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लेख
आदमी की होशियारी किसी काम की नहीं || आचार्य प्रशान्त (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: कुछ भी संयोगवश नहीं है। पाँच उँगलियाँ भी हैं तुम्हारी, तो पाँच ही होनी थी, छह नहीं हो सकती। पूरी जो शरीर की विकास प्रक्रिया रही है, जिसमें अस्तित्व के एक एक अणु का योगदान है, उसने ये तय किया है कि पाँच उँगलियाँ हों, और इतना कद हो तुम्हारा, और ऐसा रूप रंग हो। ठीक है?

जहाँ इतनी तीव्र समझ है, इतनी गहरी मेधा है कि वो जानते हैं कि तुम्हारे ह्रदय को कैसे आकार देना है, तुम्हारी उँगलियों को कैसे आकार देना है, और जीसस कह रहे हैं कि ये तक वो जानते हैं कि तुम्हारे सिर में कितने बाल होने चाहिए। तो अब तुम्हें फ़िक्र करने कि क्या ज़रूरत है? जो इतनी बारीकी से तुम्हारे विषय में सारी जानकारी और सारी समझ रखता है, उसके होते हुए, तुम क्यों बरगलाए रहते हो? तुम अपना ख़याल करोगे? तुम जानते हो तुम्हारे सर में कितने बाल हैं? तुम्हें क्या ठीक ठीक ये भी पता है कि तुम्हारे शरीर में जो भी प्रक्रियाएँ होती हैं, वो क्या हैं और कैसे होती हैं?

पर कोई और है जो सब जानता है, उसके जाने बिना ये बनता कैसे? किसी शक्ति द्वारा संचालित है, कोई समझ है जिसने इसका डिज़ाइन, इसका खाका खीचा है, और वो तुमसे ज्यादा जानती है तुम्हारे शरीर और मन के बारे में। तो सन्देश स्पष्ट है, काहे को चिंता में भूले जा रहे हो? तुम तो बस एक फ़िक्र करो, अपनी होशियारी से बचा रहूँ, इसके अलावा और कोई चिंता मत करो।

जब पूरा ब्रह्माण्ड मिल कर के तुम्हारा ख़याल रख रहा है, तो सिर्फ एक तरीका है कि तुम्हारा नुकसान हो सके, वो क्या?

श्रोता १: अपना ख़याल खुद रख के।

वक्ता: जब तुम अपना खयाल खुद रखने लगो। जिसने अपना ख़याल खुद रखा वही पाएगा कि गहरे से गहरा नुकसान कर लिया। और जितना तुम अपने आप को अस्तित्व के भरोसे छोड़ते चलोगे, उतना पाओगे कि फल फूल रहे हो। डर खूब लगेगा, क्योंकि अब संस्कार उलटे हो गए हैं। लेकिन पाओगे ये क्या हो रहा है?

“जितनी अपनी फ़िक्र नहीं करता हूँ, उतना मजे में जीता हूँ, और जितनी अपनी फ़िक्र करता हूँ, बस फ़िक्र ही फ़िक्र पाता हूँ।” तुम एक मामले में फ़िक्र करो, तुम्हे फ़िक्र करने के सौ और बहाने मिल जाएँगे , करके देखना।

जिन चीज़ों की तुम कभी फ़िक्र नहीं करते थे, ज़रा उनकी करके देखो। तुमने अपने शरीर के जो टेस्ट आज तक न कराए हों, उन्हें करा के देखो। तुम्हे चिंता के पाँच नये कारण मिल जाएँगे। मान नहीं रहे हो, किसी दाँतों के डॉक्टर के पास जा के देखो, तुम्हे भरोसा हो जाएगा कि एक हफ्ते के भीतर तुम्हारे मुह में अणु बम का विस्फोट होने वाला है, जाकर के देखो। दाँतों का डॉक्टर तो दाँतों का डॉक्टर है, मैं तो बाल कटाने भी जाता हूँ, वहीँ बड़ी चिंता में डाल देता है, कहता है, “इतनी उम्र में इतने गंजे?” अब उसकी मानूँ तो मुझे पता नहीं क्या क्या करना चाहिए। वो हीना और लेके खड़ा हो जाएगा – “ये ब्लीच लगवा लो, तुम्हारा मुह ठीक नहीं है, तुम्हारी दाढ़ी सफ़ेद हो गई है, ये रंग पुतवा लो।” एक काम मैं उसके कहे पर करने लग जाऊँ तो दस काम और होंगे, और दस चिंताएँ पालनी पड़ेंगी।

