आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
भक्त - निर्बुद्धि नहीं, अतिबुद्धि || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
50 मिनट
35 बार पढ़ा गया

आचार्य प्रशांत: “मनै सुरति होवे मनि बुधि।”

बुद्धि क्या है? “मनै सुरति होवे मनि बुधि।” बुद्धि वास्तव में क्या है? एक बुद्धि तो वो है जो क़ीमत करती है दुनिया की चीज़ों की, उन्हें नाप-तोल कर एक-दूसरे से; बुद्धि, वो ताक़त जो फ़ायदा पहुँचाए। बुद्धि — मन को रास्ता दिखाने वाली मन की ही शक्ति।

तो एक बुद्धि तो वो हो सकती है जो मन को रास्ता दिखाए दुनिया के ही मध्य से कि यही सत्य है, इसी में तुम्हें जीना है, इसी में तुम्हें रहना है — लो, देखो! क्या क़ीमती है। जो क़ीमती है उसका चुनाव करते रहो, जो क़ीमती नहीं है उसको छोड़ते रहो।

ये हमारी व्यावहारिक बल्कि एक प्रकार की व्यावसायिक बुद्धि है। बुद्धि चल इसमें भी रही है, निर्णय यहाँ भी हो रहे हैं — ऊँचे-नीचे, सही-ग़लत, अच्छे-बुरे; इनका निर्णय बिलकुल हो रहा है। पर वो सारा निर्णय कुछ मान्यताओं के आधार पर हो रहा है।

और वो मान्यता ये है कि पहला, सामने जो दुनिया है वही अपनेआप में सच है और वही आख़िरी है; दूसरा, एक वस्तु से दूसरी वस्तु को और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को तोलने के मेरे पास जो आधार हैं, जो क्राइटेरिया (मानदंड) है वो भी सच है, वो भी आख़िरी हैं। तीसरा, ये बुद्धि मेरी अपनी है और मुझे पार लगा सकती है। एक बुद्धि तो ये होती है।

ऐसी बुद्धि वाले लोग आपको अक्सर दुनिया में बड़ी प्रतिष्ठित जगहों पर, ताक़त के पदों पर बैठे मिल जाएँगे। क्योंकि उन्होंने कुछ निर्णय बिलकुल वही करे होते हैं जो ताक़त अर्जित करने के लिए, जो प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए चाहिए होते हैं।

उन्होंने ठीक-ठीक देखा होता है कि क्या है जो मुझे सफलता दिलवाएगा? क्या है जो मुझे लक्ष्यों की ओर ले जाएगा? और क्या है जो ये सब नहीं देगा? जो ये सब नहीं देगा उसको वो त्याग देते हैं। जो ये सब देगा उसकी ओर एकाग्र होकर के बढ़ सकते हैं। तो बढ़िया है ये बुद्धि क्योंकि इससे दुनिया में कमाया जा सकता है काफ़ी कुछ।

पर इस बुद्धि के साथ एक-दो छोटी-छोटी समस्याएँ हैं। समस्या ये है कि इसके द्वारा जो कुछ भी कमाया जाता है वो कमाये जाने के साथ ही अपनी क़ीमत खोने लग जाता है। जितना मिला होता है उससे कई-कई गुना न मिले होने का भाव मन पर हावी रहता है। जितना भी मिला हो, ऐसी बुद्धि वाले मन से अगर आप पूछिए, ‘पा लिया?’ वो कहेगा, ‘हाँ, पा लिया।’

फिर आप और पूछिए, ‘अभी और पाना है?’ वो कहेगा, ‘हाँ, बहुत कुछ पाना है।’ और उसमें अचरज की बात ये रहेगी कि उसने जितना ही पाया होगा, उसे उसी की अपेक्षा पाँच गुना अभी और पाना है। मतलब ये कि अगर उसने दस इकाइयाँ पाई हैं तो उसे अभी पचास की और लालसा है। और अगर कहीं उसने सौ पाई हैं तो उसे अभी पाँच-सौ की और लालसा है।

तो विचित्र प्रकार की बुद्धि है ये।

ये जितना आपको देती है, देती ज़रूर है, इसमें कोई शक़ नहीं; ये जितना आपको देती है उससे कहीं ज़्यादा की प्यास बनी रहने देती है, बल्कि जगा देती है।

फिर एक दूसरी बुद्धि है जिसमें मन ये तुलना नहीं करता कि एक चीज़ और दूसरी चीज़ में से ज़्यादा क़ीमती कौन है; एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति में से ज़्यादा क़ीमती कौन है; एक जगह और दूसरी जगह में से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कौन है। क्योंकि वो समझ चुका होता है कि वस्तु और वस्तु एक हैं, कि व्यक्ति और व्यक्ति एक हैं।

वो समझ चुका होता है कि जो कुछ भी इस दुनिया का है, उसमें चुनाव करने से उसे कोई विशेष लाभ हो जाने वाला नहीं है। ठीक वैसे, जैसे सपने में आप चुनें कि आप रेत खाएँगे या रसगुल्ला तो आपके निर्णय से कुछ हो जाने वाला नहीं है। आप चुन लेते हैं कि आप रेत खाएँगे तो इससे आपके मुँह में छाले नहीं पड़ जाएँगे। और अगर आप चुन लेते हैं कि आप रसगुल्ला खाएँगे तो इससे आपको रसगुल्ले की प्राप्ति नहीं हो जाएगी।

ठीक उसी तरह से ये जो दूसरी बुद्धि है, इसमें आदमी अपने निर्णयों की निरर्थकता को देख लेता है। जब वो समझ जाता है कि इधर जाऊँ या उधर जाऊँ, कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता क्योंकि किधर को भी जाऊँ, जा तो सपने में ही रहा हूँ। तब उसके लिए एकमात्र निर्णय ये बचता है कि सपना है या जागृति?

अब उसने बेहोशी में चुनाव करना बंद कर दिया है। अब उसका एकमात्र चुनाव है — बेहोश न होना। उसने अस्वीकार कर दी है अपनी ये स्थिति कि रहा तो बेहोश आऊँगा पर बेहोशी के भीतर मैं बड़े बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लूँगा कि जैसे कोई बड़ी बुद्धिमानी से चुनाव कर रहा हो कि मरने के लिए किस ब्रांड का ज़हर खाना है।

ठीक ऐसी होती है पहले प्रकार की बुद्धि कि जैसे कोई निर्णय कर रहा हो कि कुएँ में गिरना है या खाई में गिरना है। ऐसी होती है पहली प्रकार की बुद्धि। निर्णय वो ज़रूर करती है; ख़ूब नापती है, तोलती है। कुएँ की गहराई नापेगी, खाई की गहराई नापेगी; नाप लो, ख़ूब नाप लो। लेकिन जिधर को भी जाओगे, कष्ट ही पाओगे।

तुमने जितने भी विकल्प तलाशे हैं, इनमें से कोई भी विकल्प तुम्हें सुख नहीं दे पाएगा क्योंकि ये सारे ही विकल्प एक ही आयाम के हैं। ये सारे ही विकल्प सपने के हैं, बेहोशी के हैं। तो चुनोगे तो तुम ज़रूर, बुद्धि का प्रयोग तो तुम करोगे ज़रूर, पर ये प्रयोग तुम्हें दुख में, और गहरे दुख में ही ले जाएगा। ये बुद्धि तुम्हारे काम नहीं आएगी, ये तुम्हारी मित्र नहीं है।

जो दूसरी बुद्धि है वो मात्र एक सवाल पूछती है — जगे हो या सो रहे हो? सो रहे हो तो निर्णय लेना व्यर्थ है क्योंकि सोते-सोते जो भी निर्णय लोगे, जितनी भी बुद्धि लगाओगे, वो निर्णय तो बेहोशी का ही होगा। और अगर जगे हुए हो, तब भी निर्णय लेना व्यर्थ है क्योंकि जागृति में जिधर को भी जाओगे होश में ही जाओगे। तो यह बुद्धि निर्णेता बुद्धि होती ही नहीं! इसे रुक-रुक के, ठहर-ठहर के सोचना पड़ता ही नहीं! ये तो बस एक सतत जागरूकता है। ये बस ये ख़याल करती है, ध्यान रखती है कि फिसल न जाऊँ।

उसके अलावा इसे अन्य कोई चिंता है ही नहीं। मात्र एक प्रश्न पूछती है — फिसले तो नहीं? फिसले तो नहीं? और नहीं फिसले हो तो उसके बाद जो भी करो, निर्णय लेने की आवश्यकता ही नहीं है। जो पहली बुद्धि है — व्यावहारिक, व्यावसायिक — उसे निर्णय लेने की बड़ी आवश्यकता है। नापना पड़ेगा, तोलना पड़ेगा, परखना पड़ेगा, कोने-कोने जाँचना पड़ेगा, कहीं कोई भूल न हो रही हो।

दूसरी बुद्धि को कुछ नहीं करना पड़ेगा, सिर्फ़ पूछना पड़ेगा — प्रस्तुत हो? भटक तो नहीं गये, फिसल तो नहीं गये? पहली बुद्धि पूछती है कि मन के भीतर क्या चल रहा है। दूसरी बुद्धि पूछती है — मन स्थित कहाँ पर है? मन अगर सही जगह स्थित है तो उसके भीतर जो भी चल रहा होगा, शुभ ही होगा। पहली बुद्धि को इस बात से कोई प्रयोजन ही नहीं है कि मन स्थित कहाँ है।

मनै सुरति होवे मनि बुधि

दूसरी बुद्धि मात्र 'सुरति' ही है और यही उसका प्रश्न रहता है — याद है? भूल तो नहीं गये? याद है, भूले तो नहीं? अगर याद है तो सब ठीक है, जो करना है करो। याद है न? याद ही होश है। याद है तो कोई ग़लत निर्णय तुमसे हो नहीं सकता। याद है तो कष्ट तुम्हें छू नहीं सकता। याद है तो फिर जिस दिशा जाओगे, वही दिशा सही हो जाएगी तुम्हारे लिए।

'सुरति' साधारण स्मृति नहीं है। सुरति का अर्थ है केंद्र की वो याद जो केंद्र के पास स्थापित ही कर दे। साधारण स्मृति तो पहली बुद्धि में चलती है, वो मन के भीतर की घटना है। सुरति मन के भीतर की घटना नहीं है, प्राथमिक तौर पर नहीं है।

प्राथमिक तौर पर सुरति का अर्थ है मन की सही स्थापना; कि मन पूरा-पूरा अपने स्रोत, अपने केंद्र के पास स्थित है। और जब मन सही स्थान पर स्थित होता है तब उसके भीतर का माहौल अपनेआप दूसरा होता है। फिर भीतर क्या चलना है और क्या नहीं चलना है, इसका निर्णय करने की, इसकी तुलना करने की, नापने की, परखने की आवश्यकता बहुत बचती ही नहीं।

जब भी कभी मन हमारा उलझनों में फँसा हो, जब भी कभी अपनेआप को निर्णय की दुविधा में पाये, तो बस यही प्रश्न करें अपनेआप से कि कहीं निर्णय इसीलिए तो नहीं करना पड़ रहा क्योंकि बेहोश हूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि निर्णय कुछ भी करूँ, वो निर्णय काम नहीं आएगा? क्योंकि दोनों ही निर्णय बेहोशी के होंगे। इस दिशा जाऊँ चाहे उस दिशा जाऊँ, दोनों ही दिशाएँ मात्र सपने की हैं। तो कोई भी दिशा मुझे कहीं ले नहीं जा पाएगी।

विचार में बुराई नहीं, पर विचार की सार्थकता मात्र तब है जब जागृति में विचार किया जाए। मन में ख़ूब-ख़ूब श्रद्धा, उसके बाद मन अगर विचार में उतरना उचित समझता है तो बढ़िया, कोई दिक्क़त नहीं है। पर यदि विचार है ही इसलिए क्योंकि मन भटका हुआ है, मन श्रद्धा जानता नहीं, तब ये विचार क्या फ़ायदा देगा?

हाँ, ये भ्रम ज़रूर दे सकता है कि विचार का उपयोग करके मन को कुछ लाभ होगा। लगातार ये सांत्वना, ये भ्रम बना रहेगा कि और सोचो, और सोचो, इससे कुछ फ़ायदा हो जाएगा। नहीं, होगा नहीं।

आप विचार को एक सस्ते विकल्प के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं, विचार श्रद्धा का विकल्प नहीं हो सकता। आपके मन में गहरा डर बैठा हुआ है, आप सोच-सोच करके इस डर से बाहर नहीं निकल सकते। बल्कि उस डर की स्थिति में, याद रखिए, आप जो भी सोचेंगे, वो एक डरा हुआ ही विचार होगा। डरे हुए विचार डर से बाहर आपको नहीं निकाल पाएँगे।

पर जो पहले प्रकार की बुद्धि होती है वो बड़ी मायोपिक (कमबीन) बुद्धि होती है, वो दूर तक देख नहीं पाती। वो बस इतना देख पाती है कि डर है, तो सोचो। वो ये समझ ही नहीं पाती कि डर है क्या? डर आता कहाँ से है? निगाह उसकी थोड़ा सा आगे जाती नहीं है। वो सोचना जानती है, तुलना करना जानती है और उतना ही करने में फँस के रह जाती है।

भक्त के पास एक विचित्र प्रकार की बुद्धि है जो न पंडित की बुद्धि है, न व्यापारी की बुद्धि है। उसकी चाल देखने में बहुत अटपटी लगेगी। आपको लगेगा ये कैसे निर्णय कर रहा है — ये कैसे चलता है? प्रश्नों के कैसे अजीब जवाब देता है? क्या खाता है? क्या पीता है? क्या पकड़ता है? क्या छोड़ता है? समझ में ही नहीं आएगा।

ठीक इसीलिए समझ में नहीं आएगा क्योंकि हमारी जो दृष्टि है, वो दृष्टि भी पहले प्रकार की बुद्धि की है। ऐसी बुद्धि जो बस व्यवहार के तल की है, जो बस आदान-प्रदान, व्यवसाय जानती है।

भक्त की चाल बड़ी अटपटी होती है। और सतही तौर पर देखने पर ये बिलकुल लग सकता है कि ये निर्बुद्धि है। कि ये जो हरकतें कर रहा है उसमें बुद्धि है ही नहीं। आप कहेंगे, ‘बेवकूफ़ आदमी है!’ और ये बात बिलकुल ठीक है कि वो जो कुछ कर रहा है वो हमारी साधारण बुद्धि से कुछ हटकर के है।

पर कृपा करके उसे ‘निर्बुद्धि’ न बोलें। वो जो कर रहा है वो अतिबुद्धि है। बुद्धि नहीं है, बिलकुल ठीक कहा आपने कि बुद्धि नहीं है उसके पास, क्योंकि बुद्धि की हमारी परिभाषा ही वही है कि तोलना-नापना; कि एक किलो कि दो किलो; कि काला कि सफ़ेद; कि दायाँ कि बायाँ; नहीं है, ये बुद्धि नहीं है उसके पास।

पर इसका अर्थ ये नहीं है कि वो इस बुद्धि से नीचे गिर गया है, निर्बुद्धि हो गया है। इसका अर्थ ये है कि वो अब इस बुद्धि से ऊपर उठ गया है, अतिबुद्धि है उसकी। वो बुद्धि का अतिक्रमण कर गया है, आगे निकल गया है बुद्धि से। कोई और ही बुद्धि है जिसके आधार पर वो चलता है, कोई और ही तुलना है जो वो करता है, कोई और ही सवाल है जो लगातार उसके समक्ष रहता है।

आपके सामने सवाल रहता है — क्या खाना है? क्या पीना है? किधर को जाना है? क्या होगा? और ऐसे हज़ार और प्रश्न। उसके सामने भी सवाल रहता है पर वो सवाल सिर्फ़ एक है — भूल तो नहीं गया? सिर्फ़ एक सवाल है उसके पास — भूल तो नहीं गया?

मत पूछिए कि क्या नहीं भूल गया? न! जब स्वयं अतिबुद्धि ही ये नहीं कहती कि क्या नहीं भूल गया, विषय को खुल करके नहीं बताती, तो फिर हमारी साधारण बुद्धि तो क्या ही समझ पाएगी कि क्या नहीं भूल गया। तो विषय को छोड़िए। ये प्रश्न ही बचकाना है कि क्या याद रखना है?

