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ये होता है खाली बैठे-बैठे सोचने से || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। स्वास्थ्य को लेकर कुछ दिक्क़तें थीं, आपसे मेरी बात हुई थी। तो मन में कुछ शंकाएँ सी रहती हैं, मन एकाग्र नहीं होता, तनाव बना रहता है। कई मुद्दे जैसे पारिवारिक दायित्व जो हैं वो पूरे नहीं हो पा रहे हैं, कुछ अड़चनें आ जाती हैं सामने। कुछ उसका समाधान बताइए।

आचार्य प्रशांत: समाधान तो बताया था पूरा-पूरा - सही व्यस्तता। आपसे बात करके मैंने वह पूरी बात ही लिख दी थी एक ट्वीट में, अनमोल (स्वयंसेवी) ने भेजी होगी आपको आगे। बस वही है उत्तर।

मन को अगर सही काम नहीं देंगे, तो वो ख़ुद को खाना शुरू कर देता है। हम कहते हैं न, कि जीव-जंतुओं को दुख क्यों दे रहे हो भाई, क्यों माँसाहार कर रहे हो, क्यों किसी को खाते हो? तो ये तो बुरी बात होती है, किसी को खाना, पर हममें से ज़्यादातर लोग उससे भी बुरी बात करते हैं; क्या करते हैं? हम ख़ुद को खाते हैं। और ख़ुद का हमें ऐसा चस्का, ऐसा ज़ायका लग जाता है कि फिर हम सही काम करते ही नहीं, क्योंकि सही काम करा तो ख़ुद को खाना छोड़ना पड़ेगा, सही काम करा नहीं कि ख़ुद को खाना छोड़ना पड़ेगा।

ज़्यादातर लोग जो व्यर्थ की चीज़ों में लिप्त रहते हैं, वो लिप्त ही इसीलिए रहते हैं क्योंकि हमें आदत लग गयी है आत्मभक्षण की, हम स्वभक्षी हो गये हैं। हम क्या करते हैं? (हाथ को मुँह के पास लाकर खाने का अभिनय करते हुए) हम ऐसे ख़ुद को खा रहे हैं, आंतरिक तौर पर।

एक आदमी खाली बैठा-बैठा और कर क्या रहा है, ख़ुद को खा रहा है! न हाथ हिल रहा है, न पाँव हिल रहा है, मन चल रहा है और परेशानी बढ़ रही है, उसका रक्तचाप बढ़ता जा रहा है। हो सकता है कि नहीं? आप बैठे हुए हों और आप कुछ ऊल-जलूल सोचना शुरू कर दें, देखिए आपका बी.पी. (रक्तचाप) बढ़ जाएगा, सिर्फ़ सोचने भर से। ये हम क्या कर रहे हैं? हम ख़ुद को खा रहे हैं।

तो मन को सही काम दीजिए, नहीं तो वह एक ग़लत काम पकड़ लेता है, जो है आंतरिक विध्वंस का; वह ख़ुद को खाना शुरू कर देता है।

किसी ने कहा तो था, कि दुनिया की सारी समस्याएँ इसी बात से निकलती हैं कि आदमी अपने साथ चुपचाप, कुछ मिनट के लिए भी अकेला बैठना नहीं जानता। अब जब वो चुपचाप नहीं बैठ सकता, अपने साथ वो सुकून अनुभव ही नहीं करता, तो वो कहीं-न-कहीं हाथ चलाएगा, कुछ तोड़-फोड़ करेगा, कुछ करेगा। और कहीं बाहर नहीं कर सकता तो ख़ुद को ही तोड़ेगा, क्योंकि बाहर तोड़-फोड़ करने में फिर भी ऊर्जा चाहिए, ख़ुद को तोड़ने में ऊर्जा भी कम लगती है, टूट पूरी जाती है।

प्र: नेगेटिव (नकारात्मक) विचार ज़्यादा चलते हैं।

आचार्य: वो हमारी प्रकृति है, उससे बचने का एक ही तरीक़ा है - सही काम में बिलकुल झोंक दीजिए अपनेआप को!

