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कहीं कोई अकेला, और उसकी अकेली लड़ाई || आचार्य प्रशांत, जे. कृष्णमूर्ति पर (2023)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: बार-बार कृष्णमूर्ति साहब ये कहते हैं कि कोई गुरु की आवश्यकता नहीं है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, क्योंकि सब अपना ही है, ज़िम्मेदारी सारी अपनी है, तो बाहर वाले का फिर नाम भी लेने की तकलीफ़ क्यों करनी है। और जो गुरु है वह सर्वप्रथम आंतरिक है। मैं कह रहा हूँ, 'सर्वप्रथम आंतरिक है', कृष्णमूर्ति कह रहे हैं, 'मात्र आंतरिक है।' ठीक है? एकदम शुद्धतम बात उन्हीं की है, वो स्वीकार करिए। वो ठीक है, क्योंकि अगर अन्दर वाला सुनने को राज़ी हो गया तो दीवारें भी बोलती हैं, फिर पत्थर भी सिखाते हैं, फिर चिड़ियों का गीत भी गीता हो जाता है। तो बात तो अपनी रज़ामंदी की है, अपनी परिपक्वता कितनी है। उसके बाद सबकुछ सिखाने-ही-सिखाने लग जाएगा। फिर क्या हम किसी विशिष्ट सज्जन या विशिष्ट गुरु की तलाश करेंगे!

प्र: कृष्णमूर्ति साहब कहते हैं, “न तो ग्रन्थों की ज़रूरत है और न बाहर वाले गुरु की ज़रूरत है”, तो वो क्या चीज़ है?

आचार्य: वो चाह रहे हैं सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लें आप। देखिए, वो जो कर रहे हैं वो काम थोड़ा मनोवैज्ञानिक है और वो करना ज़रूरी भी होता है। वो ये कह रहे हैं कि अगर थोड़ा भी यह कह दिया न कि बाहर वाला तुम्हारे काम आ जाएगा तो तुम जाकर उसकी पीठ पर चढ़ जाते हो। और पीठ पर चढ़ने में भी कोई बुराई नहीं थी अगर वो तुम्हें अपनी पीठ पर लादकर के अमरपुर पहुँचा सकता तो। कोई तुम्हें पीठ पर लादकर अमरपुर नहीं पहुँचा सकता। होगा बाहर वाला बहुत यशस्वी, जैसे साक्षात् कृष्ण खड़े हों, पर कृष्ण भी अर्जुन को अधिक-से-अधिक क्या कर पा रहे हैं?

प्र: बोल ही रहे हैं।

आचार्य: बोल ही पा रहे हैं। वो अब नहीं सुनने को राज़ी है। एक श्लोक में भी तो काम हो सकता था, पर सात-सौ श्लोकों तक मामला खिंच रहा है। और हम जानते हैं, हमको ग्रन्थ बताते हैं कि उसके बाद भी अर्जुन को पूरी बात समझ नहीं आयी थी।

तो कृष्णमूर्ति कह रहे हैं, ‘एक बात बताओ भाई, जब ले-देकर के सारा मामला अपनी ही तैयारी का है तो हम बाहर वाले को बरख़ास्त क्यों न कर दें?’ वो ये कह रहे हैं। और बड़ा मुश्किल होगा ये कहना कि कृष्णमूर्ति ग़लत कह रहे हैं क्योंकि उनकी बात को जैसे ही आपने ग़लत बोला, काम गैर-ज़िम्मेदारी का शुरू हो जाता है। उनकी बात को ग़लत बोलने का परिणाम क्या होगा, ये देखिए न। वो ये कह रहे हैं कि ग्रन्थ से भी बात नहीं बननी है, गुरु से भी बात नहीं बननी है। ठीक है? और वो बात जो कह रहे हैं, उन्होंने कोई पहली बार तो नहीं कही। "पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ ना कोय।" ये बात तो कब की बोली जा चुकी है, कि ग्रन्थों से बात बनती नहीं है। इतने घूम रहे हैं पंडित, ये पोथियों में ही पच मरे हैं; इनको क्या मिल गया!

