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लेख
आलस की समस्या और काम में मन न लगना || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: आचार्य जी, किसी भी काम में मन नहीं लगता। आलस बना रहता है। इस आलस से छुटकारा कैसे पाएँ?

आचार्य प्रशांत जी: आलस से ज़्यादा सुन्दर कुछ मिला नहीं। आलस के मज़े होते हैं। आलस से ज़्यादा मज़ेदार कुछ मिला ही नहीं अभी तक।

सुबह-सुबह बिस्तर पर पड़े रहने के मज़े होते हैं। और एक मज़ा ये होता है कि- खिड़की खोलो, सर्दी की धूप है, सामने बागीचा है, वहाँ जाओ भागकर। और अगर बागीचा ही न हो? तो पड़े रहो। फ़िर तो आलस ही सबसे ज़्यादा मज़ेदार है।

आलस सिर्फ़ ये बताता है कि जीवन में कुछ ऐसा है ही नहीं जिसकी ख़ातिर तुम दौड़ लगा दो। जैसे ही वो मिलेगा, दौड़ना शुरू कर दोगे। ‘अहम्’ को कुछ तो चाहिए न पकड़ने को। कुछ और नहीं मिलता है, तो वो आलस को पकड़ लेता है।

आलस अपने आप में कोई दुर्गुण नहीं है। आलस सिर्फ़ एक सूचक है। जब कुछ अच्छा मिल जाएगा, आलस अपने आप पलक झपकते विदा हो जाएगा।

बहुत मोटे-मोटे बच्चे देखे हैं मैंने, घर पर पड़े हुए, तीन-चार साल तक के बच्चे। देखे हैं? उनका स्कूल में दाख़िला होता है, तुरंत पतले हो जाते हैं। क्यों? दोस्त-यार मिल गए, खेल का मैदान मिल गया। अब दिनभर भागा-दौड़। अब चाहता कौन है कि घर में चुपचाप बैठ जाएँ! घर में क्या था? वही मम्मी, वही पापा! मन ही नहीं करता हिलने का। बाहरवीं पास करके, जितने भी आई.आई,टी. में पहुँचते थे, उसमें आधे बिलकुल थुल-थुल। क्यों? क्योंकि घर में बैठकर पढ़ाई कर रहे थे। पहले सेमेस्टर के बाद जब घर छुट्टियों के लिए जाते थे, सब पतले दिखते थे। क्यों? क्योंकि वहाँ इतना कुछ मिल गया, कि कौन बिस्तर पर पड़े रहना चाहता है।

इतने नए दोस्त-यार, खेलने की इतनी सुविधाएँ। लगातार जगे रहने के इतने आकर्षण। रातभर एक कैंटीन से दूसरी कैंटीन, एक हॉस्टल से दूसरे हॉस्टल। कभी कुछ कर रहे हैं, कभी कुछ। अपने आप पतले हो गए। क्योंकि कुछ मिल गया जो बिस्तर से ज़्यादा मूल्यवान था, आकर्षक था, सुन्दर था।

आलस – एक अर्थ में तो सन्देश देता है बस। क्या सन्देश? जीवन नीरस है। कुछ है नहीं ऐसा कि तुममें बिजली कौंध जाए। कुछ है नहीं ऐसा कि तुम लपक के खड़े हो जाओ, और कहो कि – “ये चाहिए।” और जब तक वो नहीं रहेगा, तो आलस ही रहेगा।

ठीक है! आलस के ही मज़े ले लो।

श्रोता: आचार्य जी, ऐसा भी होता है कि जो काम करना होता है, उसको भी टालते रहते हैं। ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत जी: जो काम करना होता है, वो काम ही ग़लत हो तो? जो अच्छा होता, उसके लिए तो प्रेम उठता न। और प्रेम में आलस कहाँ होता है। हमें तो कोई मिला नहीं जो प्रेमी से मिलने के समय सोता रह गया हो। तब तो अलार्म भी नहीं चाहिए होता। तब तो अलार्म को तुम जगाते हो।

ज़िंदगी में जिन-जिन चीज़ों से संयुक्त हो, जिनमें शामिल हो, उन चीज़ों को पैनी दृष्टि से देखो। प्रेम है कहीं पर? या मजबूरी में ही ढोये जा रहे हो? ज हाँ मजबूरी होगी, वहाँ आलस होगा।

श्रोता: तो क्या उन चीज़ों से प्रेम करना शुरू करें, जिनको करने में आलस आता है?

