्स्टीन का मस्तिष्क अभी तक संग्रहित करके रखा हुआ है, वैसे ही ये बड़े परेशान हैं, कह रहे हैं कि अगर बुद्ध का मिल जाता, जीसस का मिल जाता, कृष्ण का मिल जाता तो उसको देख-परखकर बिलकुल पता कर लेते कि इनके खोपड़ों में साझी बात क्या है, उसी समय समझ में आ जाता कि एनलाइटनमेंट क्या होता है।

इन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि एनलाइटनमेंट खोपड़े की बात ही नहीं है भाई, वो कुछ और चीज़ है। लेकिन खोपड़ा बेचारा करे क्या, वो खोपड़े से आगे का कुछ जानता ही नहीं। चूँकि खोपड़ा खोपड़े से आगे का कुछ जानता नहीं तो उसको ये लगता है कि मुक्ति भी खोपड़े के ही भीतर की ही किसी चीज़ का नाम है। तो बहुत ज़बरदस्त इस पर प्रयोग और शोध चल रहा है कि खोपड़े में ऐसा क्या है जो एनलाइटेन होता है।

और गुरुदेव लोग हैं, वो भी कह रहे हैं, ‘तुम्हें न, कुछ ज्ञान वगैरह समझने की ज़रूरत नहीं है, न भक्ति की ज़रूरत है, न समर्पण की ज़रूरत है, आओ कुछ क्रियाएँ-प्रक्रियाएँ करो, मैं तुम्हें टेक्नोलॉजी फॉर वेल बीइंग (भलाई के लिए प्रौद्योगिकी) दूँगा और उससे तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम मुक्त हो जाओगे, छू मन्तर, छू मन्तर, छू मन्तर। बस तुम करते जाओ जो तुम्हें बताया जा रहा है, आँख मूँदकर के मूढ़ की तरह बस ये प्रक्रियाएँ दोहराते जाओ और तुम लिबरेटेड (मुक्त) हो जाओगे।‘

अरे पागल! ये जो आँख मूँदकर प्रक्रियाएँ दोहरा रहा है, यही तो वो है जो आँख मूँदकर के जिया जा रहा है और यही उसका अभिशाप है। जैसे वो आँख मूँदकर के अपनी ज़िन्दगी जिये जा रहा है वैसे ही अगर उसने आँख मूँदकर के तुम्हारी प्रक्रियाएँ दोहरा लीं, तो कौनसी मुक्ति मिल जानी है उसको, तुम्हें बात नहीं समझ में आ रही?

ये सब बातें अगर तुम देखोगे तो मूल में अहंकार की इस ज़िद से उत्पन्न होती हैं कि जो कुछ है वो भौतिक ही है। और जो कुछ भौतिक है फिर उसका तो अनुभव भी किया जा सकता है। वो परमात्मा को, सत्य को भी किसकी चीज़ मानता है? अनुभव की। वो अड़ा हुआ है, कह रहा है कि मुझसे आगे कुछ है नहीं और अहम् को कोई आपत्ति नहीं होती संसार के फैलाव से, अहम् को कोई दिक्क़त नहीं होती।

संसार कितना भी फैला हो, अहम् से छोटा ही है। देखते नहीं हो, अहम् पूरे ब्रह्मांड पर राज़ कर रहा है। वो पता कर रहा है कि ये जो पूरा ब्रह्मांड है, ये फैल रहा है कि सिकुड़ रहा है और एक ही ब्रह्मांड है या कई हैं, मल्टीवर्स तो नहीं है। ये होंगे कितने भी बड़े, दुनिया भर के जितने विश्व हैं, होंगे कितने भी बड़े, लेकिन अहम् से छोटे हैं न, क्योंकि अहम् इनकी बात कर सकता है और अहम् इनका ज्ञान ले सकता है।

जैसे अहम् आज पहुँचा है मंगल ग्रह तक, वैसे ही अहम् कल पहुँच सकता है ब्रह्मांड के किसी भी कोने तक। तो अहम् को इस बात में कोई समस्या ही नहीं है कि ब्रह्मांड, तुम बता दो कि अति विस्तृत है। वो कहेगा, ‘ठीक, कोई दिक्क़त नहीं, ब्रह्मांड होगा अति विस्तृत। लेकिन हम ये नहीं मानेंगे कि ब्रह्मांड से अलग आयाम भी कोई है।‘ वो ये नहीं मानेगा।

