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लेख
आत्मज्ञान कैसे हो? || आत्मबोध पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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बोधोऽन्यसाधनेभ्यो हि साक्षान्मोक्षैकसाधनम्। पाकस्य वह्निवज्ज्ञानं विना मोक्षो न सिध्यति॥

जैसे बिना अग्नि भोजन नहीं पकता, इसी तरह बिना ज्ञान मोक्ष संभव नहीं है। अन्य सभी संयमरूपी साधनों की तुलना में आत्मज्ञान मोक्ष का साक्षात् साधन है।

—आत्मबोध, श्लोक २

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आदि शंकराचार्य जी इस श्लोक में सभी संयमरूपी साधनों की तुलना में आत्मज्ञान को मोक्ष का साक्षात् साधन बता रहे हैं। आचार्य जी, आत्मज्ञान क्या होता है, उसे कैसे प्राप्त किया जाता है और उससे हमारे जीवन में कैसे सुधार आता है? स्पष्ट बताने की कृपा करें, धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: शंकराचार्य कह रहे हैं, “बाक़ी सब साधन एक तरफ़, मोक्ष का साक्षात् साधन है आत्मज्ञान।”

क्या है आत्मज्ञान?

आत्म माने 'मैं'। हम जीते जाते हैं, कर्म करते जाते हैं बिना कर्म की पूरी प्रक्रिया को ग़ौर से देखे। कर्म हो रहे हैं, कर्म कहाँ से हो रहे हैं, कर्मों के पीछे क्या है, कर्मों का कर्ता कौन है, इस पर ग़ौर करने की हम न ज़रूरत समझते हैं, न हमें अवकाश मिलता है, क्योंकि कर्मों की अविरल श्रृंखला है, एक के बाद एक कुछ-न-कुछ हो ही रहा है। बीच में कोई अंतराल आता नहीं जब आप बैठ करके, रुक करके, ठहरकर देख पाएँ कि जो कुछ हो रहा था, वह क्या हो रहा था।

जीवन कुछ ऐसा है कि वह आपको लगातार व्यस्त ही रखे है, उलझाए ही हुए है, जीवन सरिता लगातार गतिमान है। कुछ-न-कुछ नया लगातार आपके सामने आ ही रहा है। कोई-न-कोई चुनौती आपके सामने है। कोई पल ऐसा नहीं है जिसने आपको छुट्टी दे दी हो कि अभी कोई दायित्व नहीं, अभी कोई लंबित देयता नहीं। हमेशा कोई-न-कोई बात अधूरी है, कुछ-न-कुछ समस्या बनी ही हुई है।

तो नतीजा यह है कि घटनाएँ लगातार घट रही है और आप उन घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने के लिए विवश हैं। क्या प्रतिक्रिया दे रहे हैं आप, आपको यह समझने के लिए अलग से वक़्त नहीं मिल रहा। आप सभी के जीवन में ऐसे दिन आए हैं न जब एक के बाद एक चुनौती या समस्या या काम खड़ा होता रहता है? और कई बार तो एक ही समय पर कई लंबित काम सामने होते हैं, ऐसा हुआ है?

और जो कुछ हो रहा है, वह बड़े अनायोजित तरीके से हो रहा है। आपको पहले से पता नहीं था कि दोपहर दो बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी और दोपहर साढ़े तीन बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी, आप नहीं जानते थे। बस एक के बाद एक लगातार प्रवाह में स्थितियाँ बदलती जा रही हैं और आप आबद्ध हैं उनमें से हर स्थिति को जवाब देने के लिए, कोई प्रत्युत्तर देने के लिए, प्रतिक्रिया करने के लिए। तो जीवन हमारा ऐसे बीतता है। क्या हुआ, किसने किया, अच्छा किया, कि बुरा किया, जो हो रहा है, वह कैसे हो रहा है, इस पर हम ग़ौर नहीं कर पाते।

आत्मज्ञान का मतलब होता है ठीक तब जब जीवन की गति चल रही है, आप इस बात के प्रति जागरूक हो जाएँ कि आप बिना उस गति को रोके भी उस गति से बाहर हो सकते हैं। प्रकृतिगत गति चलती रहती है और आप उस गति के मध्य भी शून्य और शांत हो सकते हैं। जब आप उस गतिशीलता से दूर होकर, बाहर होकर खड़े हो जाते हैं तो आपको दिखाई देने लग जाता है कि यह चल क्या रहा है—चलना माने गतिमान होना—यह ग़लती किसकी है, कौन कर रहा है, यह हरकतें कौन कर रहा है, यह काम पर किसने डाला —यह आत्मज्ञान है।