सामान्य स्मृति निश्चित रूप से कुछ याद रखती है, उसके पास याद रखने का विषय होता है। उससे पूछिए क्या याद रख रहे हो — कोई घटना याद रखनी है? कोई वस्तु याद रखनी है? किसी व्यक्ति के बारे में कुछ याद रखना है? हाँ, ठीक है।

सामान्य बुद्धि विषय को याद रखती है, अतिबुद्धि मात्र याद रखती है; मात्र याद। किसी की याद नहीं, मात्र याद। और जो मात्र याद है, उसी को कहते हैं सुरति। वहाँ पर 'किसकी याद' पूछना हास्यास्पद है।

याद है, याद है — बस इतना। क्या याद है? — कोई सवाल ही नहीं। किसको याद है? — ये भी कोई सवाल नहीं। सवाल बस इतना है कि याद है? सुरति है? भटक तो नहीं गए? कहीं और तो नहीं पहुँच गये? वही होश है। अपनी इस सामान्य जागृति को होश मत समझ लीजिएगा।

एक जागना वो होता है जो सोने का विपरीत होता है, वो मात्र मन की एक अवस्था है। आप अभी सो रहे थे थोड़ी देर पहले, आप अभी जग गए हैं — इसको जगना बिलकुल मत मान लीजिएगा। अभी कुछ हुआ नहीं जगने जैसा। अभी तो बस मन एक स्थिति से दूसरी स्थिति में आ गया है। पहले एक स्वप्न चल रहा था अब दूसरा स्वप्न चल रहा है। दो घंटे पहले भी मन व्यस्त था, अभी भी मन व्यस्त है। कुछ बदला नहीं है।

ये जगना है ही नहीं। हाँ, सामान्य बुद्धि यही कहेगी — ये जग गए हैं हम। न, अतिबुद्धि जानती है कि जगे तब और मात्र तब जब याद रहा। वो जगना हमारे सामान्य सोने और जगने, दोनों से परे है। इस जगने में जगने के बाद भी, जो सामान्य जगना है उसमें जगने के बाद भी, आपको दिखाई संसार ही पड़ता है। जगने से पहले भी संसार दिखाई पड़ रहा था सपने में, और जगने के बाद भी संसार दिखाई पड़ रहा है अपनी तथाकथित जागृति में। उस जागृति में, वास्तविक जागृति में लेकिन, वास्तविक होश में लेकिन, संसार दिखता तो है पर आप संसार के हिस्से नहीं होते हो।

अगर मैं आपसे कहूँ कि इस कमरे को देखो बिना इस कमरे का हिस्सा हुए तो आपके लिए असंभव है। यदि आपको इस कमरे को देखना है तो किसी-न-किसी रूप में आपको इस कमरे का हिस्सा होना पड़ेगा। कुछ-न-कुछ आपको इस कमरे में ऐसा चाहिए जो आपको इस कमरे से जोड़े। ये हमारी साधारण जागृति है जिसमें संसार है और आप भी संसार हैं।

वास्तविक जागृति है उसमें संसार तो है पर आप संसार नहीं है; आप संसार के दृष्टा मात्र हैं।

तो प्रश्न सिर्फ़ यही है कि कहीं शामिल तो नहीं हो गया? सोने का अर्थ यही होता है — शामिल हो जाना। जब आप उसी में सम्मिलित हो जाते हैं तब आपके लिए वही सत्य हो जाता है। और जब आप दूर होते हैं, साक्षी होते हैं, तब आपके लिए जितनी विविधताएँ हैं, जितना कुछ है जो अलग-अलग है, जो चुनाव माँग रहा है, जो खींच रहा है, जो अच्छा लग रहा है, जो बुरा लग रहा है, फिर वो आपके लिए एक हो जाता है और उसका नाम हो जाता है — सपना; संसार।

अब संसार 'में' चुनाव का बहुत अर्थ ही नहीं रह जाता, कि संसार 'में' क्या चुनाव करना है? अब इसका कोई अर्थ नहीं है। अब बहुत अर्थपूर्ण सवाल ये नहीं रह जाता। अब अर्थपूर्ण प्रश्न सिर्फ़ ये रह जाता है कि क्या संसार 'का' चुनाव करना है? संसार 'में' चुनाव नहीं, क्या संसार 'का' चुनाव करना है? और याद रखिएगा संसार 'का' चुनाव करने के लिए आपको 'संसार' बनना पड़ेगा।

जगी हुई बुद्धि के पास, अतिबुद्धि के पास प्रश्न बस एक है — संसार कि सत्य? उसे और कोई चुनाव करना ही नहीं है। वो इतना ही पूछती है — संसार को चुनना है या सत्य में रहना है? और जो साधारण बुद्धि है, उसके पास तो हज़ार निर्णय हैं, हज़ार विकल्प हैं; उसे हज़ार प्रश्नों का उत्तर देना है दिन-रात, वो उलझी ही रहेगी।

यहाँ हज़ार प्रश्न नहीं हैं, यहाँ एक ही प्रश्न है — करीब हो न? सत्य के करीब हो न? या उलझ गए संसार में? वही बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया तुम्हारे लिए? जाकर के एक हो गये उससे, शामिल हो गये उसमें?

संसार अतिबुद्धि को पसंद नहीं करता, कर सकता भी नहीं है। वो उसकी हँसी उड़ाएगा, ताने मारेगा। वो कहेगा कि ये बड़ी गिरी हुई बात है। और अंदर-ही-अंदर संसार अतिबुद्धि से ख़ौफ़ खाता है। वो कहता है, ‘ये कौनसी बुद्धि है जो मुझे समूचा अस्वीकार कर देने की ताक़त रखती है? ये कौनसी बुद्धि है जो मेरे सत्य होने से इन्कार करती है? ये कौनसी बुद्धि है जो ये प्रश्न खड़ा करती है कि संसार या सत्य?’

संसार कहता है — मेरे अतिरिक्त कौनसा सत्य है? ये प्रश्न कैसा है कि संसार या सत्य?

संसार की लगातार चेष्टा यही है कि आप बड़े बुद्धिमान हो जाएँ। संसारी व्यक्ति आपके पास आएगा और वो आपको ख़ूब बुद्धि देने की कोशिश करेगा। और वो जो कर रहा है उसकी दृष्टि में वो बिलकुल ठीक है, वो आपका नुक़सान करना नहीं चाहता। और वो बुद्धि ही दे रहा है आपको, उसमें कोई शक़ भी नहीं।

वो समझाएगा, ‘देखो ऐसा करो, देखो वैसा करो। देखो, जिस रास्ते तुम चल रहे हो वो रास्ता ठीक नहीं है। ये दिक्क़त हो जाएगी, वो दिक्क़त हो जाएगी।’ वो दे तो आपको बुद्धि ही रहा है पर वो समझ नहीं रहा है कि आप निर्बुद्धि नहीं हैं। निर्बुद्धि व्यक्ति को बुद्धि देना उचित है, ये उसकी मदद है। पर जो अतिबुद्धि की तरफ़ जा रहा हो, उसे बुद्धि देना उसकी शत्रुता करने के बराबर है।

अरे! तुम किसे बुद्धि दे रहे हो, अब ये बुद्धि के तल से ऊपर की बात कर रहा है। तुम इसे वापस बुद्धि के तल पर खींच रहे हो! ये मदद नहीं हुई; तुम्हें लग रहा है तुम मदद कर रहे हो, ये मदद नहीं है।

श्रद्धा और बुद्धि दो अलग-अलग बातें नहीं हैं। वास्तविक बुद्धि श्रद्धा में ही जाग्रत होती है। श्रद्धाहीन बुद्धि सिर्फ़ कष्ट देगी। ख़ूब बुद्धि हो सकती है आपके पास, ख़ूब चतुराई हो सकती है आपके पास, बड़े-बड़े सूक्ष्म निर्णय करते होंगे आप, छुपी-छुपी बातों को खोज निकालते होंगे, बड़े विजेता होंगे, पर ये बुद्धि मन के तल पर ही रह जाएगी और मात्र संसार में ही भटकाएगी।

ये जो भी निर्णय लेगी, उस निर्णय में यही लिखा होगा कि संसार में अब इस तरफ़ को जाओ और संसार में अब उस तरफ़ को जाओ। ये बुद्धि आपको किसी ऐसे दरवाज़े तक नहीं ले जा पाएगी जो संसार से बाहर की ओर खुलता हो। तो ख़ूब घुमाएगी ख़ूब भटकाएगी, ऊँची-से-ऊँची जगह पर पहुँचाएगी, संसार के भीतर, सपने के भीतर।

सपने के भीतर ये आपको राजा बना देगी, सपने के भीतर ये आपको ऊँचे शिखरों पर चढ़ा देगी, सपने के भीतर ये आपको ख़ूब सुख देगी। आप फूले नहीं समायेंगे, सपने के भीतर। बस ये छोटी सी सीमा है इस बुद्धि की; ख़ूब देगी ये आपको, ख़ूब देगी ये आपको जब तक आप सोये हुए हैं।

और विडम्बना ये है, त्रासदी ये है कि फिर जिस क्षण आप जगेंगे उस क्षण आपको दिखाई देगा कि इसी बुद्धि ने आपका नाश किया। क्योंकि याद रखिए सपना जितना मधुर होता है, वो नींद को उतना गहरा कर देता है। ये बुद्धि ही जगने के बाद पता चलेगा कि कितनी बड़ी दुश्मन थी आपकी। मीठे-मीठे सपने दिखाती रही, आपको सफलताओं के भ्रम देती रही और इस कारण आप कभी उठ न पाए।

इससे भला तो है निर्बुद्धि होना! ख़ौफ़नाक सपना तो कभी-कभार आपको जगा भी देता है। सपना बहुत डरावना हो जाए तो नींद खुलने की संभावना है लेकिन जब सपना हो सफलता का, जब सपना हो सुमधुर, जब सपना हो पा लेने का, जब सपना हो कि ख़ूब पैसा भी कमा रहे हैं और सुन्दर परिवार खड़ा कर लिया है और समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है और मुश्किलों को रौंदते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं, जब सपना ये हो तो नींद खुलती ही नहीं। नींद खुलना चाह भी रही हो तो नहीं खुलती।