छोड़ दो ना, जिसने दाढ़ी दी है, वो दाढ़ी का खयाल भी कर लेगा। तुम क्यों उसको जर्मन और फ्रेंच और पाकिस्तानी कट दिए जा रहे हो? (सब हँसे ज़ोर से) मुँह पर उगती है, मुँह पर ही उगेगी, बिलकुल फ़िक्र न करो, कभी नहीं होगा कि माथे पर दाढ़ी आ गई। हाँ? पर हम ज्यादा होशियार हैं, हमने कभी सोचा ही नहीं कि जैसे दाढ़ी के बाल आते हैं, उसके पीछे उनकी एक समझ है। बालों की अपनी एक समझ है कि नहीं है? या कभी देखा है कि पगला गये ओर सुबह उठे तो देखा कि इतने लम्बे हो गए, या कि लद रहे हैं आपस में, ओर गुत्थम गुत्था हो गए हैं, और गाँठें पड़ी हुई हैं? क्यों? बाल लद रहे हैं।

बाल भी होशियार हैं, उन्हें पता है कितना उगना है, कब उगना है, किस काल में सफ़ेद हो जाना है, और कब गिर जाना है। सब जैसे किसी बहुत समझदार ताकत के इशारे पर चल रहा हो। पर हमें यकीन ही नहीं है। यकीन ही नहीं। हम ज्यादा समझदार समझते हैं अपने आप को, इस पूरे विस्तार से। हम सुन्दर पैदा थोड़े ही हुए हैं, हमें सुन्दर बनना पड़ेगा, कैसे? बाल नुचवा के। अभी वो रेडिफ पर वोटिंग चल रही थी कि, वैक्सिंग, क्यों बेहतर है (दूसरा तरीका क्या होता है बाल नुचवाने का?)

श्रोता: शेविंग।

वक्ता : शेविंग। हाँ, कोई तीसरा भी है। (सब जोर से हँसते हैं) तो जिसने तुम्हे बनाया, उससे गलती हो गई, कि उसने तुम्हारे शरीर पर बाल दे दिए। तुम ज्यादा होशियार हो। तुम जाओगी और कहोगी कि वैक्सिंग करो, तब हमारी सुन्दरता निखरेगी। नहीं, देने वाले ने तो तुम्हें कुरूप बनाया है। देने वाले ने षड्यंत्र रचा है, इसका सौन्दर्य खराब कर दो, इसके हाथ पर, और टांग पर और शरीर पर बाल डाल दो खूब सारे। देने वाले से गलती हो गई है। तुम ज्यादा होशियार हो।

देने वाले से गलती हो गई कि उसने तुम्हें फल दिए और सब्जियाँ दी, और अन्न दिया, तुम्हें उसको हज़ार तरह के व्यंजनों में तब्दील करना है। तुम ज्यादा होशियार हो। तुम्हें उसमें मसाले मिलाने हैं, और पाँच सात जानवर काट के मिलाने हैं, और फिर उसको इतनी आँच तक पकाना है, ठीक सोलह मिनट आठ सेकंड तक। ये जो पेड़ों पर लग रहे हैं फल, ये तो बेकार ही लग रहे हैं। कभी तुमने सोचा है, कितनी कोशिश कर लो, एक फल पैदा कर सकते हो? करो पूरी कोशिश, एक फल पैदा कर सकते हो? अपनी किसी प्रयोगशाला में एक आम बना करके दिखा दो। जिसने आम बनाया है, वो कितना बड़ा कलाकार है समझ रहे हो?

और आम को उसने तुम्हारे साथ बनाया है, तुम्हारे लिए बनाया है। पर आम से चैन नहीं है, बर्गर चाहिए। हम ज्यादा होशियार हैं ना। आम की कीमत लगेगी, बहुत लगेगी। कब लगेगी? जब आम नहीं रहेगा। क्योंकि आम तुम बना नहीं सकते। फिर बड़ी कोशिश करोगे किसी तरह से कृत्रिम आम बनाया जाए। और बनेगा कुछ नहीं, वो आम की जगह पता नहीं क्या हाथ में आ जाएगा। पर उसको बड़ा रस ले लेके चूसोगे, “आहा! ये हमारे पुरुषार्थ का नतीजा है, मुफ्त में नहीं मिला है। हमारे पूर्वजों को मिलता था वो तो यूँ ही रद्दी मुफ्त का आम था, बस यूँ ही पेड़ पर लग जाता था, अरे मेहनत ही नहीं करते थे। बस जाते थे, तोड़ लेते थे, खा लेते थे। ये कोई ज़िन्दगी है? गंवार। ये देखो हमारी मेहनतों का आम, बड़ा चुसा हुआ सा लगता है, पर कोई बात नहीं। पीले कि जगह काला है पर कोई बात नहीं, खुशबू की जगह बदबू मारता है, पर कोई बात नहीं। रस नहीं है, और चूसो तो दाँत टूटते हैं पर कोई बात नहीं, अरे हमारी कमाई है। हमारे पुरुषार्थ से निकली है।”

