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लेख
आगामी कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म || तत्वबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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कर्माणि कतिविधानी सन्तीति चेत् आगामीसंचितप्रारब्धभेदेन त्रिविधानी सन्ति। ज्ञानोत्पत्तनन्तरं ज्ञानिदेहकृतं पुण्यपापरूपं कर्म यदस्ति तदागामीत्यभिधीयते। संचित कर्म किम्? अनंतकोटिजन्मनां बीजभूतं सत् यत्कर्मजातं पूर्वार्जितं तिष्ठति तत्संचितं ज्ञेयं। प्रारब्ध कर्म किमिति चेत्। इदं शरीरमुत्पाद्य इह लोके एवं सुखदुःखादिप्रदं यत्कर्म तत्प्रारब्धं भोगेन नष्टं भवति प्रारब्धकर्मणां भोगादेव क्षयं इति। संचितं कर्म ब्रहैवाहमिति निश्चयात्मकज्ञानेन नश्यति। आगामि कर्म अपि ज्ञानेन नश्यति किंच आगामिकर्मणां नलिनीदलगतजलवत् ज्ञानिनं सम्बन्धो नास्ति।

कर्म कितने प्रकार के होते हैं? आगामी, संचित और प्रारब्ध, तीन प्रकार के होते हैं। ज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् ज्ञानी के शरीर के द्वारा जो पाप-पुण्य रूप कर्म होते हैं, वे आगामी कर्म के नाम से जाने जाते हैं। संचित कर्म किसे कहते है? अनंत कोटि जन्म में पूर्व में अर्जित किए हुए कर्म जो बीजरूप से स्थित हैं, उन्हें संचित कर्म जानें। प्रारब्ध कर्म किसे कहते है? जो इस शरीर को उत्पन्न करके इस लोक में सुख-दु:ख आदि देने वाले कर्म हैं, जिसका भोग करने से ही नष्ट होते हैं, उसे प्रारब्ध कर्म जानें। संचित कर्म ‘मैं ब्रह्म हूँ’, इस निश्चय से नष्ट होते हैं। आगामी कर्म ज्ञान से नष्ट होते हैं। आगामी कर्म का कमल के फूल की पंखुड़ी पर जल के समान ही ज्ञानी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता।

—तत्वबोध, श्लोक ३७-३८

आचार्य प्रशांत: ज्ञानोदय का अर्थ होता है अहम् की विदाई, ‘मैं’ की विदाई। ‘मैं’ की विदाई के बाद जो भी कर्म होते हैं, उन्हें कहा जाता है आगामी कर्म। आगामी कर्मों का कर्मफल कुछ होता नहीं क्योंकि कर्मफल भुगतने के लिए मौजूद कोई होता नहीं।

कर्मफल कौन भोगता?

‘मैं’; वह ‘मैं’ ही चला गया, तो अब फल भोगेगा कौन? जो है ही नहीं, उसको ना तो पुरस्कार मिल सकता है, ना सज़ा मिल सकती है। कुछ किया था तुमने, जब तक पुलिस तुम्हें पकड़ने आयी, तुम मर चुके थे। कौन-सा फल मिलेगा तुम्हें?

तो ज्ञानी का ऐसे ही है। उसे कोई फल नहीं मिलता क्योंकि अब वह है ही नहीं। ना पाप उसके लिए कोई मायने रखता है, ना पुण्य उसके लिए कोई मायने रखता। मकान ख़ाली—ना उपहार ग्रहण करने के लिए कोई है, ना सज़ा भोगने के लिए कोई है। ये आगामी कर्म है।

प्रारब्ध कर्म क्या है?

कि पैदा हुए हो तो भोगने पड़ेंगे, जब तक ज्ञानोदय नहीं हुआ है, जब तक तुम अपने-आपको देह मान रहे हो, तब तक तुम प्रारब्ध के वशीभूत ही रहोगे। देह संबंधित सुख-दुःख लगे ही रहेंगे, ये प्रारब्ध कर्म है। इनका नाश इनसे गुज़र कर ही होता है; इनका क्षय इनके भोग द्वारा ही संभव है।

ज्ञानी को ये भी नहीं सताते। ज्ञानी को क्यों नहीं सताते? क्योंकि ज्ञानी तो है ही नहीं। प्रारब्ध कर्म भी, हमने कहा, ज्ञानोदय से पहले ही सताते हैं।

संचित कर्म क्या है?

शंकराचार्य कहते हैं, “अनंत कोटि जन्म में पूर्व में अर्जित किए हुए कर्म जो बीजरूप से स्थित हैं, उन्हें संचित कर्म कहते हैं।" वो तमाम तरह के संस्कार जो देह में ही अवस्थित हैं, जिनका इस जन्म से कोई संबंध भी नहीं, जो तुम्हारी एक-एक कोशिका में बैठे हुए हैं, जिन्होंने तुम्हें यह रूप ही दिया है, वो संचित कर्म हैं।

ये देह भी मान लो कि कर्मफल ही है; यूँ ही नहीं आ गयी। ये दो आँखें ऐसे ही नहीं हैं, यह नाक ऐसे ही नहीं है, ये सब कर्म-कर्मफल, कारण-कार्य की एक लंबी प्रक्रिया का फल हैं। ये हुए संचित कर्म। यहाँ भी स्पष्ट है कि संचित कर्म भी तुम्हारे लिए अर्थवान् तभी तक हैं जब तक तुममें देहभाव है। देहभाव से मुक्ति ली नहीं कि तुम संचित कर्म से भी मुक्त हो जाते हो।

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