तो जब वास्तव में जगोगे तब पाओगे कि ये बुद्धि बड़ा नाश कर रही थी। श्रद्धा ही बुद्धि है। वही वास्तविक बुद्धि है। हम उसे अतिबुद्धि कह रहे हैं; वही वास्तविक बुद्धि है। लेकिन संसारी मन को वो समझ में नहीं आती; संसारी मन तो उसे बुद्धि मानने को भी तैयार नहीं होता।

संसारी मन बुद्धि तो उसे ही मानता है जहाँ चलने के तरीक़े तयशुदा हों, जहाँ निर्णयों के पीछे स्पष्ट कारण हों, ऐसे कारण जो सबको समझ में आ सकें, जो सबको समझाए जा सकें।

भक्त के पास भी कारण होते हैं पर वो कारण किसी को समझाया जा नहीं सकता। तो उसके निर्णय अकारण लगते हैं। और सामान्य बुद्धि अकारण से बड़ा घबराती है। वो कहती है वजह बता दो, क्या कर रहे हो? इसकी कोई वजह तो दे दो। वजह आप दे नहीं पाएँगे। ऐसा नहीं है कि वजह नहीं है, बहुत बड़ी वजह है, पर वजह बताई नहीं जा सकती।

वास्तविक बुद्धि, अतिबुद्धि, बेवजह बुद्धि है। वो किसी मशीन की बुद्धि नहीं है जो लॉजिक (तर्क) पर, अल्गोरिदम (कलन विधि) पर चलती हो। वो दूसरे ही आधारों पर निर्णय लेती है। निर्णय लेती है वो, पर उसके निर्णय की बुनियाद बिलकुल दूसरी होती है।

वो बुनियाद क्या है, ये जानने के लिए वो बुद्धि होनी चाहिए। दूसरा-पन रखकर और दूर खड़े होकर आप समझ नहीं पाओगे कि श्रद्धालु मन के निर्णय कहाँ से आते हैं। बड़े अटपटे लगेंगे, बड़े अजीब लगेंगे, मूर्खतापूर्ण लगेंगे।

भक्त को तो भक्त होकर ही जाना जा सकता है। एक श्रद्धालु को तो श्रद्धालु ही समझ सकता है। अतिबुद्धि की पहचान अतिबुद्धि को ही होती है।

तो आख़िर में इतना ही — मन में चलता तो रहता ही है, और हज़ार-हज़ार उलझनें, हज़ार-हज़ार सवाल, हज़ार-हज़ार चिंताएँ, हज़ार-हज़ार यादें लगी ही रहती हैं मन में; ठीक है, मन का काम है चलना, प्रकृति है उसकी चलना। चले मन, याद रखे मन, पर हज़ार बातों को नहीं, एक बात को।

मन से कहिए तुझे याद ही रखना है न, तू एक को याद रख; तुझे सवाल ही पूछने हैं न, तू एक सवाल पूछ; तुझे चिंता ही करनी है न, तू एक चिंता कर। एक चिंता कर ले, बाक़ी चिंताएँ तिरोहित हो जाएँगी। एक सवाल पूछ ले, हज़ार उत्तर मिल जाएँगे।

जिसने एक की फ़िक्र कर ली, उसे अब. . . इसीलिए तो अतिबुद्धि है न, एक की फ़िक्र करती है। हज़ार सवालों की जगह एक सवाल। ये असली होशियारी हुई की नहीं हुई? तुम उलझे हो हज़ार सवालों में, हमने कुंजी पकड़ ली है। हम तो एक पूछते हैं, हज़ार से हमें मतलब नहीं।

इसी सवाल का दूसरा हिस्सा था कि विश्वास और श्रद्धा में क्या अंतर है? अब तक समझ ही गये होगे। विश्वास वस्तु और वस्तु में भेद है, ‘इसका यकीन करूँ कि न करूँ; उसका यकीन करूँ कि न करूँ!’ श्रद्धा वस्तु से वस्तु की तुलना है ही नहीं, वो तो बस ये देखती है कि सत्य है या संसार है। उसके सामने प्रश्न ही दूसरा है।

फिर तुमने पूछा कि क्या श्रद्धा के लिए विश्वास आवश्यक है? क्या श्रद्धा और विश्वास में कोई सम्बन्ध है कि नहीं है? वास्तव में नहीं है। विश्वास, श्रद्धा तक जाने का रास्ता नहीं बन सकता। हाँ, ये ज़रूर है कि श्रद्धालु मन अविश्वासी रहता नहीं। इसका अर्थ ये भी नहीं है कि वो विश्वासी हो जाता है, पर वो अविश्वासी नहीं रहता। श्रद्धालु मन को न विश्वास से मतलब होता है न अविश्वास से मतलब होता है।

विश्वास का मतलब होता है कि हाँ, ये आदमी जो कह रहा है वो ठीक ही कह रहा होगा; ये जो चीज़ है ये बढ़िया ही होगी। अरे! क्या वस्तु और क्या व्यक्ति? जब न वस्तु है न व्यक्ति है, तो किसपर करना है विश्वास और किसपर करना है अविश्वास?

श्रद्धा एक दूसरा आयाम है। वो विश्वास नहीं है, वो एक तल ही दूसरा है। हाँ, ये मैं ज़रूर कह सकता हूँ कि श्रद्धालु आदमी को अविश्वासी नहीं पाओगे, ये पक्का है। वो संदेहों में घिरा हुआ नहीं मिलेगा, बिलकुल नहीं मिलेगा; शक़ नहीं करेगा वो बहुत। पर इसका अर्थ ये भी नहीं समझ लेना कि वो विश्वास कर रहा होगा। उसकी ज़िंदगी में संदेह नहीं हैं पर मूर्खतापूर्ण भ्रांतियाँ भी नहीं है।

उसे न विश्वास से मतलब है न अंधविश्वास से मतलब है, न मान्यता से मतलब है न धारणा से मतलब है। न वो संसार पर शक़ करता है, न वो संसार को सत्य ही मान लेता है। अरे सपने में क्या शक़ करना! सपना क्या है, सपना है, उसपर शक़ क्या करना है।

आपके सपने में एक अनजाना चरित्र आता है और आप साक्षी हो सपने के, आप सपने में भी जगे हुए हो, आप उस चरित्र पर शक़ करोगे क्या? याद रखना आप सपने के पात्र नहीं हो, आप अलग हट के खड़े हो, आप शामिल नहीं हो सपने में। सपना चल रहा है अपनी जगह, उसमें आपके नाम का भी कोई चरित्र हो सकता है अपनी जगह पर, पर आप अलग खड़े हो, आप दृष्टा हो सपने के।

आप, जो दृष्टा हो, जो साक्षी हो, क्या आप अपना साक्षीत्व रखते हुए उस व्यक्ति पर शक़ करोगे — ये असली आदमी है कि नहीं? करोगे क्या? आप जान रहे हो सपना है, अरे! सपने पर क्या शक़ करना है। इसका ये नहीं अर्थ है कि सपने पर यकीन कर लिया है। न शक़ है न यकीन है, मात्र सपना है। तो ये सम्बन्ध है विश्वास में और श्रद्धा में।

प्रश्नकर्ता: जैसे आपने कहा कि एक को साधो, “एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए।” जब हम श्रद्धा की साइड (ओर) से देखते हैं तब तो समझ आता है; हैं हम विश्वास वाले स्तर पर, श्रद्धा का अभी ज्ञान है नहीं। उस एक को भी जब कह रहे हैं, ‘एक को साध लो’, तो अभी एक विचार की तरह ही है।

अभी आप बोल रहे हो तो निसंदेह कैल्क्युलेशन्स (गणना) कर रहे हैं, उसको एनालाइज़ (विश्लेषण) कर रहे हैं माइंड (दिमाग़) में; लेकिन समवेयर (कहीं) कुछ स्ट्राइक (प्रहार) भी कर रहा है और बाद में फिर लगता है कि हाँ आ गये लेकिन फिर वही 'ढाक के तीन पात', फिर वापस वहीं पर आ जाते हैं। इसे विश्वास की तरफ़ से कैसे समझें?

