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लेख
भजन, ध्यान की श्रेष्ठ विधि || आचार्य प्रशांत (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: ध्यान की तीन बेहतरीन विधियाँ हैं। हज़ारों हो सकती हैं, इसमें ये तीन सर्वश्रेष्ठ हैं। पहला — जप; जप का अर्थ है दोहराना, रिपिटिशन , ताकि भूलें नहीं, लगातार याद रहे, कोंस्टेंट रिमेंबरेन्स (सतत स्मरण)। लगातार नाम लिया जाता रहे, लगातार नाम लिया जाता रहे।

दूसरा, इस बात को बड़े विनीत भाव से स्वीकार करना कि मैं कुछ भी कर लूँ, मन में चलते तो ख़याल ही रहते हैं। जब हम जेन कहानियाँ कर रहे थे तो तुम्हें याद होगा कि एक कहानी थी कि एक साधक एक जेन गुरु के पास जाता है और कहता है कि मेरे मन में अब कुछ नहीं है। अब क्या करूँ? तो गुरु कहता है कि इसको फेंक दो, इस ‘कुछ नहीं’ को भी फेंक दो।

तो हमारा मन कुछ ऐसा विचित्र है कि उसके लिए ‘कुछ नहीं’ भी एक ख़याल है, शून्य वो हो नहीं पाता। इस बात को बड़े विनम्र भाव से जो स्वीकार न करे, जो इस धोखे में रहे कि नहीं, मन तो खाली हो गया है, वो अपनेआप को ही धोखा दे रहा है।

विचार मन में चलते ही रहते हैं, चलते ही रहते हैं, उसका स्वभाव है। कभी सूक्ष्म, कभी स्थूल, पर उसमें कुछ-न-कुछ भरा अवश्य रहता है। तो जब भरा रहता ही है, तो ये जो दूसरी विधि है, ये कहती है कि जब भरा हुआ है — और मन में जो भी भरा रहेगा उसका एक रूप और आकार होगा ही, तो कहती है ठीक है, हमें जिसको याद करना है, जो अरूप है, जो निराकार है, हम उसको भी रूप और आकार दे के याद कर लेंगे। माना कि जो परम सत्य है उसका कोई रूप नहीं हो सकता, उसका कोई आकार नहीं हो सकता, पर मैं करूँ क्या, मैं बेबस हूँ। मेरे मन में तो हमेशा रूप और आकार ही चलते रहते हैं।

और जो लोग ये दावा करते हैं कि निराकार, अरूप, फॉर्मलेस, नेमलेस की वो उपासना करते हैं, वो अपनेआप को धोखा ही देते हैं। क्योंकि जैसे ही तुम शब्द का प्रयोग करोगे, किसी भी शब्द का, तुम ये भी कहो ‘निराकार’, तो तुमने उसको एक आकार दे दिया। निराकार कहने में भी एक आकार है। जैसे ही तुम कहो कि वो हर जगह मौजूद है, वैसे ही तुमने उसको एक सीमा दे दी। क्योंकि हर जगह भी तुम्हारे लिए एक सीमित जगह ही है। तुम्हारे लिए हर जगह का मायना भी उतना ही है जितना तुम्हारे दिमाग़ में समा सकता है, मतलब सीमित है।

तो तुम कितना भी बोल लो, तुम बोल दो कि वो पूर्ण है, पूरा है, तुम बोल दो वो पहला है, तुम बोल दो वो शून्य है, तुम जो भी कुछ बोल रहे हो, तुम उसको नाम और आकार तो दे ही रहे हो, विचार तो चल ही रहा है। ये कहने में भी कि उसका कोई नाम नहीं हो सकता, तुमने उसको नाम दे दिया। ये कहने में भी कि उसका कोई आकार नहीं हो सकता, तुमने उसको आकार दे दिया। ये कहने में भी कि कोई जगह नहीं हो सकती, तुमने उसको जगह दे दी।

तो जो आदमी इस बात को जान जाता है कि है तो वो निराकार, पर मन मेरा हमेशा आकार ही देता रहता है, वो फिर इस कमज़ोरी को इस्तेमाल कर लेता है। वो कहता है ये मेरे मन की कमज़ोरी नहीं है, ये वस्तुस्थिति है, ये मन का स्वभाव है। मैं इससे लड़ नहीं सकता। वो कहता है, ‘हाँ, मैं इसको प्रयोग ज़रूर कर सकता हूँ। मैं इसको इस्तेमाल कर लूँगा।’

वो कहता है, ‘ठीक है, मैं अमूर्त को मूर्त के थ्रू (माध्यम से) याद कर लूँगा। मैं मूर्त को माध्यम बना लूँगा अमूर्त तक पहुँचने का।’ मूर्त मतलब जिसका रूप है, ठीक है? ये हुई दूसरी विधि। पहली विधि थी बार-बार दोहराना। दूसरी विधि थी मूर्त रूप देकर के दोहराना। और तीसरी विधि का नाम है संगीत। तीसरी विधि है संगीत।

संगीत से अर्थ है प्रकृति की चाल। प्रकृति के ही हैं सब सुर-ताल। जब मन प्रकृति के साथ अपनी चाल मिला लेता है, तब वो एक ऐसी सहज स्थिति में आ जाता है जिसमें विचार नहीं उठते। यही संगीत का राज़ है।

संगीत का राज़ यही है। जब आपके कानों में संगीत की लहर आती है तब विचार रुक जाएँगे। और संगीत जितना ज़्यादा प्राकृतिक होगा, जितना प्रकृति के क़रीब होगा, आप पाएँगे शांति उतनी गहरी है, विचार उतने ज़्यादा रुक गये हैं। विचारों का रुकना ही ध्यान है। विचारों का रुकना ही मन की शांति है। तो संगीत को स्पष्ट ही है कि ध्यान की एक विधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

