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लेख
अर्जुन के समक्ष तो युद्ध था, हमारे लिए स्वधर्म क्या? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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श्रीभगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।

श्रीभगवान् बोले – जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि अथवा क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक १

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। उपरोक्त श्लोक में श्रीकृष्ण ने करने योग्य कर्म की बात कही है। इसी तरह अध्याय ३ के श्लोक ३५ में कहा है कि दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से श्रेष्ठ है अपने स्वधर्म का पालन करते हुए मर जाना।

करने योग्य कर्म या स्वधर्म क्या है? क्या इसका निर्धारण व्यक्तिगत होता है?

आचार्य प्रशांत: सुंदर प्रश्न है। पहली बात, कहा गया है कि योगी वो है जो कर्मफल का आश्रय लिए बिना करने योग्य कर्म करता है। उसी बात को और समझाते हुए कहा कि अग्नि का त्याग कर दो या क्रियाओं का त्याग कर दो तो इतने भर से योगी नहीं हो जाओगे।

अग्नि या क्रियाओं का त्याग करने से क्या अर्थ है? लोग हुआ करते थे, मान्यताएँ होती थीं, समुदाय होते थे जो अग्नि का त्याग कर देते थे। इस अर्थ में कि अपना खाना-पीना नहीं बनाएँगे, भिक्षु हो जाएँगे। इसके अतिरिक्त अग्नि के त्याग करने का अर्थ राजसिकता का त्याग करना भी होता था। भीतर जो आंतरिक अग्नि रहती है, अब उसमें स्वयं को पचने नहीं देंगे।

तो एक मत, एक सोच थी ऐसी कि जिसने अग्नि का त्याग किया, वो योगी हुआ। इसी तरह दूसरे लोग थे जो मान्यता रखते थे कि अगर कुछ दैहिक या सांसारिक क्रियाओं को छोड़ दिया तो आप योगी हो जाओगे। जैसे किसी ने कहा कि विवाह नहीं करेंगे, किसी ने कहा कि व्यापार नहीं करेंगे, किसी ने कहा कि शब्दों का त्याग कर देंगे, वाक् व्यवहार नहीं करेंगे, किसी ने किसी प्रकार के भोजन आदि पर अपने लिए निषेध लगा दिया। ये सब स्वयं को जीतने के विविध उपाय हुआ करते थे। और ज्ञात होता है कि उस समय में इन उपायों के प्रति कई लोगों की बड़ी मान्यता थी।

तो श्रीकृष्ण को नाम लेकर ही, सीधे-सीधे उदाहरण लेकर ही बताना पड़ रहा है कि भाई, वो सब तरीके एक सीमा तक तो उपयोगी हैं, पर उनमें से कोई भी तरीका, किसी भी क्रिया या कर्म के त्याग से सम्बंधित कोई भी विधि तुमको योगारूढ़ नहीं कर देगी। तुम्हारी थोड़ी-बहुत तो सहायता हो सकती है, पर उससे अंत तक नहीं पहुँच पाओगे। ठीक है?

ये बताना अर्जुन को कदाचित इसलिए ज़रूरी है क्योंकि अर्जुन की भी कुछ निष्ठा किसी एक क्रिया के त्याग में दिखाई दे रही है। कौन सी क्रिया? युद्ध। तो जैसे बहुत लोग थे, कहते थे कि इस चीज़ का त्याग करो, उस चीज़ का त्याग करो, ये क्रिया छोड़ो, फलाना कर्म छोड़ो, और ये सब छोड़-छाड़कर तुम बन जाओगे योगी। प्रचलन था इस धारणा का।

वहीं से, उसी सीध में, उसी तल पर अर्जुन भी कह रहे हैं कि मैं भी अगर एक क्रिया छोड़ दूँ तो योगी न हो जाऊँगा। कृष्ण वो रास्ता ही बंद करे दे रहे हैं, कह रहे हैं कि उसकी कोई संभावना नहीं। अग्नि छोड़ो, जल छोड़ो, ये क्रिया छोड़ो, वो क्रिया छोड़ो, इससे योग सिद्ध नहीं होने वाला। अन्य कुछ निम्नतर लाभ होते हों तो हों, लेकिन योग तो नहीं।

तो फिर क्या सिखा रहे हैं अर्जुन को कि योग सिद्ध कैसे होगा? वो कह रहे हैं, “कर्मफल का आश्रय लिए बिना जो करने योग्य कर्म कर रहा है, वो योगी।” सुंदर शब्द हैं, मुझे प्रिय रहे हैं – ‘अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:’। ‘अनाश्रितः कर्मफलं’, इतना ही याद रह जाए तो बहुत है।

बात में आगे जाएँगे, थोड़ा गहराई से समझेंगे। प्रश्नकर्ता पूछ रहे हैं कि तीसरे अध्याय के पैंतीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि दूसरे के कर्तव्य का अर्थात दूसरे के कर्म का अनुसरण करने से श्रेष्ठ है स्वधर्म का पालन करते हुए मर जाना। फिर पूछा है कि करने योग्य कर्म क्या है फिर, क्योंकि वो जो सब प्रचलित विधियाँ थी, वो जो सब आम तरीके थे, उनको तो श्रीकृष्ण ने नकार ही दिया।

पूरी गीता में एक-एक करके, एक-एक करके जितनी भी आम जनमानस में प्रचलित धारणाएँ हैं, श्रीकृष्ण काटते जा रहे हैं, और उन सबको काट करके अर्जुन के हाथ में क्या छोड़ रहे हैं? कह रहे हैं, “तू स्वधर्म का पालन कर। तू करने योग्य कर्म कर, तभी तू योगी कहलाएगा, तभी तू सन्यासी कहलाएगा – ‘स सन्यासी च योगी अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:’।"

तो कर्मफल का आश्रय न ले करके कौन सा कर्म है जो करना है? ये स्वधर्म क्या है जिसके लिए कृष्ण कहते हैं कि जान ही दे दो? और पूछा है साथ में कि क्या ये जो स्वधर्म है, ये व्यक्तिगत रूप से निर्धारित होता है? व्यक्तिगत होता है, अर्थात सबके लिए अलग-अलग होता है क्या? सुंदर प्रश्न है, समझते हैं।