वो ये भी मान लेगा कि ईश्वर है, बस तुम उससे ये बोल दो कि ईश्वर ब्रह्मांड के ही किसी कोने में छुपा बैठा है। वो कहेगा फिर ठीक है, ईश्वर बिलकुल है। इसीलिए तो ईश्वर की इतनी आराधना करते हैं लोग और जब भी आराधना करते हैं तो ऐसे, कभी ऊपर देखते हैं, कभी दायें देखते हैं, कभी नीचे देखते हैं। भरोसा उनका यही है कि ऊपर-नीचे, दायें-बायें, यहीं कहीं छुपा बैठा है।

जब तक ब्रह्मांड में ईश्वर है, तब तक अहंकार को कोई समस्या ही नहीं, क्योंकि ब्रह्मांड तो अहंकार के खेलने का मैदान है। आज नहीं तो कल अहम् वहाँ पहुँच ही जाएगा, सशरीर पहुँच जाएगा और जब तक सशरीर नहीं भी पहुँच रहा है तब तक कल्पना में तो पहुँच ही रहा है न। सत्य को लेकर समस्या है अहंकार को, कि उस तक कल्पनाओं में भी नहीं पहुँचा जा सकता।

ब्रह्मांड के किसी भी कोने तक भले ही तुम सशरीर नहीं पहुँचे हो, लेकिन कल्पना तो कर ही लेते हो न। कल्पना नहीं भी कर पाते तो वहाँ से तरंगे आ रही हैं और वैज्ञानिक उन तरंगों को पकड़ रहे हैं और बता रहे हैं कि ये देखो, ये जो अभी-अभी तरंग आयी है न, ये पैंतालीस-अरब प्रकाशवर्ष दूर से आयी है। पैंतालीस-अरब लाइट ईयर (प्रकाशवर्ष) दूर से आयी है, अभी-अभी पकड़ लिया, अब कोई समस्या है? होगा बहुत दूर का मामला लेकिन तुमने तो उसे पकड़ ही लिया, जान ही लिया है न। अहम् कहता है ठीक है।

अहम् की छाती में अगर एक काँटा घुसा हुआ है तो उसका नाम है सत्य, क्योंकि वो पकड़ में नहीं आता। बाक़ी सब पकड़ में आता है। तो सत्य को झुठलाने के लिए वो बड़ी घिनौनी साज़िश करता है। वो कहता है, ‘मैं सत्य का भी अनुभव कर डालूँगा, मैं सत्य का भी अनुभव कर डालूँगा।‘ जब वो बार-बार कहता है सत्य का अनुभव कर डालूँगा तो वो बस यही कह रहा है कि सत्य भी है इसी दुनिया की कोई भौतिक वस्तु। ये है तुम्हारी घिनौनी चाल कि मानना न पड़े कि हमसे आगे भी कुछ है।

या तो ये कह दो कि हम मानते ही नहीं कि हमसे आगे का कुछ है, तब तुम कहला जाते हो नास्तिक। जो कह दे कि भई, मुझसे आगे कुछ है नहीं। जो दुनिया में दिखाई देता है, वही है बस, ओन्ली द मटिरियल (केवल पदार्थ है), तो तुम अपनेआप को घोषित कर देते हो नास्तिक। और दूसरे नास्तिक वो होते हैं जो कहते हैं कि हमसे आगे तो कुछ है, पर है वो संसार का ही, तो हम उसका अनुभव ले सकते हैं। ये परम नास्तिकता है।

दो तरह की नास्तिकताएँ समझ में आ रही हैं? एक तो ये हुई कि तुम कह दो कि साहब, इस दुनिया से आगे अब कुछ है ही नहीं, ओन्ली द मटिरियल एग्ज़िस्ट्स (केवल पदार्थ का अस्तित्व है), जो है सो पदार्थ। ये प्रकट नास्तिक है। और प्रछन्न नास्तिक कौन हैं, छुपे हुए? जो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही, बिलकुल है और वो दो लोकों और सात समुंदरों के पार बैठा हुआ है। ये तुमने क्या करा? तुमने ईश्वर को भी इसी संसार का हिस्सा बना दिया, ये नास्तिकता हो गयी न। तुमने यही कह दिया न कि जो है वो इस दुनिया में ही है या कि इस दुनिया के अलावा कुछ है ही नहीं।

