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लेख
बस राम को चुन लो, आगे काम राम का || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
9 मिनट
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तुलसी ममता राम सों सकता सब संसार।

राग न द्वेष न दोष दु:ख दास भए भव पार।।

~ संत तुलसीदास

आचार्य प्रशांत: राम से ममता, संसार में समता।

संसार में कुछ ऐसा नहीं जो कुछ दे सकता है, और कुछ ऐसा नहीं जो कुछ ले सकता है, तो यहाँ तो सब एक बराबर – समता। यहाँ तो कोई हमारे सामने विकल्प रखे ही नहीं, क्योंकि संसार को लेकर हम निर्विकल्प हैं। हमने एक विकल्प चुन लिया है, वो राम है। हमने तो चुन लिया, अब यहाँ पर तुम क्या विकल्प दिखा रहे हो? जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के साथ किसी रेस्तराँ में खाना खाने जाए या आप अपने किसी स्वजन के साथ, किसी प्रेमी के साथ खाना खाने जाएँ।

आप विदेश में हैं। जो भोजन की सूची है, जो मेनू कार्ड है, वो किसी विदेशी भाषा में है। कार्ड की एक प्रति आपके सामने रख दी गयी है, एक आपके प्रेमी के सामने रख दी गयी है। आप क्या करेंगे? आप ख़ुद चुनेंगे? आप एक चुनाव करेंगे, वो चुनाव होगा कि – "मैंने चुन लिया कि तुम चुनोगे।" और यदि ख़ुद चुनने बैठ गए तो? तो वही होगा जो होता है हमेशा। जीवन भर जो चुनाव करे हैं, उनका जैसा स्वाद मिला है, वैसा ही स्वाद फिर मिल जाएगा उस रेस्तराँ में भी।

भक्ति ही बुद्धिमानी है। भक्ति निर्बुद्धी होने का नाम नहीं है, ये परम बुद्धिमानी की बात है कि – मैं तुझको चुनने दूँ। तू माँ है, तू प्रेमी है, तू चुन दे। मेरा काम तू कर दे। ऐसा नहीं कि मैंने चुना नहीं, ऐसा नहीं कि मैं मूढ़ हूँ। मैंने चुना। मैंने क्या चुना? मैंने तुझे चुना। मैंने तुझे चुना, आगे के चुनाव तू कर। मैंने तुझे चुना, अब तू चुन जो चुनना हो मेरे लिए, जो मेरे हित में है वो तू चुन। क्योंकि मैं तो चुनूँगा तो गड़बड़ हो जानी है। मैं संसार को जानता नहीं। मैं किसको जानता हूँ? मैं तुझको जानता हूँ। संसार तो न जाने कौन-सी भाषा में है, मैं जानता नहीं। मैं तुझे जानता हूँ – तू प्रेमी है, तू माँ है। मैंने तुझे चुना, और संसार तेरा है। तू संसार को जानता है। तू जो भी चुनेगा, ठीक चुनेगा।"

समता संसार में, ममता राम से।

इसमें जो कुछ भी लिखा हुआ है, मेरे लिए तो सब काला अक्षर भैंस बराबर है। सब एक जैसा है – समता। यहाँ मैं चुनूँ कैसे? चुनने की बात तो तब आती है न जब पता हो कि क्या क्या है। संसार में तो जो कुछ है, वो ऊपर से कुछ और है, पीछे से कुछ और है। मुझे क्या पता? कार्य-कारण का एक विशाल अनुमान्य तंत्र है। कहाँ जाकर क्या ढूँढें कि क्या किससे हो रहा है, किसका क्या प्रभाव पड़ेगा, किसका क्या परिणाम निकलेगा? हम नहीं जानते कुछ!

