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लेख
अभ्यास, वैराग्य और परवैराग्य में अंतर || आचार्य प्रशान्त (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत : पतंजलि कहते हैं, “वृत्तियों से मुक्ति के लिए अभ्यास और वैराग्य।” अभ्यास और वैराग्य – समझेंगे दोनों को।

दोनों युक्तियाँ हैं। पहले तो ये जाने दोनों विधियाँ हैं, दोनों ही मन के तल पर विधियाँ हैं – अभ्यास और वैराग्य। पर दोनों में थोड़ा अन्तर है। क्या अंतर है? समझेंगे। अभ्यास में आप मन के एक टुकड़े का प्रयोग, मन के दूसरे टुकड़े के ऊपर करते हो। टुकड़े तो सदा मौजूद ही हैं। भूलना नहीं, जहाँ वृत्ति है, वहाँ टुकड़े हैं। कैसे?

जब तक आकाश पूर्ण है, शून्यवत है, तब तक उसमे कहीं कोई रेखा खिंची नहीं, तब तक उसका कोई हिस्सा हुआ नहीं, वो एक अखंड इकाई है। पर एक बादल के आते ही आकाश का क्या हो जाता हैं? बादल आया नहीं कि उसने आकाश को क्या कर दिया? उसके टुकड़े कर दिए। नहीं समझ में आ रही बात? हर बादल आकाश के टुकड़े कर देता है। वृत्ति का काम ही यही है कि वो तुम्हारे टुकड़े कर देती है। उसी को कहते हैं मन का खंडित हो जाना, मन का हिस्सा हिस्सा हो जाना। फ्रैगमेंटेड माइंड

तो वृत्तिपूर्ण जो चित्त है, उसके टुकड़े तो हैं ही। अभ्यास का अर्थ हुआ कि एक टुकड़ा दूसरे टुकड़े पर नज़र रख रहा है – उसकी हरकतों पर, उसकी गतिविधि पर, उसके विचारों पर। हर टुकड़ा समय में जीता है। अभ्यास का अर्थ हुआ, “उसपर नज़र रख कर के उससे समय में बार बार एक प्रकार का आचरण करवाया जा रहा है।” मन का कौन सा टुकड़ा है जो दूसरे टुकड़े पर नज़र रख सकता है? मन का वो टुकड़ा जो साफ़ है, मन का वो टुकड़ा जो केंद्र के ज्यादा करीब है, वो मन के बाकी उन टुकड़ों पर नज़र रख सकता है जो अब वृत्तियों द्वारा आच्छादित हो गए हैं।

भूलना नहीं कि बादल कितना भी छा ले उससे आकाश का कुछ बिगड़ा नहीं है, आकाश अपनी जगह कायम है। बादल के नीचे भी आकाश है, ऊपर भी आकाश है, और दायें बायें, आकाश कहीं चला नहीं गया। आकाश का बल, आकाश की व्यापकता अभी भी उतनी ही है। अभ्यास का अर्थ है, कि आकाश के बल का प्रयोग किया जा रहा है, बादल के विरुद्ध, कि मन का एक टुकड़ा, आत्मा के बल का प्रयोग कर रहा है, मन के दूसरे टुकड़े के विरुद्ध।

वृत्ति एक चाल चलना चाहती है, मन का एक टुकड़ा उसे उस चाल पर नहीं चलने देगा, ये अभ्यास है। आशय ये है कि अभ्यास जहाँ भी आएगा, वहाँ तुम पाओगे कि मन में प्रतोरोध है। क्योंकि एक टुकड़ा दूसरे के विरुद्ध जा रहा है। वो अवस्था कभी आ ही नहीं सकती कि तुम अभ्यास कर रहे हो और मन मना नहीं कर रहा। तुम जब भी अभ्यास में उतरोगे, मन विरोध करेगा। मन का एक हिस्सा, पर भूलना नहीं, अपनी ही दशा को ध्यान से देखना, मन का एक टुकड़ा विरोध कर रहा होता है लेकिन फिर भी तुम अभ्यास कर रहे होते हो। क्योंकि आत्मा का बल उस एक टुकड़े के बल से ज्यादा है। समझ रहे हो बात को? ये अभ्यास है।