हम कहते हैं न, ' नेगेटिव, नेगेटिव ? प्रकृति ही नेगेटिव है; उसमें डर, भूख, संशय, काम, क्रोध, जितनी चीज़ों को आप नेगेटिव बोलते हो वो सब तो प्रकृति में पहले से ही मौजूद होती हैं। तो सबसे बड़ी नेगेटिव चीज़ क्या है? ये जो हमारी शारीरिक माया है, ये सबसे बड़ी नेगेटिविटी (नकारात्मकता) है। और वो डिफॉल्ट नेगेटिविटी है, वो आपको कमानी नहीं पड़ती, वो आपको विरासत में मिलती है, हम सबको गर्भ से मिलती है। और उसको हराने का एक ही तरीक़ा है, बार-बार बोलता हूँ - सही उद्यम, राइट एफ़र्ट।

उसका उलट भी, जो उसकी कोरोलरी (उपप्रमेय) है वो भी उतनी ही सही है, कि जिस भी आदमी को आप देखें कि कामों से एकदम डँटकर कामचोरी करता है — आप उसको डाँट रहे हैं, उसकी फ़ज़ीहत कर रहे हैं, दिन-रात उसकी बेइज़्ज़ती हो रही है, पर उसकी कामचोरी नहीं जा रही — समझ लीजिए कि उसको अपने माँस का ज़ायका लग चुका है, ये आदमी आदमख़ोर है और ये एक ही आदम जानता है।

मेरे लिए सबसे ताज्जुब की बात होती है, तुम करते क्या हो दिनभर! (एक स्वयंसेवी की ओर इशारा करते हुए) अब ये डेढ़ घंटा दिन में काउंसिलिंग (उपबोधन) करता है, मैं सोचता हूँ कि करता क्या होगा दिनभर। काम तो है नहीं, कोई काम नहीं है, जी कैसे लेते हो, एक दिन भी कटेगा कैसे? क्योंकि तुम अभी ऐसे तो हुए नहीं हो कि शांत, निश्चल बैठ जाओ बिलकुल, तुम कुछ-न-कुछ तो ज़रूर कर रहे होगे, सही काम नहीं कर रहे तो कोई आंतरिक ख़ुराफ़ात तो कर ही रहे होगे।

तुम न अष्टावक्र हो गये हो, न बुद्ध हो गये हो, कि अब तुम निष्कर्म, निष्प्रयोजन जी सको। तो कर्म तो चल ही रहा होगा, प्रयोजन तो तुमने बना ही रखे होंगे, सही प्रयोजन नहीं है तो फ़ालतू प्रयोजन! और सबसे फ़ालतू प्रयोजन होता है भीतर-ही-भीतर खटना, भीतर-ही-भीतर अपने को ही बर्बाद करना। ये सोच रहे हैं, ये देख रहे हैं, इधर-उधर लगे हुए हैं - ये सब क्या है?

और इसको अंतर्मुखी होना नहीं कहते। अगर आप किसी व्यक्ति को देखें कि वो ऐसे (सिर नीचे लटकाते हुए) बैठकर हर समय सोच रहा है, सिर नीचे करके ऐसे बैठा हुआ है, कुछ कर रहा है, तो ये अंतर्मुखी होना नहीं है, ये आदमख़ोर होना है। तुम्हें सही काम न करना पड़े, इसीलिए तुम बाहर देखने की जगह ऐसे (सिर नीचे लटकाते हुए) हो गए हो, सिर नीचे कर लिया है, क्योंकि जहाँ देखना चाहिए वहाँ देख लिया तो कामचोरी नहीं कर पाओगे न।

(प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) आपसे नहीं कह रहा हूँ कि आप कर रहे हो कामचोरी। आपके पास तो कोई काम है ही नहीं, तो आप कैसे करोगे कामचोरी!

प्र: मेरे पास तो काम बहुत है, लेकिन काम हो नहीं पा रहा है।

आचार्य: तो फिर तो आप भी कर रहे हो कामचोरी, मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये जो काम आपके पास बहुत है और आप इन्हें कर नहीं रहे, ये मत सोचिएगा कि आप इन्हें संयोगवश नहीं कर रहे। ये आपकी अंदरूनी साज़िश है कि आप इन कामों को नहीं कर रहे हो, क्योंकि आपको उन कामों को करने में जो मज़ा आता, उससे ज़्यादा मज़ा अंदर अपनेआप को घायल करने में आ रहा है।

काम करने का एक मज़ा है और भीतर अपने को ही घायल करने का दूसरा मज़ा है। ये जो दूसरा मज़ा है, ये आप न उठाएँ, इसमें कुछ नहीं मिलेगा; इससे ज़्यादा बेहतर और बड़ा मज़ा है - सार्थक काम करो और डूब जाओ!

प्र: आज भी डॉक्टर (चिकित्सक) से कंसल्ट (परामर्श) करके आये, उनका कहना है कि तुम्हें कोई ऐसी दिक्क़त, कोई ऐसी बीमारी नहीं है।

आचार्य: तो डॉक्टर ने पिछली बार भी यही बोला था आपको, आप दोबारा चले क्यों गये उसके पास? अभी पंद्रह दिन पहले आपसे बात हुई, तब भी डॉक्टर ने यही बोला था कि कुछ नहीं है, आज फिर आप डॉक्टर के पास चले गये। क्यों चले गये पता है? एक वहीं से उम्मीद थी कि काश इस बार बोल दे कि मुझे कोई बीमारी है।

डॉक्टर अगर ये बोल दे न, कि मुझे चार गुना फ़ीस दे दो, मैं लिख दूँगा कि तुम्हें बीमारी है, तो आप दे दोगे। आदमी कुछ भी करेगा सही काम से बचने के लिए। ‘अगर बीमार हो गये तो सही काम करना नहीं पड़ेगा, डॉक्टर बस बोल दे किसी तरीक़े से कि मुझे कुछ है।’ नहीं तो काहे कोई जाएगा बार-बार डॉक्टर के पास?

मैं कोई उदाहरण नहीं हूँ, लेकिन आपने कह दिया तो बताता हूँ। अपनी ज़िंदगी में मैं बहुत बचा हूँ डॉक्टरों के पास जाने से, इसी बात से कि जाऊँगा तो कुछ-न-कुछ बता देगा कि है। बेकार में कौन दिमाग में फ़ालतू विचार लाये, बता देता है तो दिमाग में आ जाता है।

और फिर आमतौर पर बगल में भी कोई-न-कोई बैठा रहता है — मैं बड़ी कोशिश करता हूँ कि जब मैं अंदर जाऊँ तब कोई साथ न जाए — तो मुझे वो बता देगा बगल वाले की ओर देखकर, कि अच्छा इनको अब ये खाने मत देना, ऐसे रात में जगने मत देना, और किताब पढ़ें तो चश्मा लगा देना और इसे ज़्यादा काम मत करने देना। कौन इतना बोझा ढोएगा, इतनी सावधानी बरतेगा, क्योंकि इतनी सावधानी बरतने लगे तो काम में नुक़सान होगा।

जिसके पास काम होता है, वो तो अपनी असली बीमारी को भी दरकिनार करना चाहता है, कि बीमारी पर ज़्यादा ध्यान दे दिया तो काम पर कम ध्यान दे पाएँगे। हालाँकि मैं नहीं कह रहा हूँ कि ये बड़ा अच्छा रवैया है, बीमारी बढ़ गयी तो फिर कैसे काम करोगे? मैं जानता हूँ वो सारी बातें, लेकिन आपने जो बात बोली उसे समझाने के लिए एक बात बोल रहा हूँ।

प्र२: भगवान श्री प्रणाम। जो सार्थक कर्म की बात हुई, एक तो हुआ सूक्ष्म विचारों के स्तर का, कि अपनी थिंकिंग (सोच प्रक्रिया), जो अपने विचार चलते हैं, उनको बिना लिप्त हुए देख पाना, और उस चीज़ को शक्ति देने के लिए बाह्य कर्म करना।

आचार्य फिर से बोलिए!

प्र२: जैसे सार्थक कर्म की बात आयी, तो सार्थक कर्म विचार के स्तर पर भी हुआ, जैसे सुनना है, आपको सुन रहे हैं या ग्रंथ पढ़ रहे हैं, ये सब कर्म हो गया। उससे जो समझा, वह समझ पकड़ तो आती नहीं जल्दी से, छूट जाती है। तो उसको बाहरी स्तर पर जीवन में लाना, जिससे वो मज़बूत होगी तभी वो समझ पकड़ में आएगी, क्या यही सार्थक कर्म है?

आचार्य: बस यही है - समझते चलो, करते चलो, और बिना समझे करो मत।

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