तो हम तो एक चीज़ करेंगे – जब भी विकल्प सामने आएगा, हम राम को चुन लेंगे। राम माने 'शांति'; राम माने 'श्रद्धा'; राम माने 'भक्ति'; राम माने 'आनंद'; राम माने 'मुक्ति'। जब भी कोई विकल्प सामने आएगा, हम देख लेंगे कि ये विकल्प रखे हैं, हम मुक्ति को चुन लेंगे। मुक्ति फिर चुन लेगी कि इसमें से कौन-सा विकल्प ठीक है।

हमने सारे विकल्प देखे। हमने कहा, "हम नहीं जानते तुम क्या हो। हमें तो बस एक चीज़ देखनी हैं – तुम में से कोई ऐसा तो नहीं जो मुक्ति छीनता हो हमारी? हमने मुक्ति को चुना हुआ है। मुक्ति पैमाना है, मुक्ति निर्णायक है। अब मुक्ति चुनेगी कि मेरे लिए क्या ठीक है। मुक्ति फिर जो भी चुन ले, मैं उसमें हस्तक्षेप नहीं करूँगा।" ये होता है भक्ति करना। ये होता है राम से ममता, संसार में समता—"हमने एक को चुना, उससे हमारी ममता है। मेरे तुम हो, तुम्हारा मैं हूँ, हम दोनों एक हैं, हममें भेद नहीं हैं – फिर न राग होगा, न द्वेष होगा, न दुःख होगा।"

"दास भए भव पार" – पार हो जाओगे। भोजन स्वादिष्ट लगेगा। नहीं तो अपनी जान कुछ मँगाओगे, आ कुछ जाएगा। तुमने तो अपनी जान कुछ और ही आदेश दिया था – "ये लेकर आना", तुम्हें लगा था कि ये जो भी लिखा हुआ है व्यंजन, स्वादिष्ट होगा, पर आ कुछ और जाएगा — विवाह की तरह! देखने में तो मेनू कार्ड में व्यंजन बड़ा ही स्वादिष्ट लगा था। अरे, चलो, मेनू कार्ड नहीं, शादी का कार्ड! जब परोसा गया, तब भी ऊपर-ऊपर से बढ़िया। तब गरम भी था न, हॉट! पर ज़रा समय बीता, ठंडा पड़ गया, ऊपर की मलाई हटी, नीचे तो मामला ही कुछ और! महँगा बहुत है! और महा-अपमान की बात ये कि इसको जो लेकर आया है, वो भी कहता है, "टिप दो!" घाव पर नमक रगड़ा जा रहा है। वो बड़े हक़ के साथ कह रहा है। वो सास हो सकती है, ससुर हो सकता है। वही तो लेकर आया है, सजाकर लाया है, उसी ने तो कन्यादान किया है।

तुम चुनोगे तो ये होगा।

तुम राम को चुनने दो।

कुछ भी ठीक पड़ा है आज तक अपना चुना हुआ? संसार में समता नहीं देखी, संसार में अपने लिए आकर्षण देखे। संसार में अपने लिए मुक्ति देखी, संसार बड़ा मोहक लगा। जो भी चुना है, कभी ठीक पड़ा है? कुछ ग़लत पड़ा है, कुछ ज़्यादा ग़लत पड़ा है। जो कम ग़लत पड़ा है, उसको तुम कह देते हो – "ठीक पड़ा है।" पर क्या कुछ भी ऐसा है जो विशुद्ध ठीक पड़ा है? तुम कहोगे, "नहीं, अव्यवहारिक बातें मत करिए। विशुद्ध ठीक तो कुछ होता ही नहीं।" ये तुम देख रहे हो तुमने क्या किया है? तुमने कलपने से समझौता कर लिया है। तुम कह रहे हो, "देखिए, पूरा तो कुछ पड़ता नहीं। बाज़ार में निकलो तो दो ही बातें होती हैं – या तो चार लात पड़ेंगी, या दस लात पड़ेंगी। जब चार लात पड़ें तो उत्सव मनाओ। जब कम पिटो तो कहो, 'आज तो दिवाली है'। जब ज़्यादा पिटो तो कहो, 'कल दिवाली होगी क्योंकि आज तो पिट लिए इतना, अब रोज थोड़े ही इतना पिटेंगे'। ये हमारा जीवन है।

दो ही बातें होती हैं हमारे साथ – या तो हम पिटते हैं या बहुत पिटते हैं। जब पिटते हैं तो हम कहते हैं, "आज दिवाली"। जब बहुत पिटते हैं तो कहते हैं, "कल दिवाली"। कोई आकर कहे कि ऐसा जीवन संभव है जिसमें तुम न पिटो, जिसमें ज़रा तुम्हारी गरिमा हो, जिसमें वास्तव में तुम्हारा ज़रा सम्मान हो, जिसमें तुम्हारे लिए सुख-चैन हो—चैन वाला सुख हो, आपके वाले सुख की बात नहीं कर रहा हूँ, तो आप कहोगे, "न, ये सब तो कपोल-कल्पना है, आदर्शों की बातें हैं। ये सब होता नहीं। हमसे पूछो, हम बाज़ार में बैठते हैं। हमें साठ साल का अनुभव है। काहे का? पिटने का। यही हमारी श्रेष्ठता, हमारी पात्रता है। हम इतना पिटे हैं, इतना पिटे हैं कि हम पिटने पर महाकाव्य लिख सकते हैं।" ये अलग बात है कि महाकाव्य लिखने के बाद भी पिटना रुकेगा नहीं।

एक किताब देखता था। एक समुदाय है जो कहता है कि, "हम कृष्ण के उपासक हैं।" उनकी एक पुस्तक थी। उसपर उन्होंने कृष्ण का एक बड़ा सजीला चित्र लगा रखा था, और कृष्ण के चित्र के नीचे जो उनके प्रमुख गुरुदेव हैं, उनका चित्र लगा रखा था। अब जितनी कृष्ण की रौनक, उतना इन महोदय की शक्ल में बेज़ारी, रेगिस्तान। भक्त तो भगवान-सा हो जाता है। भक्त के चेहरे को तो भगवान छू जाते हैं। अगर तुम वास्तव में कृष्ण भक्त हो, तो तुम्हारी शक्ल इतनी पिटी-पिटी क्यों है? तुम्हारा चेहरा उजाड़ क्यों है? उनके चेहरे पर तो नृत्य है, तुम्हारे चेहरे पर मृत्यु क्यों है?

बाइबल कहती है: "गॉड मेड मैन इन हिज़ ओन इमेज (भगवान ने मनुष्य को अपनी ही छवि में बनाया)।" तुम्हारे चेहरे पर कृष्णत्व क्यों नहीं है? वो छवि भी क्यों नहीं है? क्योंकि तुमने कृष्ण को वास्तव में चुना ही नहीं है। तुम्हें कृष्ण से ममता है ही नहीं। तुम्हें कृष्ण से दूरी बनाकर रखनी है। प्रमाण ये है कि तुम उल्टा चल रहे हो। कृष्ण केशव हैं, तो तुम कहते हो कि हम सर घुटाकर चलेंगे। ये ममता है? तुम्हें जिससे प्यार होता है, तुम उसके विपरीत दिखने की कोशिश करते हो? कृष्ण आसमानों में उड़ते हैं, तुम कहोगे कि, "मैं ज़मीन में रेंगूगा कीड़े की तरह।" पर तुम्हारा तर्क यही है! तुम कहते हो, "कृष्ण तो ऊपर के हैं, हम तो यूँ ही हैं, भक्त हैं, नीचे के हैं।" ये महामूर्खता है। ये तुम कृष्ण को नहीं सुन रहे, ये तुम संसार में ही चुन रहे हो, क्योंकि सारे युग्म और सारे विपरीत संसार में ही पाए जाते हैं।

बात अटपटी-सी लगती है। हमें इतना कुछ दिया गया था संसार में चुनने के लिए, और हम चुनते तो श्रेय ले पाते कि हमने चुना, हम निर्णय करते, हम बादशाह होते, और इतनी लंबी श्रंखला चलती – एक निर्णय के बाद दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा – क्या रस आता! और हमने बागडोर ही किसी और को सौंप दी! हमने कहा, "ये जो पूरा मेनू कार्ड है, तू देख, और तू जान कि मेरे लिए सर्वोत्तम क्या है।" बात अटपटी लगती है। बात अटपटी सिर्फ़ उनको लगती है जिन्हें अपने हित से ज़्यादा अपनी अकड़ प्यारी है।

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