तो वही बात कृष्णमूर्ति कह रहे हैं कि देखो तुमको समझना तो ख़ुद ही है, जानना भी ख़ुद ही है। ये भाव कि कोई बाहर वाला चाहे वो शरीर रूप में या ग्रन्थ रूप में आकर के कुछ कर जाएगा, ऐसा होगा नहीं। ज़िन्दगी की लड़ाई दूसरों के कंधे पर चढ़कर नहीं लड़ी जाती, भले ही वो कंधा स्वयं श्रीकृष्ण का क्यों न हो। वो भी अर्जुन को अपने ऊपर बैठा के नहीं जिता पाएँगे महाभारत। तो कृष्णमूर्ति उसी बात को एकदम एक्स्ट्रीम (अंतिम सिरा) तक ले जाते हैं। वो कहते हैं, 'फिर करना क्या है, फिर ख़ुद ही क्यों नहीं ध्यान लगाते? जीवन को स्वयं ही क्यों नहीं देखते?'

मैं उसमें उनसे थोड़ी सी भिन्न बात कहा करता हूँ, जो भिन्न है नहीं वास्तव में। मैं कहता हूँ, जैसे मुझे समस्त जीवन का अवलोकन करना है, मैं वैसे ही भगवद्गीता का भी करूँगा। मैं कहता हूँ, जगत को तो मुझे उसकी पूर्णता में जानना है न, तो जब मैं एक बिजली के तार पर बैठी हुई चिड़िया को निष्पक्ष भाव से निहार सकता हूँ तो गीता ने मेरा क्या बिगाड़ा है कि मैं गीता को उसी भाव से नहीं पढ़ सकता। जब पूरे जगत से ही मुझे सीखना है तो मैं ये नहीं कह रहा कि मैं गीता के अलावा किसी और से नहीं सीखूँगा, पर मैं ये भी क्यों कह दूँ कि मैं सबसे, औरों से सीखूँगा, बस गीता से नहीं सीखूँगा! जैसे मुझे सबसे सीखना है वैसे मुझे श्रीकृष्ण से भी सीखना है, मैं ये कहता हूँ।

तो एक अति हो गयी जब आप कहते हो कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार। ये एक अति है। समझ रहे हैं? ये अति पूरी गैर-ज़िम्मेदारी की है, कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, वो आकर के तुम्हें तार देंगे। दूसरी अति वो है जो कृष्णमूर्ति कहा करते हैं। कृष्णमूर्ति कहते हैं, 'सबकुछ स्वयं तुम्हें ही करना है।' और मैं इससे सहमत भी हूँ।

तो मैं उसी बात को थोड़ा और विस्तार में बोलता हूँ। मैं बोलता हूँ, जब तुम्हें ही स्वयं अपना काम करना है और सीखना तुमको जगत से ही है, तो जगत में तो गीता भी आती है न, जगत में तो गीता भी आती है। मैं जा रहा हूँ एक राह पर और उस राह में अगर मदिरालय पड़ रहा है तो मैं उसको तो देख लूँ और समझ लूँ कि यहाँ क्या चल रहा है और मदिरालय के आगे देवालय पड़ रहा है तो उसको न देखूँ-समझूँ, ये कौनसा तर्क हुआ? तो मैं सबसे सुनूँगा, सबसे समझूँगा। और जैसे मैं सबसे समझता हूँ वैसे मैं साहब से भी समझ लेता हूँ, वैसे ही मैं सबसे समझ लेता हूँ। दूसरों को मैंने वर्जित नहीं कर दिया है, जो भी सिखाने आएगा, हम तो उसके आगे झुक जाएँगे।

कृष्णमूर्ति जिन दशकों में बोल रहे थे, पचास के दशक से लेकर अस्सी के दशक तक, सोचिए भारत में वो दशक कैसे थे। लोग क्या कर रहे थे? पाखंड है, अंधविश्वास है, रूढ़िवादिता है, किसी को कुछ समझना नहीं है। सबको बस जाकर के जय भगवान जी की, जय भगवान जी की करना है। और उसमें सब ये पंडित-पुरोहित जो हैं वो मेवा छान रहे हैं। ये सब चल रहा था। तो चूँकि ये जो पूरा दुर्व्यवहार था, ये एक अति पर था, तो इसको काटने के लिए कृष्णमूर्ति बिलकुल दूसरी अति की बात करते हैं। किसी भी महापुरुष की बात को उसके काल के संदर्भ में ही समझा जा सकता है न।

