आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
अकेलापन

प्रश्नकर्ता: मेरे को अकेला रहना पसंद है। वहाँ पर एक खयाल आया कि हमने जो है अपने अकेलेपन को सिर्फ़ लोगों से जोड़ कर देख लिया है, कि अगर मैं इन लोगों के साथ नहीं रह रहा तो मैं अकेला हूँ । लेकिन, जैसे ही आज यहाँ पर आकर बैठा, सामने नदी की आवाज़ आ रही है, हवा चल रही है, चिड़ियों की आवाज़ आ रही है। तो मुझे ऐसा लगा कि मैं तो कभी अकेला हो ही नहीं सकता क्योंकि किसी भी समय हवा तो रहेगी मेरे पास अगर सब कुछ भी चला जाए, हवा तो रही, मैं तो अकेला कभी हो ही नहीं सकता इस हिसाब से तो। साँस लूँगा, हवा अंदर जाएगी, वो भी तो कोई और है। मैं तो अकेला कभी हो ही नहीं सकता इस हिसाब से तो।

आचार्य प्रशांत: साँस किसके अंदर जा रही है?

प्र: शरीर के अंदर जा रही है।

आचार्य: तो शरीर तो अकेला हो ही नहीं सकता। ठीक बात है।

प्र: ये तो मतलब अगर मैं कहूँ कि मेरे को अकेला रहना पसंद है, तो ये तो मैं सबसे बड़ा झूठ खुद से ही कह रहा हूँ।

आचार्य: उससे पहले तुम और बड़ा झूठ बोल चुके हो, कि तुम शरीर हो।

पहले खुद ही परिभाषित करते हो कि, "मैं शरीर हूँ और हवा मेरे साथ है", फ़िर कहते हो इससे सिद्ध होता है कि मैं कभी अकेला हो ही नहीं सकता। जो तुम्हारा प्रिमाइस (आधार) है, तुम्हारे पूरे तर्क का जो आधार है, पहले उसको तो परख लो।

शरीर कभी अकेला होता है क्या?

जब अकेलेपन की बात कर रहे हो तो किसकी बात कर रहे हो?

प्र: मन की।

आचार्य: शरीर कैसे अकेला हो जाएगा?

तुम्हें नहीं दिखाई पड़ रहा, तुम्हें पता है कितने करोड़ बैक्टीरिया अभी शरीर में चिपके हुए हैं? चलो, शरीर से उनको तुम धो भी दोगे। तुम्हें पता है तुम्हारी आँतों में कितने करोड़ बैक्टीरिया निवास करते हैं?

तुम पूरा एक शहर हो, देश हो पूरा एक।

तुम्हारे भीतर करोड़ों की जनसंख्या बैठी हुई है, तुम अकेले कहाँ से हो गए?

शरीर कैसे अकेला हो जाएगा? बताओ न? तुम्हारे भीतर एक घनी जनसंख्या बैठी हुई है।

शरीर नहीं अकेला होता है। शरीर ना अकेला होता है, ना दुकेला होता है। जब अकेलेपन की बात की जाती है तो वहाँ पर शरीर के आयाम की बात की ही नहीं जा रही। मन अगर घिरा हुआ है, मन अगर भीड़ से घिरा हुआ है, तो मन अकेला नहीं है। मन पर अगर हावी है कुछ भी, तो मन अकेला नहीं है।

प्र: वो चाहे कुछ भी हो?

आचार्य: कुछ भी, कुछ भी।

प्र: अगर सेंट्रल (केंद्र/सत्य) भी माइंड (मन) के ऊपर है तो उसे अलोन (अकेला) कह सकते है कि माइंड अलोन है, कि उसके साथ भी फिर वही कहेंगे कि किसी के साथ जुड़ा हुआ है?

आचार्य: मन में जितनी बातें उथल–पुथल मचा रही हैं, तुम उतने घिरे हुए हो। बात इतनी सीधी-सादी है।

यहाँ बैठे हुए हो, तो सिर्फ कुछ लोग हैं आस-पास। स्थूल नज़र से देखोगे तो कहोगे यहाँ मैं एक छोटी सी भीड़ का हिस्सा हूँ। हो सकता है तुम वहाँ गंगा किनारे जा कर बैठ जाओ और वहाँ तुमको घर–परिवार, दफ़्तर-बाज़ार, समाज पूरा, ये काम, वो काम, ये ज़िम्मेदारी, ये याद, वो लक्ष्य, सब खयाल आ रहे हैं। तो फिर वहाँ बैठने से ज़्यादा अकेले तुम तब थे जब यहाँ थे।

आ रही है बात समझ में?