ऐसे आस्तिकों से बहुत बचना जो सच का अनुभव लेने का दावा करते हैं या सच का अनुभव लेने की कोशिश में लगे हुए हैं। आस्तिक वो है जिसके सामने तुम कहो, ‘सत्य’ और वो मौन हो जाए, वो कहे कि ये कोई चर्चा की बात नहीं, चुप हो जाए। जिस पर मौन उतरता हो बस उसको आस्तिक जानना। जो बहुत इधर-उधर का प्रपंच बताये कि मैंने ये किया, मैंने वो किया, सपने में फ़लानी देवी आयी, फ़लाने देवता आये, फ़लाने पीर-पैगम्बर आये, उसको जान लेना कि अहंकारी है। सच को भी ये अपने ही तल पर उतार लेना चाहता है, ख़ुद उठना नहीं चाहता, उसको नीचे खींच लेना चाहता है।

ये बात स्पष्ट हो रही है?

प्र: जो पतंजलि योगशास्त्र है, कुंडली तो नहीं बोलूँगा, लेकिन ये जो चक्रों की साधना है, फिर इसकी कोई सैंकटिटि (पवित्रता) है या सब बोगस (जाली) है?

आचार्य: सांकेतिक बाते हैं, सांकेतिक बातें हैं। एक सिद्धान्त का पालन होता रहा है पुराने भारत में। अब वो सही है, ग़लत है, जैसा भी सिद्धान्त है, वो एक अलग चर्चा है, पर उस सिद्धान्त का पालन हुआ है। वो सिद्धान्त क्या है, मैं आपको बता देता हूँ। वो सिद्धान्त ये है कि आध्यात्मिक बातें सबके लिए नहीं हैं। आध्यात्मिक बातें सबके लिए नहीं हैं। सब अधिकारी ही नहीं हैं उन बातों को सुनने के।

तो इसीलिए पुराने ग्रन्थों में जो बातें कही गयी हैं, वो सब बड़े गुप्त इशारों में कही गयी हैं। इस तरीक़े से कही गयी हैं कि उनका मर्म, उनका तत्व, उसी को समझ में आये जो अधिकारी है और बाक़ी और कोई उस श्लोक को पढ़ भी ले तो बस गुमराह हो जाए, उसे बात समझ में ही न आये।

बात समझ में आ रही है?

जैसे कि कोई बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है जो अगर ग़लत हाथों में पड़ गया तो दुख और विनाश का कारण बनेगा, तो उस सूत्र को इस तरह से कहा गया है कि अगर वो ग़लत हाथों में पड़ भी गया, अगर ग़लत कानों में पड़ भी गया तो भी जिसके कान में पड़ रहा है उसे समझ में ही नहीं आएगा या समझ में आएगा भी तो उल्टा-पुल्टा समझ में आएगा। जब उल्टा-पुल्टा समझ में आएगा तो कोई बात नहीं, जो समझ में आया है उससे खेलते रहो, तुम्हें समझ में ही नहीं आया है। और वो सूत्र सिर्फ़ उनको समझ में आएगा जो इस लायक़ हैं कि समझ सकें।

पतंजलि योगसूत्र पर भी ये सिद्धान्त लागू होता है। उसमें लिखी बातों को जिसने गहराई में जाए बिना यूँही समझ लिया, मात्र भाषायी अनुवाद के तौर पर, वो बहकेगा, वो दिशाभ्रष्ट होकर रहेगा। कोई बहुत सुयोग्य गुरु चाहिए पतंजलि के ही स्तर का जो बता पाये कि पतंजलि कह क्या रहे हैं वास्तव में। नहीं तो सोचते ही रह जाओगे कि पतंजलि ने ये ही तो लिखा है, हमने पढ़ लिया। और बात पतंजलि की नहीं है, चाहे उपनिषदों की बात हो, चाहे गीता की बात हो और चाहे जीज़स के वक्तव्यों की बात हो, चाहे लाओत्सू का कथन हो, हर जगह ऐसा ही है। ये तो देखो, सन्त परम्परा के आने के बाद हुआ कि जनमानस तक पहुँचाया गया अध्यात्म को।