हम कर्म क्यों करें? हम कुछ भी क्यों करें? कुछ तो नित्य शारीरिक कर्म होते हैं। श्रीकृष्ण से पूछेंगे तो कहेंगे कि उनको तुम कर्म मानो नहीं, अकर्म हैं वो, यांत्रिक, दैहिक गतिविधियाँ हैं। उनको कर्म कहने का कोई प्रयोजन नहीं क्योंकि वो तुम्हारी बिना किसी चैतन्य सहमति के होती हैं। सांस लेने के लिए आपको बार-बार ‘हाँ’ नहीं बोलना होता। कोई निर्णय, किसी तरह की सहमति या विरोध सम्मिलित ही नहीं है श्वास की या पाचन की क्रिया में। ये सब अपने-आप होता रहता है, तो इनको तो हम कहेंगे ही नहीं कि कर्म हैं।

कर्म वो जहाँ पर व्यक्ति के पास करने, न करने का विकल्प मौजूद हो। तो मैं पूछ रहा हूँ, “हम कर्म क्यों करें?” जो काम बिल्कुल ही शारीरिक तल के हैं, वो तो अपने-आप हो रहे हैं। बाकी हम जो भी कुछ कर्म इत्यादि करते हैं, वो हम क्यों करें? क्यों करें? बोलो। जो भी काम शरीर के लिए है, सिर्फ़ और सिर्फ़ मात्र शरीर के लिए है, वो काम अधिकांशतः अपने-आप हो जाते हैं।

मनुष्य सविकल्प, सनिर्णय जितने काम करता है, वो अधिकांशतः मन के लिए होते हैं, शरीर के लिए नहीं। हमें मन को शांति देनी है, हमें अपनी क्षुब्ध चेतना को शांति देनी है, इसलिए हम कर्म करते हैं।

अब अगर आपको अपनी अशांति को एक सतही शांति देनी है तो अपनी अशांति का जो सतही और तात्कालिक कारण हो, उसको खोज लीजिए और उसका उपचार कर दीजिए, जैसा कि ज़्यादातर लोग करते हैं। आप मेरे साथ चल रहे हैं?

हम समझना चाह रहे हैं कि हम कर्म क्यों करते हैं। हमने कहा कि हम कर्म इसलिए करते हैं क्योंकि हमारा मन अशांत और बेचैन रहता है। बाकी सब कर्म जो शरीर के लिए होते हैं, उन्हें कर्म की श्रेणी में रखना ही उचित नहीं है। उनको हटा दें।

अर्जुन को युद्ध करना है या नहीं करना है, इसका निर्धारण इस आधार पर नहीं होना है कि अर्जुन को खाने-पीने को मिलेगा या नहीं। वो मुद्दा ही नहीं है। युद्ध होगा या नहीं होगा, इसका निर्धारण एक मानसिक समस्या है, शारीरिक समस्या नहीं है। तो हम जो कर्म करते हैं, वो मन की शांति के लिए करते हैं; हमारी चेतना व्याकुल है इसलिए हम कर्म करते हैं।

अब चेतना की जो ये आकुलता है, इसका सदा कोई तात्कालिक और सतही कारण मौजूद दिखता है। ठीक है? आप सड़क पर जा रहे हैं चलते-चलते और किसी से आपका कंधा ज़रा रगड़ गया और उससे बहस में उलझ गए, बात मारपीट तक चली गई। इस पूरी घटना का आप अगर कोई सतही कारण ढूँढना चाहें तो वो तो मिला हुआ है। क्या है वो कारण? भाई, एक आदमी आया, उसने मुझे कंधा मारा और फिर लड़ाई हो गई।

आपने अगर यही कारण ढूँढा है तो फिर निवारण भी बड़ा सीधा और सस्ता है। जिसने तुमको परेशान किया, तुम उसको परेशान कर दो या पीट दो। बदला ले लो, काम हो गया। एक ये तरीका है मन की व्याकुलता का इलाज करने का कि जो तात्कालिक कारण दिख रहा हो, उसी को असली कारण मान करके, उसी को मूल कारण मान करके उससे भिड़ जाओ। ये तरीका अध्यात्म का नहीं है, ये दुनियादारी का तरीका है।

एक दूसरा तरीका होता है। दूसरा तरीका कहता है कि मैं इस आदमी से नहीं भी भिड़ा होता तो क्या कम परेशान था मैं। ये जो अभी कहा-सुनी हुई है, इसने तो सिर्फ़ मेरे आंतरिक द्वंद को, कोलाहल को, उथल-पुथल को दर्शा दिया है, नहीं तो परेशान तो मैं था ही। परेशान नहीं होता तो इतनी सी बात पर कोई किसी से मारपीट कर लेता है क्या कि कंधा रगड़ गया?

ये व्यक्ति जिसने कह दिया कि मेरी परेशानी का कारण ये प्रत्यक्ष प्रतीत होने वाली घटना नहीं है, मेरी परेशानी का कारण कुछ और है, इस व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा अब शुरू हो गई।

सांसारिक आदमी वो है जो अपने हाल के लिए सामने की किसी भौतिक घटना को या प्रभाव को ही ज़िम्मेदार मानता है। आध्यात्मिक आदमी वो है जिसे दिख गया कि बाहरी घटनाएँ बाहरी ही हैं। वो ऐसा एहसास भर देती हैं जो उनके कारण कुछ हो रहा हो, वो कारण नहीं है। कारण बाहर है ही नहीं, जहाँ घटनाएँ हैं, कारण वहाँ है ही नहीं। घटनाएँ सब बाहर हैं लेकिन घटनाएँ कारण नहीं हैं, कारण अंदर है।

कारण अंदर है, घटना बाहर है। घटना भीतर के कारण को उद्वेलित करने का ज़रिया भर बन रही है; घटना अपने-आपमें कारण नहीं है। जब ये निष्कर्ष आपके सामने आता है, इसकी आहट भी जब आपको पता चलती है तो शांति भी मिलती है और परेशानी भी। बड़ी बौखलाने वाली बात है, क्योंकि तब तक हमें बड़ी सुविधा थी जब तक हमें अपने दुःख का, अपनी बेचैनी, अशांति का कारण बाहर की किसी घटना को मान रखा था। तब तक हमें बड़ी सुविधा थी। क्या सुविधा थी?