आचार्य प्रशांत जी: (व्यंग्यात्मक तरीके से) हाँ, ज़बरदस्ती। सीखोगे प्रेम कैसे किया जाता है! ये देख रहे हो क्या कोशिश चल रही है? बदलना नहीं है। करना वही सब कुछ है, जो कर रहे हैं। जीना वैसे ही है, जैसे जी रहे हैं।

“आचार्य जी ने बताया कि प्रेम ज़रूरी है, तो ठीक है। जो कर रहे हैं, उसी से प्रेम करेंगे।” और ऐसे बहुत जन हैं जो पिछले दस साल से यही बता रहे हैं, “जो कर रहे हो, उसी से प्रेम करो,” “वर्तमान में ध्यानमग्न हो जाओ।”

कैसे?

जिस जगह पर हो, वहाँ तुम्हें होना नहीं चाहिए। वहाँ ध्यानमग्न कैसे हो जाओगे? तुम एक ऐसी जगह पर हो, जहाँ से जान बचाकर तुम्हें नौ-दो ग्यारह हो जाना चाहिए, और तुम कह रहे हो, “ हियर एंड नाओ (यहाँ और अभी)”, “जो कर रहे हो, उसी को डूबकर करो।”

और हत्या कर रहे हो तो? और ये ख़ूब चल रहा है, क्योंकि ये बात रुचती है। इस बात को सुनकर कोई क्रांति नहीं करनी पड़ती। क्योंकि इस बात में आलस को पूरा प्रश्रय मिलता है। तुम्हें बता दिया जाता है, “तुम जहाँ हो मुक्ति वहीं पर है।” और ये बातें बहुत प्रचलित हैं।

समसामयिक अध्यात्म में यही सब कुछ चल रहा है।

“जो कर रहे हो, उसको डूब कर करो।”

“तुम जहाँ पर हो, स्वर्ग वहीं पर है।”

और ये बातें बेहुदा हैं।

तुम जैसे हो, इसलिए ही तो हो, क्योंकि जहाँ हो, वहाँ फँसे हुए हो। जब तक तुम अपने परिवेश को बदलने की अनुमति नहीं दोगे, तुम्हारा जीवन कैसे बदल जाएगा? “जो करो उसी को डूब कर करो”- भले ही वो कितना ही घटिया काम हो? इस पर कहेंगे, “कुछ घटिया और कुछ अच्छा होता ही नहीं, सब एक बराबर है।” अच्छा, सब एक बराबर है? हम आपको अभी एक थप्पड़ मारें, डूबकर? जो करो डूबकर करो, तो हमने डूबकर आपको मारा एक थप्पड़।

बहुत सारी चीज़ें बदलनी पड़ती हैं, छोड़नी पड़ती हैं। सख़्त निर्णय लेने पड़ते हैं। तुम्हारी उम्मीद अगर यह है कि ज़िंदगी वैसी ही चलती रहे, जैसी चल रही है, और साथ-ही-साथ मुक्ति भी मिल जाए, तो तुम मुक्ति इत्यादि को भूल जाओ। जैसी ज़िंदगी चला रहे हो, चलाओ।

कहेंगे, “उन गुरुजी ने कहा था कि अगर तुम दुकान में हो, तो मुक्ति दुकान में मिल जाएगी। तुम बाज़ार में हो, तो मुक्ति बाज़ार में मिल जाएगी।” अच्छा! ज़रूर! और अगर वो वैश्यावृत्ति की दुकान हो तो? वो काले-धंधे की दुकान हो तो? तुम्हें वहाँ भी मुक्ति मिल जाएगी? वाक़ई?

और ऐसी क्या मजबूरी है कि तुम वो दुकान छोड़ नहीं सकते? आध्यात्मिक मजबूरी है कोई, कि उसी दुकान में बैठे रहना है? निश्चित रूप से स्वार्थगत मजबूरी है। तो तुमसे कहा जा रहा है कि उन स्वार्थों को बचाए-बचाए तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी।

वाक़ई?

इन सब बातों से ज़रा बचकर रहना।

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