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लेख
आत्मज्ञान और कर्म || योगवासिष्ठ सार पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कहा जाता है कि आत्मज्ञान केवल विचार से होता है, तो यहाँ विचार से क्या आशय है?

आचार्य प्रशांत: आत्मविचार। रमण महर्षि भी विचार की उपयोगिता पर बड़ा महत्व देते थे। पर वशिष्ठ या रमण अगर विचार कहें, तो जो हमारा साधारण, विक्षिप्त विचार है, उसकी बात नहीं कर रहे। वह दूसरी कोटि का विचार है, वह दृष्टि है। जैसे कबीर कहते हैं, “साधो करो विचार,” वो देखने की बात कर रहे हैं, समझने की बात कर रहे हैं। तो जहाँ पर विचार कहे कोई मनीषी तो समझिएगा आत्मज्ञान—स्वयं को देखना; स्वयं के बारे में सोचना उतना नहीं जितना स्वयं को देखना।

प्र२: कर्म पुरुषार्थ से होता है। पुरुषार्थ से क्या आशय है?

आचार्य: पुरुषार्थ से आशय है उचित कर्म। हम कर्म होने नहीं देते है।

कर्म आत्मा से उठते संवेग की पूर्णता और परिणति है। आत्मा से जो उठता है, वह विचार माध्यम से होता हुआ अंततः कर्म ही बनना होता है, तब जा करके उसका वर्तुल पूरा होता है। (ह्रदय की ओर संकेत करते हुए) यहाँ से उठा, (मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) इसको माध्यम बना के गुज़रा, (हाथ को इंगित करते हुए) और अंततः यहाँ तक पहुँचा।

हमारे साथ कुछ ऐसा होता है कि ह्रदय से तो उठता है लेकिन मस्तिष्क पर जाकर अटक जाता है। हम शुद्ध कर्म, तीव्र कर्म में इसलिए नहीं उतर पाते क्योंकि कर्म का स्थान विचार ले लेता है। कर तो आप तब पाएँ न जब विचारों की उहापोह से मुक्त हों, हाथ पूरी ऊर्जा के साथ चलें, बिना अड़चन के चलें। उसके लिए आवश्यक होता है कि मन न चल रहा हो; मन यदि चल रहा है तो हाथों को नहीं चलने देगा, कर्म को नहीं होने देगा।

बात ह्रदय से, आत्मा से उठनी चाहिए। रास्ते में माध्यम से उसे कोई बाधा नहीं मिलनी चाहिए।

बुद्धि का काम कर्म का निर्धारण नहीं होता है, बुद्धि होती है ताकि कर्म सुचारु रूप से हो सके।

इन दोनों बातों में अंतर है। क्या होना है? वो तो निर्धारित ह्रदय करेगा, आत्मा करेगी। बुद्धि का काम है कि जो होना है, उसका उचित प्रबंध करे, उसके लिए उचित व्यवस्था और आयोजन करे। क्या होना है, यह निर्धारित नहीं करेगी बुद्धि; किस दिशा जाना है, यह नहीं निर्धारित करेगी बुद्धि। हाँ, उस दिशा जाने के लिए साधन क्या बनेगा, तैयारी क्या चाहिए, यह बुद्धि को निर्धारित करना होता है।

बुद्धि अधिक-से-अधिक प्रबंधक है, व्यवस्थापक है; गुरु नहीं हो सकती, नेतृत्व नहीं आ सकता बुद्धि के हाथ में। जब बुद्धि के हाथ में नेतृत्व आ जाता है तो कर्म गड़बड़ा जाता है। फ़िर बुद्धि ज़्यादा चलती है, शरीर कम चलता है, और यदि चलता भी है तो विक्षिप्त दिशाओं में चलता है।

जब कहा जाता है कि पुरुषार्थ ही दुःख को काटता है या पुरुषार्थ ही पूर्व संचित कर्मों को काटता है, तो उससे आशय है कि ह्रदय से जो बात निकलती है, जो स्पंदन उठता है, उसी में क्षमता होती है पुराने जमा सारे कूड़े-कचरे की सफाई कर दे। उस बात को आप पुरुषार्थ से इतना मत जोड़िएगा, ह्रदय से जोड़िएगा।

प्र३: पूर्वकृत पुरुषार्थ जो है, वो ह्रदय से उठता है?