मुझे इसने परेशान किया। मुझे इसने परेशान किया तो मेरी परेशानी दूर कैसे होगी? उसको सीधा कर दूँगा, उसको ठीक कर दूँगा, उसको मिटा दूँगा, उससे दूर चला जाऊँगा, कुछ भी। उस बाहर वाली घटना से सम्बंधित मैं कोई समाधान भी निकाल लूँगा, कोई बाहरी समाधान। बड़ी सुविधा थी।

लेकिन जैसे ही समझ में आया कि भाई, बात बाहर की है ही नहीं। मेरी परिस्थितियाँ कैसी भी रहती हैं, मेरे भीतर तो शोर मचा ही रहता है। मैं शांत घाटी में भी चला जाता हूँ, मैं बंद कमरे में भी हो लेता हूँ, मैं मंदिर के पावन माहौल में भी बैठ लेता हूँ, मैं सोने चला जाता हूँ, मैं तो पाता हूँ कि तब भी भीतर उपद्रव चल ही रहा है। इसका मतलब बात बाहर की नहीं है, कुछ और बात है।

मैं पूरा संसार ही द्वार से बाहर कर देता हूँ। मैं कहता हूँ कि सब बाहर निकलो। कमरे का दरवाज़ा बंद, मैं सोने जा रहा हूँ, तो मेरे सपनों में दंगे शुरू हो जाते हैं। अब तो बिल्कुल ही ज़ाहिर, एकदम ही स्पष्ट हो गया कि बात बाहर की है नहीं।

जिस आदमी को ये दिख गया कि भीतर की बेचैनी का इलाज बाहर की ओर ज़ोर आज़माइश करके नहीं होना है, उसकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो गई।

और भूलिएगा नहीं, हमने किस प्रश्न से शुरुआत करी है। हम कह रहे हैं कि हम कर्म करते ही क्यों हैं। तो जब तक आपको ये लग रहा है कि आपकी सामने खड़ा व्यक्ति, या राष्ट्र, या समुदाय, या व्यवस्था, या समाज या परिस्थिति है, तब तक आपका कर्म किसकी तरफ़ प्रेरित रहेगा? आपका निशाना किधर को रहेगा? बाहर की ओर। आप कहोगे कि इसको हरा दूँ, इसको जीत लूँ, वो बदल दूँ, यहाँ से वहाँ पहुँच जाऊँ। कुछ आप करते रहोगे इस तरह से। और जो कुछ आप करोगे, वो हमेशा सप्रयोजन होगा। साफ़ दिखाई देगा कि ये करना है।

मेरी परेशानी का इलाज ये रखा है। अभी-अभी मैंने फैसला करा है कि मेरी परेशानी का इलाज ये तौलिया है। तो अब मैं कर्म क्या करूँगा? मैं इस तौलिया को उठाकर यहाँ रखना चाहूँगा (थोड़ी दूर पर)। ये कर्म हमेशा सकाम सप्रयोजन कर्म होगा। मुझे इस कर्म का निश्चित फल चाहिए ही चाहिए। होगा न?

मतलब समझिए। सकाम, सप्रयोजन कर्म आप कर ही तब सकते हैं जब आपने अपने से बाहर कोई लक्ष्य बनाया हो, जब आपने दुनिया में कुछ पाने का इरादा किया हो, तब तो बहुत आसान है काम के परिणाम को पहले से ही तय कर लेना। करना भी चाहिए, भाई। आप ज़मीन पर चलते हैं कहीं पहुँचने के लिए तो आप ये सब तय करके चलते हैं कि कितना ईंधन लगेगा, कितना पैसा लगेगा, कितना समय लगेगा, क्या वाहन करेंगे, है न? ये सब तो तय करके चलते हैं न?

आप भीतर जाने लगे। आप कहने लग गए कुछ मेरे ही भीतर ऐसा है जो मुझे परेशानी में रखे हुए है। आप और भीतर गए, और भीतर गए। ये यात्रा है, चल रही है। और फिर आप वहाँ पहुँचे, जहाँ आपको दिखाई दिया कि यहाँ से सारी गड़बड़ शुरू हो रही है। सब दिक्कत का कारण ये बिंदु है। अब आप क्या कर्म करोगे? क्या कर्म करोगे? आप अपने ही मन के भीतर उस जगह पर पहुँच गए हो जहाँ दिख रहा है कि जितनी भी गड़बड़ हो रही है, उसकी वजह ये बिंदु है। अब आप क्या करोगे?

हम विचार कर रहे हैं कि मुनष्य कर्म करे ही क्यों। तो अब आप पहुँच गए हो अपने भीतर उस जगह तक जहाँ से सारा उत्पात शुरू होता है। अब आपके लिए क्या कर्म शेष रह जाता है? उसी बिंदु को समूल उखाड़ देना है। यही है न? बस इसमें एक बात जोड़े देता हूँ कि जिस बिंदु को समूल उखाड़ देना है, उस पर आप ही का नाम लिखा हुआ है।

तो मैं अपने भीतर पहुँचा अपने गुनहगार की तलाश करने के लिए और बड़ी खोज के बाद अंततः पहचान लिया मैंने, पकड़ लिया उसको, भागा जा रहा था, पीछे से उसके कंधे पर जकड़ लिया उसको। और धक्का देकर ज़ोर से घुमाया उसे और चेहरा देखा उसका, तो उसका चेहरा बिल्कुल था मेरा ही चेहरा। वो जो परेशान कर रहा है मुझे, वो मैं ही हूँ।

तो अब कर्म क्या करना है? कर्म क्या करना है? वही जो आपका अपराधी है, आपका दोषी है, उसको मिटाना है। यही तो कर्म है, क्योंकि कर्म शुरू ही किसलिए किया था हमने? क्योंकि हम परेशान हैं। वो मिल गया जो हमें परेशान कर रहा है, तो ज़ाहिर सी बात है कि कर्म क्या करना है। उसको हटाना है। उसको हटाया जा सकता है, हटाना चाहिए भी। बात सीधी लगती है, एक छोटा सा पेंच है बस। पेंच क्या है? उसको हटा दिया तो हटाने के बाद जो ये बेचैनी से राहत मिलेगी, उस राहत को भोगेगा कौन?