श्रोता: माज़ा (एक पेय पदार्थ) भी तो यही बोल के बेचते हैं कि आम का विकल्प है।

वक्ता: बिलकुल। आम का विकल्प है। देने वाले ने हवा दी है, तुम हवा ज़रा पैदा करके दिखाओ। पर बड़ा आनंद आएगा जब वही हवा दबाव बोतलों में मिलेगी, और नाक में लगाओ, ये देखो, ये इंसान कि तरक्की का प्रमाण है।

श्रोता: सर, ये मिल रही है आजकल चीन में।

वक्ता: देखो, गज़ब है। शुभांकर तक खबर पहुँच गयी है। और बच्चों को बताया जाएगा आदमी महान है, साँस लेने के लिए हवा तक का प्रबंध कर लेता है। अरे छोटी बात है ये? अस्तित्व ने तो साजिश रची थी कि हम हम ख़तम ही हो हो जाएँ, सारी हवा खराब कर दी। इन कीड़े, मकौड़ों ने सारी हवा खराब कर दी। पर हमने शुद्ध ऑक्सीजन इस बोतल में तैयार किया है। हमारी सभ्यता हमें वहाँ ले आई है जहाँ हमें अगर कुर्सी न रखी हो, और कपड़ा न बिछा हो तो ज़मीन पर बैठने में दिक्कत होने लगी है। आप कभी देखिएगा, आप कभी किसी के यहाँ जाएँ और वो कहे कि ज़मीन पर बैठ जाओ, बड़ा अजीब सा लगेगा। भले जमीन साफ़ हो और चिकनी हो, और कोई खतरा नहीं हो, पर आपको बड़ा अजीब लगेगा, धरती पर बैठ जाएँ?

“अरे आदमी के द्वारा कोई चीज़ दो ना, कुर्सी दो, सोफा दो, कुछ ना हो तो खूँटी पर टाँग दो, पर ज़मीन पर मत बैठा देना। या कोई रस्सी वस्सी हो तो दिखा दो, उसपर लटक जाएँ।” आदमी के द्वारा बनाई गयी रस्सी है ना। पकड़ना कभी अपने आप को, ज़मीन पर बैठने कि जब भी नौबत आएगी, बड़ा अजीब लगेगा। और कुछ लोग ऐसे हो जाते हैं कि साफ़ भी हो ज़मीन, कहते हैं इसपर कुछ बिछाना है पहले। क्यों बिछाना है? बहुत लोग अब ऐसे होने लग गए हैं जिनको पेड़ से तोड़ के फल दो, तो खा नहीं सकते, कहेंगे इसमें कुछ गड़बड़ है, पहले इसको प्रक्रिया के लिए भेजो, तब इसमें शुद्धि आएगी।

हाँ हाँ प्रक्रिया होनी ज़रूरी है। नहीं खा पाएँगे भुट्टा, पॉप कॉर्न खा लेंगे। क्योंकि उसमें मूल्य संवर्धन तो हम ही करते हैं ना? कॉर्न थोड़े ही ठीक है, उसमे पॉप्पिंग तो हमें ही करानी है। अभी वो पॉप-पॉप नहीं कर रहा, तो कैसे खा लें? जब तक कॉर्न है, वो असभ्य है, जब पॉप कॉर्न बन जाता है, तो वो फिर सभ्यता से गुज़र के सभ्य हो जाता है। अब वो इंसानों कि बस्ती में आने लायक है। कॉर्न का क्या है, वो तो खेत में मिलता है, पॉप कॉर्न बढ़िया है, वो दो सौ रूपये कि बाल्टी में मिलता है। वो बड़ा अच्छा सा अनुभव होता है, दो सौ रूपये निकाल के वन लार्ज पॉप कॉर्न। मैं दूध पीने का हिमायती नहीं हूँ, पर अभी एक वेबसाइट पर तस्वीर छपी थी जिसमे बच्चा है छोटा सा और एक ऊँची सी गाय है, तो वो गाय के नीचे घुस गया, और सीधे थन मुहँ में ले कर दूध पी रहा है। उसमें नीचे मैं कमेंट पढ़ रहा था, दो चार औरतों ने “मैली”, “छी”, “हैं भाई?” वो पैकेट में बनके दूध आएगा, और फ्लेवर्ड दूध के नाम से आएगा।

श्रोता: औरतों ने?