आचार्य: नहीं, वहाँ तो बात दूसरी है। पूर्वकृत पुरुषार्थ से अर्थ है वो कर्म जिसका आपने पहले ही निर्धारण कर लिया है। पूर्वकृत – जो पहले से ही निर्धारित है। पुरुषार्थ का अर्थ समझ रहे है न? जो पुरुष के लिए करणीय है, जिसमें पुरुष के लिए रस है, जिसमें पुरुष के लिए अर्थ है। ‘पुरुष’ से क्या अर्थ है? साक्षी आत्मा। पुरुषार्थ वो जो सीधा ह्रदय से उठे; वो त्वरित होता है, उसमें अतीत का कुछ नहीं हो सकता तो पूर्वकृत नहीं हो सकता।

जिन्होंने पहले से ही तयशुदा कर्मों को अपने लिए चुन लिया, वे मूर्खता में फँसते हैं। और वे मूर्खता में फँसने के लिए अपने आप को तर्क देते हैं कि ये तो दैव है। दैव समझ रहे हैं? वह जो प्रारब्ध द्वारा निर्धारित है, वह जो दैवीयता आ रहा हो, जिसका आप कुछ कर नहीं सकते। इसीलिए वशिष्ठ यह भी कहते हैं कि दैव मात्र मूर्खों की कल्पना है।

असली कर्म तुम्हारे लिए सिर्फ वो है जो तुम्हारे तात्कालिक, त्वरित बोध से उठे। बात समझ में आई, इसलिए कर्म किया है। इसलिए नहीं कर्म किया कि पहले से ही निर्धारित कर्तव्य बैठा हुआ था, इसलिए नहीं कर्म किया कि पुराने अभी हिसाब निपटाने है।

दोनों बातें वहाँ पर एक साथ कही जा रही हैं। दोनों को एक साथ समझिएगा।

उचित कर्म सारे बंधन तोड़ता है और अनुचित कर्म उन बंधनों को और स्थायी बना देता है।

कर्म पर ज़ोर है, कर्म की महत्ता की बात है। जहाँ से वशिष्ठ देख रहे हैं, वहाँ से कर्म ही सब कुछ है। उसी से मुक्ति आनी है, उसी से बंधन बनना है। पर कर्म कहाँ से आ रहा है? जो कुछ भी कर रहे हो, उसका स्रोत क्या है? कोई भावना है जो मन में बैठा रखी है, वहाँ से हाथ-पाँव चल रहे हैं तुम्हारे, वहाँ से गति संचालित हो रही है तुम्हारी? या जो सामने है, स्पष्ट, जिससे मुँह नहीं चुराया जा सकता, जो बात सूरज की तरह चमक रही है, उसको देखकर उसके अनुसार चल रहे हो?

रुकिएगा नहीं, जब तक बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाती पूछते रहिए।

प्र४: आचार्य जी, हम जो भी करते हैं, ज़्यादातर तो वो हमारे डर या हमारे भीतर बैठी हुई वृत्तियों की वजह से करते हैं। जो हमें दिख रहा होता है, वो भी हम नहीं कर पाते उस दबाव की वजह से। विचार भी हमारे अपने नियंत्रण में नहीं होते। ह्रदय से जो बात आ रही है, वो कैसे पीछे हट जाती है? विचार उसमें कैसे आगे आ जाता है? ह्रदय की आवाज़ हम तक क्यों नहीं पहुँच पाती है?