किसी भी कर्म का कुछ फल होता है न। इसको (तौलिया को) मैंने अपने सामने से हटा दिया, इसको अपनी परेशानी की वज़ह समझकर। तो हटाने के बाद मुझे जो भी शांति मिली थोड़ी-बहुत, उस शांति को भोगा किसने? 'मैं' ने। किसने? 'मैं' ने भोगा। भीतर जाकर पता चला अशांत करने वाला ही कौन था? ‘मैं’। तो चलो 'मैं' को हटा दिया। मिलती होगी कोई शांति 'मैं' को हटाने से, पर उसे भोगेगा कौन? कोई नहीं।

इसीलिए श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि बेटा, कर्मफल भोगने की तुमने इच्छा की तो असली कर्म कभी कर नहीं पाओगे, क्योंकि असली कर्म तुमसे कीमत ही यही माँगता है कि जब उसका परिणाम आएगा तो उसको भोगने के लिए तुम नहीं बचोगे। अगर कर्म का परिणाम भोगने के लिए तुम बचे हुए हो तो माने कर्म ही नकली है। कुछ ऊपर-ऊपर का काम कर दिया। असली कर्म है ही वो जो कर्ता को मिटा दे। जब कर्ता मिट गया तो कर्मफल भोगेगा कौन? क्योंकि कर्ता ही तो भोक्ता होता है।

तो वो फिर कह रहे हैं, ‘अनाश्रितः कर्मफलं’। कर्मफल भोगने की नीयत से असली काम नहीं कर पाओगे। असली काम इस नीयत से नहीं कर पाओगे कि इसका जब मीठा, सुंदर और गौरवपूर्ण अंजाम आएगा तो हम उस अंजाम को देखेंगे, निहारेंगे और श्रेय लेंगे।

असली काम का अंजाम देखने के लिए तुम बच नहीं सकते, क्योंकि असली काम है ही अपने-आपको मिटाना। उसका अंजाम देखने के लिए तुम कैसे बचोगे? अगर तुम बचे रह गए तो असली काम हुआ ही नहीं।

वो काम ही यही था कि जो बैठा हुआ है कर्मफल का भोक्ता बनने के लिए, मज़े लेने के लिए, उसको हटा दो, क्योंकि मज़े लेने के लिए ही वो कितनी गड़बड़ियाँ करता है और फिर दुःख का भागी बनता है। उसको हटा दो। ये समझ में आ रही है बात कुछ?

अब ये बात तो हो गई सैद्धांतिक तल पर। ये होता कैसे है, वास्तव में कैसे होता है? जगत व्यवहार में ये कैसे परिलक्षित होता है? ये जो भीतर 'मैं' बैठा होता है न तुम्हारा गुनहगार, जिसने तुमको परेशान कर रखा है, सबको परेशान कर रखा है, ये यूँ ही नहीं भीतर बैठ गया। वास्तव में ये भीतरी है ही नहीं। ये कहना चाहो तो कह लो बाहरी है और कहना चाहो तो कह लो कि मिथ्या है। पर ये अपना नहीं है, निजी नहीं है, आत्मिक नहीं है, आंतरिक नहीं है।

कभी-कभी समझाने वाले कह देते हैं कि ये तुम्हारा नहीं है, बाहरी है और कभी-कभी कह देते हैं कि मिथ्या है, काल्पनिक है। पर एक बात पक्की है कि इधर का तो नहीं है, अंदर का तो नहीं है। तो कहाँ से आया? वहीं से आया जहाँ से हमारा सब कुछ आया। ये शरीर, ये कपड़ा-लत्ता, ये भ्रम, ये मान्यताएँ, ये भाषा, ये ज्ञान हम कहाँ से इकट्ठा करते रहते हैं? दुनिया से न? क्योंकि उधर से ही हमको बड़ा कारोबार है, लेना-देना है। तो वहीं से ये 'मैं' भी आया है। ये 'मैं' कहाँ से आया है? ये अहम् कहाँ से आया है? ये दुनिया से ही आया है।

जो दुनिया से न आए, श्रीकृष्ण से आप पूछेंगे तो कहेंगे उसका नाम ‘आत्मा’ है। अहम् दुनिया से ही आया है। और हमने कहा है कि सही कर्म है अहम् को मिटाना। साथ चलिएगा मेरे। बात नाज़ुक है, पीछे मत छूटिएगा। सही कर्म है 'मैं' को मिटाना। और ‘मैं’ पूरी तरह सम्बंधित किससे है? दुनिया से। भीतर से कहीं से वो उठ नहीं रहा। वास्तविक तौर पर जो भीतर होती है, जो हार्दिक होती है, उसको आत्मा कहते हैं। उससे अहम् नहीं उठता।

तो अहम् अगर बाहरी प्रभावों का निर्माण है तो अहम् को मिटाने के लिए कर्म भी क्या करना पड़ेगा? कुछ बाहरी, कुछ भीतरी। जो कुछ बाहर ऐसा है कि भीतर की एक नकली सत्ता को पोषण देता है, उसको बदलना पड़ेगा। और जो कुछ भीतर ऐसा है कि बाहर के व्यर्थ प्रभावों को सोखने के लिए तैयार रहता है, उसका शमन करना पड़ेगा, उसका उन्मूलन करना पड़ेगा। ये दो काम करने पड़ेंगे।

हम समझना चाह रहे हैं कि सही कर्म क्या है। इंसान क्या करे जीवनभर? क्योंकि ‘क्या काम करना चाहिए?’, इसी प्रश्न को लेकर लोग सालों तक, दशकों तक उलझे रहते हैं। कई बार वो अपना पूरा जीवन बिता देते हैं और उनको ये स्पष्ट नहीं हुआ होता है कि वो सही काम कर रहे हैं कि नहीं, उन्होंने जीवनभर सही काम करा कि नहीं। तो बहुत महत्व का है ये प्रश्न।

सही कर्म क्या है? तो सही कर्म, हमने कहा, शुरू ही होता है अपनी परेशानी, अपनी समस्या को देख करके। अगर आपने अपनी समस्या ही सतही तौर पर देखी तो ज़ाहिर सी बात है कि आप उसका सतही इलाज भी ढूँढ लेंगे। और दुनिया में सतही इलाज बहुत मिल जाते हैं। भाई, भीतर बेचैनी रहती है। आपने अगर कह दिया कि मेरे भीतर बेचैनी इसलिए रहती है क्योंकि मैं पैसे कम कमा रहा हूँ, तो आप अपनी इस बेचैनी का सतही इलाज ढूँढ लेंगे। क्या इलाज ढूँढ लेंगे? कि जाओ थोड़े ज़्यादा पैसे देने वाली नौकरी कर लो। आप कहोगे कि देखो, मैंने काम बदल लिया, कर्म बदल लिया।

ये जो हम काम बदलते हैं, धंधे बदलते हैं, नौकरियाँ बदलते हैं, इन सबके मूल में चेष्टा यही रहती है न कि चैन मिल जाए, थोड़ा अपने बारे में कुछ बेहतर महसूस हो? यही रहती है न? तो समस्या क्या थी मूल की? अपने-आपको ले करके कुछ झंझट था, उहापोह थी। हमने तुक ये बैठाया कि मैं जो भीतर से सूना रहता हूँ, खाली रहता हूँ, परेशान रहता हूँ, उसकी वज़ह है पैसों का अभाव। ये हमने भीतर-भीतर एक तर्क दिया है अपने-आपको कि मैं जो उलझा और मुरझाया हुआ रहता हूँ, उसकी वजह ये है कि मेरे पास पैसे कम हैं साहब।

अच्छा, ठीक है। ये तुमने बड़े होशियारी का तर्क निकाला कि तुम्हारी इस हालत की वज़ह ये है कि तुम्हारे पास पैसे कम हैं। तो जब तुमने ये डायग्नोसिस करा, ये निदान है तुम्हारा, तो फिर तुम समाधान क्या निकलोगे? तुम कहोगे कि मैं कहीं और चला जाता हूँ जहाँ ज़्यादा पैसे कमाऊँगा, उससे चैन मिल जाएगा। लो, हो गया। सस्ता इलाज हो गया। और इस सस्ते इलाज का अंजाम वही होगा जो हर सस्ते इलाज का होता है — तुम्हारी समस्या हल तो होने से रही, बल्कि और गहरा जाएगी।

तो हमने कहा कि जो व्यक्ति वास्तव में गम्भीर होता है, अपने प्रति ईमानदार होता है, सिंसियर होता है, जो कहता है कि मुझे वाकई पता करना है कि मैं परेशान क्यों हूँ और मुझे वाकई उस परेशानी का समाधान निकालना है, वो दुनिया में जितनी भी जगह उसको कोशिश करनी है, करते रहने के साथ-साथ ये देखता रहता है कि इन सबसे हो क्या रहा है। ये इधर-उधर तमाम जगह मैं आज़माइश कर रहा हूँ, इससे क्या हो रहा है?

और अगर ज़रा भी प्रतिभा है उसमें, ज़रा भी मेधा है, ज़रा भी उसकी दृष्टि में तीक्ष्णता है तो उसको दिखने लगता है कि बाहर उलट-पुलट करने से एक सीमा तक ही लाभ हो रहा है, उससे ज़्यादा लाभ नहीं हो रहा है। तो फिर हमने कहा, वो किधर की यात्रा शुरू करता है? भीतर की। वो कहता है कि मैं पता तो करूँ कि मेरे भीतर ही तो नहीं बैठी कहीं बेचैनी?

भीतर भी ऐसा नहीं कि एक झटके में ही वो केंद्रीय परेशानी तक पहुँच जाएगा। भीतर की यात्रा भी समय लेती है। परत-दर-परत अपने-आपको उघाड़ना पड़ता है। लेकिन अगर आप वाकई सत्यनिष्ठ हैं और गम्भीर हैं समाधान पाने के लिए तो देर-सवेर आप उस बिंदु तक पहुँच ही जाते हैं जहाँ समस्या बैठी हुई है। हमने कहा कि उस बिंदु पर आप ही का नाम लिखा हुआ है। हम ही हैं वो।

तो सही कर्म ये है कि अपनी समस्या को मिटाओ। वरना कोई कर्म करने की ज़रूरत क्या, आराम करो। अगर कोई समस्या ही नहीं है तो कर्म क्यों करो आप? क्या ये बात सीधी नहीं है? अगर कोई समस्या न हो किसी को तो किसी कर्म की ज़रूरत है? आराम करो। जो शारीरिक नित्य कर्म है, वो तो होते ही रहेंगे। वो तो पशु-पक्षी भी कर ही लेते हैं। दाना चुग लो, खालो-पीलो, सो जाओ।

हम अधिकांशत: कर्म, हमने कहा शरीर के लिए नहीं करते, मन की बेचैनी से परेशान होकर करते हैं। ये जो पूरी दुनिया में इतना कुछ हो रहा है, इसलिए थोड़े ही हो रहा है कि शरीर चलता रहे। शरीर तो बड़ी आसानी से चल गया होता, यूँ ही चल गया होता। ये सब कुछ मन के लिए हो रहा है।

तुम 'मैं' पर पहुँचे और पता चला कि परेशानी भीतर बैठी है। अब उसको हटाना है। पर अगर आप भीतर पहुँचे हैं और इतनी योग्यता आपने दिखाई है, इतनी यात्रा आपने पूरी करी है, तो आपको ये अनुभव भी हो ही गया होगा कि ये जो मन है, उसमें जो 'मैं' है, वो भीतरी है ही नहीं, वो तो बाहर से आ रहा है लगातार।

तो अब हमने कहा कि फिर सही कर्म ये हुआ कि बाहर से जिन श्रोतों से भीतर ये प्रदूषण और प्रभाव पहुँचते हैं, उन श्रोतों का कुछ उपचार करना पड़ेगा, भाई। और जो ये मेरी वृत्ति है बाहरी प्रदूषण को सोखने की, मुझे उसका भी उपचार करना पड़ेगा। तो सही कर्म के ये दो तल होते हैं और हर आदमी के लिए होते हैं। सबको यही करना पड़ेगा।

ये हमें प्रश्न के दूसरे हिस्से पर ले आता है जहाँ पूछा है कि स्वधर्म क्या है और क्या इसका निर्धारण व्यक्तिगत होता है। ये दो बातें हमने कही जो हर इंसान को करनी ही पड़ेंगी अगर वो अपनी परेशानी और समस्या को ले करके गम्भीर है। पहली बात, बाहर जो कुछ तुमको परेशान करता है, तुम्हें उसे बदलना पड़ेगा। ये हुआ आपका सामाजिक या सांसारिक कर्म। और परेशान करता है किस अर्थ में? इस अर्थ में कि भीतर की 'मैं' वृत्ति को हवा देता है, प्रोत्साहन देता है। उसको बदलना पड़ेगा, ये धर्म है। यही स्वधर्म है।

बाहर जो कुछ है जो तुम्हारे भीतर गंदगी डालता है, तुम्हें उससे भिड़ जाना पड़ेगा, ये स्वधर्म है। इसीलिए तो कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि तू भिड़ जा इस कुरुसेना से। ये करना पड़ेगा। ये कर्म का एक हिस्सा हुआ। और कर्म का दूसरा हिस्सा है एकांत साधना, जहाँ हमारे भीतर वो बैठा हुआ है जो बड़ा ग्राहक बना हुआ है, बड़ा उत्सुक रहता है कि लाओ-लाओ कुछ दो। बताओ, तुम्हारे पास क्या है परोसने को? मैं उसको भी अंदर डाल लूँ। बताओ, तुम क्या देने आए हो? मैं उसको भी देख लूँ, सोख लूँ। हमें उसका भी शमन करना पड़ेगा। उसकी भी शांति निर्जरा करनी पड़ेगी। ये आपकी एकांत साधना है।

ये कर्म हैं। ये कर्म के वो दो तल हैं जो हर व्यक्ति को करने ही पड़ेंगे। कुछ काम बाहर की दिशा में, कुछ काम भीतर की दिशा में।

अब पूछा है, “क्या ये जो काम है, ये हर आदमी को करना है? व्यक्तिगत होता है क्या?”

भीतर की ओर जितना काम करना है, वो व्यक्तिगत नहीं होता क्योंकि वो सबके लिए एक ही है तो व्यक्तिगत कैसे हुआ? सबके लिए एक ही कैसे है? कि अहम् वृत्ति तो सबमें एक ही है। तो वो जो भीतर की ओर काम करना है, वो व्यक्तिगत नहीं है। हाँ, बाहर की ओर जो काम करना है, वो व्यक्तिगत है। कैसे? समझिएगा।

अर्जुन को जो बाहर काम करना है, वो क्या है? कौरवों से भिड़ जाओ। ठीक है? आपको कौरवों से नहीं भिड़ना है। अर्जुन को कौरवों से इसलिए भिड़ना है क्योंकि कौरव वो शक्ति हैं, कौरव वो प्रदूषणकारी शक्ति हैं जो अगर सत्तासीन हो गए तो पूरे देश में अधर्म फैला देंगे।

बाहर कर्म करना है। बाहर हमें क्या कर्म करना है? बाहर हमें उन ताकतों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना है जो भीतर के 'मैं' को बढ़ाती हैं, उसमें ज़हर भरती हैं, उसको पोषण देती हैं। ज़हर ही पोषण है उसका, वो ज़हर पर ही पलता है। कौरव वो ताकत हैं बाहर वाली, इसलिए कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि इनसे भिड़ो।

और सिर्फ़ भिड़ने भर को नहीं कह रहे हैं। आप गीता को देखिए, अट्ठारह अध्याय हैं। अगर इतना ही कहना होता कि अर्जुन, आदेश देता हूँ, तुम भिड़ जाओ, तो इतनी बड़ी गीता की क्या ज़रूरत थी? जो बाकी बात जो कही गई है, वो भीतर के युद्ध के लिए कही गई है। सब ज्ञान दे दिया, सब भक्ति समझा दी, सब तरह के योग समझा दिए। उन सब योगों का सम्बंध तो दुर्योधन से नहीं हैं न?

भाई, एक बात कही, ‘अर्जुन संघर्ष कर, अर्जुन युद्ध कर’। उस बात का सम्बंध किससे है? कौरवों से, दुर्योधन से। लेकिन साथ-ही-साथ इतनी बात और भी तो कह रहे हैं। पूरा कर्मयोग समझा दिया, कर्मसन्यास समझा दिया। ज्ञान, भक्ति, ऐश्वर्य, विभूति, प्रेम, सब समझा दिया। ये क्यों समझा रहे हैं?

ये बात आपको थोड़ी विचित्र नहीं लगती कि गीता के मैदान पर ऐश्वर्य क्यों समझा रहे हैं? क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ क्यों समझा रहे हैं? दान कितने प्रकार का होता है, तपस्या कितने प्रकार की होती है — ये सब क्यों समझा रहे हैं कृष्ण। बताइए न, क्यों समझा रहे हैं? कोई तुक नहीं बनता। रणक्षेत्र में ऐसी बातें करी जाती हैं क्या कि दान कितने प्रकार का होता है? या सांख्ययोग समझाया जाता है रणक्षेत्र पर? नहीं समझाया जाता न? वो इसलिए समझा रहे हैं कि वही उचित कर्म है जो अर्जुन को करना है।

दो तरह के उचित कर्म हैं। मैं चाहता हूँ कि इस बात को आप अच्छे से समझ लें। पहला, बाहर वो जो बैठा है जो मनों को प्रदूषित करने का अपराधी है, उसके विरुद्ध संघर्ष करो और दूसरा, तुम्हारे भीतर जो कचरा भर ही गया है, उसकी सफ़ाई करो। और क्या करोगे?