यहाँ बैठे हो, देखने से ऐसा लग रहा है कि जैसे एक दल में हो। लेकिन अगर यहाँ पर चुप हो और शांत हो तो यहाँ ज़्यादा अकेलापन है बनिस्बत उस जगह पर। जो लोग कहते हैं कि, "साहब हमें अकेले रहना पसंद है", वो अक्सर सबसे ज़्यादा भीड़ में जी रहे होते हैं, क्योंकि उनके पास पूरी एक भीड़ होती है। वो उससे इतने घिरे होते हैं कि उससे बाहर निकलने का मौका ही नहीं है, पहले ही भीड़ में हो। तो और लोगों को वो अपने जीवन में प्रवेश ही नहीं दे पाते।

अब कमरे में बैठे हुए हैं, उनके साथ अठारह लोग हैं। कहाँ पर?

प्र: सर में।

आचार्य: (दिमाग की ओर इशारा करते हुए) यहाँ पर। तो कमरे के बाहर जो लोग हैं, उनसे वो कभी मिलेंगे ही नहीं। फिर वो क्या कहेंगे, “मुझे अकेले रहना पसंद है।”

अरे तुम्हे अकेले रहना पसंद नहीं है। तुम भीड़ से इतने घिरे हुए हो कि अब तुम किसी और से मिल ही नहीं पा रहे, तुम्हारे पास जगह ही नहीं है। ज़्यादातर जो ये अकेलेवाद के अनुयाई होते हैं, वो यही होते हैं।

प्र: फिर ये पता कैसे लगेगा सर, मुझे अकेला रहना पसंद नहीं है, तो क्या मैं, किस मोड में हूँ? दो हो गए न? आपने कहा कि...

आचार्य: मैंने कहा था न जब भी कभी कर्म को आँकना हो, तो एक विधि लगा लेना, देख लेना कि कर्म की मंशा क्या है, चाहते क्या हो। सिर्फ उसी से निर्धारण हो जाना है। जो तुम्हारा लक्ष्य है, वही तुम्हारा केंद्र है। दोनों एक साथ चलते हैं बिलकुल। जो तुम चाह रहे हो, वहीं से चाहत उठती है।

जो करने जा रहे हो, उसी ने पहले तुम्हारे भीतर आ करके तुम्हारे कर्म को ऊर्जा दी है।

तुम भागे जा रहे हो किसी लड़की से मिलने। शारीरिक तौर पर तो ऐसा लगेगा कि अभी मिलोगे भविष्य में, कुछ देर के बाद। हुआ ये है कि पहले उसने तुम्हारे खयालों में आकर के तुम्हारे पाँवों को ऊर्जा दी है। पहले वो तुम्हारे भीतर आई है, अब तुम उसकी ओर भाग रहे हो।

तो जो तुम्हारा लक्ष्य होता है, वही तुम्हारा केंद्र होता है। लक्ष्य को पकड़ लो, केंद्र को जान जाओगे।

प्र: तो जो बहुत ज़्यादा एमफुल (उद्देश्यपूर्ण) लोग होते हैं, मनुष्य, वो अपने सेंटर (केंद्र) के क्लोज़ (नज़दीक) होते हैं?

आचार्य: जो उनका एम (लक्ष्य) है उसके क्लोज़ होते हैं न। एम ही तो सेंटर है।

तुम भागे जा रहे हो रोटी की तलाश में, तो तुम्हारा केंद्र क्या है अभी? शरीर। क्योंकि रोटी किसको चाहिए? शरीर को। जो लोग रोटी के लिए बहुत तड़पते हों, वो समझ जाएँ कि उनके केंद्र में क्या बैठे हुआ है, शरीर भाव।

प्र: परंतु जन्म से भी कुछ वृत्तियाँ होती हैं जिसको हम इंट्रोवर्जन एक्स्ट्रोवर्जन (अंतर्मुखता बहिर्मुखता) कहते हैं। इट्स अ जनरल टेंडेंसी ऑफ दैट पर्सन टु बी अवे फ्रॉम अ क्राउड (यह उस व्यक्ति की सामान्य वृत्ति है भीड़ से अलग रहने की)।