आचार्य: ये सब कुछ जब भी हो रहा होता है, बिना आपके संज्ञान के नहीं हो रहा होता। ये सब कुछ जब भी हो रहा होता है, आपको पता होता है। आप पानी पी रहे हों, उसमे थोड़ा भी अगर मिट्टी का तेल मिल गया हो तो ऐसा नहीं है कि आपको पता नहीं चलेगा। एक को पीना आपका स्वभाव है और दूसरा आपके लिए एक विजातीय तत्व है। दूसरा कुछ ऐसा है जो आपका शरीर, आपकी व्यवस्था स्वीकार नहीं करना चाहती।

तो ऐसा कभी नहीं होगा कि आपको पता नहीं चलेगा कि आपने क्या ग्रहण कर लिया। हाँ, आप अपने आप को तर्क दे दें, समझा दें, मजबूर कर दें तो अलग बात है। ह्रदय से जो उठती है बात, उसको पानी जानिए। वो आपकी प्यास बुझाएगी, वो आपको संतुष्ट कर जाएगी। और मन से उसमें जो मिलावट होती है, उसे मिट्टी का तेल जानिए, वो व्यर्थ ही साथ जुड़ रही है, उससे आपको कोई संतुष्टि नहीं मिलनी है। वो मिलावट आपकी प्यास नहीं बुझाने वाली।

दो बूँद पानी में अगर आप दस बूँद मिट्टी का तेल मिला रहे हैं, तो दो बूँद से भी आपकी जितनी प्यास बुझती, अब वो भी नहीं बुझेगी। आप व्यर्थ ही बात का आकार बढ़ा रहे हैं, आप व्यर्थ ही छोटी सी बात में हज़ार अन्य किस्से जोड़ रहे हैं। उन किस्सों को जोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। जो चीज़ सीधी है सो है। पानी पानी है, इसमें कुछ और मिलाना न ज़रूरी है, न उचित।

ये टी.वी. है आपके पीछे। इसमें समय पर कोई खेल आ रहा होता है, एक समय पर समाचार आ रहे होते हैं, एक समय पर गाना-बजाना चल रहा है, एक समय पर कोई फिल्म चल रही है, एक समय पर लड़ाई-झगड़ा चल रहा है, एक समय कुछ और। वही स्क्रीन है जो आपको सब कुछ दिखा रही है। जब आप उसमें कोई गीत देख रहे होते हैं तो क्या ये विचार करते हैं कि थोड़ी देर पहले यहाँ पर हिंसा चल रही थी या थोड़ी देर पहले तो इसमें युद्ध का समाचार आ रहा था? करने को तो कर सकते हैं, कि नहीं?

अब उचित कर्म बाधित हो जाएगा, अब बात अटक जाएगी। जो दिख रहा होगा, वो प्रत्यक्ष होते हुए भी नहीं दिखेगा और जो प्रत्यक्ष है, उसकी जगह आप जो देख रहे होंगे, वो कहीं होगा नहीं। जहाँ गीत चल रहा है, वहाँ भी आपको युद्ध ही दिखाई देगा, और वो युद्ध कहीं है नहीं।

वशिष्ठ हमसे कह रहे हैं कि हाथ चलाओ। शरीर चले तो अच्छा है। मन के चलने को शरीर के चलने का विकल्प मत बना लो।

ह्रदय से भरपूर रहो – मन से खाली और कर्मों में गतिमान।

उन्होंने दूसरा छोर पकड़ा है। कर्मों में आप सरल सुचारु रूप से गतिमान ही तभी होते हैं जब आपका जीवन ह्रदय पर आधारित होता है। वे इसी बात को ऐसे भी कह सकते थे कि "राम! ह्रदय पर चलना।’’ पर राम को राजा होना है, राम को जीवन भर क्षत्रिय रहना है, राम को कर्मप्रधान रहना है, और जिसको कर्मप्रधान रहना है, उसके लिए अच्छा ही है कि कर्म के छोर से बात की जाए।