वक्ता: हाँ नाम लिखे हुए थे ऐसे ही रोज़ी, पोज़ी, और पास्च्युरिकृत दूध के नाम से आएगा, और उसकी मलाई, वाले निकाल के आएगा, तो ज्यादा अच्छा हो जाएगा। बीमारी कितनी गहरी है इसका अंदाज़ा करना है तो एक प्रयोग कर लो हो, वहां पॉप कॉर्न खरीदते ही हो, अब ज़रा कल्पना करो, कि वहाँ पॉप कॉर्न कि जगह भुट्टे लटके हुए हैं, फिर देखो तुम्हारा मुँह कैसे उतरेगा। तुम गये पॉप कॉर्न खरीदने, और पॉप कॉर्न की एक चौथाई कीमत पर भुट्टे मिल रहे हैं। भुट्टे, आम भुट्टे, खरीद पाओगे?

श्रोता: ब्रांडेड होंगे तो खरीद लेंगे।

वक्ता: पहले तो कितना असभ्य सा लगेगा। भुट्टे? मॉल में?

श्रोता: सर वो सभी तब लगेगा जब सिर्फ हमारे लिए भुट्टा हो, बाकी सबके लिए नहीं।

वक्ता: उसके बगल में जो कुछ है, वो तो वही है, बीच में भुट्टे, कितना अजीब लगेगा? वो भी खेतों से बिलकुल ताज़े तोड़े हुए। बर्बरता की सीमा तोड़ दी बिलकुल। भुट्टे तो भुट्टे, उसके साथ उसके पत्ते भी हैं, प्रमाणित कर रहे हो कि अभी अभी लाए हो। मिट्टी की गंध भी है अभी उसमे, छी। मैं और रोहित शिवपुरी गए थे एक बार, वहाँ रात में एक कैंप में थे, वहाँ अचानक पाँच सात महिलाएँ आ गई, वो गंगा किनारे का कैंप है, और उनके पास एक बड़ा झोला था, पूछो उसमे क्या था?

श्रोता: खाना?

वक्ता: मिनरल वाटर की बोतलें, जो दिल्ली से पैक करके ले गयी थी। अरे ऐसी जगह जा रहे हैं जहाँ दुकानें नहीं होती, तो पानी तो लेके चलना पड़ेगा कि नहीं? कॉमन सेंस है।

श्रोता: सामने जो बह रहा है वो गन्दा है।

वक्ता: नदी। तुम्हें भी शक होगा, और ये बातें तुम किसी को बोलोगे उसे भी यही लगेगा कि ये जितनी बातें कर रहे हैं, वो हमें पाषाण युग में ले जाने की कर रहे हैं। तुम्हे लगेगा ये तो ये कह रहे हैं कि कपड़े-वपड़े मत पहना करो, क्योंकि वो भी अप्राकृतिक हैं, पेड़ों के पत्ते लपेट लो, खाने को पकाओ मत। मैं वो भी कहने को तैयार हूँ। हम जिस हालत में हैं, इससे तो वो हालत भी बेहतर होगी, बेशक बेहतर होगी। हाँ उससे हमारे अहंकार को बड़ी चोट लगेगी, क्योंकि फिर हमें ये मानना पड़ेगा कि इतने-इतने सैकड़ों हज़ारों साल तक जिसे हमने आदमी कि विकास यात्रा कहा है, वो विकास यात्रा नहीं पतन यात्रा थी।

हम बड़े खुश होते हैं कि आदमी की पहली उपलब्धि थी ‘आग’ और फिर हम गिनते हैं ‘पहिया’ फिर हम गिनते हैं ये और वो। और आजकल हम गिनते हैं कि आखरी आदमी की बड़ी उपलब्धि क्या है, ‘इन्टरनेट’। हमें ये मानना पड़ेगा ये सब विकास नहीं हुआ है, गहराई से देखें तो ये पतन हुआ है। बहुत अजीब लगेगा। हमारे मन के सारे सहारे गिर जाएँगे। हमने जिन तरीकों से इतिहास को देखा है, अपने आप को देखा है, जीवन को देखा है, सब गिर जाएगा, हमारे सारे आदर्श बौने दिखाई देंगे। जिनको हमने देवता समझा है, पता चलेगा कि वही तो राक्षस थे हमारे।

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