भारत में वो चीज़ शुरू होती है दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी से या थोड़ा सा और पहले से, गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ के साथ। और उन्होंने भी बात बहुत खुलासा करके नहीं बोली, वो भी सूत्रों में ही बात करते थे, वो भी बात कतिपय संकेतों में ही करते थे। फिर जैसे-जैसे सन्त परम्परा और आगे बढ़ी, जनमानस में बात और व्यापक हुई, वैसे-वैसे सन्तों ने बात को और खोलकर के कहना शुरू किया। नहीं तो उससे पहले, ख़ासतौर पर संस्कृत में जितने भी ग्रन्थ लिखे गये हैं, वो तो अति क्लिष्ट और प्रतीकात्मक हैं। उसका सबसे ऊँचा उदाहरण है ब्रह्मसूत्र। ब्रह्मसूत्र में तो श्लोक भी नहीं पाओगे पूरे-पूरे, चार अक्षर। क्या है सूत्र पूरा? चार अक्षर, आठ अक्षर, कि चौदह अक्षर। लो, कर लो जो अर्थ करना है। आपको ताज्जुब नहीं होता? और ब्रह्म सूत्रों का महत्व वेदान्त में ठीक उतना ही है जितना उपनिषदों का।

प्रस्थानत्रयी मानी गयी है, तीन स्तम्भ माने गये हैं वेदान्त के — उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता और तीसरा कौन है जानते हो? यही ब्रह्मसूत्र। ब्रह्मसूत्र अति खुफ़िया, कि जैसे कोई बताना ही न चाह रहा हो, जैसे कोई बताना ही न चाह रहा हो।

लाओत्सू के साथ भी बिलकुल यही था। पूरा जीवन वो शिक्षा देते रहे, सिखाते रहे, बात कुछ नहीं कह रहे थे। फिर कथा कहती है कि अन्त में जब जाने की, प्राण त्यागने का वक़्त आ रहा है तो किसी और दिशा को चल दिये, शायद तिब्बत की ओर। तो लोगों ने उन्हें घेरकर पकड़ा — कहीं कुछ हुआ होगा, कथा है, कोई इसका प्रमाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है — तो कहते हैं, लोगों ने उन्हें घेरकर पकड़ा वगैरह, बोले कि हम आपको जाने नहीं देंगे, कुछ लिखकर तो जाइए। तो फिर लाओत्सू ने थोड़ा सा लिख दिया।

पुराने लोगों की ऐसी ही बात थी। वो नहीं चाहते थे कि उनकी बातें कुपात्र लोगों के कानों में पड़ें। पर किसी बात का किसी के भी हाथ लग जाना रोका नहीं जा सकता था न, नहीं रोका जा सकता था न। भाई, कोई आ ही जाए, बिलकुल सनक में, कहे, ‘नहीं, हमें जानना है। ये ऋषि महाराज कौनसी सीख दे गये, बताओ नहीं तो अभी गर्दन तुम्हारी तलवार से उड़ाये देते हैं।’ भई, मान लो कोई ऐसा राजा ही हो जाए तो उस राजा के ख़िलाफ़ क्या सुरक्षा रखी गयी थी? सुरक्षा ये रखी गई थी कि बता दो। बता दो, ससुरे को समझ में ही नहीं आएगा। सूत्र इस तरीक़े से निर्मित करो कि उसकी समझ में ही न आये।

और वो बात, मैंने कहा, जाकर के समाप्त होती है सन्त परम्परा में। सन्तों ने पुरज़ोर कोशिश की है कि वो बात को आपके सामने खोलकर रख दें। लेकिन वहाँ भी सावधान रहना क्योंकि सन्तों की पूरी कोशिश के बाद भी उनके वक्तव्य भी उस बात को पूरी तरह कभी कह नहीं पाते जो बात कही जा ही नहीं सकती। तो कबीर साहब हों, कि नानक साहब हों, कि बाबा बुल्लेशाह हों, इन्होंने अपनी ओर से तो सब समझा-समझाकर कहा, इन्होंने नहीं छुपाया, इन्होंने सूत्र नहीं दिये हैं। इन्होंने सूत्र नहीं दिये हैं, इन्होंने तो अपना लम्बा-चौड़ा गाया है, खूब गाया है।