आचार्य: अवे फ्रॉम अ फ़िज़िकल क्राउड (भौतिक भीड़ से दूर रहना)।

प्र: हाँ। जैसे मैं अपने आप में पाता हूँ। अपनी बात करता हूँ। मुझे कभी कभी लगता है कि मैं अगर एक किताब पढ़ने की बात करूँ या किसी से मिलने की बात करूँ, तो ना ही मिलना हो तो बढ़िया है। तो वो एक टेंडेंसी (वृत्ति) है। ऐसा नहीं है कि मैं जॉइन (साथ जाना) नहीं करूँगा इफ आय गो एंड मीट सम पीपल समटाइम् (अगर मैं कुछ लोगों से मिलने जाता हूँ कभी), पर एक जनरल टेंडेंसी , कि अवॉयड (टालना) करते हैं। तो वो एक, उसमें एक सेंटर खोजना, वही बात हो गई कि वो लक्ष्य को, इट्स नॉट दैट मोमेंट आय कैन एग्जामिन (वो वह समय नहीं है की मैं परख पाऊँ) या तो। उस मोमेंट (क्षण) में जाकर एग्जामिन (परखना) करूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ। बस यही कर सकते हैं।

आचार्य: टेंडेंसी लक्ष्य निर्धारित करती है न। इसीलिए तो वृत्ति को पकड़ने का तरीका ही यही होता है कि जो कर्म है, उनको देखलो। किधर को भाग रहे हो ये देख लो, समझ जाओगे कि कौन तुम्हें भगा रहा है।

प्र: जैसे, आप जितनी भी बातें करते हैं, जितना भी हम लोग सुनते हैं, समझते हैं। अगर कुछ एक–दो बातें सारगर्भित निकाली जाएँ, जो मुझे समझ में आता है, उसमें सबसे ऊपर है ईमानदारी। तो 'ईमानदारी' जो शब्द होता है जिसको अन्यथा या जिस तरीके से हम यूज करते हैं, ये वो वाली ईमानदारी तो है नहीं। सौ रुपए लिए थे तो सौ रुपए लौटा दिए, वो बात तो है नहीं, एक आंतरिक ईमानदारी है। तो मुझे कुछ महीनों में धीरे–धीरे बात खुल रही है कि ईमानदारी होती क्या है। जैसे आप कहते हैं कि तुम्हें आलरेडी (पहले से) पता है। तो जो आलरेडी पता है अगर वो बात उठ रही है तो फिर उसको ऐक्शन (कर्म) में ले आओ, कर दो उसको।

लेकिन इसमें मैंने ये भी देखा है कि, देन दैट रिक्वायर्स ए लॉट ऑफ एनर्जी फ्रॉम यू (कि उसमें फिर आपकी तरफ से बहुत ऊर्जा चाहिए होती है)। क्योंकि जो आता है वो एक तुम्हारा स्टेटस कुओ (यथा स्थिति) होता है, उसको एकदम तोड़कर आ रहा होता है, वो कुछ ऐसा डिमांड कर रहा है। बेसिकली (मूल रूप से) मैं ये पूछना चाह रहा हूँ कि ईमानदारी, ईमानदार रह पाना, बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है, बहुत मुश्किल।

आचार्य: वो ठीक उस वजह से मुश्किल मालूम पड़ता है जिस वजह से तुम कह रहे हो कि “एक–दो सारगर्भित बातें”। जब तुम कहते हो कि सारी बातों में से एक–दो सारगर्भित बातें हैं तो देख रहे हो तुम क्या कर रहे हो? तुम अपने ऊपर ये ज़िम्मेदारी ले रहे हो कि, "इस शब्दों के पूरे झुंड में से मैं एक–दो बातें अपने लिए चुनूँगा।" अब मेहनत करनी पड़ेगी न। अब अपनी ही बुद्धि पर निर्भर हो गए। लगा दिए अकल।

जितना अपने ऊपर लोगे उतना मुश्किल होता जाएगा।

प्र: कुछ ऐसे भी क्षण होते हैं जब मन ये तर्क रखता है कि, "क्यों?" जैसे, जब कोई बात...