ये सामने वाली ज़मीन है। इस पर बड़ा कचरा फैला हुआ था। जब बोधस्थल का निर्माण हुआ तो हमने क्या करा? हमने दो काम करे – पहली बात, कचरा साफ़ करो और दूसरी बात, बाड़ लगाओ और जिन लोगों को देखो कि आकर कचरा डाल रहे हैं, उन्हें डाँट लगाओ।

जो भीतर हो ही चुका है, उसकी सफ़ाई, ये कर्म का एक पहलू हुआ। और दूसरा, जो लोग बाहर से आ करके तुममें कचरा डालते हैं, उनके ख़िलाफ़ संघर्ष या विरोध, ये कर्म का दूसरा पहलू हुआ। यही दो काम हैं जो आदमी को जीवनभर करने हैं। इनमें से एक पहलू व्यक्तिगत है, दूसरा नहीं। व्यक्तिगत कौन सा है? बाहर वाला, क्योंकि सबकी परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं।

किसी के सामने दुर्योधन खड़ा है, किसी के सामने कंस खड़ा है, किसी के सामने रावण खड़ा है और किसी के सामने जेरुसलम का जन समुदाय खड़ा है। सबके विरोधी अलग-अलग हैं। तो वहाँ पर आपको जो संघर्ष करना है, वो तो अलग ही करना होगा।

किसी के जीवन में सब कलुष, कलह, गलत संस्कार, व्यर्थ की धारणाएँ और अंधविश्वास हो सकता है कि उसके परिवार ने डाल दिए हों, उसे अपने परिवार के ख़िलाफ़ संघर्ष करना होगा। और किसी के मन में हो सकता है कि सब व्यर्थ की बातें डालने वाला पड़ोसी हों, उसको पड़ोसी के ख़िलाफ़ संघर्ष करना होगा। ये बात तो व्यक्तिगत है। आप कहाँ पैदा हुए, कहाँ बढ़े, क्या परिस्थितियाँ है आपकी, उस पर निर्भर करता है।

ये कर्म का एक पक्ष है कि रोज़ जो आ करके तुम्हें मलिन कर जाता है, उससे भिड़ जाओ। और जो रोज़ आकर तुम्हें मलिन कर जाता है, ज़रूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति ही हो, आज के समय में वो अधिकांशतः व्यक्ति नहीं होते, वो व्यवस्था होती है। व्यक्तियों पर उंगली उठाना तो फिर भी आसान है, व्यक्तियों से भिड़ जाना भी आसान है। आज के समय वो व्यवस्था है। व्यवस्था है जो हमें गंदा कर रही है रोज़-रोज़। उस व्यवस्था से भिड़ना पड़ेगा। एक नई व्यवस्था खड़ी करनी पड़ेगी। हर आदमी को ये कर्म करना ही पड़ेगा, बीड़ा उठाना होगा, संकल्प लेना होगा।

और जो दूसरी चीज़ है, वो है साधना, भीतर। अपने पर विजय हासिल करनी है। नहीं तो दूसरे को तो बोल दिया कि देखो, तुम मुझे ये सब व्यर्थ की बातें न बताया करो, न खिलाया-पिलाया करो और भीतर-ही-भीतर अगर ख़ुद लालायित हो रहे हो उन सब चीज़ों के लिए तो फिर थोड़ी देर के बाद ख़ुद ही उस व्यक्ति को हाथ जोड़कर बुला लाएँगे, “आ जा, आ जा।” उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ भी संघर्ष करना है और अपने ख़िलाफ़ भी साधना करनी है।

दुनिया के ख़िलाफ़ जो संघर्ष किया जाता है, उसमें आप कहलाते हैं सूरमा। अपने ख़िलाफ़ जो संघर्ष किया जाता है, उसमें आप कहलाते हैं साधक। जो सूरमा साधक नहीं, वो दुनिया में ही खपकर, पचकर मर जाएगा, लड़ता रहेगा दुनिया से। और जो साधक सूरमा नहीं, वो पाएगा कि वो अपना कमरा साफ करता है बार-बार। बड़ी साधना करता है, और जितनी बार साधना करता है, उतनी बार कोई बाहर से ला करके फिर गंदा कर देता है।

भूलिएगा नहीं कि आदमी की चेतना सामाजिक प्रभाव के प्रति बड़ी संवेदनशील होती है। आप कितना भी कह लें कि दुनिया कैसे भी रहे, मैं अपनी आत्मा की गुफा में बैठ करके शांत और अस्पर्शित रह लूँगा, ऐसा होने नहीं वाला है। वो बहुत दूर का और बड़ा असंभव आदर्श है।

मुझे मालूम है, उस आदर्श का बखान कई धर्मग्रंथों में हुआ है, पर छोड़िए न। आपका अनुभव, आपका व्यवहार क्या आपको बताता है कि दुनिया कैसी भी रहे, आप उससे अस्पर्शित रह सकते हैं? नहीं न? तो कुछ तो दुनिया को भी बदलना होगा। काजल की कोठरी में और कोयले की खदान में रहकर ऐसा नहीं हो पाएगा कि आपको कालिमा छू भी नहीं गई। नहीं हो पाएगा। तो बाहर भी संघर्ष करना पड़ेगा।

आध्यात्मिक आदमी कतई यह न सोचे कि बाहर कोई परिवर्तन लाए बिना वो भीतर की बेचैनी मिटा लेगा, हो नहीं पाएगा। और न सांसारिक आदमी यह सोचे कि बस बाहर की लड़ाई लड़-लड़कर उसे शांति मिल जानी है। ये दोनों ही गलतियाँ हैं। सांसारिक आदमी बस बाहर-ही-बाहर देखता रह जाता है, आध्यात्मिक आदमी भीतर-ही-भीतर देखता रह जाता है। हमें साधक सूरमा चाहिए; हमें सूरमा साधक चाहिए। हमें कर्म दोनों तलों पर करना पड़ेगा — हमें दुनिया को भी बदलना है, हमें अपना भी उपचार करना है।

हाँ, पूछेंगे कि इन दोनों में से ज़्यादा आवश्यक क्या है, तो ज़ाहिर सी बात है स्वयं को बदलना, अपना उपचार करना। क्यों? वज़ह सीधी है। दुनिया को जब आप बदलने निकलेंगे तो आप भी तो बदलने निकलेंगे न? अगर आप ही अभी प्रदूषित और संक्रमित और बीमार हो तो आप दुनिया से कैसे भिड़ जाओगे? दुनिया को क्या बदलोगे?