जब इन तीनों को मिला दिया जाए — बार-बार दोहराना, मूर्त रूप देना और संगीत में ढालना; जब इन तीनों विधियों को मिला दिया जाए तो जो विधि उभर के आती है उस विधि का नाम है भजन। भजन में ये तीनों ही इकट्ठे सामने आते हैं हमारे। तो भजन बड़े ध्यान से, बड़ी समझ से विकसित की गयी एक विधि है। भजन जो है वो किसी के सुरूर में निकली हुई, कोई आकस्मिक, बेढंगी चीज़ नहीं है। भजन की पूरी-पूरी प्रक्रिया है। भजन बड़ी समझ से और बड़ी नज़ाकत से विकसित की गयी एक विधि है। उसका अपना पूरा एक विज्ञान है। और उस विज्ञान से जो टेक्नीक (तकनीक) निकलती है, उसका नाम है भजन। कोई अगर गा रहा है मस्त होकर के तो उसको ये न समझा जाए कि वो बेहोश हो गया है। सच तो ये है कि वो इतना होशमंद है कि किसी-न-किसी तल पर वो समझ रहा है कि ये प्रक्रिया मुझे ध्यान में ले जा रही है। हो सकता है वो इन शब्दों में, विचारों में व्यक्त न कर पा रहा हो लेकिन एक गहरे तल पर उसको ये अनुभव है कि ये जो मैं कर रहा हूँ, ये मेडिटेशन है, ये मुझे ध्यान में ले जा रहा है।

भारत ने इस विधि को विकसित किया। जब ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में सूफ़ी भारत के संपर्क में आये तो कीर्तन की जो पद्धति यहाँ चलती थी, वो वहाँ क़व्वाली बन गयी। कीर्तन ही क़व्वाली बना। बस क़व्वाली में एक विधि थी जो पूर्णतया नहीं प्रयुक्त हुई।

हमने कहा कि भजन तीन विधियों के संयोग का नाम है: पहली जप, माने दोहराना, दूसरा मूर्त रूप देना और तीसरा संगीत। चूँकि इस्लाम निराकार को पूजता है इसीलिए मूर्त रूप देने को सूफ़ियों ने कभी स्वीकार नहीं किया। तो क़व्वाली में कभी भी आप अल्लाह के रूप-रंग की चर्चा नहीं पाएँगे। इस एक बात को अलग कर दें तो कीर्तन और क़व्वाली में कोई अंतर नहीं है। एक ही दोनों का प्रयोजन है, एक ही विधि है, पूरी-पूरी टेक्नॉलजी (तकनीक) दोनों की एक ही है, कोई अंतर नहीं है।

बस इतना ही है कि जब मीरा गाएँगी तो वो कृष्ण की आँखों की, कृष्ण की मुरली की, कृष्ण के मोरपंख की, इन सबकी बात कर डालेंगी। रूमी गाएँगे तो ऐसा नहीं करेंगे। वो हद-से-हद ‘तुम’ शब्द का इस्तेमाल कर लेंगे। 'कोई है!' पर उसके आगे वो नहीं कहेंगे। उसको वो और मूर्त रूप नहीं देंगे।

आज हम देखेंगे इन विधियों को, भजन को। जब उनको देखें तो ये होश बना रहे कि ये कोई साधारण गाना-बजाना नहीं चल रहा है। ये कोई मनोरंजन नहीं चल रहा है। ये पूर्णतया वैज्ञानिक विधि है जो आपको ध्यान में ले जाने के लिए विकसित की गयी है, बहुत सोच-समझ के, बड़े ध्यान से। ये बात स्पष्ट रहेगी?

जितनी समझ के साथ आप इनको देखेंगे, उतना आपमें भाव और गहरा होगा। ठीक है? और जितना समझ के साथ आप इसमें उतरेंगे, उतना ये स्पष्ट होगा कि एक-एक शब्द बस संयोगवश नहीं है, उसका बड़ा प्रयोजन है। बिलकुल ठीक-ठीक स्थान है उसका भजन में, यूँही नहीं डाल दिया गया। और तब आप एक-एक शब्द को ठीक से समझ पाएँगे, उसका इशारा किधर को है वो जान पाएँगे और सब स्पष्ट हो जाएगा।

याद रखिएगा, अगर भजन में दोहराव है, एक ही पंक्ति बार-बार दोहरायी जा रही है तो वो इसलिए है ताकि आप दोहराव के चक्र से बाहर निकल सकें। अगर वहाँ पर मूर्त की बात हो रही है, तो इसलिए है ताकि आप अमूर्त को देख सकें। अगर वहाँ संगीत है, शब्द है तो इसलिए है ताकि आप मौन की ओर जा सकें।

तो एक विधि है, विधि में मत उलझकर रह जाइएगा। हर विधि अपने से आगे की ओर का एक इशारा होती है। वो विधि कभी अच्छी नहीं हो सकती जो आपको अपने में उलझा ले। संगीत अच्छा नहीं हो सकता अगर आप गाते ही रह गये। संगीत तभी अच्छा है जब आप अंततः मौन हो जाएँ। दोहराना अच्छा नहीं हो सकता अगर आप दोहराते ही रह गये। दोहराव तभी अच्छा है जब दोहराते-दोहराते अचानक आप इस दोहराव के चक्र से बाहर निकल जाएँ। समझ गये?

तो पूरे ध्यान के साथ इसमें प्रवेश करेंगे, समझेंगे कि बात क्या है। फिर देखिएगा, मज़ा आता है कि नहीं। ठीक है!

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