आचार्य: अच्छा है कि मन ये तर्क रक्खे कि, "क्यों?" उतनी शक्ति हो, उसका पूरा इस्तेमाल करके उत्तर दो न। ऐसा तो है नहीं कि तुम जानते नहीं। जैसे ये बता रहे हो कि मन सवाल करता है 'क्यों?', वैसे ही ये भी तो बताओ न कि जवाब मौजूद है। सवाल भर बता देते हो, जवाब भी तो बता दो। नहीं तो फिर सिर्फ सवाल की बात करना तो समस्या मात्र को प्रोत्साहन देना है, कि, "समस्या बता दूँगा और समाधान जो मेरे सामने है, उसको छुपा दूँगा।"

प्र: ये सवाल होता है न। वो पूछता है कि, "क्यों ईमानदार रहें? क्योंकि ईमानदारी बुला रही है, कुछ है जो करना है", लेकिन वो पूरे सिस्टम को तोड़ रही है। मन बोलता है कि 'ठीक है न'। लेकिन अब आप कह रहे हैं कि उसको जवाब भी दो। ये जवाब होता है न, जो होता है कि, "हाँ ज़रूरी है", वो बहुत भीना होता है, बहुत भीना। लेकिन सवाल बड़ा स्थूल होता है, वो एकदम ये है। तो, लेकिन जो, उसका जो काउंटर है...

आचार्य: तो ये भीना जवाब होता है, ये सवाल से ऊपर का होता है।

अंतर नहीं पड़ रहा है कि उसकी आवाज़ कितने ज़ोर की है। वो ऊपर के तल का है। वो नीचे वाले को खुद निर्धारित कर देगा। लिखा हो ' उन्नीस'। अगर गौर से नहीं देखोगे तो तुम्हें क्या लगेगा, उन्नीस में ज़्यादा बड़ी कीमत किसकी है, 'एक' की या 'नौ' की? तुम कह दोगे 'नौ' की। पर अगर गौर से देखो तो तुम्हें पता चलेगा कि वो छोटा सा 'एक' है, इसकी ज़्यादा बड़ी कीमत है 'नौ' से, क्योंकि वो ऊपर के तल पर बैठा है। “एक बड़ा कि नौ?" तुम कह दोगे 'नौ'। बात गलत है।

उस छोटे से 'एक' को किसी बहुत बड़े का सहारा है। उसे 'शून्य' का सहारा है। जब 'एक' को 'शून्य' का सहारा मिल जाता है, तब वो 'नौ' से बड़ा हो जाता है।

दैट्स व्हाय वन मस्ट गो क्लोज़ टु नथिंगनेस। वन मस्ट गो क्लोज़ टु ज़ीरो। (इसीलिए उस रिक्तता के करीब जाना है। उस शून्य से करीब जाना है।)

प्र सर, अभी आपने बोला भूख लगी है तो शरीर केंद्र है। फिर उसके बाद क्या मैं खाना नहीं खाऊँगा? तो, मतलब, अगर ये चीज़ देखे बिना, केंद्र देखे बिना, अभी भी वही हो रहा है और देखने के बाद भी हो सकता है कि मैं फ़िर भी खाना खाने जाऊँगा, तो?

आचार्य: कीमत अदा करो कीमत। बहुत सारी बातें हैं।

कोई दुकानदार ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता जो आकर बातचीत बहुत करते हैं खरीदते कुछ नहीं। जेब ढीली करो जेब।

जाओ किसी दुकान में और बतियाए जा रहे हो बतियाए जा रहे हो, "ये कितने का है, वो कितने का है, तब क्या होता, अब क्या होता है, ये कितने दिन चलेगा, उसकी क्या गारंटी है, ये बेहतर है कि वो बेहतर है। ये पहन कर देखा, वो पहन कर देखा।" कीमत देने को तैयार नहीं हो तो क्या होगा? “चलो दफा हो!"

दाम चुकाओ।

प्र१: पिछले दो–तीन सत्रों से कुछ बोला नहीं तो मुझे लोगों ने बोला कि आप थोड़ा बोल लो कुछ। मैंने सोचा थोड़ा सा कुछ तैयार कर लेता हूँ। जो आधा घंटा था, इसमें मैंने सबकुछ जो मैंने सोचा था, इच्छा हो रही थी कि चुपचाप बैठ कर सुन लो अब। बोलने वाला जो आदमी था अंदर कहीं, वो मन, विचार जो भी था, वो वापस कहीं गायब हो गया।

आचार्य: जो लोग सलाह दे रहे थे कि बोलो, उनसे ये भी कह देते कि सवाल भी तैयार करके दे दो।

प्र२: प्रणाम सर, जो भी कंडीशनिंग होती है, ये भी स्मृति से ड्राइव (संचालित) होती है, जैसे, कल जब मैं नीचे गया वहाँ पर। सब नहा रहे थे। तो मैं आज से अलमोस्ट (लगभग) दो-हज़ार-दस में मैं बद्रीनाथ गया था, यमुनोत्री गया था, एज़ अ पिलग्रिमेज, विथ ए ग्रुप ऑफ पीपल (तीर्थयात्रा के लिए, कुछ लोगों के समूह के साथ)। तो, तब मैंने डुबकी लगाई थी गंगा में। फिर एक बार हरिद्वार गया था। तो वो एक फीलिंग (एहसास) थी, एक सेक्रेडनेस (पवित्रता) थी। लेकिन कल जब मैं नीचे गया, बात तो वही हो रही थी कि गंगा में नहाएँगे जाकर, जब मैं वहाँ पहुँचा तो मेरे दिमाग़ से वो निकल गया कि आय एम इन गंगा (मैं गंगा में हूँ)।

तो, सेक्रेडनेस थी वो लेकिन वो थी कि सेरेनिटी (शान्ति) है, अच्छा है, एक पीसफुलनेस (शान्ति) है, लेकिन वो कंडीशनिंग जो थी न, वो जो फीलिंग होती है कि गंगा में आप स्नान कर रहे हो, वो नहीं, मुझे पता ही नहीं लगा। रात को जब मैं फ़ोटो देख रहा था कैमरे में, तो मुझे स्ट्राइक (अचानक आभास होना) किया कि हाँ ये तो गंगा में स्नान कर रहे हैं। तो ये जो कंडीशनिंग होती है, वो फिर मेमोरी (स्मृति) से ही ड्राइव होती है। अगर मेरे को मेमोरी नहीं है, तो मेरी कंडीशनिंग ख़तम हो गई, मेरे लिए एक नदी थी वो।

आचार्य: अब इसमें कोई हेय बात नहीं हो गई कि सिर्फ़ एक नदी थी। अगर सिर्फ़ एक नदी थी और उसमें छप–छप कर रहे हो, गोते खा रहे हो, तो वो अपने आप में एक पवित्र बात है, उसमें भी एक सेक्रेडनेस है। सेक्रेडनेस यही नहीं होती कि जाकर आरती उतार रहे हो, और कह रहे हो, "माँ गंगा, माँ गंगा!" जल के साथ आनंद से हो, ये अपने आप में बड़े प्रेम की और सम्मान की बात है। उसके लिए कोई मंत्र नहीं पढ़ने पड़ते, कोई पूजन नहीं करना पड़ता।

आनंद अपने आप में पूजन है।

प्र: ऐसे कंडीशनिंग को कंट्रोल (काबू) किया जा सकता है? भूल कर? जिन चीज़ों से हम कंडीशंड हैं, हम चाहते हैं हम ना रहें, और उसको भूल जाएँ, इग्नोर (नज़रअंदाज़) करदें।

आचार्य: पकड़ लिया तुमने। ( हाँ में सर हिलाते हुए)

प्र३: हमारी कोई पहली मीटिंग थी, उसमें कृष्णमूर्ति का एक, फैक्ट्स (तथ्य) और ओपिनियन (मान्यता) पर, बड़ा अच्छा अंश था। जैसे हमने कल बात भी करी इस बारे में कि फीलिंग्स (भावनाएँ) आती हैं तो डोंट नेम देम (उन्हें नाम न दें)। इफ एट ऑल, दैट मोमेंट इस मिस्ड, जस्ट एकनॉलेज इट (अगर वह क्षण चला भी गया तो बस उसको पावती दे दें)। इसी तरह से हमारी डे-टु-डे डिसिज़न मेकिंग (दिन भर के फैसले) में देयर आर अ लॉट ऑफ वैल्यूज विच गवर्न (बहुत सारे मूल्य हैं जो निर्धारित करते हैं), कि मेरे को ऐसे डिसाइड (फैसला) करना है, वैसे डिसाइड करना है। तो, ओपिनियन हैव टु बी टेकन (मान्यता तो रखनी ही है)।

आपको जाना ही पड़ेगा, आपको ढूँढना पड़ेगा, आपको उस हक़ का इस्तेमाल करना पड़ेगा। आपको अपने काम में फैसला लेना होगा। तो आप मान्यताओं से भाग नहीं सकते, और उसमें फिर लोगों से निपटना भी होगा। लोगों के साथ व्यवहार कैसे करना है या बात कैसे करनी है।

अब, कई बार ऐसा होता है कि जब मुझे कुछ चीज़ें पसंद नहीं हैं कुछ लोगों के साथ, और मैं ये बात स्वीकार करता हूँ कि मुझे ईर्ष्या है। मुझे उस व्यक्ति का तरीका पसंद नहीं, हमारे मूल्य नहीं मिलते। अच्छा हो कि मैं उस व्यक्ति से बात ही न करूँ। और यह बात उस क्षण में बहुत तीव्र स्वीकृति की तरह आई। तो, वो बात को पकड़ पा रहा हूँ कि उस टैग को पकड़ लो कि आपको जलन हो रही है या यू वांट टु अवॉयड दैट पर्सन (आप उस व्यक्ति से बचना चाहते हैं)। पर यह मेरा बर्ताव और मेरी मान्यता चुन रहा है उस व्यक्ति के प्रति। और यह चलता ही रहता है।

सर, बस सोच रहा था कि क्या कृष्णमूर्ति आमंत्रित क्र रहे हैं तथ्यों के साथ रहने के लिए? पर मुझे लगता है की मान्यताओं से भागा नहीं जा सकता, खासतौर पर आज के समय में। हो सकता है वो (दूसरा व्यक्ति) एक कठिन माँग कर रहा हो, जो मैं एक समय तो पूरी कर सकता हूँ, मैं मिल जाता हूँ उससे, फैक्ट्स (तथ्य) अकनॉलेज (स्वीकार) कर देता हूँ कि, "हाँ दे दो", पर ओपिनियन (मान्यताओं) से तो छुटकारा नहीं है।

आचार्य: ओपीनियंस की गुलामी से तो छुटकारा है?

प्र३: जी। लेकिन वह बदल भी सकते हैं।

आचार्य: ओपीनियंस के मालिक के साथ रहिए तो ओपीनियंस फ़िर आपके होंगे। हमारा ये हो जाता है कि हम ओपीनियंस के हो जाते हैं। दोनों का अंतर समझिए।

मेरे होने से मेरी बात निकले, वो एक बात है। दूसरी चीज़ है कि मैं बातों का गुलाम हो गया।

जाना समझा कुछ नहीं, बातें सुनी, बातों का गुलाम हो गया। दूसरी बात ये होती है कि मैं जो हूँ, उससे मेरी बात निकलती है। बात दोनों ही स्थितियों में है, पर बात–बात में अंतर है।

कोई पाँचवीं का बच्चा होता है, वो रट के कबीर का दोहा बोलता है। और कभी कबीर ने भी अपना दोहा बोला था। दोनों ही स्थितियों में बोला क्या गया है?

श्रोतागण: (एक साथ) दोहा।

आचार्य: दोहा, पर बात-बात में अंतर है कि नहीं है? वहाँ कबीर पहले आते थे, कबीर के होने से दोहा उद्भूत होता था। यहाँ कबीर का तो कुछ पता नहीं, दोहा, दोहा है।

वही बात है। विचार में कोई बुराई नहीं, ओपिनियन में भी कोई बुराई नहीं।

फॉल्स (झूठ) और ट्रू (सच), होते हैं तो सिर्फ़ सेंटर्स (केंद्र)। बाकी जगह तो आप रॉन्ग-राइट (सही-गलत), रॉन्ग-राइट चलाते रहते हो। वो रॉन्ग-राइट की कोई कीमत नहीं है। भेद अगर करना है तो एक करिए, फॉल्स है या ट्रु है। राइट-रॉन्ग तो व्यर्थ का सवाल है।

अब, जल्दी से अगर आप ये निष्कर्ष ना निकाल पाते हों, फॉल्स है या ट्रू है। फँस जाते हों, तो ये समझ लीजिए कि जीवन में आप अभी जहाँ खड़े हैं वहाँ आपको इससे ज़्यादा स्पष्टता की अनुमति नहीं है। बात समझ रहे हो? आँखें ख़राब हों और वहाँ दूर का दिखाई ना देता हो, तो बार- बार आँखें मिचमिचाने से थोड़े ही दिखाई देने लग जाएगा।

अगर सत्य का और मिथ्या का भेद करने में दुविधा होती हो तो समझ लीजिएगा कि जीवन जैसा चल रहा है इसमें इससे ज़्यादा स्पष्टता से आप भेद कर भी नहीं सकते थे। उसकी आपको अनुमति ही नहीं है।

प्र: तो एक गहरा प्रश्न उठता है अंदर से कि, "ये क्या?"

आचार्य: तो जीवन बदलिए। ज़िन्दगी बदलेंगे, अपने आप स्पष्टता आएगी। जीवन जैसा चल रहा है उसको वैसा ही चला करके आप और ज़्यादा क्लैरिटी (स्पष्टता) से कुछ जान पाने वाले।

तो जिनको बार-बार दुविधा हो जाती हो, जो लोग बार–बार अटक जाते हों, फँस जाते हों। कि, "यार समझ में नहीं आ रहा कि प्रेम है कि मोह है, समझ में नहीं आ रहा कि ये करूँ कि वो करूँ, समझ में नहीं आ रहा कि ये दूसरी वरीयता है कि आठवीं वरीयता है।" तो वो ये जानलें कि फ़िर अभी उनका जीवन ही ऐसा चल रहा है जिसमें इससे ज़्यादा रेज़ॉलूशन उनको अलाउड (अनुमति) नहीं है।

पैना देखने के लिए क्या होना चाहिए? जो आँख है, हाय रेज़ॉलूशन की होनी चाहिए न। जब आँख ही अभी पिक्सेलेटेड है तो जो दृश्य दिख रहा है, वो तो धुँधला दिखेगा ही। पहले आँख ठीक करो, आँख जीवन है। ज़िन्दगी जैसे–जैसे साफ़ होती जाएगी, वैसे–वैसे सारे दृश्य भी साफ़ होते जाएँगे।

अब रोज़ चढ़ाता हो कोई, और फ़िर कहता हो “अरे! साफ़–साफ़ दिख नहीं रहा।"

तो भाई, जैसी तेरी ज़िन्दगी है, उसमें तुझे साफ़–साफ़ दिखेगा क्या? तुझे साफ़ देखना है तो चढ़ाना बंद कर न। ज़िन्दगी बदल। और चढ़ाना तू बंद कर नहीं सकता जब तक तेरे दोस्त–यार हैं। और दोस्त–यार तू बदल नहीं सकता जब तक तेरी जैसी जो दिनचर्या है, जिस दुकान में तू बैठता है। ये सारे दोस्त-यार तुझे उसी दुकान से मिले हैं।

तो, बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। जब वो सब बदलेगा, तब फ़िर दृष्टि पर जो कोहरा छाया हुआ है वो छँटेगा।

वो नहीं हो पाएगा कि “ आय वांट मोर क्लैरिटी, रेमेनिंग व्हाट आय एम (मुझे और स्पष्टता चाहिए वो रहते हुए जो मैं अभी हूँ)।" भाई आप जैसे हो, आप को इतनी ही मिलेगी। तो बार–बार सवाल पूछने से कुछ नहीं होगा, वही तुमसे कहा (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए)। ऊँचे-ऊँचे सवाल पूछने से क्या होगा, कीमत तो अदा करो।

और चाहिए क्लैरिटी (स्पष्टता)? और समझनी है बात? और गहराई में पैठना है? और आनंद चाहिए? और प्रेम चाहिए? कीमत लाओ।

जीवन जितना साफ़ होगा, निर्णय उतने ही सहज होंगे। बात उतनी ही आपको बारीकी से और तेज़ी से समझ में आएगी। जीवन साफ़ नहीं है, तो बार–बार सवाल पूछने से कुछ नहीं होगा।

प्र: मैं समझ रहा हूँ आप जीवन ठीक करने से क्या कह रहे हैं, जैसे हमें लग रहा है कि खाना, पीना, रहना, किसके साथ रहते हो, संगत, क्या देखते हो, क्या सुनते हो, सब चीज़, ओवरऑल (व्यापक), हॉलिस्टिक (समग्र)।

लेकिन, जैसे, ऐसा लगता है कि कुछ जीवन है उसको ठीक करेंगे तो ये निर्णय ठीक होंगे, इनमें क्लैरिटी आएगी। पर, इन्हीं द्वंद्वों से तो जीवन बना हुआ है।

आचार्य: नहीं ऐसा नहीं है। जीवन स्थूल है, वहाँ पर निर्णय लेना आसान है। द्वंद्व तुम्हारे होते हैं बहुत सूक्ष्म।

द्वंद्व तुम्हारे होते हैं कि “आत्मा और परमात्मा का भेद नहीं पता चल रहा।” द्वंद्व तुम्हारे होते हैं कि “इससे आगे की क्लैरिटी नहीं मिल रही।" मैं कह रहा हूँ उससे पीछे के जो काम हैं वो तो पूरे करो। तुम गाड़ी चला रहे हो जिसकी हैडलाइट ख़राब है, बल्ब पूरी रौशनी नहीं दे रहे। तुम सवाल क्या करते हो आकर, “वो उतनी दूर का दिखाई नहीं दे रहा।" मैं कह रहा हूँ भाई हैडलाइट तेरे सामने है, पहले इसको तो ठीक करले, ये तो दिख रही है।

तुम्हारे द्वंद्व वहाँ के होते हैं, उतनी दूर के, जहाँ तक हैडलाइट की रौशनी जाती है। और जो तुम ठीक कर सकते हो तुम्हारे सामने है, उसकी बात क्यों नहीं करते? तुम अपने फ्रंटियर्स कि बात करते हो, “उससे आगे मेरी रौशनी नहीं जा रही, वहाँ पर मैं आकर अटक गया हूँ।" उससे पीछे का ठीक कर लिया क्या?

इसीलिए कहता हूँ कि जो जानते हो पहले उसपर तो अमल करने का साहस दिखाओ। फ़िर और जान जाओगे। एक सीढ़ी चढ़ो। तुम कहते हो, “नहीं, पहले आगे का पूरा नक्शा बताओ, सीढ़ियाँ कहाँ तक जा रही हैं?"

आगे भी तब दिखाई देगा जब एक सीढ़ी तो चढ़ोगे। एक सीढ़ी चढ़नी नहीं है, पूरा नक्शा चाहिए। अभी जो ठीक है वो करो, फिर भविष्य अपने आप खुलता जाएगा। अभी वाला करते नहीं। अभी देखो न क्या कर रहे हो, ठीक अभी कौन क्या कर रहा है देखलो, ठीक अभी। पर सवाल करोगे उतनी आगे की, उतनी आगे की।

प्र: जो काम अभी हाथ में होता है उसको नहीं करते और आगे क्या करना है उसे पूछते हैं।

आचार्य: और ये ठीक करलो, तो जो तुम्हारी दुविधाएँ हैं, वो भी सुलटने लगेंगी। उनमें से अधिकांश तो तुम्हें दिख जाएगा कि दुविधाएँ थीं ही नहीं, कपोल–कल्पनाएँ थीं। और जो बचेंगी, उनमें भी समाधान फिर उभरने लगेगा।

अब खाना बगल में रखा है, भूखे हो तुम। और तुम कह रहे हो, "आज उसको पीटना है, उसको मारना है, क्या-क्या तरीके होंगे मारने के, पीटने के।" और तुम दुविधा में हो कि, "बंदूक उठाऊँ कि हथौड़े से मार दूँ कि क्या करूँ?"

खाना सामने रखा है, खालो। खाना खा लिया, पेट भर गया, मन ठंडा हो गया, अब ये सवाल ही गया कि, "बंदूक से मारूँ कि हथौड़े से मारूँ?" सारी दिक्कत ये थी कि खाना रखा था, खाना खा नहीं रहे थे। बैठे–बैठे उबल रहे थे कि उसको मारना कैसे है। सवाल ही व्यर्थ था। खाना खाया नहीं कि सवाल गया।

जो हाथ में है वो करो न।

प्र: बड़ा ज़ोर लगता है, मतलब, जो एकदम सामने है उसको करने में। आगे उड़ने में एक मज़ा आता है।

आचार्य: आगे उड़ने में मज़ा आता है न। उसमें लगता है कि हम कुछ हैं। पेट भर गया है, डकार मार रहे हो, कौन जाएगा मारने। सिकंदर सो गया।

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