वो जो कह रहे हैं, वो समझिए किसलिए कह रहे हैं। वो भारत को देख रहे हैं, पूरे विश्व को भी देख रहे हैं। अभी आजकल लड़ाइयाँ कम हो रही हैं, जैसे रूस-यूक्रेन की हो गयी। नहीं तो इस शताब्दी में बड़ी लड़ाइयाँ कम ही हुई हैं। पर आप पचास के दशक से लेकर अस्सी के दशक देखें, और कृष्णमूर्ति के सामने तो विश्वयुद्ध भी हुआ था दूसरा। तो उस समय पर कोरिया-वियतनाम, क्यूबन क्राइसिस , ये सब उनके सामने चल रहा था, और ये लम्बी लड़ाइयाँ थीं। ठीक है? तो वो देख रहे हैं कि वार (युद्ध) किस वजह से हो रहा है, वो देख रहे हैं कि जगत में पाखंड कितना है।

भारत की ओर देख रहे हैं, ग़रीबी कितनी है, जाहिलियत कितनी है, अशिक्षा कितनी है। उसके बाद भी उल्टी-पुल्टी धार्मिकता में लोग समय लगाते हैं, पैसा लगाते हैं, बेवकूफ़ बनते हैं। तो उनको ये बोलना पड़ा कि "आइ कम्प्लीटली रिजेक्ट ऑल अथॉरिटी, ऑल गुरुज़, ऑल स्क्रिप्चर्स; विच इज समथिंग दैट वन हैज़ टू एग्री विद" (मैं सभी प्राधिकारियों को, सभी गुरुओं और ग्रन्थों को पूरी तरह से अस्वीकार करता हूँ, जिससे किसी को सहमत होना पड़ता है) । बिलकुल ठीक बात बोली उन्होंने।

प्र: एक चीज़ ‌और है, जैसा कि आपने अभी-अभी कहा, जब थियोसॉफी वालों ने उनको कहा कि आप आइए वर्ल्ड टीचर (विश्व गुरु) बनिए तो उन्होंने वो अस्वीकार कर दिया, कि "ट्रुथ इज़ द पाथलेस लैंड"। लेकिन उससे पहले ये है कि लीड विटर, एनी बेसेंट ने काफ़ी उनको साहित्यिक ग्रन्थ पढ़वाए।

आचार्य: हाँ, मेहनत करी थी।

प्र: लेकिन कृष्णमूर्ति साहब उसको भी अस्वीकार कर देते हैं, कि मैंने कुछ नहीं पढ़ा।

आचार्य: नहीं, वो संकेत दे रहे हैं। वो कह रहे हैं, मैं जो अब हो गया हूँ, मैं हूँ मौलिक। तो जो दूसरा 'मैं' था उसने पढ़ा होगा, इस 'मैं' ने नहीं पढ़ा है (हँसते हुए)। कृष्णमूर्ति साहब की लगभग पहली किताब थी, उसका आप जानते हैं क्या शीर्षक है? 'एट द फीट ऑफ द मास्टर' (मालिक के चरणों में)। वो कह रहे हैं कि मैं किसी गुरु में विश्वास नहीं रखता, और उनकी अपनी किताब का ही शीर्षक है 'एट द फीट ऑफ द मास्टर'। छोटी सी, पतली सी किताब है। लेकिन उसमें उन्होंने अपना नाम कृष्णमूर्ति नहीं रखा है। आप देखेंगे कि इसका औथर (लेखक) कौन है, तो उसमें उन्होंने अपना नाम रखा है 'अल्सियोनी'।

तो उनका ये कहना था कि वो कोई और था जिसने सीखा और चूँकि उसने पूरा सीख लिया इसलिए अब मैं कोई और हूँ। ऐसे वो कह रहे हैं।

प्र: तो अहम् बदल गया। जिसने सीखा था वो अहम् दूसरा था।

आचार्य: जिसने सीखा था वो अहम् था, मैं आत्मा हूँ। और आत्मा किससे सीखेगी? आत्मा तो किसी से नहीं सीखती न। तो इसीलिए मैंने किसी से नहीं सीखा। वो ये कह रहे हैं। कह रहे हैं,‌ जिसने सीखा था वो कोई और था। वो तो गया, सीखने के कारण ही वो विलुप्त हो गया। तो अब मैं तो कोई और हूँ न। तो मैंने कुछ नहीं पढ़ा, मैंने किसी से नहीं सीखा। मैं बिलकुल अपनी नयी, ओरिजनल (मौलिक) बात बोल रहा हूँ। ये बात भी ठीक है, कैसे कहें कि ठीक नहीं है, बिलकुल ठीक है।