कबीर साहब का जो साहित्य है, विषद, अति विस्तृत, खूब गाया है, ब्रह्मसूत्र की तरह नहीं है। लेकिन फिर भी उनकी वाणी को भी पूरी तरह समझ पाना सबके लिए सम्भव नहीं है। और जब तुम उपनिषदों पर आते हो या पतंजलि के पास जाते हो या ब्रह्मसूत्र के पास जाते हो तो वहाँ तो भूल ही जाओ कि वो वहाँ जो दिख रहा है, उसका अर्थ वही है। बिलकुल भी नहीं, वहाँ जो दिख रहा है, उसके अर्थ की कई-कई तहें हैं, हमें अधिक-से-अधिक, आमतौर पर दिखाई देती है सबसे ऊपरी परत और जो सबसे ऊपरी परत है वो सबसे अनुपयोगी परत है। वो है ही आरम्भिक साधकों के लिए, उसमें तुम बहुत कुछ मूल्यवान पाओगे नहीं।

“जे जानत ते कहत नहीं, कहत ते जानत नाहिं।”

जो बेचारा बताना भी चाहता हो, वो फँस जाता है न। पुराने ऋषि थे, उनके ऊपर क्या लागू होता है? “जे जानत ते कहत नहीं”, वो जानते थे, उन्होंने कहा ही नहीं। बोले, ‘हम नहीं बताएँगे या बताएँगे भी तो सिर्फ़ उसको जो सुपात्र होगा। उसको भी कैसे बताएँगे? उसके कान में बताएँगे।‘ श्रुति चलती थी। ये नहीं कि छापाख़ाना है, छाप दिया या गये गाँव में और पंचायत बैठायी, चौपाल और बोले, ‘आओ सब, ऋषि महाराज चबूतरे पर बैठे हैं, आज पूरे गाँव को ज्ञान देंगे, कुछ नहीं ऐसा।‘

शिष्य आते थे, बीस-बीस साल तक अपनी योग्यता का सबूत देते थे और बीस साल तक लगे हुए हैं, लगे हुए हैं। तब बीसवें साल गुरु बुलाते थे, बोलते थे बैठ नीचे और कुछ दो-चार बातें कहते, इतने में काम हो जाता था। उन दो-चार बातों में काम क्यों हो जाता था? क्योंकि बीस साल में शिष्य ने बड़ी योग्यता अर्जित कर ली होती थी। अब वो पात्र था, सुपात्र था तो बस कुछ बातें बोलते थे गुरुवर और काम हो जाता था।

तो ऋषियों ने कहा कि जे जानत ते कहत नहीं। उन्होंने कहा ही बहुत कम, क्योंकि वो जानते थे कि जिसको अभी तक अभीप्सा ही नहीं, जिसने अभी तैयारी ही नहीं करी है, जो मुक्ति के लिए छटपटा ही नहीं रहा उसको अगर मुक्ति की बात बता दी तो उसकी हानि ही हो जाएगी। और उसके विपरीत है आज का चलन कि जहाँ सत्य को कौड़ियों के दाम बेचा जा रहा है, ‘आओ! आओ! आओ! चलो बैठक लगाओ, आसन लगाओ, मुद्रा लगाओ, फ़लानी क्रिया करो, आओ तुम्हारे चक्र खोलते हैं, तुम्हारा साँप उड़ाते हैं, आओ जल्दी आओ।‘ ये वो हैं जो 'कहत ते जानत नाहिं।' ये खूब कहते हैं, ये जानते कुछ नहीं।

अभी हमलोग श्रीमद्भगवद्गीता पर जब चर्चा कर रहे थे, ‘यज्ञ’ शब्द का उल्लेख श्रीकृष्ण कई बार करते हैं। यज्ञ का जो वास्तविक अर्थ है, जो कालातीत अर्थ है, उसका सम्बम्ध किसी अधिष्ठान, पूजा-अर्चना, हवन इत्यादि से है ही नहीं। जिस यज्ञ की बात कर रहे हैं श्रीकृष्ण वो बिलकुल दूसरा है। पर वो आप तभी समझेंगे न जब या तो आपकी प्रज्ञा उतनी प्रखर हो या जैसे अर्जुन को कृष्ण मिले थे वैसे ही आपको भी कोई मिले समझाने वाला। नहीं तो फिर तो आप सीमित बुद्धि से उसका कुछ सीमित अर्थ कर लेंगे और फँस जाएँगे।