अभ्यास कब होगा? जब तुम जानते हो कि वृत्ति गहरी है, लेकिन मेरी श्रद्धा भी बहुत गहरी है, मैं वहाँ जाऊँगा, जहाँ सारी ऊर्जा, जहाँ सारी ताकत है, मैं उसके पास जाऊँगा, उसकी मदद ले कर के इस गहरी वृत्ति के विरुद्ध खड़ा हो जाऊँगा, ये अभ्यास है। और इतनी बार खड़ा रहूँगा, इतनी बार खड़ा रहूँगा, जहाँ अभ्यास की बात आती है वहांँ दोहराना बहुत आवश्यक हो जाता है। इतनी बार खड़ा रहूँगा कि अंततः इस बादल को छटना पड़ेगा, अंततः इस वृत्ति को हारना पड़ेगा।

आत्मा के पास अनंत बल है, वृत्ति का बल अनंत नहीं है। तुम उसके विरोध में बहुत बार खड़े होओगे, वृत्ति हार जाएगी, टूट जाएगी, बादल छँट जाएगा। गहरी से गहरी आदत बदली जा सकती है, पर उसके लिए कोरा अभ्यास नहीं चाहिए, उसके लिए वो अभ्यास चाहिए जिसकी ताकत आत्मा से निकल रही है।

वैराग्य क्या है?

वैराग्य ये है कि बादल, बादल तब तक प्रतीत हुआ जब तक मैंने बादल को बादल का नाम और संज्ञा दी। जिस क्षण मेरे मन ने ये भाव ही त्याग दिए कि बादल है, अब बादल होते हुए भी नहीं है। ये वैराग्य है। पहला तरीका था “मैं बादल के विरुद्ध तब तक खड़ा रहूँगा जब तक बादल छँट ना जाएँ।” दूसरा तरीका है, “बादल है, ये कहा किसने? मैंने। बादल को बादल बनाया किसने? मैंने। तो मैं बादल के विरुद्ध लड़ूँ क्यों? बादल कृति किसकी है? मेरी, तो मैं ही चुप चाप कहे देता हूँ कि बादल, तू नहीं है।” और मैंने ये कहा नहीं कि बादल छँट गया।

अभ्यास उनके लिए है जिनका चित्त कर्मप्रधान है, वैराग्य उनके लिए है जिनका चित्त ज्ञान प्रधान है। और याद रखिये चित्त में दोनों ही गुण होते ही हैं। कर्मप्रधान यानी राजसिक गुण, ज्ञान प्रधान यानि सात्विक गुण। चित्त में दोनों ही मौजूद हैं, इसीलिए अभ्यास और वैराग्य को साथ साथ चलना होता है। अभ्यास और वैराग्य को इसीलिए साथ साथ चलना होता है।

वैराग्य क्या कहता है? “बादल, तू मेरे कहने के कारण था, मैंने तुझे बादल बनाया था, मैंने तुझे पकड़ रखा था कि तू बादल है। और जा मैंने छोड़ा, मैंने छोड़ा।” इस छोड़ देने का नाम वैराग्य है। मैं अब मानता ही नहीं कि तू बादल है, तू गया।

आकाश तो नहीं जन्म देता आकारों को, अविद्या जन्म देती है ना आकारों को। आकाश को क्या लेना देना? मैंने अविद्या को छोड़ा। पर भूलियेगा नहीं “बिना अभ्यास के वैराग्य काम न आएगा, और बिना वैराग्य के अभ्यास मात्र थकान देगा। अभ्यास एक प्रकार का गृहयुद्ध है, एक अंदरूनी लड़ाई, जिसमे आपका एक हिस्सा आपके विरुद्ध खडा है।” वैराग्य नहीं है तो अभ्यास बड़ा मुश्किल हो जाएगा, बड़ी हिंसात्मक हो जाएगी अन्दर की लड़ाई। ज्ञान भी चाहिए, अभ्यास भी चाहिए। क्योंकि गुण दोनों मौजूद हैं। सतोगुण भी, रजोगुण भी। फिर क्या है?