प्र: लेकिन मैं अपने अनुभव से कहना चाह रहा हूँ, जैसे मैं काफ़ी मैं पढ़ता था, चाह भी थी कि कुछ सीख जाएँ, लेकिन वो स्पष्टता नहीं मिली जो आपके सानिध्य में मिली। तो वो वाली बात कि बाहर से हेल्प (मदद) नहीं आएगी, इसको थोड़ा स्पष्ट कीजिए।

आचार्य: आप बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बने रहे हैं। मेरा श्रेय कम है, आपका ज़्यादा है। ठीक है? तो मैं कुछ नहीं कर सकता, मैं बहुत छोटी चीज़ हूँ। इतने लोग हैं जिन तक मेरी बात पहुँचती है, उसमें राई बराबर किसी को लाभ होता होगा। आपको अगर लाभ हुआ है तो श्रेय, क्रेडिट आपको जाता है, मुझे बहुत कम। और आप भलीभाँति जानते हैं कि आपके लिए भी आसान नहीं था। और जैसी स्थितियाँ आपने देखी हैं वैसी स्थितियाँ कोई और व्यक्ति देखता तो उसके लिए बहुत आसान था पीछे चले जाना कि हालात ठीक नहीं हैं, मैं हट रहा हूँ।

तो जो भी कोई जानेगा-सीखेगा, ज़िम्मेदारी भी उसकी है और श्रेय भी उसी को है।

आपको पता है, अभी कोई दस-एक दिन हुए होंगे, इन्होंने (संस्था के सदस्यों ने) डेटा निकाला है कि पिछले नब्बे दिनों में ही साढ़े छः करोड़ लोगों ने यूट्यूब मात्र पर वीडियो देखे हैं हमारे, युनीक व्यूअर्स हैं। ये युनीक व्यूज़ नहीं हैं, व्यूअर्स हैं। सिर्फ़ पिछले तीन महीने में साढ़े छः करोड़ अलग-अलग लोगों ने वीडियो देखे हैं, उसमें से लाभ कितनों का हो गया? और ये सिर्फ़ तीन महीने का है, तो सालभर का कितना होगा सोच लीजिए। साढ़े-छः-करोड़ में से लाभ कितनों को हो गया?

जिसको लाभ हुआ है पूरा-पूरा क्रेडिट उसको ही जाता है। एक माली साढ़े-छः-करोड़ बीज बिखेर दे और उसमें से दस-पन्द्रह में फूल आ जाएँ, तो श्रेय माली को जाएगा? मैंने तो साढ़े-छः-करोड़ बीज बिखेरे थे, उसमें से कहीं दस-पन्द्रह में फूल आ गये तो मेरी क्या ख़ासियत है उसमें, है कुछ? बीज भी बहुत पुराना है, माली भी बहुत पुराना है। ख़ासियत तो उन फूलों की है जिन्होंने कहा हमें खिलना है।

प्र२: नमस्कार सर। जे कृष्णामूर्ति जी को पढ़ रहा था मैं। उनका बहुत एम्फेसिस (ज़ोर) 'वाट इज़' ('जो है') पर है। और दूसरी चीज़ है मोमेंट-टू-मोमेंट (पल-प्रतिपल) जीना ही इसेंस (सार) है और फ़ाइनल थिंग (अंतिम चीज़ है) है, व्हिच इज बियोंड हैबिट, बियोंड डिज़ायर, बियोंड एवरीथिंग (जो कि आदतों के, इच्छाओं के और हर चीज़ के परे है)। एफ़र्टलेस एंड मोमेंट-टू-मोमेंट लिविंग विद अ पैसिव साइलेंस एंड सो ऑन (एक अक्रिय मौन के साथ और बिना श्रम के पल-प्रतिपल जीना, इत्यादि)।

उन्होंने यह भी बोला है, जो मैं समझा हूँ, कि आपको उसके लिए एफ़र्ट (श्रम) भी नहीं करना है, दैट इज़ एफ़र्टलेस पोज़ीशन।

तो यह वाट इज़ और मोमेंट-टू-मोमेंट लिविंग ये क्या होता है?

