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सच्चा प्रेम कैसा?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: कई बार सुना ओशो साहब से; सुनते रहते थे। लेकिन आपके सानिध्य में आने पर स्पष्टता आई कि जीव का परम के प्रति जो एक मिलने की चाह है; वो प्रेम है। तो शुरू में जैसे पत्नी के साथ; देखने गए तो देह का ही सम्बन्ध रहा, देह को ही देख कर पसंद किया। अब जब प्रेम की बात होती है; तो मुझे तो कुछ-कुछ बोध है कि प्रेम क्या है, लेकिन उनको लगता है कि धोखा हो रहा है। उनको लगता है कि, "तुम बदल गए, हाँ हम तो तुमसे प्रेम करते हैं लेकिन अब तुम नहीं करते।"

तो सवाल यह था कि दो जीव के बीच भी कोई उस-तरह का प्रेम का सम्बन्ध हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: हो सकता है नहीं; वही इस जग में व्यवहारिक है। अच्छा सवाल है। कह रहे हैं कि, "आचार्य जी जब भी आप प्रेम की बात करते हैं तो आप अहम् का आत्मा के प्रति, मन का सत्य के प्रति प्रेम की बात करते हैं।" पर इस जगत में दृष्टव्य वस्तु, पकड़ में आने वाला पदार्थ न तो मन है, न तो आत्मा है, न अहम् है, न सत्य है। हमने तो नहीं देखा कि कभी मेज पर सत्य रखा हो, न हमने कभी यह देखा कि ज़मीन पर अहम् टहल रहा है। यहाँ तो हम जो भाषा इस्तेमाल करते हैं वो दूसरी होती है। हम कहते हैं ये आदमी है, ये औरत है, ये तौलिया है, ये कागज़ है; है न? जगत की भाषा तो ये है।

तो कह रहे हैं कि कोई लौकिक प्रेम भी होता है या नहीं होता है? या बस परमार्थिक प्रेम ही होता है आसमान की तरफ? आदमी-औरत के मध्य भी कुछ प्रेम हो सकता है या नहीं हो सकता है?

बिलकुल हो सकता है।

जगत में जब आदमी-औरत ही होते हैं; तो जगत में जो प्रेम होगा वह भी व्यक्ति से व्यक्ति का ही होगा। और इस पर ख़ूब बात हुई है। आपके सामने भी ख़ूब बात करी है, जब करी तो आपने गौर नहीं किया; पर अब अपने पर पड़ी है तो प्रश्न पूछ रहे हैं। इश्क-ए-मजाज़ी, इश्क-ए-हकीकी अपरिचित शब्द हैं आपके लिए? कितनी बार मैंने बात करी है इनकी। स्टूडियो कबीर में आपने गाया भी है न इश्क-ए-मजाज़ी, इश्क-ए-हकीकी के बारे में?

इश्क-ए-मजाज़ी को लेकर क्या बोला है बाबा बुल्लेशाह ने- "सूई सीवे ना बिन धागे" कि शुरुआत तो वहीं से होती है।

दुनिया में ही तुम्हें किसी का साथ करना है, क्योंकि देह के तल पर तो तुम दुनिया के ही हो। परमात्मा का तो कोई हाथ होता ही नहीं; तो परमात्मा का हाथ कैसे थामोगे? हाथ तो जब भी थामोगे किसी इंसान का ही थामोगे। इंसान का हाथ थामने को कहा गया है इश्क-ए-मजाज़ी। और संतों ने समझाया है इंसान का हाथ ऐसे थामना कि इश्क-ए-हकीकी घटित हो सके। बिना इश्क-ए-मजाज़ी के तो इश्क-ए-हकीकी भी बड़ा मुश्किल होगा। परमात्मा भी पुरुष के ही माध्यम से मिलेगा। ऊपर की राह नीचे से ही होकर जाती है। दुनिया में ही कोई ऐसा मिलेगा जो ऊपर तक पहुँचा दे। तो अब समझो कि संसार में व्यक्ति से व्यक्ति का असली, वास्तविक, प्रेम-पूर्ण रिश्ता क्या हो सकता है।

क्या हो सकता है?

किसी का हाथ ऐसे पकड़ो कि उसको 'उसके' (परमात्मा के) दर्शन करा दो; यही प्रेम है। या किसी का हाथ ऐसे पकड़ो कि वो तुम्हें 'उसके' (परमात्मा के) दर्शन करा दे; ये प्रेम है। या तो तुम उसके काम आओ या वो तुम्हारे काम आए या दोनों एक-दूसरे के काम आओ।

पर काम की परिभाषा एक ही है, क्या? 'उससे' मिलवा दो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)

गड़बड़ क्या हो जाती है; हमारा जो साधारण प्रेम है, वो न इश्क-ए-हकीकी होता है, न इश्क-ए-मजाज़ी होता है, वो इश्क-ए-जिस्म होता है। जिसमें तुम दूसरे को अपनी ओर खींचते हो इसलिए नहीं कि तुम उसको 'उससे' मिलवा दो; इसलिए कि उसको पकड़ कर के तुम उसका शोषण कर लो। तुम्हारा कोई इरादा ही नहीं होता अपने माध्यम से उसको उस-पार ले जाने का। तुम्हारा इरादा होता है, "उसको पकड़ कर के रख लूँ, बिलकुल अपने पास कैद कर के, दबा के रख लूँ, और उसका शोषण करूँ! उस पर छा जाऊँ! उस पर कब्ज़ा कर लूँ!"

तो यह जो तीसरी कोटी का निकृष्टतम प्रेम है। इसके ख़िलाफ संत बार-बार चेताते हैं। कहते हैं- दूसरे से रिश्ता इसलिए नहीं बनाओ कि वो तुम्हारा हो जाए। दूसरे से रिश्ता इसलिए नहीं बनाना होता कि वो तुम्हारा हो जाए। दूसरे से रिश्ता इसलिए बनाओ ताकि तुम-दोनो 'उसके' (परमात्मा के) हो जाओ। तो अध्यात्म रिश्ते बनाने को मना नहीं करता। अध्यात्म तो कहता है रिश्ते बनाओ खूब बनाओ, सुंदर रिश्ते बनाओ, मीठे रिश्ते बनाओ। लेकिन रिश्ते इसलिए नहीं बनाओ कि दूसरे पर छा जाओ, दूसरे के मालिक हो जाओ या दूसरे के गुलाम हो जाओ। रिश्ते इसलिए नहीं बनाओ कि दूसरे को बंधन में डाल दो‌। रिश्ते इसलिए बनाओ ताकि एक-दूसरे के काम आ सको; ये है असली प्रेम।

"तेरे माध्यम से मुझे मुक्ति मिली, मेरे माध्यम से तुझे मुक्ति मिली", ये प्रेम है। "मैं तेरे लिए पुल हो गया; मेरे माध्यम से तू पार हो गया। तू मेरे लिए पुल हो गया; तेरे माध्यम से मैं पार हो गया। हम दोनों एक-दूसरे के निकट आए तो हम दोनों परमात्मा के निकट हो गए", ये प्रेम है। और घटिया प्रेम क्या होता है? कि, "हम दोनों एक-दूसरे के जितना निकट आते जा रहे हैं; हम दोनों ही परमात्मा से उतने ही दूर होते जा रहे हैं।" निन्यानवे-प्रतिशत मामलों में यही होता है कि स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के जितने पास आते हैं सच्चाई से, संतों से, गुरु से वो उतने ही दूर होते जाते हैं। इस प्रेम से बचने के लिए कहा है संतों ने। नहीं तो संत तो प्रेम के ही गीत गाते हैं। हम सोचते हैं कि प्रेम और इश्क और मोहब्बत की बातें फिल्मों में होती हैं, सबसे ज़्यादा इश्किया मिजाज़ के तो संत होते हैं। ये फिल्मी हीरो-हीरोइन (अभिनेता-अभिनेत्री) क्या मोहब्बत जानते हैं! मोहब्बत जाननी है तो मीरा बाई के पास जाइए, बुल्लेबाबा के पास जाइए, कबीर साहब के पास जाइए।

ये लड़के-लड़कियाँ कैमरे के सामने उछल-कूद मचा रहे हैं और कह रहे हैं, "इश्क़-इश्क़!" इन्हें इश्क़ का क्या पता? ये तो रूखे लौंडे है, क्यों भई। इश्क़ का पता तो किसी रुमी को होता है, किसी हाफिज़ को होता है, अरे बाबा-फरीद को होता है। तुम कहोगे, "पर वो तो बाबा-फरीद, सफेद दाढ़ी! बूढ़े!" वही असली इश्क़ है। ये थोड़े ही है कि फूल लेकर के एक-दूसरे के पीछे दौड़ने लग गए, झाड़ियों मे घुस गए, इलू-इलू गाने लगे, होटल में कमरा बुक करा लिया तो ये इश्क़ है; बचपना, नौटंकी, कठपुतली का खेल! इश्क़ है जब कोई जीसस चढ़ा हुआ है सूली पर, वो है इश्क़। उनसे जाकर पूछिए वो बताएँगे प्यार क्या होता है।

प्यार जिसने जान लिया, उसको फिर ये गुड्डे-गुडिया वाला प्यार बड़ा बचकाना लगता है। वो कहता है, "ये कर क्या रहे हो?" जैसे छोटे-छोटे बच्चे खेलें, "यह मेरी गुईया, यह तेरा गुड्डा आज इनका ब्याह है", और इतने-इतने (छोटे-छोटे) बर्तनों में खाना पकाया जा रहा है बैठ कर। चार-चार साल के लड़के निक्कर पहन कर और छः-छः साल की लड़कियाँ फ्राॅक पहन कर आईं हैं शादी मनाने।

कैसा लगता है जब वो सब देखते हो?

उस पर मुस्कुरा सकते हो, पर उसे गम्भीरता से तो नहीं ले सकते न? तो ये जो हमारा आम सामाजिक प्यार है वो वैसा ही है। "मेरी गुईया को लड्डू के गुइये से प्यार हो गया है, आप सब लोग शाम को जलूल-जलूल आना।" ये काम चार साल वाले करते हैं तो आदमी मुस्कुराता है कहता है, "क्यूट (मनोहर)!" पर यही काम चालीस साल वाले करें तो बात थोड़ी गम्भीर हो जाती है। अब मामला मुस्कुराहट की सीमाएँ पार कर गया है, अब मनोचिकित्सक की ज़रूरत है। पर चालीस तो चालीस है, साठ, सत्तर कुछ भी हो जाए वो चार साल की लड़की भीतर बनी ही रहती है, बर्फी, और पुरुष भी हो गया है सत्तर साल का, पर भीतर उसके वो चार साल का लड्डू बैठा ही हुआ है।

उन्हें अभी भी लग रहा है कि जब हम लाॅन में हाथ-में-हाथ डालकर घूमते हैं तो वही तो प्यार है। सत्तर की उम्र में भी बर्फी शिकायत कर रही है, "अब तुम मेरा हाथ नहीं पकड़ते पहले की तरह, अब तुम्हें प्यार नहीं रहा!" बर्फी अब तू सत्तर की हो गई! बड़ी हो जा, कुछ तो समझ। वो नहीं मानने की, वो पिक्चरें (फिल्में) बहुत देखती है, सब सीरियलों (धारावाहिकों) का टीआरपी उसी ने बढ़ा रखा है।

क्यों भई साहिल (श्रोता)! क्या होता है इश्क़?

एक से एक इश्क़बाज़ हैं, मैं तो अवाक रह जाता हूँ! मैं क्या बोलूँ? गंगेश (एक अन्य श्रोता) आज थोड़ा छिपे हुए हैं नहीं तो ये भी बताएँगे, ऐसी बात नहीं है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

सबकी कहानी एक है, किरदारों के नाम थोड़े अलग हैं, घटनाएँ थोड़ी अलग हैं कहानी का मर्म तो एक ही है। जैसे कि हलवाई की दुकान में मिठाई कोई भी हो मर्म तो शक्कर ही है। नाम अलग-अलग होते हैं, बर्फी कभी इमरती भी बन जाती है, पर मर्म तो मीठा ही है। तो यतेंद्र हों, कि साहिल हों, कि कपिल हों, कि गंगेश हों, सब कहानीयाँ एक हैं, यकीन जानिए बिलकुल एक है, कि कमलेश (स्वयंसेवक) हों, कि देवेश (अन्य स्वयंसेवक) हों, कि कोई हो।

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