तो आत्मज्ञान तो फिर बड़ी सीधी-सरल बात हुई। आत्मज्ञान का मतलब हुआ चलती हुई चीज़ पर नज़र रखना। क्या चल रहा है? प्रकृति का सतत् बहाव चल रहा है। आपको नज़र रखनी है। यह क्या हो गया उस बहाव में? अभी-अभी मुँह से शब्द निकल गया, उस शब्द के पीछे कौन था? शब्द के पीछे तीन हो सकते हैं – प्रकृति, अहम्, परमात्मा। आत्मज्ञान का मतलब है पता हो कि कहीं पहले दो तो नहीं थे। पहले दो में भी अगर पहला था तो कोई बात नहीं। आपके मुँह से ध्वनि निकले तो वह आपकी डकार हो सकती है न? अगर आपके मुँह से डकार निकली है, तो कर्ता कौन है? प्रकृति।

यह वैसी-सी बात है कि बादल गरजे, ध्वनि हुई, गरजने वाला कोई नहीं था। किसी के संकल्प से गर्जना नहीं हुई है। आपके शरीर में भी बहुत कुछ चलता रहता है जो प्रकृतिगत है। वह वैसा ही है जैसे कोई पेड़ से पत्ता झड़े। आपके पेट में भोजन पक रहा है, इसमें आपका कोई संकल्प नहीं शामिल है; यूँ ही हो रहा है। तो इस कर्म का कर्ता कौन है? प्रकृति। आपके पेट में भोजन पच रहा है, अभी कर्ता कौन है? प्रकृति। जिस चीज़ की कर्ता प्रकृति हैं, हमने जान लिया कि उसकी कर्ता प्रकृति है। और आप भोजन ग्रहण क्या कर रहे हैं, इसका कर्ता कौन है? इसका कर्ता अहम् हो सकता है, अधिकांशत: अहम् ही होता है।

बहुत कम लोग होते हैं जो प्रकृति के अनुसार भोजन ग्रहण करें। ज़्यादातर लोग भोजन ग्रहण करते हैं अहम् के अनुसार। और ऐसे लोग जो परमात्मा के अनुसार भोजन ग्रहण करें, वो और भी कम होते हैं। तो नब्बे प्रतिशत लोग भोजन ग्रहण करते हैं अहम् के अनुसार, नौ प्रतिशत लोग भोजन ग्रहण करते हैं प्रकृति के अनुसार, और होंगे एक प्रतिशत या उससे भी कम जो भोजन लेते हैं परमात्मा के अनुसार।

आत्मज्ञान का मतलब हुआ कि आपको साफ़ पता हो कि कर्म के पीछे कौन है। यह अभी जो आपने निवाला भीतर डाला, वह शरीर की माँग थी? अगर शरीर की माँग थी, तो कर्ता कौन हुआ? प्रकृति। वह अहम् की माँग थी अगर, तो कर्ता हुआ अहम्—या कि ‘रूखी सूखी खाई के ठंडा पानी पी, देख पराई चोपड़ी ना ललचावे जी’, अब कर्ता कौन है? परमात्मा। यह आत्मज्ञान है। मैं जो कर रहा हूँ, उसके पीछे कर्ता कौन है, यह पता कर लो —यही आत्मज्ञान है।

बुरी-से-बुरी बात है अगर तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है अहंकार। उससे श्रेष्ठ बात है कि तुम जो कर रहे हो, उसकी कर्ता है प्रकृति। लेकिन प्रकृति भी अगर कर्ता है तो यह कोई आखिरी बात नहीं हो गई; इससे यही पता चला कि अब तुम अब दानव नहीं हो, पशु हुए। श्रेष्ठतम बात तब है जब तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है परमात्मा। तुमने छोड़ दिया अपने-आपको, कहा ठीक है। यह आत्मज्ञान है – अपने कर्मों को जानना, अपने विचारों को देखना कि यह जो विचार आ रहा है, यह कहाँ से आ रहा है।

जैसे खाने के निवाले का पता चल सकता है न कि तुमने जो भोजन सामने रखा है, वह क्यों चुना है, वैसे ही अगर ग़ौर से देखो तो अपने सूक्ष्म कर्मों का अर्थात् विचारों का भी पता चल सकता है कि कहाँ से आ रहे हैं विचार —यही आत्मज्ञान है। और जो कुछ भी है तुम्हारे भीतर, मैं फिर दोहरा रहा हूँ, उसका स्रोत इन्हीं तीनों में से कुछ होगा – या तो प्रकृति या अहम् या परमात्मा। यह आत्मज्ञान है।

और याद रखना आत्मज्ञान का मतलब यह नहीं होता कि तुम आत्मा को जान गए; आत्मा के ज्ञान को आत्मज्ञान नहीं कहते। आत्मज्ञान का बस यह मतलब है – अहंकार का ज्ञान। वास्तव में जब कर्ता परमात्मा होता है तो उसको जानने वाला भी कोई बचता नहीं है। जब भी तुम जान पाओगे तो यही जान पाओगे कि कर्ता या तो प्रकृति है या अहंकार है। समझ लो आत्मज्ञान एक रडार है जिस पर दो ही तरह की ब्लिप आती हैं, या तो प्रकृति या अहंकार। परमात्मा है, इसका पता किस बात से चलता है कि रडार कि स्क्रीन ख़ाली है, उस पर कुछ ब्लिप आ ही नहीं रही है।

जब आत्मज्ञानी को कुछ न पता चले तो इसका मतलब है कि अभी आत्मा ही व्याप्त है, अभी आत्मा अहम् से परिच्छिन्न नहीं हुई। जब भी कुछ पता चलेगा, तो यही पता चलेगा कि कुछ गड़बड़ है। रडार ने कभी यह बताया कि सब ठीक है? रडार तो अधिक-से-अधिक यही बता सकता है कि गड़बड़ कहाँ-कहाँ हैं; देखो, यहाँ ब्लिप है, यहाँ ब्लिप है। सब ठीक सिर्फ़ तब होता है जब रडार कुछ न बताए। तो जब आत्मज्ञानी को कुछ पता न चले, तब समझ लो कि सब ठीक है, तब समझ लो कि अब आत्मा का राज्य चल रहा है क्योंकि अभी कुछ पता ही नहीं चल रहा, अभी आत्मज्ञानी अनुभव से शून्य है, अभी उसके रडार पर कुछ नहीं चमक रहा, अभी तो बस निष्कलुष, निर्विकार आत्मा है। रडार पर तो विकार ही चमकते हैं, आत्मा निर्विकार है तो रडार ख़ाली है।

मैं जो कर रहा हूँ, वह कहाँ से आ रहा है, यही जानना आत्मज्ञान है। और आत्मज्ञान भी श्रेष्ठतम तब है जब जो हो रहा है, उसको होने के क्षण में ही जान लिया जाए। करने को तुम यह भी कर सकते हो कि बीती घटना का अवलोकन करो और फिर तुम्हें पता चले कि जो तुमने करा, वह क्यों करा था। वह भी है आत्मज्ञान की ही एक श्रेणी, पर वह निचली श्रेणी हैं। उससे भी लाभ होगा, पर बहुत कम लाभ होगा। आत्मज्ञान से ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ तब होता है जब तत्क्षण आत्मज्ञान हो जाए। भय उठ रहा है और तुम्हें भय के क्षण में ही पता चल जाए कि भय कहाँ से आ रहा है।

प्र२: जब भय उठ रहा है तो शुरुआत में ही देखें या जब वो परिपक्व हो जाए तब?

आचार्य: अगर तुमने यह निर्णय कर ही लिया तो इसका मतलब कि तुमने शुरू में ही देख लिया। तुम कह रहे हो कि जब भय आ रहा है तो जब आ रहा है तभी देख लें या जब पास आ जाए तब देखें। यह निर्णय भी तुम तभी कर सकते हो ना जब तुमने उसको दूर से ही देख लिया हो। और जब दूर से देख ही लिया तो अब क्या उसकी उपेक्षा करने के लिए आँख बंद करोगे? अब तो दिख ही गया। अब क्या इस सिद्धांत का हवाला दोगे कि नहीं आचार्य जी ने बताया था कि दूर से मत देखना, जब पास आ जाए तब देखना।

अरे, दूर है दिख गया तो दिख ही गया। जो घटना जब घट रही है तभी देखोगे न। जब दूर है तो देख लोगे कि अभी दूर है, जब पास आ जाए तो देख लो कि पास है। और उसमें अच्छी बात यह है कि जब दूर है, जब छोटा है, जब अभी तुम पर हावी नहीं हुआ है, तुम उसे अगर तभी जान लो तो उसके हावी होने की संभावना कम हो जाएगी।

आत्मा की अनुकंपा से आत्मज्ञान होता है। आत्मज्ञान कभी आत्मा को जान नहीं सकता, पर आत्मज्ञान की घटना सिद्ध करती है कि आत्मा है। क्योंकि आत्मा क्या? जो अचल है, और ज्ञान सदा किसका हो रहा है? जो चलायमान है। चलायमान का ज्ञान हुआ तो इसी से सिद्ध हो गया कि कहीं कुछ अचल तो है। और जो अचल है उसी का नाम आत्मा है। तो आत्मज्ञान आत्मा का नहीं होता लेकिन आत्मज्ञान के होने से यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा है। आत्मा ना होती, आत्मा की कृपा ना होती तो आत्मज्ञान कैसे होता!

प्र३: यही गुण तो साक्षी में होता है।

आचार्य: आत्मा साक्षी है। असाक्षी का कोई ज्ञान नहीं हो सकता पर साक्षी की अनुकंपा से ही समस्त ज्ञान होता है।

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