आचार्य: अब मोमेंट-टू-मोमेंट का अर्थ अगर टाइम है तो ये तो आपको कोई नहीं सिखाएगा न कि जा करके प्रकृति में जीने लगो, क्योंकि टाइम तो प्रकृति है। तो जब कहा जा रहा है कि मोमेंट-टू-मोमेंट जियो तो इतना ही कहा जा रहा है कि आत्मा में जियो। इसीलिए वहाँ पर आवर-टू-आवर (घंटा-दर-घंटा) नहीं बोल रहे हैं, मोमेंट-टू-मोमेंट बोल रहे हैं।

मोमेंट का मतलब हो गया टाइम को इतना, इतना, इतना छोटा काट दिया कि जैसे शून्य। तो काल शून्यता माने आत्मा। लिविंग मोमेंट टू मोमेंट डज़ नॉट मीन लिविंग इन द प्रेजेंट इंस्टेंस ऑफ टाइम (तो पल-प्रति-पल जीने का अर्थ यह नहीं है कि समय के वर्तमान क्षण में जीना)। इसका मतलब होता है टाइम से बाहर जीना, आत्मा में जीना। आत्मा में जियें और बाक़ी जो अपना चल रहा है चले। और उसके साथ वो सारे सब फिर अपनेआप आ जाएँगे, डिज़ायरलेसनेस, एफ़र्टलेसनेस (कामनारहित, श्रमरहित)।

आत्मा में ही जीना तो सेंट्रल डिज़ायर (केंद्रीय इच्छा) होती है। जो आत्मा में जी रहा है उसके पास फिर वो सेंट्रल डिज़ायर वाली वैकेंसी (खाली जगह) नहीं बचती है। और आत्मा में ही जीने के लिए फंडामेंटल एफ़र्ट (मौलिक श्रम) होता है। वहाँ पर आप जी रहे हो तो फिर वो जो फंडामेंटल श्रम होता है वो नहीं बचता।

फिर श्रम की जगह क्या आ जाता है? क्रीड़ा आ जाती है, लेबरिंग की जगह प्लेइंग। फिर आप जो पूरी स्ट्रीम ऑफ टाइम (समय की धारा) है उसमें आप एक प्लेयर (खिलाड़ी) बन जाते हो, एक एफ़र्टलेस, परपज़लेस प्ले , लीला। तो लिविंग मोमेंट-टू-मोमेंट से और कोई आशय नहीं लिया जाना चाहिए। लिविंग मोमेंट-टू-मोमेंट का मतलब बस यही है — आत्मस्थ जीना।

प्र२: सर, पर इसमें जो आत्मस्थ जीने का एक कांसेप्ट (अवधारणा) या जो भी चीज़ है जैसे एफ़र्टलेस जीना, जिसमें कोई एक्शन (कर्म) करने की ज़रूरत नहीं होती है, अपनेआप स्वतः हो जाती हैं चीज़ें। वो चीज़ तो समझ में आ रही है। पर वहाँ तक तो मैं पहुँचा नहीं हूँ। तो आज की तारीख में क्या करूँ, क्योंकि उसमें एक थॉट प्रोसेस (विचार की प्रक्रिया) के प्रति एक स्ट्रगल (संघर्ष) सा चलता रहता है। तो वो समझ में नहीं आता कि किस तरीक़े से आगे बढ़ें। अब कभी-कभी लगता है कि उस पोज़ीशन (स्थिति) को अचीव (प्राप्त) करना है, आत्मस्थ स्थिति को, आत्मा की स्थिति को अचीव करना है। तो वो भी एक तरीक़े से एक बाधा सी हो जाती है। ऐसा आप भी बोलते हैं और कृष्णमूर्ति भी बोलते हैं। तो एक बिना उद्देश्य के चलना बड़ा कठिन सा हो जाता है।

आचार्य: आप व्यापार में हैं, आप लेन-देन करते हैं, उसके बाद आप क्यों पूछ रहे हैं कि क्या करूँ? करते तो हैं दिनभर।

प्र२: जी करते हैं।

आचार्य: दिनभर करते हैं। उसमें आप जो भी करते हैं, बजरिया में, उस बजरिया में आप जो कर रहे हैं वो बजरिया बनाये रखने के लिए होता है या अगर उस बजरिया से आपको कोई दुख-तकलीफ़ है, उससे मुक्ति के लिए होता है?