आचार्य: देखो, सपने के भीतर से कोई रास्ता जागृति की ओर नहीं जाता। कोई कहे कि मैं सपने में हूँ, कोई रास्ता बताओ कि मैं सपने के भीतर से जग जाऊँ — सपने के भीतर से तुम जग नहीं सकते। तुम अगर ये चाहते हो कि विश्वास, श्रद्धा तक पहुँचने का मार्ग बन जाए तो ये हो नहीं सकता। तरीक़ा बस एक है कि तुम विश्वास-अविश्वास दोनों से हट जाओ। तरीक़ा बस एक है कि सपना टूट ही जाए।

जब तुम कहते हो कि सपने के भीतर से जगने का रास्ता बताओ, तो हक़ीक़त में तुम ये चाहते हो कि सपना टूटे न। तुम चाहते हो कि दोनों हाथ लड्डू मिला ही रहे; कि सपना भी क़ायम रहे और सपने के मध्य से सत्य तक भी पहुँच जाऊँ। वो हो नहीं सकता।

प्रश्न में ही भूल है, जब तुम कह रहे हो कि हम इस तल पर हैं कि वहाँ तो बिलीफ़ ही हैं, यकीन ही हैं, विश्वास ही हैं। उस तल पर हो नहीं, उस तल पर कुछ स्वार्थ खोज लिये हैं। उस तल पर कुछ ऐसा लगने लग गया है जो बड़ा आकर्षित करता है।

जगने का एकमात्र तरीक़ा है — जगना। एक बार हिम्मत करके जग करके देखो तो, फिर शायद अपनेआप फिसलना मुश्किल हो जाए। तो अगर तुम पूछो कि उस तल पर कैसे जाएँ, तो मैं एक ही जवाब दूँगा — उस तल पर जाकर के।

तुम पूछो कैसे न फिसलें, मैं कहूँगा, ‘न फिसल करके’। और इसको सिर्फ़ शब्दों का खेल मत समझ लेना, समझो इस बात को। जितनी बार नहीं फिसलोगे, उतनी ज़्यादा ताक़त पाते जाओगे न फिसलने की। तो न फिसल करके तुम और न फिसलने की तैयारी करते हो। जितनी बार गहरे ध्यान में जाते हो, तुम उतनी बार अपनेआप को और सामर्थ्य देते हो और गहरे ध्यान में जाने की।

तो मैं शब्दों से ही नहीं खेल रहा हूँ, मैं जो कह रहा हूँ उस बात को समझो। तुम एक बार हिम्मत बाँधो, श्रद्धा बाँधो कि नहीं फिसलना है; तुम्हारा संकल्प तुम्हारा साथ देगा कुछ समय तक, फिर हो सकता है फिसल जाओगे पर इस संकल्प के कारण तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा जाग्रत हो जाता है जो अगली बार अब आसानी से फिसलने नहीं देगा।

प्र: ये जो पहला वाला संकल्प है उसमें तो विश्वास कि ज़रूरत पड़ेगी; दूसरी, तीसरी बार तो ठीक है।

आचार्य: वो अभी है।

प्र: ये संकल्प तो विश्वास से ही होगा?

आचार्य: न, वो अभी है। अभी मुझे सुन रहे हो तो इसमें विश्वास की क्या ज़रूरत है? अभी सुन रहे हो यदि तो विश्वास की क्या ज़रूरत है?

प्र: लेकिन एक चीज़ ये है सत्य की, जो प्रश्न किया जाता है, उसमें बार-बार आता है श्रद्धा और विश्वास, इन दोनों का योग, ये कैसे संभव है?

आचार्य: देखिए, जब कहा जाए श्रद्धा, तो समझिए उस तल की बात। जब कहा जाए विश्वास, तो समझ लीजिए उसके साथ एक शब्द अभी छुपा हुआ है — अविश्वास। जैसे हम कह रहे थे सुख-दुख, जीवन-मृत्यु, वैसे ही विश्वास-अविश्वास। बिना अविश्वास के विश्वास नहीं हो सकता। विश्वास तो एक मानसिक कृत्य है।

तो जब कहा जा रहा है कि श्रद्धा भी विश्वास भी, तो मात्र इतना कहा जा रहा है — सत्य भी, संसार भी। मात्र इतना ही कहा जा रहा है कि केंद्र भी और परिधि भी। मात्र इतना ही कहा जा रहा है कि अप्रकट भी और प्रकट भी।

समझ में आ रही है न बात?

सपना तो रहेगा, हमने ये नहीं कहा कि संसार को नष्ट कर दो। हमने कहा, संसार रहे, वस्तुएँ रहें, व्यक्ति रहें, तुम अपनेआप को उसमें शामिल नहीं मानो। तुम्हारे नाम का एक चरित्र होगा उस संसार में, ठीक, तुम उससे लेकिन बाहर हो। तुम्हारा संसार से बाहर होना श्रद्धा है; तुम्हारा संसार से भीतर होना विश्वास-अविश्वास का खेल है; दोनों एकसाथ चलते रहेंगे। दोनों एक साथ चलते रहेंगे।

समझ में आ रही है बात?

प्र: सर, जैसे अब ‘अद्वैत’ कॉलेज में इंट्रोड्यूस (परिचय) हुआ था, तो मुझे एक विश्वास ही तो था कि हाँ भाई, जो बात हो रही है, मुझे नहीं पता कितनी सही है कितनी ग़लत है, लेकिन मुझे सही लग रही है, मुझे थोड़ा विश्वास है।

आचार्य: क्यों होगा वो विश्वास? क्यों?

प्र: क्योंकि मुझे थोड़ा उस टाइम पर 'अद्वैत एजुकेशन' को देख करके लगा था कि ये क्या है।

आचार्य: तुम्हारे साथ और चालीस लोग थे, उनको भी होना चाहिए।

प्र: हाँ।

आचार्य: उन्हें क्यों नहीं हो रहा? अगर विश्वास है, तो विश्वास तो कारणों पर चलता है; कारणों का प्रभाव तो कम या ज़्यादा, सब पर दिखाई देना चाहिए, उनको क्यों नहीं हो रहा था?

विश्वास तो पूर्व के अनुभवों पर, दस और कारणों पर चलता है, उनको भी होना चाहिए था न? तुम्हारा और उनका इतिहास कई मामलों में बड़ा एक-सा है, फिर इतना अंतर कैसे कि तुम्हें सहज ही विश्वास हो गया? औरों को गहरा अविश्वास हो गया।

न विश्वास न अविश्वास, ये बहुत गहरी भूल हो जाएगी अगर श्रद्धा को विश्वास से जोड़ लिया। श्रद्धा का अर्थ ये नहीं है कि यकीन करते रहते हैं। मैं फिर कहूँगा, आप श्रद्धालु आदमी को बहुत शंकाग्रस्त नहीं पाएँगे; लेकिन इसका अर्थ ये भी नहीं है कि वो विश्वासों में जीता है। वो संदेहों में नहीं जीता, ये बात बिलकुल ठीक है। उसे आप शक्की नहीं पाएँगे। पर वो ऐसा भी नहीं है कि जो सुना मान लिया। ऐसा भी नहीं है।

वो आयाम दूसरा है, वो मन की स्थिति दूसरी है, वो सवाल दूसरा है। वो सवाल ही नहीं है कि विश्वास करूँ या अविश्वास करूँ; वो सवाल है — जगा हूँ कि नहीं जगा हूँ? श्रद्धा कभी ये सवाल पूछती नहीं कि मानूँ कि न मानूँ?

तुम यहाँ बैठे हो, अगर तुम्हारे सामने अभी विश्वास का प्रश्न है, तुम अगर अभी विश्वास के तल पर ही हो, ध्यान में उतरे नहीं, तो जब मैं बोल रहा हूँ तो तुम अपनेआप से सवाल करोगे — मानूँ या न मानूँ? पर अगर तुम श्रद्धा के तल पर हो तो तुम्हारा सवाल बदलेगा; तब तुम सवाल करोगे — जगा हूँ या सो रहा हूँ? और यही सवाल सारा अंतर ला देता है।

तुम में से जो लोग यहाँ बैठ कर ये सवाल पूछते हैं कि मानूँ या न मानूँ; सुन तो रहा हूँ, मानूँ या ना मानूँ? उन्हें कुछ मिलेगा नहीं, बिलकुल कुछ मिलेगा नहीं। उन्हें हद-से-हद कुछ शब्द मिल जाएँगे। और जो व्यक्ति यहाँ बैठ करके एक ही सवाल की सुरति में हो लगातार कि जगा हूँ, कहीं सो तो नहीं गया? जगा हूँ या नहीं जगा हूँ? उसको अब यह विचार करने की ज़रूरत ही नहीं है कि मानूँ कि न मानूँ; तुम्हारा जगा होना काफ़ी है। न तुम्हें मानना है, न तुम्हें ठुकराना है।

न ये कह रहा हूँ कि मान लो, न ये कह रहा हूँ कि छोड़ दो, ठुकरा दो। न मान्यता, न अमान्यता।

श्रद्धा चीज़ दूसरी है, उसका सवाल दूसरा है। ये उसकी कंसर्न (चिंता) है ही नहीं कि ये ठीक है कि नहीं? वो वस्तु को नहीं पूछती कि ये वस्तु ठीक है कि नहीं, वो व्यक्ति को नहीं पूछती कि वो व्यक्ति ठीक है कि नहीं, वो सुने जा रहे शब्दों को नहीं पूछती कि ये विश्वास योग्य हैं कि नहीं। वो मात्र अपनी ओर देखती है कि जगा हूँ या नहीं। उसका सवाल दूसरा है, अंतर को समझो।

जगा हूँ या नहीं? उसके बाद उसको ये सवाल करना ही नहीं है कि विश्वास करूँ या नहीं? बस इतना — जगा हूँ या नहीं? ये निरंतर जागरण ही सुरति है, और कुछ नहीं है सुरति। नाम जपना किसी का सुरति नहीं है। निरंतर सतत् जाग्रत रहना ही सुरति है; यही श्रद्धा का एकमात्र सवाल है।

समझ पा रहे हो?