श्रोता: वैराग्य में भी अभ्यास ज़रूरी है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, अगर इतना आसान होता तुम्हारे लिए ये कह देना कि “बादल तुझे छोड़ा”, तो बादल तुम बनने ही क्यों देते? बादल अविद्या से बना ना। इसका अर्थ क्या है? कि तुम्हारे भीतर वो वृत्ति गहरी बैठी हुई है जिससे बादल उठ रहे है। तुम कह सकते हो, “अंगारे, तुझे मैंने छोड़ा।” पर अगर तुम इतने ही होशियार हो कि अंगारे को अंगारा जान के छोड़ दो, तो तुमने अंगारा उठाया ही क्यों होता? वैरागी चित्त को बहुत बहुत सधा हुआ होना होता है। उसका बोध बड़ा गहरा होना चाहिए। बोध उतना गहरा था नहीं तभी तो तुम भ्रम में पड़े। तो इसीलिए उसके साथ अभ्यास ज़रूरी है।

श्रोता : वैराग्य ओर संन्यास एक ही हैं?

आचार्य प्रशांत: हाँ।

श्रोता 3: वैराग्य ओर परवैराग्य में क्या अंतर है?

आचार्य प्रशांत : साधारण वैराग्य क्या हुआ? साधारण वैराग्य ये हुआ कि जो मुझे दिखाई दे रहा है मैं उसको सत्य नहीं मानता। संसार को सत्य मानने की वृत्ति का त्याग है साधारण वैराग्य। ये वैराग्य बहुत आगे तक तो तुम्हें न ले जा पाएगा। कारण? तुम्हें संसार को तो सत्य मानना छोड़ा, पर स्वयं को अभी भी सत्य मानते हो, “मैं हूँ, संसार नहीं है, मैं हूँ।” तो इसीलिए

परवैराग्य क्या है? जब न तो तुम संसार को सत्य मान रहे हो, न अपने आप को सत्य मान रहे हो। मात्र संसार को छोड़ा तो वैराग्य, जब संसार के साथ साथ स्वयं को भी छोड़ दिया, वो परवैराग्य।

जब दृश्य को छोड़ा, तो वैराग्य, जब दृश्य के साथ द्रष्टा को भी छोड़ दिया, तो परवैराग्य। बात समझ में आ रही है? इसीलिए साधारण वैराग्य तुम्हें मात्र साक्षित्व तक ले जाएगा, लेकिन परवैराग्य साक्षित्व से आगे कि घटना है। वो तुरीयातीत है। साधारण वैराग्य तुम्हें सिर्फ ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय की त्रुटी से मुक्त करता है, तीन को छोड़ के तुम चौथे में अवस्थित हो जाते हो। परवैराग्य में तुम कहते हो, “चौथा भी कोई हमारा आसन नहीं हो सकता, हमारा आसन तो वहीँ लगेगा, परम आकाश में।”

लेकिन ये अन्तर फिलहाल हमारे किसी काम का नहीं है। ये अंतर पूछना वैसा ही है जैसे कोई आदमी जिससे अभी सौ मीटर न दौड़ा जाता हो, वो पूछे कि हाफ मैराथन दौडूँ कि फुल मैराथन? तुम पहले सौ मीटर दौड़ लो, वैराग्य ओर परवैराग्य शब्द भ्रम हैं जिनका पता नहीं, लेकिन जिनके लिए शब्द मौजूद हैं।

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