प्र: अभी विगत में जो सन्त हुए जैसे ओशो साहब हुए, कृष्णमूर्ति साहब हुए, रमण महर्षि साहब हुए, इन्होंने काफ़ी स्पष्ट करके बोलने की कोशिश की है लेकिन जब पढ़ते हैं तो वहाँ भी कुछ, कुछ-कुछ मतलब स्पष्ट नहीं होता।

आचार्य: अपनी करुणा से वशीभूत कोई होता है — जो बोलना है बोलो उसे, आपका शुभेच्छु, मैत्रेय बोल लो, गुरु ही बोलने का मन है गुरु बोल लो — वो आपको वो भी देने की कोशिश कर जाता है जिसके आप वास्तव में अधिकारी होते नहीं। वो जोखिम उठाता है, ख़तरा। वो कहता है, ‘दिख तो रहा है कि ये अभी सुनने के लिए तैयार नहीं है, पर फिर भी देकर देखो, क्या पता बात बन जाए!’

मुक्ति इतनी ऊँची चीज़ है कि उसके लिए जोखिम उठाया जा सकता है, है न? तो आपके शुभेच्छु अक्सर ये जोखिम उठा लेते हैं। उन्हें पता भी होता है कि अभी ये सब बातें आपकी पकड़ में आएँगी नहीं, तो भी वो बातें कह जाते हैं। कह जाते हैं और फिर हर्जाना भी देते हैं, क्योंकि ये बात भी पाप सरीखी ही होती है। कुपात्र को या अपात्र को तत्वज्ञान दे देना पाप ही है और ये पाप गुरु के सिर लगता है।

जब गुरु के सिर लगता है तो फिर उस पर तमाम मुसीबतें आती हैं, तमाम तरीक़े से उसको सांसारिक दुख झेलने पड़ते हैं। ये उसने जो ग़लती करी है, करुणावश ग़लती करी है पर ग़लती करी है। ये उसने जो ग़लती करी है, ये उसकी सज़ा है और ऐसी ग़लतियाँ बहुत गुरुओं ने करी हैं, बहुत सन्तों ने करी हैं। वो ऐसों के सामने बात बोल गये, वो ऐसों को अपनी संगति दे गये जिनको सन्तों की संगति कभी मिलनी ही नहीं चाहिए थी। उन्होंने कर्मफल का सिद्धान्त ही पलटने की कोशिश करी।

संसार का विधान है, कर्म किया है तो कर्मफल भोगोगे। पर सन्तों की करुणा, वो कहते हैं, ‘कर्म तो इसने कर दिया है, क्या किसी तरह से इसको कर्मफल से बचा सकता हूँ?’ तो वो उसे कर्मफल से बचाने की कोशिश करने लग जाते हैं। उसमें होता ये है कि वो बचे-न-बचे कर्मफल से, जिस अपात्र को वो अपनी संगति दे रहे हैं, उसका कर्मफल गुरु के सिर आ जाता है।

ये भी बात समझना अब पुराने लोगों की, वो आसानी से किसी को अपनी संगति नहीं देते थे। वो आसानी से किसी को अपना शिष्य नहीं मानते थे। उन्हें एक बात बहुत स्पष्ट थी कि एक बार गुरु ने किसी को अपना शिष्य बना लिया तो अब शिष्य अपने कर्मफल से मुक्त हो जाएगा और शिष्य का सारा कर्मफल गुरु के ऊपर आ जाएगा। शिष्य के जितने पाप होंगे, वो उठकर के अब गुरु के पास आ जाएँगे अगर गुरु ने उसको अपना शिष्य बना लिया।

लेकिन ऋषियों में और सन्तों में थोड़ा भेद रहा है, सन्तों को पता भी था कि ग़लत आदमी के साथ हैं तो भी उन्होंने कहा, ‘कोई बात नहीं, अब ये साथ है तो इसको रहने दो।‘ फिर उसका उन्होंने ख़ामियाज़ा भी भुगता।

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