वास्तव में जो आदमी साफ़ ज़िन्दगी जी रहा होगा, उसकी एक पहचान यह होगी कि उसका कर्म बड़ा द्वंदरहित होगा। वो आतंरिक संघर्षों से मुक्त होगा। आप उसे न तो घिस-घिस के करते हुए पाएँगे, न करते हुए बार-बार अटकता हुआ पाएँगे।

और यह ज़्यादा साफ़ और ईमानदार सूत्र है, क्योंकि अपने आप को यह धोखा दे देना तो फिर भी आसान है कि आत्मा पर चल रहे हैं। आत्मा किसने देखी है? लेकिन जब कर्म कसौटी बनता है तो आप अपने-आप को धोखा नहीं दे पाएँगे। आपका जीवन आपका झूठ उजागर कर देगा। आप कह तो रहे हैं कि आप ह्रदय को समर्पित हैं, सत्य को समर्पित हैं, पर जैसे ही आपके कर्म देखे जाएँगे, भेद खुल जाएगा, झूठ सामने आ जाएगा।

जो ह्रदय से सत्य को समर्पित है, वही जीवन में कर्म को भी समर्पित हो सकता है। अन्यथा आप किसी काम को समर्पित हो ही नहीं पाएँगे। दिल में अगर झूठ है तो आप जो भी काम कर रहे हैं, उसमें उथले-उथले रहेंगे।

डूबना, आप्लावन या समर्पण, इमर्शन , ये दो दृष्टियों से देखा जा सकता है। ह्रदय निराकार है तो वहाँ जब समर्पण होता है तो निराकार सत्य को होता है। शरीर और जीवन साकार है, वहाँ जब समर्पण होता है तो साकार, मूर्त कर्म को होता है।

प्र४: यही वो सहज कर्म है जिसे वशिष्ठ उद्योग का नाम दे रहे हैं?

आचार्य: (हाँ में सर हिलाते हुए) देखिए न कि बात किससे कर रहे हैं। वो राजकुमारों से बात कर रहे हैं। जब आत्मा के तल स्थिरता होती है, तब कर्म के तल गहनता होती है, तीव्र गति होती है। चूँकि राजकुमारों से बात कर रहे हैं इसलिए स्थिरता की बात करना बहुत उचित नहीं है। तो उनसे अगर स्थिरता की भी बात करनी है तो गति के रूप में करेंगे।

प्र४: और इसीलिए वहाँ पर संकल्प की भी आवश्यकता नहीं है कि संकल्प करके होगा।

आचार्य: मज़ेदार बात है न! संकल्परहित उद्यम, इच्छा रहित उद्योग। संकल्प नहीं है लेकिन कर्म में ज़ोर पूरा है। संकल्प कहाँ से आता? वो बिचोलिये से आता, इस बीच वाले (मस्तिष्क) से। ये है ही नहीं बीच में। कर्म सीधे ह्रदय से उठ रहा है और हाथों तक आ रहा है। बीच में सोच-विचार के द्वारा उसको मलिन नहीं किया जा रहा। संकल्प के बल की कोई ज़रूरत ही नहीं है, बल सीधे सत्य से मिल रहा है। जब सत्य आपके साथ है तो संकल्प का क्या करेंगे?

प्र२: आचार्य जी, तो फ़िर जो सामान्य प्रतिक्रियाएँ होती हैं और इसमें क्या अंतर है? जैसे शरीर को अगर गर्म लगा, आग लगी तो भाग गए और एक ये संकल्परहित कर्म है। ये दोनों समान ही हैं या अलग-अलग हैं?

आचार्य: इसको समझना पड़ेगा। अहंकार के दो तल होते हैं: एक प्रकृति के तल पर, इन्द्रियों के तल पर, जैविक तल पर और दूसरा होता है सामाजिक तल पर। प्रकृति के तल पर जो अहंकार होता है, वो सिर्फ प्राकृतिक भरपाई चाहता है, वो सीमित होता है। इसीलिए ज्ञानियों ने, गुरुओं ने उसकी बात बहुत कम करी है, और करी भी है तो अंत में करी है। शुद्ध प्रकृति या इन्द्रियों के तल पर आपकी जो इच्छाए उठती हैं, वो अनंत नहीं होतीं।

हाँ, समाज के तल पर जो निर्मित अहंकार होता है, वो असीम होता है, उसकी भरपाई कभी नहीं होती। आप खाना कितना खा सकते हैं? आप पानी कितना पी सकते हैं? आप नींद कितनी ले सकते हैं? ये सब इच्छाएँ हैं। वासना में भी आप कितने उद्यत हो सकते हैं? ये सब इच्छाएँ बार-बार तो आती हैं, पुनरुक्त तो होती हैं, लेकिन अनंत नहीं होतीं। प्यास की पुनरुक्ति होती है लेकिन प्यास अनंत नहीं होती। जब एक बार प्यास लगी, आप पानी पीते हैं तो प्यास बुझ गई।

किसी जीव को भी देखें जो पूरे तरीके के प्राकृतिक तल पर जी रहा है, वो खाने के पीछे भागेगा या उसकी एकाध जो प्राकृतिक इच्छाएँ हैं, उनके पीछे भागेगा। और जैसे ही वो इच्छा पूरी होगी, वो आपको करीब-करीब समाधिस्थ लगेगा। कोई जीव देखिएगा जिसका पेट भरा हुआ और वो विश्राम कर रहा हो, उसमें आप किसी तरह का आवेग या हिंसा नहीं पाएँगे। हाँ, उसका पेट दोबारा खाली होगा तो वो दोबारा कम्पित हो जाएगा, दोबारा आवेश में आकर दौड़ेगा, हिंसा करेगा, झपटेगा इत्यादि। पर जिस समय उसकी प्राकृतिक माँग पूरी है, उस समय आप उसको शांत ही पाएँगे।

प्रकृति बहुत ज़्यादा आपसे नहीं चाहती। वो इतना ही चाहती है कि शरीर की सुरक्षा बनी रहे और शरीर का सातत्य बना रहे। तो प्रकृति के तल पर जो आपकी प्रतिक्रियाएँ उठती हैं, जैसे आपने कहा कि कुछ गर्म छूआ और उस पर से हाथ हटा लिया, उन प्रतिक्रियायों को दबाने के लिए आपसे कोई संत या ज्ञानी नहीं कहेगा।

गर्म तवे पर आपका हाथ पड़ गया और एक झटके से आपने हाथ हटा लिया, कोई बुद्ध नहीं आएँगे आपसे कहने कि आपने पाप कर दिया। वो करीब-करीब परमात्मा की ही इच्छा है। वो यदि अहंकार है भी तो बड़ा सीमित अहंकार है। वो परमात्मा से होड़ में नहीं है, वो तो बस इतना चाहता है कि ये जो ज़रा सा जीव है, इसकी भौतिक सत्ता बनी रहे, इसका हाथ जल ही न जाए। उन जगहों पर संकल्प की कोई आवश्यकता नहीं है। शरीर का यंत्र अपनी सत्ता बचाना चाहता है और इससे अधिक उसका कोई प्रयोजन नहीं है।

जो मानवकृत अहंकार होता है, जो समाजकृत अहंकार होता है, वो तो सीधे-सीधे परमात्मा से प्रतियोगिता में होता है। वो दूर तक अपनी सुरक्षा चाहता है और उसकी जो सुरक्षा की माँग है, वो जैविक तल पर नहीं होती, मानसिक तल पर होती है। उसे फिज़िकल (भौतिक) नहीं साइकोलॉजिकल सिक्योरिटी (मनोवैज्ञानिक सुरक्षा) चाहिए। दुःख वहाँ है आदमी का—उसी से बचना है।

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