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लेख
अब लगन लगी की करिये || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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अब लगन लगी की करिये

अब लगन लगी किह करिए? ना जी सकीए ते ना मरीए।

तुम सुनो हमारी बैना, मोहे रात दिने नहीं चैना, हुन पी बिन पलक ना सरीए। अब लगन लगी किह करीए?

इह अगन बिरहों दी जारी, कोई हमरी प्रीत निवारी, बिन दरशन कैसे तरीए? अब लगन लगी किह करीए?

बुल्ल्हे पई मुसीबत भारी, कोई करो हमारी कारी, इक अजेहे दुक्ख कैसे जरीए? अब लगन लगी किह करीए?

~बुल्ले शाह

आचार्य प्रशांत : तीन जगह होती हैं, जहाँ से हमारे कर्म निकल सकते हैं।

मन की तीन अवस्थाएँ हैं। मन केंद्र पर नहीं है, और उसे ये एहसास भी नहीं है कि वो केंद्र पर नहीं है। और वो कर्म करे जा रहा है। मन स्रोत से जुदा है और उसे स्रोत से जुदा होने का कोई ज्ञान भी नहीं है। उसकी नींद, मूर्छा इतनी गहरी है, इस स्थिति में वो जो भी करता है वो पागलपन है। इसको कहेंगे मन की विक्षिप्त अवस्था।

मन की दूसरी अवस्था वो है, जिसमें मन केंद्र से हटा तो है, पर इतना जग गया है कि जान गया है कि बेचैनी इसी कारण है क्योंकि अलग हूँ, दूर हूँ, जुदा हूँ – ये विरह है। विरह में, और विक्षिप्तता में साम्य यह है, कि दोनों में ही दूरी है। और विरह में और विक्षिप्तता में अंतर यह है, कि विक्षिप्त मन जानता भी नहीं कि दूरी है, और विरही मन जानता है कि दूरी है। इसी कारण कष्ट है।

विक्षिप्तता और विरह के अलावा, एक तीसरी भी होती है स्थिति मन की, जहाँ से मन के कर्म निकलते हैं। वो होती है, विभुता – पा लिया। अब इस पाने के बाद, मन नाच रहा है। उसका नाचना ही उसके कर्म हैं। अब उसे कुछ और पाना नहीं है। उसे सिर्फ नाचना है, मस्त हो करके दौड़ना है, खेलना है, यूँ ही, बेमतलब। ये विभुता की स्थिति है। अधिकाँश व्यक्ति अधिकांश समय विक्षिप्तता में रहते हैं।

मन अधिकांश समय विक्षिप्तता में रहता है, कैसे? आप दुःख में होते हैं, और आपको दुःख का कारण भी नहीं पता होता। आपने कुछ नकली कारण बना लिए होते हैं। आपने कुछ नकली कारण बना लिए हैं, ये विक्षिप्तता है।

विक्षिप्तता की परिभाषा क्या है? दुःख में होना, और समझ भी न पाना कि दुःख क्यों कर? ये कह देना कि दुःख इसीलिए है क्योंकि अभी पैसे नहीं है। दुःख के नकली कारण हैं। पैसे नहीं हैं, संबंधों में खटास है, कुछ और अभी मिला नहीं है, इस तरह की बातें करना, ये विक्षिप्तता है।

विरह क्या है? कि दुःख तो है, पर अब पता चल गया है कि दुःख क्यों है। दुःख इसीलिए नहीं है कि पैसा नहीं है, पद नहीं है, कि प्रतिष्ठा नहीं है, कि पत्नी नहीं है, न, दुःख इसीलिए है, क्योंकि परमात्मा नहीं है।

विक्षिप्तता है, कि दुःख है, क्योंकि पैसा नहीं है, पद नहीं है, प्रतिष्ठा नहीं है, पत्नी नहीं है। और विरह है, कि दुःख है क्योंकि परमात्मा नहीं है। संसार भर रखा है, परमात्मा का कुछ पता नहीं है। ये विरह है। और याद रखिये, जब आप कहते हैं कि परमात्मा नहीं है तो ये परमात्मा के होने की शुरुआत है। क्योंकि आपने जान लिया कि कुछ है, जो मुझे नहीं मिल रहा। है तो, उसके होने में कोई शंका नहीं, है तो, मैं पता नहीं क्यों उससे दूर हूँ। तो इसीलिए विरह कष्टकारी होते हुए भी शुभ है।

कल शायद तुम लोग पूछ रहे थे कि फरीद ने विरह पर क्या कहा है? “विरह विरह आखिये, विरह ही सुलतान, जिस तन विरह ना उपजे, सो तन जान मसान।” क्योंकि विरह की वेदना उठी नहीं कि ये पक्का हो गया कि तुम्हारी विक्षिप्तता अब जा रही है। विक्षिप्तता जा रही है, और विभुता अब दूर नहीं है। बात समझ में आ रही है?

विरह का आखिरी बिंदु होता है, पा लेना। वो वैभव हासिल कर लेना जिसके बाद कोई दरिद्रता नहीं होती। उसको कहते हैं “विभुता”। जो ऊँचे से ऊँचा हो सकता है, उसे पा लिया, विभुता, परम वैभव मिल गया। अब ऐसा नहीं लग रहा कि कुछ कमी है। तो उस कमी का कारण खोजने की भी कोई ज़रूरत नहीं। जो पाना था, जो पाने योग्य था, वो मिल गया।

विक्षिप्त आदमी की पहचान यही है कि वो दस तरफ दौड़ेगा, पागल को कभी देखा है, नहीं चल पाता सीधी राह। आप भी अगर पाते हैं, कि दस तरफ दौड़ते हैं, कभी इधर को आकर्षित होते हैं, कभी उधर को भागते हैं, कभी इधर से डरते हैं, कभी उधर का लालच आता है, ये विक्षिप्तता की निशानी है। आपको नहीं पता कि आपको कहाँ जाना है, इसीलिए आप दस दिशा भागते फिरते हैं। विक्षिप्त आदमी अंधाधुंध भागता है, और हर दिशा भागता है। जहाँ से ही उसे कोई उम्मीद बंधती है कि सुख मिलेगा, वहाँ भागता है। आप उसे कहिये, मौका आया है, कुछ पैसे कमाने का, उधर को भाग लेगा। आप कहिये, कहीं कुछ मौका आया है, मुनाफा बनाने का, वो भाग लेगा। उसे गुलाम बनाना बड़ा आसान है। थोड़ा सा डर दिखाईये, थोड़ा सा लालच दिखाईये, चल देगा आपके पीछे। बिखरी बिखरी सी उसकी चाल होगी।

विरही मन भी खूब भागता है, पर वो अब दस दिशा नहीं भागता, वो एक दिशा भागता है। विक्षिप्त मन की सारी दिशाएँ संसार की होती है, और विरही मन, एक ग्यारहवीं दिशा की और भागता है, अंतर दिशा। विक्षिप्त आदमी चारों तरफ भाग रहा है, दसों दिशाएँ। विरही भी भागता है, पर संसार में अपनी दिशा नहीं खोजता, वो भीतर दिशा खोजता है।

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