तो अपने प्रति भी साधना करनी है। ख़ुद को जीतना है, इंद्रजीत होना है, महावीर होना है और दुनिया में भी उन शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना है जो उपद्रव के लिए, पाप के लिए, अशांति के लिए, कलह के लिए ज़िम्मेदार हैं। ये है वो कर्म जो सबको करना है। इसी को ‘स्वधर्म’ कहते हैं। अब इसके बाद इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए।

यह प्रश्न बहुत बार पूछा जाता है कि ये स्वधर्म की बात है, इसमें स्वधर्म है क्या? ये है स्वधर्म। और इस स्वधर्म का सबसे सुंदर उदाहरण स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता है। कृष्ण एक साथ दोनों काम करवा रहे हैं अर्जुन से – भिड़ जाने की प्रेरणा भी दे रहे हैं और साथ-ही-साथ उसे आध्यात्मिक ज्ञान भी दे रहे हैं। यही दो कर्म हैं जो करने हैं।

तो अब हम पर ज़िम्मेदारी है कि हम अपने-आपसे लगातार यही पूछते रहें कि मैं जो काम कर रहा हूँ, उसमें ये दोनों ही पक्ष शामिल हैं कि नहीं हैं। एक पक्ष है कि दुनिया से ऐसा नाता रखो जिसमें दुनिया को बदलो, क्योंकि दुनिया से नाता तो रखना ही पड़ेगा, शरीरधारी हो। दुनिया से ऐसा नाता रखो जिसमें दुनिया को बदलो। और कैसे बदलो? ऐसे बदलो कि दुनिया में जो प्रदूषणकारक शक्तियाँ हैं, उनका नाश हो और दुनिया में जो सात्विक शक्तियाँ हैं, उन्हें बल मिले। ऐसे दुनिया से नाता रखो। ये काम का एक पक्ष हुआ।

कोई पूछे कि क्या काम करते हो। तो बोलो, एक काम तो हम ये करते हैं और दूसरा काम हम ये करते हैं कि हम अपने पर बड़ी शख्त निगाह रखते हैं। खूब जानते हैं कि हमारी समस्या का कारण हम स्वयं हैं। तो हम अपने-आपको बहुत प्रश्रय, बहुत प्रोत्साहन, बहुत छूट इत्यादि देते नहीं हैं।

स्वधर्म स्पष्ट हुआ? ये भी स्पष्ट हुआ कि वास्तविक कर्म या स्वधर्म कर्मफल के साथ कभी जुड़ा हुआ क्यों नहीं हो सकता? जो स्वधर्म के मार्ग पर चलेगा, वो कर्मफल की इच्छा नहीं रख सकता, ये बात स्पष्ट हुई है? क्यों नहीं रख सकता? क्योंकि फल का भोक्ता ही नहीं बचना है। यही तो सम्यक कर्म का, स्वधर्म का लक्ष्य है न कि कर्मफल का भोक्ता ही न बचे। ये सारी बातें साफ हैं?

जो भी काम आप करते हैं, जो कुछ भी करते हुए आप अपना दिन गुज़ारते हैं, उसमें ये दोनों चीज़ें जाँच लीजिएगा। दुनिया से आपका नाता क्या है? क्या आप दुनिया में जो दानवी शक्तियाँ हैं, उनके ख़िलाफ़ खड़े हैं? अगर नहीं, तो गड़बड़ हो गई। इसी तरीके से, क्या दुनिया में जो सात्विक शक्तियाँ हैं, आप उनके साथ खड़े हैं? अगर नहीं, तो गड़बड़ हो गई। ये पहली चीज़ हुई जाँचने की।

और दूसरी चीज़ हुई जाँचने की कि आप दिनभर अपने से क्या नाता रख रहे हैं। यही दो चीज़ें हैं जिनसे पता चल जाएगा कि आपका जन्म व्यर्थ जा रहा है या सार्थक। इसी से आपको पता चल जाएगा कि जीवन में करने योग्य काम क्या है। सैंकड़ों बार ये प्रश्न पूछा गया है मुझसे, “क्या काम करें?” बस इस बात से समझ लो कि क्या काम करना है।

कोई ऐसा काम मत उठा लेना जो इस हिंसक और दुर्दशाग्रस्त दुनिया को और दुर्दशा में डालता हो। ऐसा कर मत डालना। कोई ऐसा काम मत उठा लेना जो दुनिया को ख़राब करने वाले लोगों के हाथ मज़बूत करता हो। और भलीभांति जानते हो कि वो कौन लोग हैं जो दुनिया को ख़राब कर रहे हैं, उन ताकतों से परिचित हो। और कोई ऐसा काम मत उठा लेना जो तुम्हारे पास बिल्कुल भी अवकाश न छोड़ता हो अपने आंतरिक रेचन, अपनी आंतरिक समृध्दि के लिए।

दुनिया का सबसे अच्छा काम वो है जिसमें तुम समाज सुधार और आत्म सुधार एक साथ कर पाओ। पर वो काम सबको मिलता नहीं। बहुत-बहुत पुण्य होगा तुम्हारे पास अगर तुम ऐसा कोई काम मिल पाए जिसमें तुम दुनिया को भी ऊर्ध्वगमन दे पाओ, दुनिया का भी सुधार कर पाओ और साथ-ही-साथ अपना भी। वो आदर्श काम है। कृष्ण मुस्कुराएँगे और कहेंगे, “ये है कोई जो स्वधर्म का पालन कर रहा है।”

जिसको ये बात समझ में आ गई वास्तव में, उसके पास कोई अन्य आध्यात्मिक जिज्ञासा शेष रह नहीं जाएगी।

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