प्र२: मेरे ख़याल से बजरिया को बनाये रखने के लिए ही होता है और उसका विकास करने के लिए होता है।

आचार्य: तो फिर इसमें यह पूछने की क्या सम्भावना बची कि मैं क्या करूँ? आप दिनभर तो कर रहे हो।

प्र२: नहीं समझा, सर।

आचार्य: दिनभर करे ही तो जा रहे हैं और बाज़ार को बनाये रखने के लिए ही करे जा रहे हैं। तो बाज़ार में कुछ सुख मिल रहा होगा। इतने सारे काम जो हम दिनभर करते हैं उन सब कामों पर कोई कसौटी, क्राइटीरिया, फ़िल्टर कुछ हम लगाते हैं कि ये जो काम है ये क्या है? ये "कबीरा सो धन संचिए, जो आगे को होय", आगे को होने वाला है ये धन? कभी पूछते हैं कि ये क्या है, मैं क्यों कर रहा हूँ?

देखिए, मूल वृत्ति जो करवा रही है वो करते-करते सम्भव नहीं है उससे बाहर आना। साइकिल चलाते-चलाते साइकिल से नहीं उतर पाएँगे, बहुत चोट लगेगी। और साइकिल चल रही है आप ही के श्रम से, दिनभर पैडल मारते हैं। दिनभर पैडल मारते हैं, फिर पूछते हैं उतरूँ कैसे। पैडल मारना बन्द कहाँ करा अभी?

प्र२: नहीं किया।

आचार्य: और पैडल भी मार रहे हैं वही पुरानी साइकिल की, वही पुरानी दिशा में। मैं कह भी दूँ उतर जाइए तो आपको चोट लग जाएगी। पहले या तो दिशा बदलिए या पैडल मारने में थोड़ा कम श्रम लगाइए, कुछ तो बदलिए।

अब ऐसा है कि साइकिल चला रहे हैं और चलाते-चलाते कान में ईयरफोन लगाकर कृष्णमूर्ति की ई-बुक भी सुन रहे हैं। कान में ईयरफोन लगा है, कृष्णमूर्ति को सुना जा रहा है और पैडल भी पूरी ताक़त से मारे जा रहे हैं नीचे, वही साइकिल, वही रोड, वही दिशा। तो कानों में कृष्णमूर्ति को सुनने से कैसे होगा लाभ?

कुछ बदलिए तो। कहीं कुछ हो कि पहले ये था, अब नहीं है। दिशा बदल गयी है, दशा बदल रही है, चैतन्य चुनाव कर रहा हूँ कि ये चीज़ ऐसी नहीं होगी, ऐसी होगी। फ़लानी चीज़ यहाँ से अब नहीं आएगी, फ़लानी चीज़ वहाँ को जाएगी। वो सब चीज़ें बदलनी पड़ेंगी न।

इंटेलेक्चुअल कॉम्प्रिहेंशन (बौद्धिक समझ), वो बिलकुल ऐसे समझ लीजिए कि साइकिल चल रही है और कान में कृष्णमूर्ति चल रहे हैं।

प्र२: सर, पर उसमें जैसे अर्जुन के सामने तो महाभारत थी और श्रीकृष्ण जी का भी वो सब्जेक्ट मैटर (विषय वस्तु) था। और जो महाभारत मेरी चल रही है, जो व्यापार और बाज़ार चल रहा है, तो मुझे और कोई महाभारत दिखता ही नहीं है।

आचार्य: श्रीकृष्ण के पास भी कोई अपनी व्यक्तिगत महाभारत नहीं थी, न अर्जुन के पास थी। अर्जुन तो तैयार बैठे थे, अर्जुन की भी उम्र हो गयी थी काफ़ी, कम-से-कम पैंतालीस-पचास के रहे होंगे। बोले, ‘मैं जा रहा हूँ अपना जंगल में बैठ जाऊँगा आराम से।‘ अर्जुन कोई लोभी आदमी थोड़ी है कि अरे! मुझे राज्य नहीं मिला, सोना नहीं मिला। और कृष्ण की तो एकदम ही नहीं थी, वो अपना द्वारिका निकल जाते, उनको क्या लेना-देना था, वहाँ मैदान में खड़े हुए थे।

अर्जुन लड़ रहे हैं क्योंकि दुर्योधन के हाथ में सत्ता रहेगी तो देश तबाह हो जाएगा और कृष्ण भी इसीलिए गीता सुना रहे हैं। अपने व्यक्तिगत हित के लिए तो वैसे भी आज तक कोई बड़ी लड़ाई लड़ी ही नहीं गयी। व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए तो जो लड़ाई लड़ी जाए वो ख़ुद ही छोटी और टुच्ची हो जाती है। तो अर्जुन को दिख रहा है और कृष्ण को दिख रहा है कि एक बहुत बड़ी चुनौती देश के, विश्व के सामने है, उसको स्वीकार करो।

आपको क्या सामान्य ज्ञान के चलते भी कहीं कोई बड़ी चुनौती नहीं दिख रही, जेनरल नॉलेज (सामान्य ज्ञान) से भी?

प्र२: सर, बहुत सारी दिखती हैं पर उसमें शायद जाने का साहस नहीं होता।

आचार्य: साहस की बात नहीं, स्वार्थ की बात है, प्रेम की बात है। फिर क्या करे कोई? कितने ही राजा लोग रहे होंगे जिन्होंने अर्जुन का साथ देने से मना कर दिया। वो भी अपना मगन थे। ये तो एक प्रेम की और ज़िम्मेदारी की बात है न कि अगर महाभारत छिड़ी हुई है तो कृष्ण खड़े हैं, अर्जुन खड़े हैं, हम भी अपना पूरा लाव-लश्कर सेना लेकर के आ गये कि हाँ, हम भी साथ में खड़े हैं। हमारे पास जो कुछ भी है, सब संसाधन खड़े कर दिये हैं, आपके साथ हम हैं।

ये तो अपनी प्रेम और ज़िम्मेदारी की बात है। नहीं तो कौनसा ऐसा हुआ था कि भारतवर्ष का एक-एक राजा ही आ गया था अर्जुन को समर्थन देने। अर्जुन को जितना समर्थन देने आये थे उससे ज़्यादा तो दुर्योधन के साथ खड़े थे। और बहुत ऐसे थे जो न दुर्योधन के साथ थे, न इनके साथ थे, वो अपने मगन थे। बोले, ‘हम अपना काम देख रहे हैं, हमें कोई लेना-देना नहीं।‘ तो ये कैसे विकसित की जाए, ज़िम्मेदारी की भावना कहाँ से लायी जाए कि यह आपकी ज़िम्मेदारी है? वो पहली चीज़ होती है, नीयत।

कुछ बहुत महत्वपूर्ण है जो दाँव पर लगा हुआ है। मैं निरपेक्ष होकर कैसे बैठ सकता हूँ? कुछ है जो मुझसे मेरी पूरी आहुति, मेरा समर्पण, मेरे संसाधन माँग रहा है, मैं ख़ुद को बचाये-बचाये कैसे बैठ सकता हूँ? और ऐसा नहीं कि मुझे नहीं पता कि वो मुद्दा इतना संगीन है। मैं जानता हूँ, सामान्य ज्ञान की बात है, मुझे पता है। तो फिर मैं हाशिये पर कैसे बैठा हुआ हूँ? मैं अभी तक कूदा कैसे नहीं?

आनन्द तो जूझने पर ही आएगा। जूझे बिना समझा कुछ नहीं जा सकता। जो आप लर्न (सीखना) करना चाहते हैं न आपको उसको अर्न (कमाना) करना पड़ेगा। बहुत लोग होते हैं, कहते हैं, 'आइ एम इंट्रस्टेड इन लर्निंग' (मैं सीखने में रुचि रखता हूँ)। बट हाउ, विदाउट अर्निंग? (लेकिन कैसे, बिना कमाये?) उसे कमाना पड़ता है, ज्ञान कमाना पड़ता है। और उसमें मूल्य चुकाना पड़ता है जीवन का अपने। लर्निंग विदाउट अर्निंग (कमाये बिना सीखना) सम्भव नहीं है।

कृष्णमूर्ति की किताब खोलकर के आप नहीं समझ पाएँगे कि वो क्या कह रहे हैं। उसके लिए वो सब कुर्बानियाँ भी देनी पड़ेंगी जो उन्होंने अपने जीवन में दी थीं।

वो आपको सिखा रहे हैं धारा के विरुद्ध तैरना। जिसका हमने कभी चुनाव ही नहीं करा, जैसे एक तैराक आपको कैसे अपने शब्दों से बता पाएगा कि धारा के ख़िलाफ़ तैरना क्या चीज़ होती है, कैसे बता पाएगा, बता सकता है क्या? तो हम वहाँ किनारे पर बैठे हुए हैं और वो बता रहे हैं कि धारा के ख़िलाफ़ ऐसे तैरा जाता है और ऐसा-ऐसा होता है, हमें क्या समझ में आएगा! आपको भी कूदना पड़ेगा न। निरपेक्षता या साक्षी का यह मतलब क़तई नहीं होता।

मैंने कविता लिखी थी और बड़ी खूबसूरत कविता थी। मेरा एक सीनियर था, वो कहता था मैं कृष्णभक्त हूँ। उस समय भी आइआइटी में आ जाते थे, वो वहाँ कृष्णभक्त बन जाते थे। तो वो बोलता था, 'जो हो रहा है सब ठीक ही चल रहा है, आज तक जो हुआ सब ठीक था। आज भी सब ठीक हो रहा है।' मेरे नहीं समझ में आया था तब भी। तो यह एक कविता है:

"दिये का हवाओं से जूझना प्रेरणास्पद लगा, मुझे भी, तुम्हें भी"

ठीक है, हमारे सामने एक दिया है, दिया हवाओं से जूझ रहा है और हम कह रहे हैं ये कितनी प्रेरणास्पद बात है, कितनी मोटीवेटिंग बात है।

"दिये का हवाओं से जूझना प्रेरणास्पद लगा, मुझे भी, तुम्हें भी चींटी का अथक परिश्रम मन भाया, मेरे भी, तुम्हारे भी"

तो दिया हवाओं से जूझ रहा है, चींटी एक, जो भी है उसके पास बोझ, उसको लेकर चढ़ने की कोशिश कर रही है।

"तिनके का डूबते को सहारा देना हौसला बँधा गया, मेरा भी, तुम्हारा भी"

एक तिनका है पर वो डूबते को सहारा देने का प्रयास कर रहा है। ये बात हमें बड़ी अच्छी लगी, हौसला-अफ़ज़ाई हुई।

"इतिहास के पन्नों पर छपी संघर्षों की गौरवशाली गाथाएँ पिघला गयीं, मुझे भी, तुम्हें भी"

बड़ा अच्छा लगा इतिहास में देखा ऐसा हुआ था और क्या संघर्ष किया, क्या जान लगा करके लड़ाई करी। फिर आगे सुनिएगा,

"पर, जब हम दिये के जीवट की प्रशंसा कर रहे थे, चींटी को देखकर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे, तिनके के प्रति आभार प्रकट कर रहे थे, इतिहास पुरुषों के समक्ष सिर झुका रहे थे, ठीक उसी वक़्त, कहीं कोई दिया दम तोड़ रहा था, चींटी हज़ारवीं बार ज़मीन पर गिर रही थी, तिनका स्वयं भी डूब चुका था और, कहीं कोई अकेला अपनी अकेली लड़ाई हार रहा था।"

~ आचार्य प्रशांत (मई ४, १९९७, आयु: १९ वर्ष)

हम कविता लिख रहे थे। अगर दिख रहा है कि दुनिया में क्या चल रहा है, कहीं कोई दिया दिख रहा है, कहीं कोई चींटी दिख रही है, कहीं कोई तिनका दिख रहा है, तो आप वहाँ कोने में बैठकर के कान में ईयरफोन लगाकर क्या सुन रहे हैं? आइए, कूदिए, उतरिए, साथ दीजिए। सन् सत्तानबे की है यह, बताइए पच्चीस साल बीत गये, कुछ बदला नहीं।

प्र२: जी आचार्य जी, नीयत की ही बात है। नीयत पर काम करना होगा मुझे। पार्ट टाइम (अंशकालिक) की तरह से नहीं लेकर के मुख्य तरीक़े से लेना है।

धन्यवाद!

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