प्र: जगा हुआ मन है तो वो थोड़ी पूछेगा कि जगा हूँ या नहीं?

आचार्य: जब ये प्रश्न ही न उठे कि जगा हूँ या नहीं, तो बहुत बढ़िया। पर जब प्रश्न उठे तो बस यही उठे। उठ ही नहीं रहा प्रश्न तो फिर तो वैसे भी या तो बड़े आनंद की बात है या बड़ी विवशता की बात है। या तो समाधिस्थ हो या स्वप्न में खोये हुए हो। इन्हीं दोनों स्थितियों में प्रश्न उठता नहीं। तो कुछ कर नहीं सकते, छोड़ो उसको।

पर जब प्रश्न उठे तो ये उठे — जगा हूँ या नहीं। ये नहीं कि ये व्यक्ति ठीक है कि नहीं? इसकी बात मानूँ या नहीं? इस पर विश्वास करूँ या अविश्वास? ये प्रश्न महत्त्वहीन हैं।

प्र: ये प्रश्न नहीं है, बातों पर अविश्वास नहीं है, नहीं तो फिर पूछेगा ही नहीं इंसान?

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है। तुम किसी पर गहरा अविश्वास करके उससे ख़ूब सवाल पूछ सकते हो।

प्र: हाँ, वो ठीक है, ठीक है। ऐसे मैं अभी जगा हूँ या नहीं, अभी-अभी दिमाग़ में आया ये क्वेश्चन (सवाल), जब आया, उस समय कुछ ब्रेक हुआ होगा; कुछ धागा टूटा होगा उस समय, उस समय आपने कुछ पूछ भी लिया होता तो अपने से जवाब आ जाता।

आचार्य: न, न। जगा हूँ या नहीं — इसका इतनी जल्दी जवाब बेईमानी का आएगा नहीं। और यदि बेईमानी के जवाब मन देने ही लग गया है तो इशारा समझना, इसका अर्थ ये है कि अब मन की बेईमानी की ख़ूब आदत हुई है, अभ्यास दिलाया है तुमने उसे ख़ूब।लेकिन वहाँ पर भी फिर समाधान वही है कि कम फिसल करके, कम-कम फिसल करके, और कम फिसलने की संभावना बढ़ती है।

मन बेईमान होगा, झूठा उतर देगा, तुम दस बार पूछो, कब तक झूठा उत्तर देगा? हमने क्या कहा, जागृति क्या है? निरंतर जागरण। तो ये प्रश्न भी निरंतर हो; एक बार नहीं, सौ बार। कोई तुमसे झूठ बोल रहा है, उससे जब सौ बार पूछोगे, सौ बार झूठ बोलना बड़ा मुश्किल होगा।

अभी तुम अपने मन से पूछ सकते हो — तू जगा है या नहीं? और हो सकता है मन तुमसे बेईमानी कर दे, झूठ बोल दे कि जगा हुआ हूँ। अच्छा, ठीक है। थोड़ी देर में यही मन कलप रहा होगा और कष्ट में होगा, तब फिर पूछो इससे — जगा है या नहीं?

तब किस मुँह से वही मन तुमसे झूठ बोलेगा? उसके थोड़ी देर बाद मन को फिर तुम पाओगे किसी और स्थिति में घिरा हुआ, फिर उससे पूछो — जगा है या नहीं? और जितना बेईमान होगा मन, याद रखना, वो उतनी दुर्दशा में घिरा हुआ होगा, उतनी ही बार दुर्दशा में घिरा हुआ होगा, तो तुम्हें ख़ूब अवसर मिलेंगे उससे पूछने के कि जगा है या नहीं?

जितना बेईमान मन होगा उतनी बार फिसलेगा, उतनी बार चोट खाएगा। हर बार पूछो — जगा है कि नहीं? देखते हैं कितनी धूर्तता करता है; देखते हैं कितनी ठसक है उसमें, कब तक बोलेगा कि हाँ जगा हुआ हूँ।

कि जैसे कोई शराबी जिसने ख़ूब पी रखी है और तुम उससे पूछ रहे हो, ‘पी रखी है कि नहीं?’ और वो बोल रहा है, ‘नहीं पी रखी है।’ और तभी सामने पत्थर आता है और धड़ाम से गिरता है। तुम पूछते हो, ‘पी रखी है कि नहीं?’ अब थोड़ा लजा जाएगा, बोलेगा, ‘नहीं, नहीं, पी नहीं रखी है।’

दो कदम और चलेगा, बगल की नाली में गिरेगा, मुँह काला करके बाहर आया। तुमने फिर पूछा, ‘पी रखी है कि नहीं?’ और वो बड़े धीरे से फुसफुसाएगा, ‘नहीं, पी तो नहीं रखी है।’ फिर आगे बढ़ेगा, सामने से सांड आ रहा है, जा के उससे ठोकर खा के उसके सामने चित्त लेटा पड़ा है। फिर पूछो, ‘पी रखी है कि नहीं?’ अब खड़ा है सांड और मार ही देगा, अब किस मुँह से बोलेगा कि नहीं पी रखी है? बोलेगा, 'हाँ चढ़ी हुई है।'

बस ठीक! ठीक।

प्र: जगा हुआ मन भी तो होगा न पूछने वाला?

आचार्य: वो है न, वो अभी है। वो अकारण है। तुम अकारण को तलाश रहे हो, वो अभी है। वो अभी है। तुम अकारण का कारण जानना चाहते हो, तुम अकारण को पकड़ना चाहते हो, वो अभी है, वो अभी है। वो प्रस्तुत तो है।

प्र: वो है, लेकिन ख़त्म भी तो हो गया है।

आचार्य: अभी है न! अभी है। अभी जान रहे हो ख़त्म हो जा रहा है। अभी जान भी रहे हो कि ख़त्म हो जाता है, तो अभी करो न उपाय कि न हो ख़त्म। अभी में सबकुछ है, जो कुछ है वो अभी है, अभी है न! अभी होश है तो अभी करो उपाय, क्यों भविष्य की सोच रहे हो आगे क्या होगा, पीछे क्या होगा? अभी मिल गया न मौका? और सारे मौके अभी ही हैं। तो करो, इस मौके का सदुपयोग करो।

प्रश्नकर्ता २ : सर, अभी हम आपको सुन रहे हैं तो आप कुछ भी बोलते हो, वो चीज़ शायद अभी ज़िंदगी में उतरी नहीं है, पर आपसे आ रही है बात, तो उसमें कोई डाउट (संदेह) नहीं आता कि वो सही है कि ग़लत है। वही चीज़ शायद कोई और बोलेगा — तो एक बार के लिए लगता है कि सर से पूछ लेते हैं, सर से पूछ लेते हैं — वो जो विश्वास है, वो आप पर हुआ न?

आचार्य: ठीक इसीलिए वो ज़िंदगी में उतर नहीं सकती; कभी उतरेगी भी नहीं। क्योंकि तुम मुझे भी विश्वास-अविश्वास की नज़रों से देख रहे हो। जब तुम कहते हो, ‘सर कह रहे हैं इसलिए विश्वास कर लो’, तो तुमने सर को व्यक्ति बना दिया और तुम एक व्यक्ति पर विश्वास करते हो और सौ दफ़े कह चुका हूँ — मुझपर विश्वास मत करो।

मैं अगर अपना शरीर बदल करके और अपना चेहरा बदल करके और अपनी आवाज़ बदल करके तुम्हारे सामने बैठ जाऊँ और ठीक यही बातें बोलूँ तो फिर तो तुम विश्वास कर ही नहीं पाओगे। क्योंकि तुम किसपर विश्वास कर रहे हो? तुम एक शरीर पर विश्वास कर रहे हो। शरीर बदल गया, आवाज़ बदल गयी, तुम्हारा विश्वास बदल जाएगा, उड़ जाएगा। तो फिर कैसे उतरेगा ज़िंदगी में! तुमको यहाँ सिर्फ़ एक शरीर दिखाई देता है।

विश्वास या तो व्यक्ति पर होता है या वस्तु पर होता है; बोलने वाला न व्यक्ति है न वस्तु है। इसीलिए फँसते हो न।

प्रश्नकर्ता ३: सर, लेकिन जैसे होता है कि पहले तो कुछ भी नहीं पता था, कुछ भी आईडिया (विचार) भी नहीं था, फिर कुछ-कुछ बातें जो स्टार्टिंग (शुरुआत) में पता चलीं, उसकी वजह से लगता है कि हाँ, ये तो मैंने देखा है कि ज़िंदगी ऐसे चलती है, फ्यूचर (भविष्य) और पास्ट (अतीत) का जो भी आप बोलते हो, सही नहीं है लेकिन फिर आप बहुत सारी बातें करते हैं, सत्य की बात करते हैं, तब उनमें तो जब तक मैं कन्सर्न्ड (चिंतित) हूँ, मुझे लगता भी नहीं कि मैं आसपास भी हूँ बहुत सारी बातों में तो।

तो सर, जो बातें मैंने ज़िंदगी में देखा है कि ये तो हैं ही, उसकी वजह से आप पर विश्वास है। कि जो आपने पहले बात बोली, मैंने देखा कि ज़िंदगी में उतर रही है तो मुझे विश्वास हो गया, अब जो आप बोल रहे हैं जो मैंने नहीं देखी हैं. . .

आचार्य: देखो शुभंकर, मैं जितनी बातें बोल रहा हूँ, इन सबका तोड़ तुम्हें कभी-न-कभी मिल जाएगा। मैं जितनी बातें बोल रहा हूँ, उनमें से कोई ऐसी नहीं हैं जो अब्सॉल्युटली (पूर्ण रूप से) सही है। तुम अगर ख़ूब जुगाड़ लगाओगे तो तुम्हें मेरे हर वाक्य में कहीं-न-कहीं खोट मिल जाएगी।

इन रिकॉर्डिंग्स को तुम लेकर के जाओ किसी मनोचिकित्सक के पास, किसी दर्शनशास्त्री के पास, किसी यूनिवर्सिटी में साईकोलोजी के किसी एच.ओ.डी . के पास, या किसी धर्म गुरु के पास ले जाओ; वो इनमें हो सकता है खोट निकाल दें।कुछ तथ्य ऊपर-नीचे हो सकते हैं, कुछ शब्द ऊपर-नीचे हो सकते हैं; निश्चित रूप से कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ. . .

तो तुम अगर ये कह रहे हो कि तुम इसीलिए सुन पाते हो मुझे क्योंकि मेरी बातें तुम्हें अभी ठीक लग रही हैं, तो याद रखना जल्दी ही मेरी बातें तुम्हें ग़लत भी लगेंगी। क्योंकि उनमें खोट तो है ही। तुम अगर अभी बातों से ही उलझे हुए हो तो जल्दी ही तुम्हें मुझसे निराशा होने लगेगी।

तुम कहोगे, 'नहीं-नहीं-नहीं, मैं बच्चा था तो मुझे शुरू-शुरू में लगा इनकी बातें ठीक हैं, पर अभी मुझे ये नया अनुभव हुआ है, ज़िंदगी ने नया रंग दिखाया है। और अब मुझे दिखाई दे रहा है कि इनकी बातों में यहाँ पर ये कमी थी।' बातें कब पूरी होती हैं! बातों में क्या दम कि वो पूर्णता हासिल कर लें। बातों में तो हमेशा खोट रहेगी।

यहाँ अगर तुम इस दृष्टि से बैठते हो कि इनकी बात सुनो और अगर वो अपने अनुभव से मेल खाती है तो उसपर विश्वास कर लो, तो तुम जल्दी ही धोखा खाओगे। और धोखा खाकर भी तुम ये न कहोगे, ‘मैंने धोखा खाया’; तुम कहोगे, ‘इन्होंने धोखा दिया।’

यहाँ बैठ करके मैं तुम्हें बातें नहीं दे रहा हूँ। कि तुम यहाँ पर आते हो हर रविवार कि मैं तुम्हें तरह-तरह की बातें बताऊँ। हम बतोड़े लोग हैं क्या कि बातों में व्यापार चल रहा है। यहाँ तुम अगर आ रहे हो तो वो इसलिए है ताकि कुछ उपाय हो सके कि मन को इधर से, उधर से, ढकेल करके किसी प्रकार मौन की ओर ले जाया जा सके जो एकमात्र सम्यक आसन है उसका।

मेरी रुचि इसमें है ही नहीं कि मैं तुम्हें सही-सही बातें बताऊँ; क्योंकि सही बात कोई होती भी नहीं है। ऊँची-से-ऊँची बात आख़िरकार बात ही तो है और बात की क्या औकात! कितनी भी ऊँची उड़ ले, 'बात' क्या रहेगी? बस ‘बात’।

मेरी रुचि है मन के उपचार में, कि इधर से धक्का दो, उधर से धकेलो, इधर से दबाओ, उधर से थोड़ा तोड़ो, कि वो शांति की ओर जा सके, मौन की ओर जा सके।

अच्छा किया तुमने ये बोल दिया कि तुम मेरी बातों को सुन-सुन के उनका अनुभवों से मिलान कर रहे थे; फिर तो तुम निराशा की ओर बढ़ रहे थे। एक दिन तुम आते और कहते, ‘सर, आप तो बड़ा कपट करते हैं। आपने फ़लानी बात बोली थी पर वो तो ठीक नहीं थी। आपने फ़लाना तथ्य उद्धृत किया था, हमने इंटरनेट पर खोजा, जाँच की, और पाया कि आपने कहा था सोलह प्रतिशत और तथ्य है पच्चीस प्रतिशत।’

हो सकता है, बिलकुल हो सकता है। पर न मेरी सोलह प्रतिशत में रुचि है, न पच्चीस प्रतिशत में रुचि है, मेरी तुम्हारे उपचार में रुचि है। अगर सोलह का पच्चीस करके तुम्हारा उपचार होता है, तो ज़रूर होना चाहिए। अनुभवों से मिलान मत करना।

प्र ३: अभी आपने बोला ‘मन की शांति’, तो कॉलेज में था तो दिमाग़ एकदम ही भसड़ से भरा हुआ; कुछ नहीं आ रहा दिमाग़ में, टेंशन ही टेंशन , फिर देखा ख़ुद, अटेंशन में जाने की कोशिश करी, तो शांति आने लग गई, उस शांति से थोड़ा विश्वास आया कि हाँ भाई, बेकार की बातें — मतलब वही जो आपने बोला, 'बात' नहीं बोल सकते, लेकिन वो जो चीज़ है कि आपको लगता है आपके ज़हन में बैठ रही है, लेकिन फिर एक तल, जैसे बहुत सारे तल होते हैं, उसमें आप इस तल की बात कर रहे हैं, मैं इस तल पर हूँ, वो दिमाग के एक कांसेप्ट (अवधारणा) की तरह।

आचार्य: तुम इस तल पर हो नहीं, सौ बार कह रहा हूँ। अभी जब मुझसे बात कर रहे हो, ये क्षण ही एकमात्र सत्य है। कहाँ हो? किस शुभंकर की बात कर रहे हो — जो कॉलेज में होता है या जो मौजूद है?

प्र: जो मौजूद है।

आचार्य: यही शुभंकर एकमात्र सत्य है। वो कहाँ है — यहाँ नीचे वाले तल पर या ऊपर वाले? तुम कौन हो? तुम अपनी मन में बैठी हुई अपनी छवि, अपने ही प्रति अपनी ही स्मृति हो, या तुम वो हो जो हो अभी?

प्र ३: मैं जो अभी हूँ।

आचार्य: तो फिर किस तल की बात कर रहे हो? तुम किन कल्पनाओं में खोये हुए हो? अभी पूरी तरह हो जाओ मौजूद, अभी पूरी तरह जग जाओ — बस ये काफ़ी है, तुम्हें और कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं है। जितना अभी जगे हुए रहोगे, तुम्हारे लिए उतनी ज़्यादा संभावना रहेगी भविष्य में भी जगे रहने की। पर अभी जगने का अर्थ ही होगा भविष्य में शामिल न होना।

भविष्य क्या है? मन की हलचल। हम शामिल नहीं हैं उसमें। अभी ज़रा उससे दूर खड़े हो जाओ, दृष्टा बन जाओ उसके। जो लोग बार-बार कहते हैं कि इस कमरे में तो ध्यान लग जाता है, पर इसके बाहर नहीं लगता, तो क्या विधि अपनायें बाहर कि ध्यान लगा रहे?

मैं कहता हूँ उनसे बार-बार — ज़्यादा महत्त्वपूर्ण ये है कि इस कमरे में ध्यान गहरा करो; बाहर तुम फिसलते ही इस कारण हो क्योंकि जब तक यहाँ हो तब तक भी ध्यान में नहीं थे। जो यहाँ गहरे ध्यान में चला गया उसके बाहर फिसलने की संभावना अब न्यूनतर होती जाएगी। तुम बाहर समस्या देख रहे हो, समस्या बाहर नहीं है, समस्या अभी है, यहाँ है।

प्रश्नकर्ता ४: सर, सामान्यतया तो हम द्वैत में ही जीते हैं विश्वास-अविश्वास में, लेकिन कभी-कभार हमें ये लगता है कि सेल्फ़ डिसेप्शन (आत्म-प्रवंचना) भी हो सकता है कि श्रद्धा आ रही है क्योंकि वो बड़ी स्टेबल (स्थिर) वाली कंडीशन (स्थिति) होती है, तो ये श्रद्धा है या केवल विश्वास ही है?

आचार्य: मेरे उत्तर पर क्या करोगे, विश्वास कर लोगे? श्रद्धा भी हो सकती है, विश्वास भी हो सकता है, तुम्हारे मन के ऊपर है, तुम्हारा मन कैसा है। श्रद्धा का और विश्वास का किसी और से क्या लेना-देना? तुम्हारे मन के ऊपर है। फिर पूछो कि एक व्यक्ति यहाँ बैठता है, वो कैसे मौन की ओर बहने लगता है और दूसरे व्यक्ति में अभी भी हलचल क्यों मची रहती है?

तो उसका फिर एक ही उतर है — प्रार्थना नहीं करी होगी तुमने! समर्पित हो नहीं तुम! श्रद्धा तो क्या अर्जित करोगे, वो तो प्रसाद होती है। सौ बार बैठो, सौ यत्न कर लो, सौ व्याख्यान सुन लो, अगर लाभ नहीं हो रहा है तो इसका मतलब है कि बिना प्रार्थना किये बैठ जाते हो। बिना प्रार्थना किये विश्वास तो कर सकते हो, श्रद्धा का फल नहीं पाओगे।

प्राथी हुए बिना जो बैठ गया, अभी वो यही सोच रहा है कि मुझे करना है। विश्वास तुम्हारा होता है, श्रद्धा थोड़ी तुम्हारी होती है। पर तुम सवाल भी ऐसे ही कर रहे हो — श्रद्धा करें कि विश्वास करें? विश्वास कर सकते हो। जैसे हथौड़ा चला सकते हो, जैसे जॉगिंग (धीमी दौड़) कर सकते हो, वैसे ही विश्वास कर सकते हो। श्रद्धा कैसे करोगे?

करके दिखाओ श्रद्धा, कैसे करते हो? हाथ से करते हो, पाँव से करते हो? सोच-सोच के करते हो, जोड़-जोड़ के करते हो, घटा-घटा के करते हो, कैसे करते हो श्रद्धा? करके दिखाओ। ‘ आए ऍम श्रद्धाइंग।’ कैसे की जाती है?

पायी जाती है अपनेआप को ये अनुमति दे करके कि सिर झुके, प्रार्थना में झुके, समर्पण में कटे। जब अपनेआप को तुम ये अनुमति देते हो कि खड़े हो जाओ और कह दो कि ऐसे तो बस हार-ही-हार है, जीवन हारों की श्रृंखला भर है, उस क्षण वो ज़मीन तैयार होती है जिसपर श्रद्धा का फल लग सकता है; उस क्षण वो कान तैयार होते हैं जो मौन को सुन सकते हैं। नहीं तो फिर तो शब्दों को सुनते रहो, तोलते रहो, जाँचते रहो।

एक बात भूलना नहीं — निर्णय तो तुम्हारा ही है। इस चक्कर में मत रहना कि कोई गुरु-वुरु या कुछ, और कोई आकर के कोई तुम्हारी मदद कर सकता है। कृष्णमूर्ति बिलकुल बिलकुल ठीक कहते हैं — कोई गुरु नहीं है।

गुरु है भी तो वो बड़ा बेचारा होता है, आख़िरी और पहली, दोनों अनुमति तो तुम्हें देनी है। कौन गुरु? कैसा गुरु? ज़रूरत ही नहीं, छोड़ो। अनुमति तो तुम्हें देनी है न, गुरु खटखटा भी सकता है तो दरवाज़ा कौन खोलेगा, तुम्हीं तो खोलोगे। सिर झुक सके — ये अनुमति तुम्हें देनी है। राजा तुम हो, स्वतंत्रता तुम्हारी है। तुम उत्सुक नहीं हो, तुम तैयार नहीं हो, तुम्हारा अभी मन है और तलवार चलाने का, तो फिर हो गया।

कोई ये कहा ही न करे कि हम इस तल पर हैं, उस तल पर हैं; हम तो अभी बच्चे हैं। इन सारी बातों से बेईमानी की बू आती है। तुम किसी तल-वल पर हो नहीं, तुम उस तल पर बैठे रहना चाहते हो। तुम अपनेआप को अनुमति ही नहीं दे रहे हो उस तल से कहीं और होने की।

कोई कहे, ‘देखिए आप वहाँ से बात करते हैं, हम ज़मीन पर बैठ के सुनते हैं।’ न मैं आसमान में हूँ न तुम ज़मीन में हो, हम दोनों बस अपनी-अपनी इच्छित जगह पर हैं। मुझे जहाँ की इच्छा है मैं वहाँ हूँ, तुम्हें जहाँ की इच्छा है तुम वहाँ हो। तो बेचारगी का ढोंग न करो।

‘मुझे तो कुछ पता नहीं है।’ ‘मुझे तो पजामा बाँधना भी नहीं आता।’ ‘मैं तो लल्लू हूँ।’

लल्लू-पल्लू कुछ नहीं हो, चालाक हो। ये अलग बात है कि चालाकी ही लल्लूपन है। पर हो तुम चालाक! और कितना अच्छा तरीक़ा मिलता है, 'सर, आप तो वहाँ पर हैं, हम तो यहाँ पर हैं।' पता नहीं कहाँ पर हूँ, मुझे तो नहीं पता, तुम्हारे सामने ही हूँ।

चढ़ा दो बिलकुल चने के झाड़ पर! और उसके बाद ख़ुद अब मुक्त हैं, अब पार्टी करते हैं। ‘स्वामी जी को आश्रम छोड़ आओ, उसके बाद हम पार्टी करते हैं।’ घरों में देखा है न, स्वामी जी पधारे हैं उनको तो आश्रम छोड़ आओ — आप महान हैं, आप तो खजूर के पेड़ के ऊपर रहेंगे, वहाँ जाइए, वो आपकी जगह है, आप इतने ऊँचे हैं। तो उनको आश्रम छोड़ करके आओ। और उसके बाद आओ ज़रा घर में. . .

ये है तुम्हारी साज़िश। तुम क्या पार्टी करोगे, पार्टी हम करते हैं। तुम सोच रहे हो हमें आश्रम छोड़ करके आओगे।

पांडेय जी, ईमानदारी पहली और आख़िरी चीज़ है, सवाल-जवाब से कुछ नहीं होता। आख़िरी निर्णेता तो आप ही हैं; पहले भी आप ही हैं। आप ख़ूब जानते हैं, असली बात आपको भी पता है। आपसे ज़्यादा मुझे कैसे पता हो सकती है।

और बड़ी बातें कोई होती नहीं है कि पाँच-सौ करोड़ के घपले में ईमानदारी दिखा दी। ज़िंदगी तो छोटी बातों पर ही चलती है; छोटे-छोटे क्षण। घूम-फिर करके जितनी बातें हैं वो आपकी हैं, आपके लिए हैं, आपका जीवन है, आपके निर्णय हैं, सबकुछ आपका है। मन आपका, जीवन आपका। आपकी आंतरिक ईमानदारी के अलावा कुछ और नहीं है जो आपकी मदद कर सकता हो।

वो जो आंतरिक ईमानदारी है न वही आंतरिक गुरु होता है, उसी का नाम 'आत्मा' है। उसको पा लिया तो सब ठीक है, नहीं तो क्या, कुछ भी नहीं। और जिसके पास वो ईमानदारी नहीं, वो बेकार ही जीवन! व्यर्थ। दूसरे के सामने स्वांग करते रहो कि हम बड़े साफ़ हैं, कि सीधे हैं, कि ऐसे हैं कि वैसे हैं; दिल जानता है तुम्हारा, सब जानता है। बड़े मुमुक्षु हैं — मन अच्छे से जानता है।

प्लेन एंड सिंपल आनेस्टी एंड आनेस्टी इन स्माल थिंग्स बिकॉज़ देअर आर नो बिग थिंग्स, देअर आर स्माल मोमेंट्स एंड स्माल इवेंट्स। (सीधी-सादी ईमानदारी और छोटी-छोटी बातों में ईमानदारी क्योंकि कोई बड़ी चीज़ नहीं होती, छोटे-छोटे क्षण और छोटी-छोटी घटनाएँ होती हैं।)

हम इतने बेईमान हैं, अपने प्रति इतना झूठ बोलते हैं अपने से ही कि हैरत होती है कि हमसे बड़ा हमारा और कोई दुश्मन है क्या? जितना झूठ हम किसी से नहीं बोलते, उससे ज़्यादा झूठ हम अपनेआप से बोलते हैं।

मन से बड़ा दुश्मन और कोई नहीं है मन का। और फिर हमें चाहिए मोक्ष!

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें