Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
क्या शादी कर लेने से अकेलापन दूर हो जाएगा? || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
15 min
257 reads

प्रश्नकर्ता: नमन आचार्य श्री, मैं शादी करने जा रहा हूँ। मगर मैं समझ रहा हूँ कि ये अच्छा नहीं हो रहा। मगर दूसरी तरफ़ मुझसे ये अकेलेपन से भरी हुई ज़िंदगी बर्दाश्त नहीं होती। कृपया मार्ग दिखाएँ।

आचार्य प्रशांत: अब तो मंज़िल ही मिल गई, मार्ग क्या दिखाऊँ?

(श्रोतागण हँसते हैं)

मार्ग तो उनके लिए होता है बेटा जो अब कहीं को जा सकते हों। जिनके लिए आगे बढ़ना, निकलना, यात्रा करना संभव हो, मार्ग उनके लिए होते हैं। जो अपने ऊपर सब दरवाज़े बंद करने जा रहे हों, उनको मार्ग क्या बताऊँ? मैं मार्ग बता भी दूँगा तो उसपर चलोगे कैसे?

(पास में बैठे श्रोता से) तुम क्यों परेशान हो रहे हो? जवाब इधर दे रहा हूँ, दहशत इधर छा रही है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

मैं नहीं कह रहा विवाह ग़लत है। मैं तुम्हारे ही वक्तव्य का हवाला दे रहा हूँ। तुम कह रहे हो, “मैं शादी करने जा रहा हूँ मगर मैं जान रहा हूँ कि ये मेरे लिए अच्छा नहीं है।” अगर जान रहे हो, तो क्यों कर रहे हो बेटा? ये जो तुमने अपनी प्रेरणा बताई कि अकेलापन बर्दाश्त नहीं होता। अरे, कुछ और कर लो। अकेलापन मिटाने के बहुत तरीक़े हैं—मेला-ठेला घूम आओ, दोस्त-यार बना लो, भारत भ्रमण कर लो, कुछ कर लो। एक जगह टिकट कट रहे हैं चाँद पर जाने के, मंगल ग्रह पर जाने के, वहाँ घूम आओ। अकेलेपन का क्या है, वो तो कार्टून चैनल देखकर भी मिट जाता है।

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

उसके लिए तुम ये क्यों कर रहे हो? अब सब श्रोतागण दो हिस्सों में विभाजित हो गए हैं। एक वो जो बहुत ज़ोर-ज़ोर से हँस रहे हैं, और एक जो अति गंभीर और मायूस हो गए हैं। जो हँस रहे हैं, वह वो हैं जिनका अभी नंबर नहीं लगा। जो अति गम्भीर और मायूस हो गए हैं वह वो हैं जो कह रहे हैं, “उफ! ये पहले क्यों नहीं सुना!” नहीं, बात मज़ाक की नहीं है, मज़ाक से आगे की भी है।

अकेलापन मिटाने के लिए ये करोगे क्या? और जानते नहीं हो क्या कि मूल अकेलापन क्या है? वो है अहमवृत्ति की अपूर्णता। वो किसी से शादी कर लेने से थोड़े ही मिट जाएगी भाई! तुम कर लो विवाह, पर ये उम्मीद मत रखना कि उससे अकेलापन कम हो जाएगा। कर लो! शरीर की वासनाएँ इत्यादि हों, उनकी पूर्ति के लिए तुमको यही ज़रिया दिखता हो कि विवाह करना है तभी जीवन में एक स्त्री देह आएगी, तो विवाह कर लो। लेकिन ये मत सोचना कि उस स्त्री देह के आ जाने से तुम्हारा अकेलापन मिट जाएगा; वो नहीं होगा। हाँ, संभोग इत्यादि के अवसर ख़ूब उपलब्ध हो जाएँगे, वो सब हो जाएगा।

बच्चे वगैरह हो जाएँगे, घर-खानदान खड़ा हो जाएगा। माता-पिता इत्यादि अगर तुमसे उम्मीदें कर रहे होंगे, तो वो उम्मीदें पूरी हो जाएँगी, वो सब चीज़ें हो जाएँगी। और जैसा आमतौर पर भारत में होता है, विवाह के बाद पति का वज़न बढ़ जाता है, वो सब हो जाएगा। बढ़िया घर का पका खाना मिलने लगेगा। घर सुव्यवस्थित रहेगा, कपड़े-लत्ते ठीक रहेंगे, चेहरे पर चमक आ जाएगी। ये सब होता है विवाह के बाद, वो सब हो जाएगा। दहेज इत्यादि मिल जाएगा, बाइक पर चलते होगे तो गाड़ी आ जाएगी। समाज में थोड़ा सम्मान बढ़ जाएगा। किराए पर घर मिलने लगेगा। वो सब हो जाएगा। लेकिन इस सब से अकेलापन नहीं दूर होने वाला। लोग न जाने क्या-क्या करते हैं, तुम विवाह कर लो, ठीक है। लोग जो कुछ करते हैं, उससे भी अकेलापन नहीं दूर होता, न विवाह से दूर होगा। वो अकेलापन तो जहाँ से दूर होना है, जानते ही हो अगर ग्रंथों से जुड़े हो, अगर मुझको सुनते हो।

किसी स्त्री में इतनी कहाँ से ताक़त आ गई कि तुमको परमात्मा से मिलवा देगी भाई? कौन-सी लड़की, कौन-सी औरत है जो वास्तव में किसी के मन का सूनापन भर सकती है? और कौन-सा लड़का, कौन-सा पुरुष है जो किसी स्त्री के मन का सूनापन भर सकता है? असंभव। जो लोग इस उम्मीद के साथ विवाह करते हैं कि सूनापन, अकेलापन, तन्हाई मिट जाएगी, उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। और सभी इसी उम्मीद से करते हैं।

कम-से-कम ऊपर-ऊपर यही उम्मीद रहती है। अंदर-अंदर भले ही देह की तृष्णा रहती हो, ऊपर-ऊपर तो यही बताते हैं कि, “वो ज़रा तन्हाइयाँ मिटाने के लिए एक हमसफर चाहिए।” तन्हाई इत्यादि नहीं मिटती, हाँ, किलकारियाँ गूँजने लग जाती हैं, वो हो जाता है। पहले कहते थे, “रातों को तन्हाई के मारे नींद नहीं आती”। अब कहोगे, “रात भर ये चाएँ-चाएँ चिल्लाता है, मेरी तन्हाई का उत्पाद, तो नींद नहीं आती”। नींद तो बेटा पहले भी नहीं आती थी, अभी भी नहीं आएगी। पहले इसलिए नहीं आती थी कि स्त्री उपलब्ध नहीं थी। फिर रात भर इसलिए नहीं सोओगे कि नई-नई मिल गई है स्त्री देह। तो कहोगे, “न खुद सोएँगे, न तुझे सोने देंगे रात भर,” और फिर जब उत्पाद सामने आएगा तो फिर वो नहीं सोने देगा तुम दोनों को। तो नींद और विश्राम तो उपलब्ध होने ही नहीं हैं, तुम इस तरीक़े के चाहे जितने तरीक़े आज़मा लो।

और अगर विवेकी हो तो संतों की शरण में जाओ, सुनो कि ऋषि-मनीषी तुमसे क्या बता गए हैं। अगर वाकई अपना हित चाहते हो तो। विवाह का मैं विरोधी नहीं हूँ, फिर कह रहा हूँ, तुमको एक पारिवारिक सुव्यवस्था चलाने के लिए अगर एक स्त्री की ज़रूरत है, तो ले आओ, पर इस उम्मीद के साथ मत लाना कि वो तुम्हारे अंधेरे जीवन को रोशन कर देगी। ये न कोई स्त्री कर सकती है, न कोई पुरुष कर सकता है। और जितना ज़्यादा तुम ऐसी उम्मीद रखोगे, फिर उतना ज़्यादा तुम खाएँ-खाएँ करोगे। कहोगे, “इससे जो मेरी असली उम्मीद थी, वो तो पूरी ही नहीं हो रही,” तो फिर उसका मुँह नोचोगे। इसीलिए जो हमारा सामान्य प्रेम होता है, और जो औसत विवाह होता है, वो असफल ही रहता है। असफल इसलिए रहता है क्योंकि जो लक्ष्य था वो तो मिला नहीं। जब लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई, तो असफलता ही है। लक्ष्य क्या था? अकेलापन दूर हो; वो दूर होगा नहीं। तो सब प्रेम, सब विवाह असफल ही होते हैं। लेकिन फिर भी उनकी कुछ उपयोगिता हैं। मैंने उपयोगिता बता दी।

स्त्रियाँ अक्सर ये उपयोगिता देखती हैं कि कोई मिल जाएगा जो सहारा देगा। बड़ी व्यर्थ की उपयोगिता है, किसी स्त्री को किसी सहारे की कोई आवश्यकता होनी नहीं चाहिए। पर हिंदुस्तान है, यहाँ अभी-भी बहुत तरह की रुग्ण मानसिकताएँ चल रही हैं। तो बहुत-सी लड़कियाँ और औरतें हैं जो कहती हैं, “शादी कर लेंगे तो किसी पुरुष की सशक्त बाँह मिल जाएगी थामने को।” ठीक है! तुम्हें इसलिए शादी करनी है तो कर लो। तुम्हें पति नहीं, शेरा चाहिए, कि अभी तक बाहर निकलती थी तो इधर-उधर लोग परेशान करते थे, अब बोलोगी, “शेरा छू!”

(श्रोतागण हँसते हैं)

और जितने भी शारीरिक रूप से श्रमसाध्य काम होते थे, अभी तक ख़ुद करने पड़ते थे, अब पति सामने खड़ा हो जाएगा, “मैं करा दूँगा न! बताओ कौन सी लाइन में लगना है, किस दफ़्तर में? मैं लगूँगा न।” तो तुम्हें अगर ये सब चाहिए तो तुम कर लो शादी, मिल जाएगा, बिल्कुल मिल जाएगा। और भी बड़ी हीन बातें हैं, बहुत होती हैं। अभी भी, बहुत सारी लड़कियों को, क्षोभ के साथ कह रहा हूँ, शादी का आकर्षण इसलिए रहता है कि उसके बाद किसी की आमदनी मेरी हो जाएगी। पति घर लाएगा, मेरे हाथ में तनख़्वाह  रख देगा। क्षमा माँगते हुए कह रहा हूँ, ये वैश्यावृत्ति है। ये वैश्यावृत्ति है! हाँ, लेकिन अगर आप इस वजह से विवाह कर रही हैं, तो आपको सफलता मिल जाएगी, अकेलापन दूर करने में नहीं, पैसा पाने में मिल जाएगी।

बड़ी साधारण योग्यता की कोई लड़की अगर पा जाए कोई ऊँचे पद का पति, तो उसको भी यही लगता है, उसके आसपास के लोगों को भी यही लगता है कि इसकी तो ज़िंदगी बन गई न, और होता भी यही है। कल तक दस-दस, बीस-बीस रुपय माँ-बाप से माँगती थी और मिलते नहीं थे, अब अचानक पति मिल गया है जो किसी ऊँचे पद पर कार्यरत है, लाखों गिरने लग गए घर में। वो कहती है, “बढ़िया! इतना कमाने के लिए तो पति को बड़ी मेहनत करनी पड़ी, बड़ी पढ़ाई करनी पड़ी, बड़ा व्यवसाय जमाना पड़ा, और मुझे सिर्फ़ विवाह करना पड़ा। जो कुछ पति ने हासिल किया इतनी मेहनत करके, वो मैंने हासिल कर लिया बस विवाह करके।” तो हासिल तो हो जाएगा, लेकिन हासिल करने लायक नहीं है। मैं यही प्रार्थना कर रहा हूँ कि अगर इस तरह के विचार हों, तो ऐसे विचारों से बचो!

सब स्त्रियों, सब औरतों में ऐसे विचार नहीं होते, कोई मेरी बात को अन्यथा न ले। स्त्रियों पर लांछन लगाने का या उनको आहत करने का मेरा नहीं इरादा है। पर समाज में और स्त्रियों के बड़े वर्ग में अभी भी ऐसी मान्यता है, इसीलिए मजबूर होकर मुझे इस बात को उद्घाटित करना पड़ रहा है। तो इस मामले में सफल हो जाओगे कि पहले हाथ में पैसा नहीं रहता था, बाप भी पैसा नहीं देता था, बाप कहता था, “अभी तुझे खर्च करने के लिए क्यों दूँ, वो पैसा मैं जोड़ रहा हूँ दहेज के लिए।” तो एक सलवार सूट में काम चलता था। अब ऊँचा पति मिल गया है तो बहार है। बोलो कौन सी डिज़ाइनर ड्रेस खरीदनी है?

ग़लत है ये व्यवहार!

और अब पतियों की बात कर लो। बड़ा लक्ष्य तो यही होता है कि?

प्रश्नकर्ता: लड़की मिल जाए।

आचार्य प्रशांत: यहाँ श्रोताओं से दो-तीन आवाज़ें उठी हैं। किसी ने कहा, “लड़की मिल जाए”, किसी ने कहा, “संभोग के लिए कोई मिल जाए।” पुरुष भली-भाँति जानते हैं कि उन्हें विवाह क्यों करना है। ये सब ऊपर-ऊपर की बात है कि हमराज़, हमसफ़र; असली बात है—हमबिस्तर। तो अगर ये तुम्हारा लक्ष्य है, तो इसमें सफलता मिल जाएगी, यौन सुख मिलने लगेगा। और तुम्हारा लक्ष्य ये है कि माँ को बहू लाकर देनी है, तो उसमें भी सफलता मिल जाएगी। लड़का भले ही कितना बेअदब-बद्तमीज़ रहा हो, जीवन भर उसने माँ-बाप की सुनी न हो—माँ को मुँह पर गरियाया हो, बाप को जूता मारा हो—लेकिन जब विवाह का समय आता है तो कहता है,“माँ का दिल कैसे तोड़ सकता हूँ? अरे, माँ की आज्ञा है, शिरोधार्य है!” तूने ज़िंदगी में और कब माँ की आज्ञा मानी थी? पर इस चीज़ के लिए बताएगा, “वो माँ को बहू की तलाश है न। और दादी, वो दम तोड़ने को राज़ी नहीं! वो कहती है जब तक छौना हाथ में लेकर अपने ऊपर मुतवा नहीं लूँगी, तब तक मुँह में गंगाजल नहीं लूँगी।”

(श्रोतागण हँसते हैं)

दादी के बड़े तुम भक्त हो गए अचानक! और यही दादी जब बिस्तर में पड़ी-पड़ी कहती है कि मेरे लिए दवाई ले आ दे, तो तुम क्रिकेट का बल्ला उठाकर बोलते थे कि, “नहीं, मार नहीं दूँगा, खेलने जा रहा हूँ।” तब तुम्हारे पास इतनी कद्र नहीं थी दादी की कि दादी को समय पर दवा लाकर दे दो। पर अब तुम बड़ी बात बताते हो कि, “मैं तो दादी-भक्त हूँ। दादी का दिल रखने के लिए शादी कर रहा हूँ कसम से, नहीं तो मैं तो पैदा ही हुआ था ब्रम्हचारी!” हाँ, इस तरह के तुम्हारे इरादे हैं कि घरवालों को ख़ुश करना है, इसकी इच्छा बतानी है, ये करना है, बहाना देना है, तो ठीक है!

और भी होती हैं बातें, बड़ी अजीब बातें हैं। समझना! विवाह के पीछे मकसद किस तरीक़े के होते हैं। भारत में उत्सव मनाने के बड़े कम मौके मिलते हैं। वो भी स्त्रियों को तो और कम मिलते हैं। घर से बाहर निकल नहीं सकतीं। ले-दे कर साल में दो बार होली-दीवाली आ जाती है। उसमें भी अधिकांशतः घर में ही रहती हैं। हाँ, भैयादूज आ गई, राखी आ गई तो थोड़ा बाहर जाकर राखी बाँध आईं, इतना ही होता है। पश्चिम की तरह तो है नहीं भारत, कि जब चाहो तब ख़ुशी मना लो, प्रफुल्ल हो लो, उत्सव मना लो, हँस-गा लो, कहीं नाच आओ। तो स्त्रियों को खासतौर पर विवाह उत्सव की बड़ी आकांक्षा रहती है। चार-पाँच दिन ख़ूब  सजेंगे और जो समाज स्त्रियों का आमतौर पर शोषण करता है, दमन करता है, उत्पीड़न करता है, विवाह के पाँच दिनों में स्त्रियों को छूट दे देता है। तुमने देखा है न? वो स्त्रियों के जीवन के कुछ ऐसे दिन होते हैं जिन दिनों उन्हें पूरी छूट मिल जाती है, वो गाली भी गा देती हैं। विवाह में गाली गा सकती हैं। किसी को भी गाली गा देंगी, दे दी गाली। सड़क पर दे सकती हैं गाली? नहीं। मैं मेट्रो शहरों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं छोटे शहरों, सामान्य शहरों, कस्बों-गाँवो की बात कर रहा हूँ।

तो स्त्रियों को बड़ा आकर्षण रहता है—सजेंगे, हीही-हीही करेंगें, गहने पहनेंगे, अच्छी-अच्छी साड़ियाँ डालेंगे, श्रृंगार करेंगे। तुम्हें इन सब बातों की चाहत हो तो कर लो विवाह। पाँच दिन को ही सही, घर में उत्सव उतरा। बड़ी धूम मची। लेकिन अगर ये कह रहे हो कि इससे अकेलापन मिट जाएगा, तो वो तो नहीं मिटने का।हाँ, शादी का वीडियो बन जाएगा और अब तो वो होता है न, वोप्री-वेडिंग शूट। ऊपर वो खिलौना कैमरा लेके घूमता है, और नीचे कहा जाता है कि, “चलो, अब तुम शाहरुख खान हो, तुम काजोल हो। जितनी हसरतें हैं, निकाल लो अभी सब।” वो सब हो जाएगा। एक दिन के लिए ही सही, हीरो-हीरोइन तो बन गए न। हमारा भी एल्बम बना, हमारी भी पिक्चर बनी।

तुम्हारे भीतर जितनी हीन भावना होगी, उतना तुम चाहोगे कि एक दिन के लिए ही सही, हम भी राजा-रानी बन जाएँ। विवाह के दिन हर लड़का, चाहे वो कैसा भी हो, घोड़ी पर तो चढ़ लेता है न? नहीं तो ऐसे तो टट्टू भी उसको अनुमति न दे। टट्टू भी बोलेगा, “मैं तुझपर चढ़ूँ, वो ज़्यादा शोभा देगा, औक़ात देख किसकी ऊपर है!” पर विवाह के दिन एक-से-एक मूर्खानन्द घोड़ी चढ़ने को पा जाते हैं। तो अगर घोड़ी चढ़ने के तुम्हारे अरमान हैं, तो कर लो विवाह। लेकिन ये मत कहना कि उससे अकेलापन दूर हो जाएगा।

और विवाह के दिन कैसी भी लड़की हो, एक दिन के लिए राजकुमारी बन जाती है। बन जाती है न? एक रात की राजकुमारी। और बड़ा अरमान रहता है कि वहाँ सिंहासन पर बैठेंगे। लोग आएँगे ऐसे (हाथ से भेंट देने का इशारा करते हुए) भेंट अर्पित करेंगे, बड़ा अच्छा लगता है। बिल्कुल तर जाते हैं, एकदम गीले। है न? अनुभवी लोग हुंकारा भरते चलें!

(श्रोतागण हँसते हुए)

मुझे भी वरना बड़ा अकेलापन लगता है। और फिर दहेज में मिले स्कूटर पर नई-नई पत्नी को बैठाकर के कस्बे में शोभायात्रा निकालने का गौरव ही दूसरा है। झाँकी निकली है भाई, पूरा शहर देखता है। हर कोण से झाँक-झाँककर देखता है; बड़ा गौरव प्रतीत होता है। और फिर साधारण से साधारण स्त्री भी जब माँ बन जाती है तो यकायक वो सम्मान की पात्र हो जाती है, देखा है?

तो बड़ी प्रेरणा उठती है कि करो ये सब। कर लो ये सब, सम्मान मिल जाएगा। मैं नहीं मना कर रहा। ठीक! सम्मान ही चाहिए, ये सब करके तो मिल जाएगा, पर अकेलापन तो नहीं दूर होगा। वो अकेलापन तो तुम्हें भीतर-भीतर खाता ही रहेगा, बींधता ही रहेगा। मर भी जाओगे, तो भी वो अकेलापन नहीं मिटेगा।

इतनी सस्ती चीज़ नहीं है साधना की आग, कि फेरे लेकर के पूरी हो जाए। उस आग में अपनी आहुति देनी पड़ती है। फेरे लेने भर से काम नहीं चलेगा। यज्ञशाला में ख़ुद को ही समिधा बना देना होता है।

बाकी सब ठीक है। नाश्ता वगैरह सुबह अच्छा मिलेगा, टिफिन पैक हो जाया करेगा। नहीं तो बेचारे कुँवारों का तो यही रहता है, दस रुपए के अमृतसरी छोले-कुलचे। रूखे लग रहे हों तो, दस रुपए का बूंदी रायता भी मिलेगा साथ में। वह बेचारे इसी पर पलते हैं। बीवी आ जाती है तो तर माल, मिल्टन के टिफिन में पैक होकर मिलता है; वही टिफिन जो दहेज में लाई होती है साथ में। कभी दहेज का सामान देख लेना, उसमें टिफिन ज़रूर होगा। बढ़िया सेहत बनती है। तोंद निकल आती है, नई पैंट खरीदनी पड़ती है। चमक आ जाती है पैंट में, नई है भाई!

जितने बेचारे यहाँ छड़े बैठे हैं वो भावुक हो रहे हैं। कह रहे हैं, “अगर इतने लाभ हैं तो आचार्य जी पहले क्यों नहीं बताया?” लाभ ही लाभ हैं।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles